रविवार, 28 जनवरी 2024

जबाला के बहाने

      आख्यान कथाओं में जबाला एक सशक्त स्त्री रहीं हैं।वैदिक कालीन समाज में अपने पुत्र सत्यकाम को निर्भिक बना शिक्षा के लिए प्रेरित करनेवाली इन स्त्रियों की पहचान अनचिन्ही ही रही।जबाला की कथा से हमें परिचित करा रहें हैं लेखक राजेश प्रताप सिंह जी ।आइए पढ़ते हैं जबाल की कहानी....                                               


                                                        जबाला के बहाने


“आश्रम के मुख्य द्वार पर कौन है?” ऋषि हारिद्रुमत की गम्भीर आवाज़ वातावरण में गूंजी-

 “मैं हूँ ऋषि वर ! सत्यकाम जाबाल। आपसे ज्ञान प्राप्त करने हेतु आया हूँ।”  एक बालक आश्रम के मुख्य द्वार पर खड़े होते हुए बोला। 

“तो अंदर आ जाओ बाहर क्यों हो?”  आश्रम के भीतर से आवाज़ आई।

“ऋषिवर ! एक तो मैं अर्धरात्रि में आया था। फिर बिना आपकी आज्ञा के आश्रम में कैसे आता।”  सत्यकाम ऋषि के समीप आकर हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए बोला। 

हूँsss,ऋषि ने कुछ सोचते हुए कहा - “तुम दिन में भी तो आ सकते थे बालक?"  

“ मैं दिन में गृह-कार्यों में अपनी माँ की मदद करता हूँ । आज सायं को जब मेरी माँ लोगों के घरों से कार्य करके वापस आयी तो उसने मुझसे कहा कि पुत्र तुम अभी ऋषि के आश्रम चले जाओ। मैं जिनके यहाँ परिचारिका का कार्य करती हूँ, उनके यहाँ अतिथि आए हैं। इसलिए मैं कई दिनों तक व्यस्त रहूँगी। माँ का कहा मानकर मैं घर से चल दिया और अर्द्ध-रात्रि में यहाँ आ पहुँचा। “

"ओह! क्या तुम्हारे पिता का नाम जाबाल है?” ऋषि ने पूछा।

“नहीं! मेरी माता का नाम ‘जबाला’ है।” सत्यकाम ने उत्तर दिया।

"तुम्हारे पिता जी क्या करते हैं? " ऋषि हारिद्रुमत ने पुनः पूछा।

"मैंने जब से होश सम्भाला, तब से मैंने घर में केवल अपनी माँ को देखा। मैंने माँ से एकाध बार पूछा तो वह इस प्रश्न को टाल गयी। "

कुछ सोच कर सत्यकाम ने ऋषि हारिद्रुमत से प्रश्न पूछा- “ ऋषिवर, मुझे एक बात पूछनी है। यदि आपकी अनुमति हो तो निवेदन करूँ।” 



बोलो वत्स। “क्या मेरी माता को अपना नाम मुझे देने का अधिकार नहीं है ,क्या वह मुझे अकेले पढ़ा -लिखाकर मेरी देख-भाल नहीं कर सकती?” सत्यकाम विनीत भाव से बोला। 

सत्यकाम की बातें सुन ऋषि हारिद्रुमत  ने हँसते हुए कहा- “नहीं वत्स, ऐसा नहीं है। संतान पर पहला अधिकार जननी का ही होता है।” 

“फिर क्यों लोग मेरे साथ न तो खेलना चाहते हैं और न बात करते हैं।” सत्यकाम ने दुखी होते हुए कहा।

ऋषि ने कहा-“जिनके पास अंतर्दृष्टि, प्रेम और सहवेदना का अभाव होता है उनके अंदर स्वतः स्वार्थपरता आ जाती है, वही ऐसा करते हैं।” “वत्स तुम रात्रि से बिना कुछ खाए-पिए हो। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर कुछ खा लो, फिर आराम से बातें करेंगे।” 

यह कहते हुए उन्होंने अपनी भार्या को आवाज़ दी और कहा- “देवी! तनिक सुनो, एक नन्हें बटुक आएँ है। इनका भी प्रात रास तैयार कर दो। तीन प्रहर बाद इन्हें भी अन्य बटुकों के साथ कक्षा में भेज देना।” 

“अरे! यह तो बहुत सुंदर बालक है। अवश्य अपनी माँ पर गया होगा। चलो बेटा स्नानादि कर लो। फिर तुम्हें श्री अन्न की रोटी और काली गाय का मक्खन देती हूँ।”  कहते हुए ऋषि-भार्या उसे कुटिया में ले गईं।



 तीन प्रहर बाद सभी बटुक आश्रम के अंदर बरगद के वृक्ष के पास एकत्रित हो गए। ऋषि आकर बरगद के पास बने चबूतरे पर बैठ गए। अपनी धीर-गम्भीर वाणी में बोलना शुरू किया- “ शिष्यगणों! आप लोग अगले एक माह तक यहाँ रहेंगे और समस्त कार्यों में सहयोग प्रदान करते हुए अपने दैनिक कार्यों को पूरा करेंगे। भोजन तैयार करने में भी अपनी माता का न केवल सहयोग करेंगे वरन बनाना भी सीखेंगे। एक माह बाद आपकी योग्यता के आधार पर आगे ब्रह्म-ज्ञान की शिक्षा दी जाएगी। "कहकर ऋषि उठ गए। 

सभी नए बटुकों को आश्रम के सहायकों ने कार्य बता दिया। बटुक अपनी इस प्रथम परीक्षा में पूर्ण मनोयोग से लग गए। एक माह के बाद ऋषि ने सर्वप्रथम सत्यकाम को अपने पास बुलाया और पहले से अलग की हुई चार सौ कृशकाय गायो को दिखाते हुए कहा- “हे सत्यकाम, इन गायों को लेकर जंगल में जाओ और इनकी सेवा करो। जब ये सभी स्वस्थ हो जाएँ, तब लेकर आना।” 

जैसी आज्ञा गुरुवर! कह कर सत्यकाम उन गायों के पास चला गया। गायों को जंगल ले जाते हुए उसने कहा- “गुरुदेव! मैं इन गायों के एक हज़ार होने पर ही वापस आऊँगा।” 

सत्यकाम गायों को लेकर अंदर घने जंगलों में चला गया। कई साल बाद जब उनकी संख्या एक हज़ार हो गयी, तब उन्हें लेकर धीरे-धीरे वापस आने लगा। एक दिन सायंकाल सभी गायों और उनके बछड़ों को चारा देने के बाद अग्नि प्रज्ज्वलित कर, संध्या वंदन हेतु पूर्वाभिमुख हो बैठा। उसी समय उसके मन में विचार आया कि मैं जहाँ भी गया, हर जगह पवन व्याप्त है। पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, अंतरिक्ष और द्युलोक सर्वत्र पवन है। कहीं यही ब्रह्म का रूप तो नहीं,या यही ब्रह्म तो नहीं? इस पर मनन करते ध्यानावस्था में कब सूर्य की रश्मियाँ उसके चेहरे पर दस्तक देने लगीं,उसे पता ही नहीं चला। जब आँखे खुली तो सत्यकाम का चेहरा एक अनोखी आभा से परिपूर्ण था। 


अगले दिन सायंकाल जब वह ध्यान में बैठा तो एक नया विचार उसके मन में कौंधा। यह सही है पवन सर्वत्र व्याप्त है परंतु बिना अग्नि के हम उस परम सत्ता के बारे में समझ नहीं सकते। पृथ्वी पर अग्नि ही उस प्रकाश का प्रतीक है। इस पर मनन करते हुए कब प्रातः क़ालीन पक्षियों का कलरव वातावरण में गूँजने लगा उसे पता ही नहीं चला। जब उसकी आँखें खुली तो उसके चेहरे पर आत्म-संतुष्टि का भाव था। एक नई ऊर्जा के साथ वह दैनिक कार्यों मैं व्यस्त हो गया। उसे यह आत्म दृष्टि हुई कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है वरन अनंत भी है। उसे यह आत्मदृष्टि हुई कि ब्रह्म ना केवल सर्वव्यापी एवं अनंत है,वरन स्वतः प्रकाशवान भी है।

गायों को चारा खिलाकर वह आश्रम की ओर चल दिया। जब आश्रम से सत्यकाम लगभग एक योजन की दूरी पर रह गया तो सूर्यदेव पश्चिम में अस्ताचल की ओर प्रयाण करने लगे। सत्यकाम ने निश्चय किया कि अब आज यहीं विश्राम कर लिया जाए और कल गुरुदेव के दर्शन किया जाएगा। 


पूर्व की भाँति आज जब वह सायं को ध्यानावस्थित हुआ तो सम्पूर्ण व्यापकता, अनंतता एवं द्युतिमान होने के साथ-साथ उसे यह भी बोध हुआ कि वही सत्ता मेरी प्राण-वायु और अंतः चतुष्टय में भी व्याप्त है। इस ज्ञान के साथ वह कब समाधिस्थ हो गया, उसे पता ही नहीं चला। प्रातः जब वह उठा तो उसके चेहरे पर असीम शांति और प्रकाश का अद्भुत समन्वय परिलक्षित हो रहा था। दैनिक कर्मो को कर  गायों को चारा आदि देकर वह आश्रम की ओर चल पड़ा। सायंगोधूलि बेला तक वह आश्रम पहुँच गया। गायों को नियत स्थान पर कर के सायंकल की पूजा आदि समाप्त कर वह गुरुवर के चरणों में अभिवादन हेतु उनके पास पहुँचा। अभिवादन कर वह कुछ निवेदन करनेवाला ही था कि ऋषिवर उसके चेहरे की ओर देखकर कुछ सोचते हुए बोले- “वत्स आज तुम थके हो। कल प्रातः दैनिक पूजा आदि कर मुझसे मिलो।” 

“जैसी आज्ञा ऋषिवर।” कहकर सत्यकाम विश्राम हेतु कुटिया में चले गया। अगले दिन जब वह ऋषि के पास मिलने आया तब ऋषि उसकी ओर देखते हुए बोले- “ सत्यकाम, तुम्हारे चेहरे के तेज से ऐसा लगता है कि तुम्हें ब्रह्म-ज्ञान का बोध हो चुका है। अब तुम बताओ क्या रहस्य है?” 

सत्यकाम विनत होकर बोला-“ ऋषिवर, जब मैं गायों को लेकर वापस आ रहा था तो चार रात्रि लगातार मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि स्वयं अग्नि देव मुझे ब्रह्म-ज्ञान दे रहे हों। परंतु मेरी माता और विद्वत जन यही कहते हैं कि यह ज्ञान गुरु के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए आप मुझे यह ज्ञान दीजिए। मैं आपको अपना पूरा अनुभव सुनता हूँ।” यह कहकर सत्यकाम ने अपना पूरा अनुभव ऋषि को बता दिया। ऋषि हारिद्रुमतद्रु अत्यंत प्रसन्न हुए और सत्यकाम को समस्त ब्रह्मज्ञान फिर से बताया। आगे चलकर कर सत्यकाम ने एक गुरुकुल की स्थापना की। 


        राजेश प्रताप सिंह

        सेवा निवृत्त आई. पी. एस

        आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)