बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल - 32


असीमा भट्ट की कविताएँ



दीदारगंज की यक्षिणी 

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 1. 

दीदारगंज की यक्षिणी की तरह तुम्हारा वक्ष

उन्नत और सुन्दर 

मेरे लिये वह स्थान जहांं सर रख कर सुस्ताने भर से 

मिलती है जीवन संग्राम के लिए नयी ऊर्जा 

हर समस्या का समाधान ....

तुम्हारे वक्ष पर जब-जब सर रख कर सोया 

ऐसा महसूस हुआ लेटा हो मासूम बच्चा जैसे मां की गोद में 

तुम ऐसे ही तान देती हो अपने श्वेत आंचल सी  पतवार

जैसे कि मुझे बचा लोगी जीवन के हर समुन्द्री  तूफ़ान से...

तुम्हारे आंचल की पतवार के सहारे फिर से झेल लूंगा हर ज्वारभाटा 

अनगिन रातें जब जब थका हूं...

हारा हूं ...

पराजित और असहाय महसूस किया है .....

तुम्हारे ही वक्ष से लगकर   

रोना चाहा 

 ज़ार-ज़ार 

हालांकि तुमने रोने नहीं दिया कभी  

पता नहीं 

हर बार कैसे भांप लेती हो 

मेरी चिंता 

और सोख लेती हो मेरे आंसू का एक एक बूंद 

अपने होठों से  

तुम्हारे वक्ष से ऐसे खेलता हूं, जैसे खेलता है बच्चा  

अपने सबसे प्यारे खिलौने से ....

 तुम्हारा उन्नत वक्ष 

उत्थान और विजय का ऐसा समागम जैसे 

फहरा रहा हो विजय ध्वज कोई पर्वतारोही हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर  


जब भी  लौटा हूं उदास या फिर कुछ खोकर 

तुमने वक्ष से लगाकर कहा   

कोई बात नहीं, "आओ मेरे बच्चे! मैं हूं ना'

एक पल में तुम कैसे बन जाती हो प्रेमिका से मां

कभी कभी तो बहन सरीखी भी 

एक साथ की पली बढ़ी 

हमजोली ... सहेली ....

'Ohh My love ! you are the most lovable lady on this earth" 

सचमुच तुम्हारा नाम महान प्रेमिकायों की सूचि में 

सबसे पहले लिखा जाना चाहिए 

ख़ुद को तुम्हारे पास कितना छोटा पाता हूं, जब जब तुम्हारे पास आता हूं

कहां दे पाता हूं, बदले में तुम्हे कुछ भी 

कितना कितना कुछ पाया है तुमसे 

कि अब तो तुमसे जन्म लेना चाहता हूँ 

तुममें, तुमसे सृष्टि की समस्त यात्रा करके निकलूं 

तभी तुम्हारा कर्ज़ चुका सकता हूं 

मेरी प्रेमिका ...."


2.


आईने में कबसे ख़ुद को निहारती 

शून्य में खड़ी हूं 

दीदारगंज की यक्षिणी सी मूर्तिवत 

तुम्हारे शब्द गूंज रहे हैं, मेरे कानों में प्रेमसंगीत की तरह   

कहां गए वो सारे शब्द ?

मेरे एक फ़ोन ने कि -

डॉक्टर कहता है - मुझे वक्ष कैंसर है, हो सकता है, वक्ष काटना पड़े. 

तुम्हारी तरफ़ से कोई आवाज़ न सुनकर लगा जैसे फ़ोन के तार कट गए हों  

स्तब्ध खड़ी हूं

कि आज तुम मुझे अपने वक्ष से लगाकर कहोगे 

-"कुछ नहीं होगा तुम्हें! "

चीख़ती हुई सी पूछती हूं

तुम सुन रहे हो ना ?

तुम हो ना वहां ?

क्या मेरी आवाज़ पहुंच रही है तुम तक ....

हां, ना कुछ तो बोलो!"


लम्बी चुप्पी के बाद बोले

-"हां, ठीक है, ठीक है 

तुम इलाज़ कराओ

समय मिला तो, आऊंगा...." 

3.  


समय मिला तो  ? ? ?

समझ गई थी सब कुछ 

अब कुछ भी जो नहीं बचा था मेरे पास 

तुम अब कैसे कह सकोगे 

 सौन्दर्य की देवी ....

प्रेम की देवी.....


सबकुछ तभी तक था

जब तक मैं सुन्दर थी 

मेरे  वक्ष थे  

एक पल में लगा जैसे 

खुदाई में मेरा विध्वंस हो गया है  

खंड-खंड होकर बिखर चुकी हूं, "दीदारगंज की यक्षिणी' की तरह  

क्षत-विक्षत खड़ी हूँ, 

अंग-भंग ...

खंडित प्रतिमा ...

जिसकी पूजा नहीं होती 


सौन्दर्य की देवी अब अपना वजूद खो चुकी है....


4. 


लेकिन मैं अपना वजूद कभी नहीं खो सकती 

मैं सिर्फ़ प्रेमिका नहीं! 


सृष्टि हूं 

आदि शक्ति हूं


और जब तक शिव भी शक्ति में समाहित नहीं होते 

शिव नहीं होते ....

मैं वैसे ही सदा सदा  रहूंगी 

सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी,  

शिव, सत्य और सुन्दर की तरह .... 


(*दीदारगंज की यक्षिणी को सौन्दर्य की देवी कहा जाता हैं)







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किसी से उधार मांग कर लायी थी ज़िन्दगी

वो भी किसी के पास

गिरवी रख दी....


असीमा भट्ट


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बहुत ख़ाली ख़ाली है मन


माथे पर एक बिंदी सजा लूं ...



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 स्त्री 


1.

रक्त सा लाल पैरों के निशान छोड़ती

वह प्रवेश करती है घर में 

जैसे इतिहास के पत्थर पर 

उकेर रही हो दुर्लभ आकृति 


2.

कहा नहीं किसी ने सीखो प्यार करना 

फिर भी स्त्री सीख ही जाती है प्रेम करना 

जैसे आम का पेड़ सीख जाता है बड़ा होना और मंजर देना 


3.

उसके पास होते हैं अनोखे जादुई पिटारे 

जिसमें भर कर रखती है 

सपने और उम्मीदें 

अगहन में कटे धान की तरह 

उसके पास रहती है 

अथाह आस्था 

जिससे रचती है 

विस्मय भरी दुनिया 

अपने घर के भीतर 

जिसे मानती है 

वह अपना संसार 


4.


मांगती कभी कुछ नहीं 

चाहती है मुठ्ठी भर 

प्यार

थोड़ी गुनगुनी धूप की तरह नर्म 

थोड़ा गर्म 

आग की तरह 

जिससे सेंक सके जीवन और रिश्ते  

आग को दुनिया में उसी ने उपजाया होगा 

जब पहली बार जलाया होगा किसी स्त्री ने अपना चूल्हा 


5.

एक दिन वह चली जायेगी कहीं 

नहीं रहेगी वह घर के किसी हिस्से में 

बस बची रहेगी उसकी स्मृति 

उसके पंजों की छाप दिवारों पर 

भित्ति चित्रों के समान 

प्राचीन सभ्यता की आदिम कला की तरह



                                                       असीमा भट्ट


समकाल :कविता का स्त्री काल -31



विश्वासी एक्का आदिवासी स्त्री स्वर की प्रमुख कवियत्री हैं जो स्त्री शोषण के प्रश्नों से गुजरते हुए  पितृसत्ता , प्रकृति , संस्कृति और समसामयिक घटनाओं को भी बड़ी शिद्दत से अपनी कविताओं में समेटती हैं। 
 

कविताएं

1. तुम्हें पता न चला 

तुम मगन हो नृत्य करते रहे 
मांदल की थाप पर झूमते रहे
जंगल भी गाने लगा तुम्हारे साथ 
उत्सवधर्मी थे तुम,
कोई अंगार रख गया सूखे पत्तों के बीच
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ …|
तुम खेत जोतते रहे
पथरा गये ढेलों को फोड़ते रहे
धूप और बरसात की परवाह किये बिना
जूझते रहे दिन और रात
श्रमजीवी थे तुम, 
कोई धीरे से खेतों की मेड़ फोड़ गया
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ |
तुम बनाते रहे भित्तिचित्र 
पेड़-पौधे, कछुवा, बंदर, चिड़िया 
पालते रहे गाय और बकरियाँ 
पशुपालक थे तुम,
कोई सौदागर घूमता रहा वेश बदलकर
बहका कर, हांककर ले गया तुम्हारे पशुओं को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला........ |
तुम्हारी अमराई में कोयल कूकती रही
तुम्हारा मन भीगता रहा
तुम सुनते रहे भुलावे का गीत
विश्वासप्रवण थे तुम,
अमावस की रात 
वो काट कर ले गये पेड़ों को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |
तुम उंगलियों में जोड़ते रहे जीवन के वर्ष 
खाट पर नहीं जमीन पर निश्चिंत सोते रहे 
दुःस्वप्नों से जागते रहे 
भोर होने के पहले ही 
बड़े जीवट थे तुम, 
कोई जहरीले नाग छोड़ गया
तुम्हारे बिछौने के नीचे
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |





2. तुम और मैं 

तुम मुझे कविता सी गाते
शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से सजाते
मैं भी कभी छंदबद्ध
तो कभी छंदमुक्त हो
जीवन का संगीत रचती
पर देखो तो
मैं तुम्हें गद्य सा पढ़ती रही
गूढ़ कथानक और एकालापों में उलझी रही
यात्रावृत्तांतों की लहरीली सड़कों पर
भटकती रही
और तुम व्यंग्य बन गये, 
मैं स्त्री थी स्त्री ही रही...... 
तुम पुरुष थे, अब महापुरुष बन गये |

3. ये लड़कियां 

तुमने कहा लड़कियों को कितना पढ़ाओगे
आख़िर तो उन्हें चूल्हा-चौका ही करना है 
अब वे हर जगह आगे
पढ़ाई में, नौकरी में, माता-पिता की सेवा में
देश में, विदेश में, धरती में, आसमान पर, 
वे उस प्रत्येक जगह पर
जहां तुमने उन्हें जाने से रोका था |
कितनी नाफरमान और ढीठ हैं न ये लड़कियां
पैदाइश रोक दिये जाने की 
लाख कोशिशों के बाद भी 
उग आई हैं जंगलों की तरह
खिल उठी हैं फूलों की तरह
बरस गईं पानी की तरह
उछल पड़ीं बास्केटबॉल की तरह |
उग आई हैं सूरज और चाँद की तरह
कि छा गईं धरती पर हरियाली की तरह,
तमाम खतरों के बाद भी
उड़ती-फिरती हैं तितलियों की तरह
परवाज़ है उनकी शाहीन की तरह
कि उन्हें पता है मुक्त गगन में भी 
उड़ना है कहां-कहां |
एकतरफा प्रेम में तेज़ाब डाल दिया 
बलात्कार कर जला दिया
चरित्रशंका पर गला घोंटा
एक बार नहीं बार-बार | 
इतना कुछ, इतना सब कुछ
फिर भी स्वाद ने लड़कियों का साथ नहीं छोड़ा
आज भी उनके हाथों बने खाने की बात ही अलग होती है |

4. लंबी यात्राएं

वे चल रहे हैं निरंतर आदम के जमाने से
अदन वाटिका से निकल
यरदन,नील,और फ़रात के किनारे -किनारे
पहले इक्के-दुक्के
फिर जत्थों में
वाचा का संदूक लिये कारवां से लेकर
अकेले ही अपना सलीब उठाये |
लाद कर ऊँट और घोड़ों पर
कबीले का तम्बू, राशन, कपड़े-लत्ते |
इब्राहिम की चौदहवीं पीढ़ी 
अपने मसीहा के आने तक
अब भी और जाने कब तक........ |
बेबीलोन गवाह है
वे स्वर्ग तक पहुंचने की सीढ़ी मुकम्मल न कर सके 
टूट गये भाषा की लड़ाई में |
सदोम और अमोरा में 
आग और गंधक बरसा,
मिश्र पर सात-सात विपत्तियां आईं
मेढ़कों का आक्रमण 
कुटकियों के झुण्ड 
डांसों के झुण्ड 
पशुओं की मौत 
ओलावृष्टि 
टिड्डियों का आक्रमण 
और फिर घना अंधकार |
सिंधुघाटी से छोटा नागपुर 
दक्षिण प्रदेश |
जीविकोपार्जन के लिए महानगर
महामारियों के दौर में घर वापसी
महामारी के बाद संभवतः 
पुनः महानगरों की ओर प्रस्थान, 
यह एक ही जीवन में 
पृथ्वी को माप लेने जैसी अनंत यात्रा तो नहीं 
इनके हौसले कहते हैं 
ये उन तमाम अंधेरी गलियों से 
निकल ही आयेंगे
जैसे इस्राइली आखिरकार निकल आये थे
मिश्र से फिरौन के अत्याचार से |
(यरदन, नील, फ़रात- अरब देश की महानदियां 
इब्राहिम – ईसाइयों के पूर्वज
वाचा का संदूक- ईश्वर और मनुष्य के बीच वाचा का प्रतीक 
फिरौन- मिश्र का हाकिम )




5. हम साथ हैं 

इस साल महुए ने टपकने से मना कर दिया 
फूल कोचों में पंख सिकोड़े सोते रहे, सहमे रहे 
शायद उन्हें पता चल गया था 
उनकी कद्र करने वालों पर 
काला साया मंडरा रहा है |
पलास इस साल दहके नहीं 
गुंचे कडुवा गये, काले पड़ गये
शायद उन्हें पता चल गया था
सड़कें लाल रंग में डूबने को हैं |
अमलतास भी कहां खिले इस साल
उनकी अधखिली लड़ियां
लटकती रहीं अनमनी |
भूखे पेट सड़कों पर हजारों मील चलते
मजदूरों की आँखों और चेहरों पर
पीला रंग पसरा हुआ है |
सरहुल भी कहां मना इस साल
फूल दुबके रहे पत्तों की ओट 
फलों ने हवाओं संग
गोल-गोल घूमते अठखेलियाँ करने की
अभिलाषा ही नहीं पाली,
वे देख रहे थे आढ़े-तिरछे, पथरीले
रास्तों पर मजदूरों के जत्थों को 
लगातार चलते हुए |
इस साल बरस रहे हैं बादल बेमौसम ही
जैसे मजदूरों की आँखें, 
भीग रही है धरती
जैसे मजदूरों के मन
अंकुरित हो रही हैं वनस्पतियां
जैसे मजदूरों के हौसले |
ये क्या हुआ! कैसे हुआ! क्या होगा आगे! 
इन बेमतलब के पचड़ों में 
नहीं पड़ते वे
आस्थावान हैं वे प्रकृति के प्रति 
उस पर अवलंबित जीवन के प्रति |
( कोरोनाकाल में प्रभावित मजदूरों के लिए)


परिचय

विश्वासी एक्का 

पता
महारानी लक्ष्मीबाई, 
वार्ड क्रमांक. -09,न्यू कॉलोनी
, पटेलपारा, अम्बिकापुर, 
सरगुजा(छत्तीसगढ.)
जन्म – ग्राम -बटईकेला-जिला-सरगुजा(छत्तीसगढ )
हिंदी विषय में स्नातकोत्तर और पीएच.डी. | सन् 2017 में नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से कहानी पुस्तिका ‘कजरी ‘ प्रकाशित, 2018 में कविता संग्रह ‘लछमनिया का चूल्हा' प्रकाशित ,इसी वर्ष उत्कृष्ट कविता सृजन के लिए, हिंदी साहित्य सम्मेलन छत्तीसगढ़ प्रदेश द्वारा ‘पुनर्नवा’ पुरस्कार, 2019 में साहित्य अकादमी दिल्ली में काव्यपाठ | आकाशवाणी अम्बिकापुर से समय -समय पर, कविता- कहानी पाठ | अक्षरपर्व,वागर्थ,,इंडिया टुडे, छत्तीसगढ़ मित्र, दक्षिणकोशल, पक्षधर, नया पथ, हाशिये की आवाज में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित | वर्तमान में शासकीय राजमोहनी देवी कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बिकापुर में,सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत |


समकाल :, कविता का स्त्रीकाल -33



पँखुरी सिन्हा की कविताएँ


खड़े होने की बराबर जगह
 
वह खड़ा हुआ तो मुझे लगा 
उसका कद कितना ऊँचा था 
मुझसे तो ऊँचा था ही 
काफी ऊँचा था 
वह पुरुष था 
और मेरी औरतना दृष्टि 
पुरुषों को बक्श कर 
अतिरिक्त ऊँचाई 
तृप्त होती तो थी 
पर तभी
जब व्यवहार पुरुषोचित हो 
अगर वो बक्शें 
औरत को भी कुछ ज़्यादा कद 
कंधे से कन्धा मिलाकर 
खड़े होने की बराबर जगह..................
 
 
 
 
विद्या पीठ

न बताना भी एक अदा है 
न कहने की तरह 
यानी मना करना 
पर एकदम साफ़ मना करना नहीं 
कर पाना नहीं 
सवाल भी साफ़ नहीं 
जवाब की भरसक गुंजाइश नहीं 
कुछ भी दो टूक सच नहीं 
पांच टूक पोशाक नहीं 
जूता, छाता, टोपी, गमछा 
जनेऊ, लोटा 
संस्कारों की मर्दानी ठसक गयी
विद्यापीठों में स्त्री मुक्ति 
अब भी एक लड़ाई है 
पर न बताना 
वहां भी उम्र 
फॉर्म से बाहर
स्त्रियों के साथ भी
बिल्कुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम
मन की बातें 
कुछ मन में रख लेना भी एक अदा है 
और जैसे उम्र भी हो 
मन ही की बात
फॉर्म की लिखाई से बाहर
इसलिए वह इतालवी लड़की 
पूछती रह गयी 
पर मैंने केवल अपनी 
वह उम्र बताई 
जब ब्याही गयी थी 
वह भी दो साल घटा कर 
उनसे ताल मिलाने को 
जिनकी मैं जानती थी 
दो से ज़्यादा साल 
घटाई होती थी उम्र..................


मुद्रा 

उल्टे लटके होते हैं चमगादड़ घंटो 
यही होती है उनकी निद्रा की मुद्रा 
और दिखाई नहीं देती 
गुफाओं के अँधेरे में 
लेकिन इस कारण नहीं खुदवाये 
राजाओं ने गुफाओं में 
तंत्र सिद्धि के चित्र 
न मंत्र लिखे गए
सूर्य प्रकाश के स्वागत में 
वो समूचा चँदोवा 
जिसे आज भी हम 
सभ्यता कह 
सिंहासन पर बिठाते हैं 
हाथी की पीठ पर 
आहिस्ता चलता 
दर्शन का 
एक के बाद दूसरा 
सिद्धांत नहीं 
जिस की ज़मीन 
दरअसल फतह कर रहे थे 
घोड़े पर आये 
मुसलमान योद्धा..............


जल में स्थिर है मछली

घंटों बे टेक स्थिर होती है 
मछली जल में 
बुलबुले छोड़ती 
तलाशती नहीं थककर 
पानी की ज़मीन पर पाँव
एकदम कल खिलेगी 
कह देती है
फूल की कली 
पर असह्य लगता है इंतज़ार 
और सबकुछ 
जब वो कहता है 
झूठा है 
मेरा आलिंगन 
मुझे दरअसल प्यार नहीं उससे 
वह आश्वासन है 
सारी आरामदेह बातों का 
और प्रबंधकर्ता भी...............

(रेडियो पर प्रसारित, आकाशवाणी दिल्ली, इंद्रप्रस्थ चैनल, २०१४)


हज़ार सूर्योदय वाली आवाज़
हज़ार सूर्योदय थे उसकी आवाज़ में 
आसमान के सब तारों की चमक 
दुनिया के सब चन्द्रमाओं की ठंढक थी उसमें 
दिक्कत ये थी कि इतनी कम करता था बातें वो मुझसे 
उन सब लोगों की बनिस्पत 
जिनसे प्यार नहीं करता था 
या कि कहता था कि प्यार नहीं करता था 
करता था केवल मुझसे प्यार 
या कि कहता था 
समुद्र लरजता था उसकी इस बात में
या साथ साथ कई समुद्र लरजते थे 
जैसे एक साथ 
उसकी मेरी आँखों में 
ये जलकुम्भी से भरे तालाब कैसे बन गए 
उसके मेरे समुद्र 
कहाँ गयीं वो नदियाँ 
जो ताज़ा कर जाती थीं हमें 
लिए जीवन का सहज प्रवाह 
सतत प्रवाह?
कहाँ गयीं नदिओं सी हमारी भी बातें?
जबकि उसकी बातों में थे हज़ार सूर्योदय.......

                             पंखुरी सिन्हा





 
 
 
 
 
 
 
 
 

समकाल : कविता का स्त्रीकाल -34





आरती की कविताएँ


[


(1)

में फिर से भेड़ बकरी बनाओ


नहीं सीखना हमें दो और दो का जोड़ घटाना
नहीं पढ़ना विज्ञान भूगोल की पोथियां 
इतिहास की मक्कारियां समझकर क्या कर लेंगे 
और राजनीति तुम्हारी तुम्हें ही मुबारक

हम वहीं धान कूटेगे 
चक्की पीसेगे 
 घूंघट काढकर मुंह अंधेरे दिशा फराक हो आएंगे
और पीटे जाने पर बुक्का फाड़कर रो लेंगे


हम हाथ जोड़कर सत्यनारायण की कथा सुनेंगे 

और लीला कलावती लीलावती की तरह परदेस कमाने 

या ऐश करने गए सेठ का 

जीवन भर इंतजार करेंगे


हम एनीमिक होंगे तब भी करेंगे निर्जला उपवास 

करवा चौथ तीजा की कथा सुनकर हर साल डरेंगे 

अपनी थाली की दाल सब्जी पति पुत्रों को मनुहार कर कर खिलाएंगे 

मरते दम तक पैदा करेंगे मनु के साम्राज्य को बढ़ाने वाली जमातो को 

और अगले जन्म फिर से वही घर वर पाने की कामना करेंगे


इहलोक उहलोक के हिसाब से सब मैनेज कर लेंगे 

किटी पार्टी वीसी फेसबुक व्हाट्सएप संभाल लेंगे 


हम अपने मन के भीतर खुलने वाला दरवाजा

बंद कर उस पर ताला जड़ देंगे 

कोई दस्तक नहीं सुनेंगे 

कान बंद कर लेंगे 

होंठ सिल लेंगे 


आओ तालीबुडिया बॉलीवुडिया भोजपुरिया फिल्में आओ 

एकता कपूर की मामी मौसियो भाभियों सासों ननदो आओ 

पुराने को नए तहजीब में रंगकर लाओ 

हमें एक बार फिर से भेड़  बनाओ।
[03/03, 10:50] सोनी पाण्डेय: मैसेंजर मां और बेटा
--------------

मैं लिखना चाहती थी
कि तुम्हारी याद आती है 
और लिखा- क्या कर रहे हो अभी जाग गए?
या सो रहे हो?
अच्छा... जाग गए
कॉफी बना पी लो ताकि नींद अच्छी तरह खुल जाए

आज मैं तुम्हें बहुत मिस कर रही हूं ..लिखना चाहती थी
और लिखा
वही रोज रूटीन का
जैसे हर माह भेजी जाने वाली  राशि 
चेतावनी और डांट फटकार

आज फिर सुबह से ही हिम्मत की और
लिखना चाहा-
जल्दी आ जाओ...  
और 
लिख दिया
यहां बारिश शुरू हो गई है 
वहां का मौसम कैसा है?


हमें फिर से भेड़ बकरी बनाओ
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नहीं सीखना हमें दो और दो का जोड़ घटाना
नहीं पढ़ना विज्ञान भूगोल की पोथियां 
इतिहास की मक्कारियां समझकर क्या कर लेंगे 
और राजनीति तुम्हारी तुम्हें ही मुबारक

हम वहीं धान कूटेगे 
चक्की पीसेगे 
घूंघट काढकर मुंह अंधेरे दिशा फराक हो आएंगे
और पीटे जाने पर बुक्का फाड़कर रो लेंगे

हम हाथ जोड़कर सत्यनारायण की कथा सुनेंगे 
और लीला कलावती लीलावती की तरह परदेस कमाने 
या ऐश करने गए सेठ का 
जीवन भर इंतजार करेंगे

हम एनीमिक होंगे तब भी करेंगे निर्जला उपवास 
करवा चौथ तीजा की कथा सुनकर हर साल डरेंगे 
अपनी थाली की दाल सब्जी पति पुत्रों को मनुहार कर कर खिलाएंगे 
मरते दम तक पैदा करेंगे मनु के साम्राज्य को बढ़ाने वाली जमातो को 
और अगले जन्म फिर से वही घर वर पाने की कामना करेंगे

इहलोक उहलोक के हिसाब से सब मैनेज कर लेंगे 
किटी पार्टी वीसी फेसबुक व्हाट्सएप संभाल लेंगे 

हम अपने मन के भीतर खुलने वाला दरवाजा
बंद कर उस पर ताला जड़ देंगे 
कोई दस्तक नहीं सुनेंगे 
कान बंद कर लेंगे 
होंठ सिल लेंगे 


आओ तालीबुडिया बॉलीवुडिया भोजपुरिया फिल्में आओ 
एकता कपूर की मामी मौसियो भाभियों सासों ननदो आओ 
पुराने को नए तहजीब में रंगकर लाओ 
हमें एक बार फिर से भेड़  बनाओ।
[03/03, 10:50] सोनी पाण्डेय: एक देह को खाक में बदलता देख कर लौटी हूं
-----------

पहली बार, एक जलती चिता को देखकर लौट रही हूं वह एक औरत की चिता थी 
उसकी देह को खाक में बदलता देखकर लौट रही हूं 

शून्य से अनंत भार में बदल चुके पैरों को घसीटती 
घर की सीढ़ियां चढ़े जा रही 
आंखों की पुतलियां एक बड़ी स्क्रीन में तब्दील होकर दृश्य को रंग, गंध,ध्वनि के साथ बार-बार दोहराए जा रही 

सुनहरे बॉर्डर की हरे साउथ कॉटन साड़ी में लिपटी देह लकड़ियों के बीच दबा दी गई 
जब पहली लौ ने उठकर अंगड़ाई ली 
मैं चीख मारकर रोना चाहती थी लेकिन कसकर दबा दिया अपनी रुलाई का गला 
कि अभी सब चिल्ला उठेंगे - इसलिए औरतों को मनाही है 

हां औरतों को मनाही होती है बहुत सी चीजों की 
और यदा-कदा मिली हुई आजादियों को जीने का शऊर भी नहीं होता उनके पास 
जैसे उनके पास समय हो तो भी वे अपने मन का कुछ भी नहीं करना चाहती 
उन्हें हर दिन ऑफिस से जल्दी पहुंचना होता है घर छुट्टी का दिन तो और भी व्यस्त होता है
एक दिन वे थोड़ा सा समय निकालकर दिल में दबा हुआ नासूर कहने अजीज दोस्त के पास जाती हैं और चाय के घूंट घूंट के साथ होंठों के कोर तक आया हुआ अनकहा फिर से पी जाती है

वह औरत जब तक जिंदा रही फुर्सत के कुछ घंटे कभी नहीं निकले उसके बटुए से 
कि उसके और मेरे पास व्यस्तता के हजार बहाने थे
हम कहते रहे कि हम जल्द मिलेंगे... जल्द मिलेंगे 
और एक दिन सुबह एक मैसेज आता है.... तब मुझे कोई काम याद नहीं आता 
मैं सीधे दौड़कर उस जगह पहुंच चुकी होती हूं 
जहां वह औरत नहीं होती बाकी सब कुछ होता है 
घर होता है, लोग होते हैं और होती है उसकी देह

यह कैसी विडंबना है
वह औरत मेरी इतनी घनिष्ठ तो ना थी कि महीनों बाद भी मेरी रात उसकी स्मृतियों का घरौंदा बन जाए

हां मैं हर रात उस औरत की देह में कायांतरित हो जाती हूं 
मेरी छाती, मेरी जंघायें, मेरी पिंडलियां, तलवे लकड़ियों के ढेर के नीचे दबे जा रहे 
वह देखो! कोई मेरी ओर जलती लुकाठी फेंकने ही वाला है।



स्त्रियां किस देश के नागरिक हैं
---------------------

वे जिन्हें एक घर से दूसरे घर की ओर हांक दिया गया था 
वे जिनके नाम किसी घर के बाहर वाली नेमप्लेट में दर्ज नहीं है 
वे जिनके मालिकाना हक में नहीं आते खेत मकान बाग चौगान 
वे जो अपने गहनों कपड़ों के गुम हो जाने पर अपराधी की तरह 
घर की अदालत में खड़ी कर दी जाती हैं 
वे स्त्रियां किस देश के नागरिक हैं? 

वे जिनके घर किसी अंधड़ ने नहीं उजाड़ी
किसी नदी ने नहीं डुबोया उनका गांव 
ऐसा होता तो दर्ज होते उनके नाम किसी ना किसी सरकारी रजिस्टर में 
वे सब बिना घर गांव वाली स्त्रियां बताओ किस देश के नागरिक हैं ?

वे जिन्हें अपने जन्मदिन का "ज" भी नहीं पता 
वे जब जन्मी तो नहीं बने पकवान 
सोहर नहीं गए, ना ही सामूहिक नाच हुए 
उन्होंने एक दिन जिद की और पूछा कि वह कब पैदा हुई थी 
तो वही जवाब मिला कि शाम के बाद जब रात गहरा रही थी 
और उन उल्लूओ ने बोलना शुरू किया था 
लड़कियां तभी पैदा होती हैं 
बताओ तो भला यह स्त्रियां किस देश के नागरिक हैं? 

जैसे वे नरकासुर के घर रही वैसे ही कृष्ण तुम्हारे घर भी रही 
जैसे चंद्रगुप्त के वैसे अशोक के 
जैसे बाबर के वैसे अकबर के 
किसी झोपड़ी किसी महल किसी मंदिर 
किसी मस्जिद के बाहर नहीं खुदे उनके नाम के अक्षर 
बेटों के नाम के साथ भी दर्ज नहीं हुए माओं के नाम  स्कूल के रजिस्टर में बताओ आदि से लेकर आधुनिक तक यह सभी स्त्रियां 
किस देश के नागरिक हैं ?

यह स्त्रियां पेड़ हैं खेत हैं खजाने हैं जहां कब्ज़ा किया गया 
यह सत्ता और सिंहासन हैं जिनके लिए युद्ध लड़े गए 
समय ने करवट बदली और दुनिया राजसत्ता की कैद से मुक्त हो 
लोकसत्ता के नियमों से चलने लगी और 
यह अभी भी खाना बनाने वाली, झाड़ू पोछा लगाने वाली 
और बिस्तर पर खुद बिक जाने वाली हैं

वह जो दो चार या पचास या सैकड़ा भर नहीं 
हजार लाख और कई करोड़ हैं 
कई सौ करोड़ हैं 
वह पूरी दुनिया पर एक बटे दो फैली हुई हैं
फिर भी उनके पास किसी देश की नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है 

बताओ आज इस बीसवीं 21वीं सदी में खड़े होकर 
यह सभी स्त्रियां किस देश के नागरिक हैं?

रामराज की तैयारी का पूर्व रंग 
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प्रश्न पूछने वालों को बेंच के ऊपर हाथ उठाकर खड़ा कर दिया जाएगा 
मुंडी हिलाने वालों को मुर्गा बनाया जाएगा और
बात-बात पर तर्क करने वालों को क्लास से बाहर धकेल दिया जाएगा

प्रहसन की तैयारी से पहले मास्टर जी ने 
यह बात तीन बार बताई 
रामराज आने वाला है और यह सब 
उसी की तैयारी का पूर्वरंग है 

अभी राम को अयोध्या के राजा ने अर्थात उनके पिता ने वनवास दिया है और स्वामी की आज्ञा के आगे कोई भी न्याय वगैरे की बात नहीं करेगा 
राम ने भी नहीं की थी ना ही किसी देशवासी ने 
राजा प्रजा का स्वामी होता है 
यह बात भी मास्टर जी ने तीन बार  बताई

दूसरे हिस्से में युद्धाभ्यास चल रहा है 
अस्त्र शस्त्रों के नाम से लेकर तकनीकी की भी जानकारी दी जा रही है 
और यह भी कि राम के साथ धनुष बाण हमेशा होना जरूरी है 
जैसा की फोटो में होता है 

अब राम राजा नहीं है फिर भी सेना बनाने में जुटे हैं 
राम राज्य लाने की प्रक्रिया में में युद्ध बहुत जरूरी है 
इसीलिए जंगल में राम ने पहले भीलो किरातों से 
फिर वानर भालूओ से दोस्ती बनाई 
सुग्रीम की जरूरत पहचान कर उसे राजा बनाने में मदद की 
और इस तरह दोस्ती के भीतर दाससत्व के नए रिश्ते का इजाद किया 
रामराज लाने से संबंधित तमाम प्रोपेगंडा संभालने का काम 
हनुमान के मत्थे सौंपा गया 

हां एक बात याद आई युद्ध में औरतों का क्या काम 
इसलिए सारी लड़कियां क्लास से बाहर चली जाए और 
वीरों की आरती उतारने का अभ्यास करें 
यह बात भी मास्टर जी ने तीन बार बताई 

आगे मास्टर जी ने सोने के हिरण वाली बात बताई 
राम ने शबरी के जूठे बेर को कितने प्रेम से खाया, यह भी बताया 
उन्होंने मारीच से लेकर बाली कुंभकरण और 
रावण वध की कथा सविस्तार बताई और तीन तीन बार बताई 

उन्होंने यह भी बताया कि रावण बड़ा विद्वान था और 
राम विद्वता का बड़ा सम्मान करते थे 
अतः उन्होंने लक्ष्मण को रावण के पास राजनीति सीखने भेजा 
मास्टर जी ने यह नहीं बताया कि जब लक्ष्मण को राजा बनना ही नहीं था 
तो कायदे से राजनीति सीखने राम को जाना चाहिए था 

नहीं बताया मास्टर जी ने राम के दुखों और छोटे-छोटे सुखों के बारे में 
कि रात के किस पहर अचानक सीता की याद में घंटों रोए थे 
कि उन्हें मां की याद कब-कब आई
कि पिता की मृत्यु की खबर राम ने कैसे सहन की
उन्होंने यह सब एक बार भी नहीं बताया की अग्नि परीक्षा लेते हुए 
राम कितने आदर्श बचे थे? 
कि गर्भवती पत्नी को बनवास देते हुए राम को अपने होने वाले बच्चे का बिल्कुल भी ख्याल नहीं आया?

सच तो यह है कि राम को राजा ही बनना था 
चौदह साल बाद ही सही 
रावण हमेशा राम की छवि चमकाने के काम आया 

सच तो यह है कि राजा किसी का सगा नहीं होता 
ना पिता का ना पत्नी का ना पुत्र का 
यहां तक कि उस ईश्वर का भी नहीं 
जिसकी ढाल वह हमेशा अपने साथ रखता है





- एक ऋचा का पुनर्पाठ -1
--------------

चिता से उठती चीखों की आवाज़ें  सुन सुनकर 
आखिर एक दिन उनके कान संवेदना से पसीज उठे 
और उन्होंने देवभाषा में कहा-

 ओ स्त्री उठ! 
जिसकी बगल में तू लेटी है वह कब का मर चुका         
उठ जीवितो के संसार में वापस चल 
   

वह अहसान से दोहरी तिहरी हो वापस आई 
वह वापस आई देवर के लिए 
वह वापस आई पुरोहित के लिए 
वह वापस आई किसी ना किसी पुरुष के लिए 

उन्होंने जब-जब कहा वह हंसी, रोई 
और गीत गाने लगी 
उन्होंने इशारे किए जब, वह मर गई 
जहर खा, फांसी लगा, बच्चे जनकर और 
आग में कूद कर भी 

इस तरह वह जीवितों कि दुनिया में जिंदा रही 
इस तरह वह फिर फिर मरी जीवितों की दुनिया में...

2-एक और ऋचा का पुनर्पाठ -2
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सबने अक्षत और फूल लेकर हाथ जोड़े 
सबने यानी स्त्रियों ने भी 

उन्होंने दूसरी ऋचा का पाठ शुरू किया -
'ओ स्त्री तुम पर भरोसा नहीं किया जा सकता 
तुम्हारा मन भेड़िए का मन है' 

सामने बैठी स्त्रियों की देह जड़ हो गई और 
उनके चेहरे पर भेड़िए सरीखे पैने दांत उग आए

पिताओं ने उनकी ओर हिकारत भरी नजरों से देखा 
और उनकी पकाई रोटियां कुछ भुनभुनाते हुए खाते रहे

बच्चे आए, वे उनके दांतों को छूकर, हिलाकर  
ठोंक बजाकर देखते और ठहाके लगाते रहे 

आखिर में रात के दूसरे पहर पुरुष आए 
सबसे पहले उन्होंने उनके नुकीले दांत तोड़े 
फिर शरीर का मांस तोला तोला कर पकाया-खाया 
वे डकार आने तक खाते रहे 

इस तरह एक भेड़िए के मनवाली का यह संस्कार 
सुबह के पहर तक चलता रहा.


अच्छी लड़की के लिए जरूरी निबंध
-------------

एक अच्छी लड़की सवाल नहीं करती
एक अच्छी लड़की सवालों के जवाब सही-सही देती है
एक अच्छी लड़की ऐसा कुछ भी नहीं करती कि सवाल पैदा हों

मेरे नन्ना कहते थे- लड़कियां खुद एक सवाल हैं जिन्हें जल्दी से जल्दी हल कर देना चाहिए
दादी कहती- पटर पटर सवाल मत किया करो

तो यह तो हुई प्रस्तावना अब आगे हम जानेंगे
कि कौन सी लड़कियां अच्छी लड़कियां नहीं होती

एक लड़की किसी दिन देर से घर लौटती है
वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की अक्सर पड़ोसियों को बालकनी पर नजर आने लगती है….. वह अच्छी लड़की नहीं रहती
एक लड़की का अपहरण हो जाता है एक दिन
एक लड़की का बलात्कार हो जाता है और उसकी लाश किसी नदी नाले या जंगल में पाई जाती है
एक लड़की के चेहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है
और एक लड़की तो खुदकुशी कर लेती है…

क्यों -कैसे?
जानने की क्या जरूरत
यह सब अच्छी लड़कियां नहीं होती

मैं दादी से पूछती -अच्छे लड़के कैसे होते हैं
वह कहती – चुप ! लड़के सिर्फ लड़के होते हैं

और वह शुरू हो जाती अच्छी लड़कियों के
गुण बखान करने
दादी की नजरों में प्रेम में घर छोड़कर भागी हुई लड़कियां केवल बुरी लड़कियां ही नहीं
नकटी कलंकिनी कुलबोरन होती
शराब और सिगरेट पीने वाली लड़कियां दादी के देश की सीमा के बाहर की फिरंगनें कहलाती थीं
और वे कभी भी अच्छी लड़कियां नहीं हो सकतीं

खैर अब दादी परलोक सिधार गई और नन्ना भी नहीं रहे
फिर भी अच्छी लड़कियां बनाने वाली फैक्ट्रियां
बराबर काम कर रही हैं
और लड़कियों में अब भी अच्छी लड़की वाला ठप्पा अपने माथे पर लगाने की होड़ लगी है

तो लड़कियों! अच्छी लड़की बनने के फायदे तो पता ही है तुम्हें 
चारों शांति और शांति…..
घर से लेकर मोहल्ले तक
स्कूल कॉलेज शहर और देशभर में
ये तख्तियां लेकर नारे लगाना जुलूस निकालना
अच्छी लड़कियों के काम नहीं है
धरना प्रदर्शन कभी भी अच्छी लड़कियां नहीं करतीं

मेरे देश की लड़कियों सुनो!
अच्छी लड़कियां सवाल नहीं करती और
बहस तो बिल्कुल भी नहीं करती
तुम सवाल नहीं करोगी तो हमारे विश्वविद्यालय तुम्हें गोल्ड मेडल देंगे
जैसा कि तुमने सुना जाना होगा इस विषय पर डिग्री और डिप्लोमा भी शुरू हो गया है
इन उच्च शिक्षित लड़कियों को देश-विदेश की कंपनियां अच्छे पैकेज वाली नौकरियां भी देती हैं

देखो दादी और नन्ना अब दो व्यक्ति नहीं रहे
संस्थान बन गए हैं

खैर आखरी पैराग्राफ से पहले एक राज की बात बताती हूं
कुछ साल पहले तक मैं भी अच्छी लड़की थी.







आरती

 24 अक्तूबर 1977 ।

रीवा, म प्र के एक कस्बे गोविन्दगढ में जन्म। 

हिंदी- साहित्य से एम. ए. और पी एच. डी.। 


मीडिया में दसों साल सक्रिय कार्य के बाद अब स्वतंत्र लेखन और सामाजिक कार्य। " समय के साखी"  साहित्य पत्रिका का  सम्पादन।

प्रकाशन- "मायालोक से बाहर" ( कविता संग्रह)

"नरेश सक्सेना का व्यक्तित्व और कृतित्व" पुस्तक का सम्पादन

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की " मीडिया मीमांसा" और "मीडिया नव चिंतन" पत्रिकाओ के कई अंको का सम्पादन। 

रबिन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय भोपाल के बृहत् कथा कोश कथादेश का संपादन।

सम्पर्क- 912 अन्नपूर्णा परिसर, पी एन टी चौराहा, भोपाल( म प्र)

मो न- 9713035330
[

समकाल : कविता का स्त्रीकाल-35


रीता दास राम   की कविताएँ




1. 
युगीन स्त्री-पुरुष 

व्यवस्था के साथ 
परपराओं की आड़ में 
रीति-रिवाजों पर चलते 
संस्कृति की छांव में 
संस्कारों की जुगाली करते 
पुरुष बसाना चाहते है घर ... 
सपनों की कल्पना में 
प्रेम की डाल पर 
तितलियों से प्रकाश में 
धानी चूड़ियों की आवाज में 
रेशम की नमी और कोमलता थामें 
धमनियों में बहते रक्त की लाली संग 
स्त्री बसाना चाहती है घर ... 
घर बसता है 
व्यवस्था, परंपरा, रीति-रिवाज़, संस्कृति, संस्कारों को 
बदलते हुए 
स्वप्नों, कल्पना, प्रेम, प्रकाश, आवाज, नमी, कोमलता और रक्त को 
रखते हुए ताक पर 
ये हर युग का बदलाव 
वक्त के हस्ताक्षर पर 
यंत्र चालित सा उभरता सत्य है 
बस पृथ्वी को घूमते चले जाना होता है 
होते हुए सूर्य से प्रकाशित 
परिवर्तन की नियति को स्वीकारते हुए 
बसते हुए देखना जीव की नैसर्गिक पराकाष्ठा 
समाज़ पर लगा वेदना का पैबंद  
संतुष्टि की घोषणा का अघोषित सत्य।  
 
2. 
इंसान 

गीला मन 
भीगी भीगी औरतें 
भरी-भरी आँखें 
पसीने से तर-बतर 
संस्कृति की जुगाली पर 
खींच रही जिंदगी 
खोलते हुए बंधन 
एक एक इंच गांठ 
गर्भाशय को मशीन 
शब्द से करते हुए आज़ाद 
इंसानी दर्जा दिलाते हुए खुद को 
विकलांग समाज़ की 
सदियों से करते हुए सेवा 
सहूलियत, सफाई, भूख, जरूरत मुहैया कराती हिस्से की आस 
इंसानी पैदावार के लिए की जाती है इस्तेमाल 
पाठ, उपवास, मान, सम्मान, ऊंच, नीच, सही, गलत, सबमें हिस्सेदारी 
निठल्ले घूमते पुरुषों की बनती जूठन  
संस्कार, बच्चे, रिवाज़, परंपरा सब है इसके जिम्मे 
शरीर, वासना, इच्छा, बहकना बेगानी मिल्कियत  
स्वेच्छा से किया एक संभोग जिंदगी का कलंक 
बलात भोगे दस पुरुष वह भी इसका दोष 
सारे कुकर्मों से रिश्ते इसके 
बेटियाँ बनाई जाती है पराई 
बहू को अपनाता एहसान जताता सामाज  
पुरुष के बाद पाती दुय्यम स्थान 
स्त्री अब बोलने लगी खुलेआम  
बीती जिंदगी के राज़ खोल रही है 
घर से बाहर निकल रही है या निकाली जा रही है  
रीति-रिवाज को मनमाना निभा रही है 
परिवार को किचन का रास्ता दिखा रही है 
अपनी मर्जी जीने को है उत्सुक 
पुरुषों के आदेश करने लगी है ख़ारिज  
लिव-इन में रहना चुनाव कर रही है 
शरीर को समझने लगी है अपना 
क़लक़ मान सम्मान मानती है सब अज्ञानी बातें 
औरत खुद को औरत ही नहीं, अब इंसान कहलाने लगी है।  
3. जरूरतों की ख़ातिर प्यार 
हथेलियाँ भर थी खुशियाँ 
पत्थर तोड़ना चाहती थी
जब जब रीति-रिवाज बदले 
भरना चाहती थी संस्कृति के छेद 
बोल के बता दिए गए नहीं बोलने के कारण 
बड़बड़ाती रही खामोशी में बदहवास 
उपेक्षित छोड़े झड़ते सपने 
उलीचती रही हकीकत की स्याही  
जबकि सपनों को मुट्ठी में बंद कर दिया गया 
नहीं पहचानी दर्द और खुशी की अलग परिभाषा 
फूल को फूल कहा और चाँद को चाँद 
रोशनी वाले अंधेरे भर-भर के दिखाई पड़ते रहे 
बंधन-मुक्त होना चाहा जब 
विशेषण जकड़ते रहे, हड़बड़ाते 
दृश्यों में चाहती थी तैरना 
ख़्वाहिशों में डुबोते रहे तुम 
 
पूरे पंख फैलाकर उड़ने से पहले देखा 
चमगादड़ की तरह अंजान शिकायती मूक दृष्टि तुम्हारी  
खत्म कर दी थी आजादी गृहप्रवेश के बाद 
पूरे घर की चाहत के लिए 
उसने तलाश ली मुट्ठी भर श्वास 
आज गठरी सी जिंदगी आदत है 
निहारते हुए अपलक कहा जाता है प्यार 
प्यार की खोज में बीती जिंदगी ढोती देखती रही 
जरूरतों की खातिर प्यार होता रहा। 
 
4. पटरी 
कैसे कैसे लम्हों से मिलती हुई 
पटरी सी पड़ी पड़ी छिलती हुई 
मैं देखती गाड़ी धड़धड़ाती गुजरती हुई 
और आवाज़ आवाज़ में धुल जाती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
जाने कितने डिब्बे चले जाते 
शब्दों के विस्फोट से कांप जाती 
छाती पर पटरियों की चिंगारी बसती 
घुटती साँसे पत्थरों-सी मार सहती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
देह पटरी-सी गर्द, धक्कड़, धूप में भी 
वितृष्णा दबाए पड़ी पड़ी तड़कती 
उजाले में भी रोशनी का इंतजार करती 
हर बार नई ठेस रोशनी की ओर तोड़ा और सरका जाती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
गोल पहियों से वक्त घूमते जाते 
छूते पास आकर दूर चले जाते 
घूमते पहियों के छेदों को घूरती 
गिनने की असंख्य कोशिश करती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
अक्सर पटरी की ये कल्पना मेरी 
मेरे और कल्पना के बीच होती 
और वह चिकनी, सपाट समानांतर पटरी 
मुझे हमेशा जिंदगी के रूबरू लगती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती। 
 



5. 
पुरुष (आजकल में छपी) 


फैल जाती है 
भीतर इक नदी 
जब जब तुम 
सिंदूर लगाती हो 
तितर-बितर हो जाता है चाँद  
जब माथे पर 
बिंदी सजाती हो 
बौखला हो जाती है चाह 
चूड़ियों सी मिल जाती है 
दिशाएँ जब छोरों पर 
मैं पूरा औंधा लेटा होता हूँ तुम पर 
जब-जब सूर्य चमकता है 
तेज़ देता पृथ्वी को 
तुम हौले से उतरती हो देह में 
बन तरल चाँदनी 
तुमसे तुम्हारे सारे राज़ 
जान लेने को उत्सुक मैं 
पल-पल हारता हूँ 
तुम्हारी आगोश में 
कोशिश पर की गई अनन्य कोशिश 
मुझे नुक्कड़ पर 
खड़े होने का आभास कराती है 
जब भी तुम 
बंद हो जाती हो खुद में 
मैं मौन तोड़ना चाहता हूँ 
एक आल्हाद भरी चीख़ 
में तब्दील देखना चाहता हूँ 
तुम तृप्ति बनती हो जब 
तेज़ बिखरा जाती हो मुझे 
मुझसे मेरा सत्य जान लेने के बाद 
मेरी ही नज़रों में 
करते हुए मुझे ख़ारिज़ ... ए स्त्री 
जागती हो मेरे भीतर 
अपूर्ण अनंत तक 
हर कदम
जीता हूँ यह सत्य 
जब जब निहारता हूँ तुम्हें।  





परिचय – डॉ. रीता दास राम
नाम :-  डॉ. रीता दास राम  
संप्रति : कवयित्री / लेखिका 
शिक्षा : एम ए., एम फिल, पी.एच.डी.(हिन्दी) 
      मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई.  
जन्म :- 1968 नागपूर. 
वर्तमान आवास : मुंबई                                                  
पता :- 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074.  
मो॰ न॰ – 09619209272. 
ई मेल :- reeta.r.ram@gmail.com
कविता संग्रह :- 
    1. “तृष्णा” प्रथम कविता संग्रह 2012.
    2. “गीली मिट्टी के रूपाकार” दूसरा काव्यसंग्रह 2016 में प्रकाशित। 
कहानी :- ‘लमही’(2015), ‘गंभीर समाचार’ (2018) , ‘मनस्वी’ 2018 एवं ‘आजकल’-मार्च 2019, ‘छतीसगढ़ मित्र’ (2020) पत्रिका और प्रतिलिपि (ब्लॉग) में कहानी प्रकाशित। 
यात्रा संस्मरण : ‘इजिप्ट’ पर ‘नया ज्ञानोदय’ एवं ‘भवन्स नवनीत’ में संस्मरण प्रकाशित। 
स्तंभ लेखन :- मुंबई के अखबार “दबंग दुनिया” 2015 में और “दैनिक दक्षिण मुंबई” 2016 में स्तंभ लेखन।  
साक्षात्कार : 
1. ‘हस्तीमल हस्ती जी’ का साक्षात्कार मुंबई की ‘अनभै’ पत्रिका में प्रकाशित। 
2. कवि, आलोचक प्रोफेसर (मुंबई विश्वविद्यालय) ‘डॉ. हूबनाथ पाण्डेय’ का साक्षात्कार ‘बिजूका’ ब्लॉग में।  
3. साहित्यकार डॉ. असग़र वजाहत से फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशती पर संवाद वीडियो यूट्यूब पर।              
सम्मान :- 
   1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन।  
   2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ नागदा की ओर से 2015-16 का। 
   3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद 7 फरवरी 2017 में ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से। 
   4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान। 
   5. ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019 की घोषणा, मुंगेर, बिहार से। 
कवियों की संग्रहीत कविता संकलन में मेरी कविताओं को स्थान : 
1. गौरैया (मध्यप्रदेश) 
2. शब्द प्रवाह, वार्षिक काव्य विशेषांक (मध्यप्रदेश) 
2. समकालीन हिन्दी कविता भाग 1 (आरा, बिहार)  
3. साहित्यायन (मध्यप्रदेश) 
4. मुंबई की कवयित्रियाँ (मुंबई) 
5. चिंगारियाँ (मध्यप्रदेश)                                   
विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित :- 
‘मृदंग’ (2020), ‘नवनीत’ (2019) ‘चिंतन दिशा’ (2019), ‘आजकल’ जनवरी 2018 (दिल्ली), ‘वागर्थ’ जुलाई 2016, ‘पाखी’ मार्च 2016 (दिल्ली), ‘दुनिया इन दिनों’ (दिल्ली), ‘शुक्रवार’ (लखनऊ), ‘निकट’ (आबूधाबी), ‘लमही’ (लखनऊ), ‘सृजनलोक’ (बिहार), ‘उत्तर प्रदेश’ (लखनऊ), ‘कथा’ (दिल्ली), ‘व्यंजना’ 2019 (कानपुर), ‘आचार्य पथ’ 2018 (रायबरेली), ‘जीवन प्रभात’ 2018 (मुंबई), ‘युग गरीमा’ मार्च 2018 (लखनऊ), ‘अनभै’ (मुंबई), ‘शब्द प्रवाह’ (उज्जैन), ‘आगमन’ (हापुड़), ‘कथाबिंब’ (मुंबई), ‘दूसरी परंपरा’ (लखनऊ), ‘अनवरत’ (झारखंड), ‘विश्वगाथा’ (गुजरात), ‘समीचीन’ (मुंबई), ‘शब्द सरिता’ (अलीगढ़), ‘उत्कर्ष’ (लखनऊ) आदि पत्रिकाओं। 
वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल :- ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित।  
रेडिओ :- वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ।  
प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं कई पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। 

समकाल : कविता का स्त्रीकाल-36


चन्द्रकला त्रिपाठी की कविताएँ

1)-



 राजा को अभिनेता पसंद आता गया

उसका प्रजा पर असर ज़ोरदार दिखा

प्रजा वैसे तो कोई मुश्किल न थी

मगर ऐसे तो थी कभी और बहुत ज्यादा थी


राजा ने शिक्षा ली अभिनेता से मगर कहा इसे

गुप्त रखना

अभिनेता को भी दुनिया से यह रिश्ता छिपाना था

उसे प्रजा के हिए में अपनी जगह नहीं घटाना था


राजा ने कहा उसे प्रजा पर प्रभाव के मौके पर आंसू चाहिए

अभिनेता अचकचाया और अपना भेद बता गया

आंसू के मौके पर वह असली आंसू रोता है

अभिनय उसका इतना भी छल नहीं है कि वह रोने का

दिखावा करे

इन दिनों तो उससे हंसना हो ही नहीं पाता है

दिल में उसके मां के शव से चिपका एक बच्चा बिलखता है

इन दिनों कारोबार मंद है सबका

कोई भी कैसे भी प्रदर्शन में नहीं हिलगता


सुन रहा था सुकवि

उसने अपने भीतर बसे मुसाहिब को संभाला

राजा से कहा प्रभु

रोना बहुत आसान है

और प्रजा भी 

आंसू कौन देखता है

मुद्राएं संभाल लें


देखिए ऐसे

नहीं तो ऐसे 

सुकवि का चेहरा सिकुड़ता फैलता रहा

राजा अचरज से

चेहरे का बिगड़ना 

लटकना देखता रहा


आंसू पर चली बात तमाशा हुई जा रही थी

अभिनेता शर्मिंदा था

वह एक्ज़िट के बारे में सोच रहा था


ख़ैर

चंद्रकला त्रिपाठी

------

2)-

 राजा ने कहा  ,



 मेरी प्रशंसा में लिखो

कवि को बहुत कम शब्दों की जरुरत पड़ी 

चिकने चपटे शब्दों से काम चल गया 

व्यंग्य की

वैदग्ध्य की

करुणा की 

गुंजाइश ही नहीं थी

जो ललित कलित चाहिए था उसे

यहां वहां

इसके उसके गद्य पद्य से उठा लिया


फिर भी निचुड़ उठा कवि

असली मुश्किल पेश आई व्यंग्य का गला घोटने में

आंखों में कील जड़ने में

करुणा को दरबदर करने में

निचुड़ उठा


राजाओं को कवियों की कहां कमी पड़ी कभी

कवि था कि गुम हो गया


कलेजे में गड्ढा लिए कवियों के पीछे 

अर्थियां  घूमती हैं


कुछ हैं जो राजाओं से ज्यादा

राजकवियों से डरते हैं


ख़ैर .....


चंद्रकला त्रिपाठी


-----



3)-



सड़कें चाहने लगीं हैं कि वे इन दिनों मखमल हो जाएं


मौसम नम होना चाहते हैं


आग भस्म कर देना चाहती है प्रेम के सारे प्रदर्शन


पृथ्वी हिल रही है कि सही करवट जीना चाहती है


पत्थर शोक में हैं कि वे इतने पत्थर तो नहीं थे


 मसखरे क़समें उठा रहे हैं कि उनके जुमले झूठे नहीं होते

बस नकाब खींचते रहे हैं


जानवर चाहते हैं कि वे भी कोई किताब लिखें इंसानों के बारे में

लिखें कि उनके लिए बेरहम होने का अर्थ इंसान होना हुआ जा रहा है


 चीलें गिद्ध सियार सभी मरघटों पर इतनी बरक़त नहीं चाहते थे

इतना बड़ा नहीं है उनका पेट


माएं अब बांझ होना चाहती हैं


बद्दुआएं हैं कि हैरान हैं 

वे सही जगह लगती ही नहीं


चंद्रकला त्रिपाठी

--------


4)-


बहुत दिन बीत जाने पर

 वह परछाइयों में घुल जाता है


हंसने के ढंग में

चुप्पी होकर धड़कता है 


संगसाथ में दोस्त की तरह बरतता है


ऐसा तो कोई नहीं होता इतना टिक कर रहने वाला

दुःख की तरह का


इस दुनिया में कौन है ऐसा जिसे

कहीं जाने की कोई हड़बड़ी नहीं


5)-


धीमें बहुत धीमें चलती दिखती हैं चींटियां 

बेसब्री दिखाने भर काया नहीं उनके पास 


 बहुत झुक कर नहीं उड़ते पक्षी 

हवा छितराने के लिए भी नहीं 


बहुत दिनों से सन्नाटा है इधर

उन्हे तो इधर का ही पता है


सूख चुका है बगल की बस्ती का हैंडपंप

अगल की कॉलोनी में पानी अभी बाक़ी है


बांध कर ले जाया जा रहा है भगेलू

उसका असली नाम भी अब यही हो गया है

पांच बजे बंद कर देनी थी अंडे की दुकान

वह आठ बजे अपने ठेले के साथ पकड़ा गया 

पीछे पीछे दौड़ती जा रही है नसीमा

चिल्ला नहीं रही है

सिर्फ़ बिलख रही है 


उसके पीछे कोई खोल ले जाएगा उसकी बकरी

आसपास बहुत दिनों से उपवास चल रहा है


नीरज को अब से आधी तनख्वाह भी नहीं मिलेगी 

सुधा को नहीं मिल रहा है साड़ियों में फाल टांकने का काम भी

पढ़े-लिखे दोनों भीख मांगने में हिचकते हैं

छ: महीने के छोटे बच्चे के लिए भी जीना नहीं चाहते


किसी की कुंडी खटकी तो पृथ्वी तक कांप गई

क्या है ? कोई कुरस हो कर चिल्लाया 

स्त्री ने फोंफर से देखा उस दूसरी स्त्री को

उसकी उम्र कम थी और वह कांप रही थी

 उसके हाथ में गीली हुई पर्ची कांपती इस हांथ में चली आई और वह स्त्री अदृश्य हो गई

फोन नंबर था उस पर एक

पानी से पसर गए थे नंबर मगर बाक़ी थे


क्या है क्या है ?

वाली आवाज़ सख़्त थी 

दूसरों के झमेले में कोई नहीं पड़ता आजकल


बहुत दिनों से उस घर में स्त्री के नहीं होने की आवाज़ है

बाक़ी आवाज़ें अब ज़्यादा हैं , जैसे घिसटती हुई रुकतीं है बड़ी गाड़ियां और

सन्नाटे में किसी के नहीं होने को बार बार सुना जाता है


स्त्री ने हिम्मत करके उस नंबर पर फोन कर दिया मगर तब नहीं किया जब 

ख़त्म होने से पहले कुछ बचा लिया जाता है


बचा तो वह भी नहीं

वह छ: महीने का बच्चा भी


चंद्रकला त्रिपाठी



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परिचय

चन्द्रकला त्रिपाठी

नाटकों का निर्देशन और अभिनय भी। अकादमिक क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण समितियों की सदस्य

शुकदेव सिंह स्मृति सम्मान गाथांतर सम्मान सुचरिता गुप्ता अकादमी सम्मान



किताबें : कविता संग्रह - वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर , नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली

शायद किसी दिन , नमन प्रकाशन नई दिल्ली

कथा डायरी ,इस उस मोड़ पर अंतिका प्रकाशन

आलोचना , अज्ञेय और नई कविता 

आलेख कविताएं कहानियां , हंस कथा देश पूर्वग्रह,वागर्थ , रचना समय आलोचना, वसुधा, पल प्रतिपल वगैरह में

दूरदर्शन, आकाशवाणी के दिल्ली लखनऊ गोरखपुर वाराणसी इलाहाबाद केंद्रों से वार्ताएं साक्षात्कार वगैरह प्रसारित

यूजीसी कैरियर अवार्ड प्राप्त

42 वर्ष बीएचयू में अध्यापन और महिला महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचार्या पद से रिटाय-

समकाल: कविता का स्त्रीकाल-30

आसिया नकवी की कविताएँ

1

 दो  कलाकार 

पहला नाम से फिदा 
दूसरे पर  कुछ लोग फिदा 

पहले ने दुनिया रंगों से भर दी 
दूसरे ने नज़रयाती जंगों  से भर दी 

पहला सैकड़ों अल्फाज़ एक तस्वीर में भर देता 
दूसरा सैकड़ों जुमले  एक तकरीर  में भर देता 

पहले ने इज़हार को फरोग दिया 
दूसरे ने इज़हार को रोक दिया 

था पहला भी कलाकार 
है दूसरा भी कलाकार


2

रंग 

(एक )

बदल दिए जाते हैं रोज कविताओं के कपडे, 
कभी लाल, कभी भगवा और कभी सफ़ेद.
हरा माना जाने  लगा है ज़हरीला रंग. 

रोज़ खाने में परोसे जाते हैं 
अलग अलग रंग रूप के शब्द
और हद तो यह है, कि खाने में हरा हरा ना हो 
तो सब लाल हो जाता है

(दो)

लोग चाहते हैं 
कविताएँ भी बदलें कपड़ों की तरह 
बासी खाना और बासी कविताएँ 
अक्सर लोगों को रुला देती हैं. 
लगता है कल ही स्टॉक आउट हुआ है 
थ्रिल का बाज़ार 

(तीन )

हत्या हत्या होती है 
ब्रेकिंग न्यूज़ की हत्या तक
सब कुछ कितना रेपेटिटिव है. 
लोग चाहते हैं 
रोज़ बदलना चाहिए 
ख़ून का रंग. धर्म का रंग. 
खाने का रंग. रंगों का रंग
.......

इंसानों से जब मन जायेगा भर
ढूंढ लूंगी कोई  ऐसा  घर

बस्ती होगी  जहां ख़ामोशी  सूखी  घास 
और  संवेदनाओ की बेहोशी

वहाँ न  होगा  आदमी  जैसा  कुछ 
सब सम्बन्धों के परिमाण होगें 
शुन्य  एवं तुच्छ  



3
आइनों से डरने वाला आदमी.

उसकी उंगलियाँ उससे पहले उठती हैं
छोड़ कर पीछे उसकी मुट्ठी
पूर्णता एक ऐसी चीज़ जो वो खोजता है दूसरों में
और परछाईं से डरता है.
दिन शुरू करता है पोतते हुए आइनों पर कालिख,
दांत चमकाते हुए और
दुनिया का मखौल उड़ाते हुए.
अपने अन्दर की उपेक्षा कर देता है वो.

२.
उसकी कमाई हैं आँसू और अपशब्द.
जो सोख लिए जाते हैं उसकी अंतरात्मा के साथ.

३.
लेकिन आँसू कैसे काले करता वो?
उन्होंने हमेशा वही किया जिनसे वो डरता था.

दबी हुई अंतरात्मा....वापस मुखर...
आईने में उसकी परछाई.,,

४.
कोई मखौल नहीं
कोई चमकाना नहीं दांतों का.
बस दर्द पैदा होता है उसके अन्दर,
दर्द
 जिससे कवि पैदा होता है.

4
 कुछ  कैदी   हैं  जो  रिहा  किए जा   रहे  हैं 
कुछ  रिहायी  है  जो  कैद  की  जा  रही है 

नसलों  को  भी  मस्लों  को  समझना  होगा  
फसलों  को  भी  खेतों  को  समझना  होगा 

औरत  हूँ  तो  आवाज़  तो  हो  सकती  नही
सच्ची  हूँ  तो  बेगुनाह  तो  हो  सकती  नहीं 

इस  दौर  ए  जाहालत  का  है  अंदाज  यही 
जो  तख्ता  ए  हाकीम  है  ऐजाज़  वही 

की  हामला  भी  हमलावार  हो  गयी  आज 
की  खामोशियां  भी  जुमला  वर  बन  गयी आज 

उठो  की  शोर  थम   गया  अब  तो 
उठो  की  नब्ज़  जम  गयी  अब  तो 
उठो  की  उड  ना  जाए  रंग  ए  बाहार 
उठो  की  मिट  ना  जाए  दौर  ए ज़रग

.......
5
 एक कमरे के आगे 

वर्जिन्या वुल्फ़ कहती हैं कि हर स्त्री के पास लिखने के लिए अपना एक कमरा होना चाहिए. भारत में सिर्फ़ यही दबाव नहीं है जो स्त्री पर काम करता है. शायद एक कमरा देकर क़ैद करने की कोशिश के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लिखना बहुत पीछे रह जाता है. कई कई दिन बाद लिखना और फिर रोज़ दुनिया के और कविता के चलते पैदा हुए डिसिलूज़न से जूझना थका देता है . 

मैने बरसों बाद 
अकेले ख़ामोश बेदम  बक्से को खोला 
उसके ऊपर  जमी धूल  के कण झूम उठे -
अपने जी   उठने के  जश्न  में इस बात से बेख़बर 
कि  इतने  लम्बे अरसे से  अपने  अंदर क्या दबा  रखा था . 

सबसे ऊपर पड़ी जज़्बात  की पोशाक बोसिदा हो चुकी है 
एहसासात भी कुछ बेहतर नहीं हैं - उनके    चिथडों  पर  खिलखिलाते दीमक रेंग  रहे हैं. 
हक़ीक़त के रंग फींके हो  गए हैं . 
ख़ुदपसंदी का क़द छोटा हो गया है, 
नज़र तो  मजमे में नज़रअन्दाज़ हो जाएगी 

कोई तो है जो चमक रहा है 
शायद बिरादरी स्टोर  से  ख़रीदा दिखावा  है . 


आसिय


परिचय : 
आसिया नकवी  
कवि एवं ऐक्टिविस्ट. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित. अंग्रेज़ी,हिंदी में समान रूप से लेखन. 
संप्रति : अध्यापन. जन्म : 30.06.1988. 
मोब: 7543028451 ईमेल: aaasiya.naqvi@gmail.com

बुधवार, 2 मार्च 2022

समकाल,: कविता का स्त्रीकाल-29

भगवती देवी हिमाचल की रहनेवाली स्त्री कविता के वृहद भूगोल की नागरिक हैं,स्त्री कविता का वर्तमान राजधानियों से निकल गाँव कस्बों की सीमा पार कर विभिन्न प्रान्तों की स्थानीय परिस्थितियों का चित्रण अपनी कविता में मुखर रूप से कर रहा है।भगवती चुपचाप हिन्दी स्त्री कविता में प्रवेश करती वह कवयित्री हैं जिनकी कविता स्त्री मुक्ति की छटपटाहट को बयां करती स्त्री विमर्श की धारा को मजबूत करती है।

माँ

मैं देख रही थी 
चुपके से 
खिड़की के झरोखे से
मां के माथे पर 
उभर आ‌‌ईं सिलबट्टे...

वहांनहीं थी वह
जहां दिख रही थी 
वह पढ़ रही थी
खोज रही थी खुद को 
65 की उम्र में...

जो बहुत पहले थी
इस समय हरगिज़ नहीं थी वह
उसके द्वारा बुने गए
तमाम सपने
तमाम उड़ाने और आकांक्षाएं
इस वक्त हवा में थी...

कहां गया उसका समय
जो उसकी मुट्ठी में था
कहीं फिसलता ही चला गया
रेत की भांति
जीवन की पगडंडी पर 
चलते चलते...

माथे की सिलबट्टे बताती
वह भरे पूरे घर में 
अकेलेपन का दंश झेल रही है
सबकी ज़िंदगियां बनाने के बाद 
अब वह कहीं नहीं थी...

उसी दिन निहार रही थी शीशा
तलाश रही थी वह  खुद को
झुर्रियों से भरे चेहरे में...

आज वह थकी हुई
बैठी थी चूल्हे के पास...
बस चूल्हा ही था
जो उसे भीतर तक समझ पाया
भरे पूरे घर में...
वही एक खास साथी निकला
जिससे मां जीवन के गूढ़ रहस्य 
साझा करती
और तृप्त रहती...

*************
अहसास

जब मुझे आदेश मिला 
घर पर रहो 
मैं घर पर रहने लगा
आबोहवा ही ऐसी थी 
कि खुद के साथ - साथ 
सबको सुरक्षित रखना था 
एक बेहतरीन नागरिक की 
ज़िमेदारी थी मुझ पर 
मैं ज़िमेदारी को निभा रहा था 
घर पर ...
 पहले दिन के बाद 
 मुझसे रहा नहीं गया 
 मैने कुछ  युक्ति  बनाई 
 पत्नी संग हाथ बटाया
 बहुत रीझ से बनाया 
 फास्ट फूड 
 और फोटोशूट के बाद 
  रेसिपी का स्वाद 
  आभासी दुनिया को खूब दिलाया
  मेरा ये कार्य केवल  
  हफ़्ते भर ही चल पाया 
 उसके बाद दिमाग की नसों ने 
 फट्टना प्रारंभ  किया
 बाहर वालों से घर पर बैठने 
 के तरीके पूछे 
 सबने अपनी-अपनी युक्ति बताई ।

 इतना सब होने के बाद 
 घर पर रहने का राज़
 नहीं मिल पाया।

अचानक उसकी नज़र 
धर्मपत्नी पर पड़ी 
सोचने पर मजबूर हुआ 
 कि इस स्त्री ने 
 घर पर ही चुप्पी साध
 जीवन की पगडंडी पर
 कैसे चलती रही 
 उसे मालूम पड़ा 
 कि यह स्त्री बन्द दीवारों में कैसे 
 खुश रह लेती है 
 दिमाग और शरीर में
 नसे क्यों नहीं फूलती 
 वह कैसे घर पर रहकर 
सबका भविष्य संवार देती हैं 
वह कितनी बड़ी कलाकार है
जब उसे कोई चुप करवाता है 
वह चुप हो जाती है 
जब उसे कोई बुलबाता है 
तो वह बोलने लगती है 
वह इतनी सदिया 
आदेशानुसार ही चली 
और चुप रहकर जीती चली गई ...
ऐसे दौर ने
स्त्री के रहस्य से वाकिफ़ करवाया
कि वह बन्द कमरों में कैसे खुश रह लेती है 
पूरा जीवन इन भीतरी दीवारों में 
कैसे जी लेती है।

************
 उदास सड़क 

देखा कभी सड़कों को उदास 
गलियों को रोते हुए 
मैने देखा है 
सड़कों को सुबकते हुए 
21वीं सदी में...

21वीं सदी में इंसान के लिए
एक समय बिल्कुल थम गया
घर में कैद 
उसे होना पड़ा 
और छोड़ना पड़ा
सड़कों को सड़कों पर उदास।

ये ऐसा समय था 
जिसमें सड़कों पर से
नहीं थे स्कूल जाते बच्चे
नहीं था ठेले बाला 
नहीं था साईकल बाला 
नहीं था गाड़ी और रेलगाड़ी बाला 
हवाई यात्रा के पहिए भी 
रुक गए
ये ऐसा समय था 
कि पूरी दुनिया के डॉक्टरों
के रोंगटे खड़े थे
योगी गेट की सांसे भी 
फूल चुकी थी 
अन्तिम यात्री को  कंधा नहीं था
सड़कों के साथ 
पूरा संसार उदास था 
ये संदेह से भरा समय था 

ऐसे खौफ़नाक समय में 
डर पहली दफा महसूस किया।

**********




 डॉ भगवती देवी
 
हिन्दी में एम.ए, एम.फिल , पीएचडी ( जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू)
मैं हिंदी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय,जम्मू, 
जम्मू - कश्मीर में लेक्चरर (कन्ट्रैक्चुयल) हूं। 
 जम्मू - कश्मीर के सांबा जिला की तहसील घगवाल की वासी हूं। 
लेखन मेरी रूचि है। विभिन्न मंचों से काव्य पाठ । साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहती हूं ।विभिन्न पत्रिकाओं और ब्लॉग पर कविताएं प्रकाशित। विभिन्न जर्नल्स में शोध पत्र प्रकाशित।राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध पत्रों की प्रस्तुति। साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए ' संदर्भ ' नाम की वेबसाइट और '  तवी ' नाम से यू ट्यूब चैनल ।

समकाल कविता का स्त्रीकाल-28



बाबुषा कोहली की कविताओं के बिंब अनूठे हैं,वह अपनी कविताओं में बिंबों के माध्यम से रहस्यमयी कविता लोक गढ़ती हैं ।मूलतः प्रेम की कवयित्री बाबुषा स्त्री जीवन और सामाजिक विसंगतियों को बड़ी संजीदगी से अपनी कविताओं में दर्शाती समकालीन स्त्री कविता की अपनी शैली की कवयित्री हैं।बाबुषा का शिल्प जितना सुघड़ है कथ्य उतना ही मजबूत है।


बाबुषा कोहली की कविताएँ

१.

सायकिल वाली लड़की


वह क़स्बाई लड़की अपनी मौज में सायकिल चलाती हुई 
कहीं चली जा रही थी

क्षण भर का यह दृश्य अपने आकार में इतना विराट था
कि अब तलक मेरी सपनाई आँखों में 
सत घट रहा है
यह अक्षुण्ण क्षण झरने लगता है कभी मेरी आँखों से
और कभी अँगुलियों से

इस दिव्य क्षण की उर्वर मिट्टी में 
खिल रहे शब्दों के फूल
अँधेरे काग़ज़ पर असंख्य सूरजमुखी उग रहे हैं

**

वह क़स्बाई लड़की अपनी मौज में सायकिल चलाती हुई  
कहीं चली जा रही थी

क्या सायकिल इस ढंग से चलाई जा सकती है 
जैसे कोई कहीं न जा रहा हो 
सिवाय अपनी ताल में नृत्य करने के ?
वह लड़की ठीक इसी तरह सायकिल चला रही थी 
मानो रास्ते पहले से ही उसके वश में हों
जब  चाहे तब वह दुनिया की सबसे मायावी सड़क को 
अपनी सायकिल के पहिये तले बिछा सकती हो

न ही वह किसी से बतिया रही थी फ़ोन पर, 
न ही कोई उसके साथ था
मगर वह मुस्कुरा रही थी सायकिल के पैडल पर 
बेफ़िक्री से पाँव मारते हुए

इस कोलाहल भरे समय में ऐसी एकाकी मुस्कुराहट
दुनिया की बड़ी घटना है

घृणा को तोते की तरह पाल कर रखने वाले 
इस दौर में मैं नहीं जानती 
उसकी गौरैया-सी उन्मुक्त मुस्कुराहट का रहस्य
पर यह तय है कि इस रुत के घने मेघ 

लडकी की मोहिनी मुस्कुराहट से बने हैं
मेरे हृदय को तर करते हुए--

(मैं कुछ अनुमान करने लगती हूँ
अम्म्म... 
हो न हो, लड़की प्रेम में है 
उसकी चुस्त काली कुर्ती 
किसी प्रतिरोध का प्रतीक नहीं, 
वरन इसका पसंदीदा पहनावा है )

दरअसल उसे प्रतिरोध की आवश्यकता ही नहीं !
उसकी बेपरवाह मुस्कुराहट 
दुनिया भर के फ़ासिस्ट अट्टाहास को ठेंगा है

उसकी अस्त-व्यस्त नारंगी चुन्नी भोर की एक किरण है 
रात के कालिम को काट कर धरती पर बिखरती हुई
काँधे छूते उसके लटकन हिल रहे हैं 
हौले-हौले आगे-पीछे
तमाम घन्टाघरों की घड़ी के काँटों को मात देते

( एकाएक ठहर गया समय 
मेरी कलाई पर बँधी घड़ी बंद हो गयी है )

मैं उसे कोई नाम देना चाहती हूँ
मसलन कि उज्ज्वला, मुक्ता, स्वयंप्रभा, 
अक्षुण्या या आकाशगंगा
मगर दे नहीं पाती

सायकिल चलाती मंद-मंद मुस्कुराती वह लड़की 
किसी नाम में समा सकेगी ?
उसकी सायकिल में वह गति है कि नाम तो क्या
समय और स्थान भी पिछले चौराहे पर छूट सकते हैं

जबकि उसकी बलखाती देह यह संकेत देती है 
कि उसे कहीं नहीं पहुँचना

( मानो उसे जहाँ पहुँचना था वह पहले ही पहुँच चुकी है )

उस लड़की को किसी पार्टी का 
चुनाव चिह्न होना चाहिए
( क्या नहीं ? )

क्या इस भरपूर मुस्कुराहट को पाने के लिए ही नहीं रहा है 
मनुष्यों का सारा संघर्ष ?

वह लड़की धरती पर घटा एक ऐतिहासिक दृश्य है
एक सच्ची क्रान्ति
और मैं-
कृतज्ञता से भरी हुई उसकी मूक दर्शक।

(कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्ड्सवर्थ की भटकती हुई रूह अपनी 'सॉलिटरी रीपर' को ढूँढ़ते हुए मुझ में प्रवेश कर गयी हो और असीम सुख के इस क्षण में समय एक बार फिर से घूम कर चल पड़ा हो। )

वह क़स्बाई लड़की मंद-मंद  मुस्कुराते हुए
पैडल पर दे रही पाँव के हल्के थाप 
पृथ्वी घूम रही मगन 
अपनी लय में 

दुनिया के दोनों हिस्सों पर बारी-बारी से 
सुबह हो रही है



२.

रियाज़


तुम्हारी उजली चितवन में जितना भी कालिम है  
कष्ट है वह, प्रीत में तुमने जो पाया

उस सियाह के निःसीम आलोक में 
सीखते हो तुम संसार को देखना
इस नाते मैं-
तुम्हारी आँखों की पुतली हूँ

आँखें प्रायः दो कारणों से मूँदी जाती हैं
पहला, 
सत्य से बचने के लिए 
और दूसरा, सत्य को देखने के लिए

मेरे कंठ में थिरकती-फिरतीं सुरीली परियाँ जिन रागों की 
सुख है वह, प्रेम में मैंने जो गाया

वह राग हो तुम,
 हर गवैये से जो सधता नहीं
 कष्ट हूँ मैं ऐसा-
हर प्रेमी से उठता नहीं

चित्त की ऊँची शिला पर ध्यानस्थ हो तुम-
हवा का इकतारा लिए बैठी मैं
नरम दूब की चटाई पर 
चन्द्रमा की लौ में अपने अधसिंके सुरों का रियाज़ करती हूँ

३.

प्रेम की गालियाँ


तुम्हें औषध मिले, पीर न मिले
दृष्टि मिले, दृश्य न मिले
नींदें मिलें, स्वप्न न मिले
गीत मिलें, धुन न मिले
नाव मिले, नदी न मिले

प्रिय !
तुम पर प्रेम के हज़ार कोड़े बरसें
तुम्हारी पीठ पर एक नीला निशान तक न मिले


४.

पानी से बँधती है नाव 


पिता हँस कर पूछते कि कैसा वर खोजा जाए
मैं कहा करती वर स्वयं मुझे खोज लेगा 
पिता निश्चिंत रहे आए

महँगे उपहार नहीं चाहिए थे मुझे
न ही सुंदरतम उपमाओं से सज्जित कविताएँ
न ही जीवन बीमा सरीखे लम्बे व जड़ वचन

मेरे साथ रहने की न्यूनतम अर्हता इतनी सी थी
कि उसके शहर में एक नदी हो

जो पुरुष मेरे प्रेम में पड़े उनके शहरों में नदियाँ थीं
जो पुरुष मेरे द्वार की चौखट छू कर लौट गए 
वे नदियों के प्रेम में पड़े 

जो पुरुष नदी किनारे मेरे संग बैठे 
वे जान गए

कि तट से नहीं -
पानी से बँधती है नाव 


५.

मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं


जिन तितलियों को मैंने आँखों से छू कर छोड़ दिया
वे फूल-फूल बैठ कर 
लौट आईं मेरी कविताओं में महफ़ूज़ रहने

जिस प्रेम को छोड़ दिया मैंने एक कोमल धड़क से अस्त-व्यस्त कर
वह छूटते ही उड़ गया परिन्दा बन 
आकाश छू लेने

मेरे केश की कामना ने बाँध लिया है छूटा हुआ एक पंख उस फीते से
जो चन्द्रमा के दो उजले रेशों से बना है
आकाश के आँगन में सम्पन्न होने वाली उड़ानें
धरती पर किसी लड़की की चोटी से बंधी हैं
लड़की की " उँहू !" पर हिलती हुई चोटी से जूझती है रात
कोई जान नहीं पाता कि रात क्यों इस तरह लहकती है

अपने केश में उलझे इस पंख को एक दिन मैं नदी में सिरा दूँगी 
नदी उसे तट के हवाले करेगी
तट पर खेलती मल्लाह की नन्ही बेटी उसे अपनी स्कूल की कविता वाली किताब में रखेगी
किताब में बंद अधमरी चिड़िया उसे सहलाएगी

नन्ही जान नहीं पाती 
कि किताबों के पन्ने वायु की मति से नहीं फड़फड़ाते
पन्नों में हलचल दरअसल छूटे हुए पंख की फड़फड़ाहट है

सम्भव है कि नदी और उसका तट
मल्लाह की बेटी और उसकी किताब 
चिड़िया और पन्नों की हलचल
एकदम कोरी गप्प निकले
और सचमुच ! ऐसा होने में बहुत परेशानी नहीं है 
कि गप्प कई बार जीवन की इस तरह से देखभाल करती है
जैसे तो कभी-कभी कविता भी नहीं कर पाती 

कविता आख़िर करती ही क्या है ? 
वह तो महज़ तितलियों की सम्भाल में खर्च कर देती है अपना सारा कौशल
वह नहीं तोड़ती फूलों का भरोसा
वह रचती है रंग इन्द्रधनुष को उधार देने
वह बताती है दुनिया को कि ये आवारा चाँद किसके आसरे पे लटका है
वह सुनाती है नदी के तट पर मल्लाह की बेटी को किसी परिन्दे की कथा

उधर एक परिन्दा उड़ता ही जाता है आजीवन
इन्द्रधनुष का स्वप्न लिए आँखों में
बादलों की टहनियों पर बैठता है
भीगता है 
चोंच में दबाता है नमी के कुछ कण
फिर उड़ता है 
इन्द्रधनुष के पीले आँचल में अटकता है 
छूटता है भटकता है
इधर मल्लाह की वह नन्ही बेटी किताब से निकालती है पंख
मेरी कविता में डुबो देती है

मैं तितलियों को शुक्रिया कह आगे निकल जाती हूँ 
कोई लुभावनी-सी गप्प ढूँढने

मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं

__________