रविवार, 25 दिसंबर 2022

कहानी

                                                            मित्रता



चंद्रकला त्रिपाठी


 भूगोल विषय की कक्षा में अध्यापक के प्रवेश करते ही विनय उठ कर कक्षा के बाहर जाने को उद्यत हुआ। विनय सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था। बहुत मेधावी था वह। कक्षा में हमेशा आगे की पंक्ति में बैठता।आज भी वहीं बैठा था इसलिए उसे उठ कर जाते हुए पूरी कक्षा ने देख लिया था।
 आज भी कई सहपाठियों के चेहरे पर उसके लिए व्यंग्य पूर्ण मुस्कान थी। मगर नवल उदास था। वह असहायता पूर्वक विनय को सिर झुकाए कक्षा से बाहर जाते देखता रहा।विनय का कातर और फीका पड़ा सा मुंह उसके भीतर एक रुलाई जैसी पैदा कर रहा था।वे गहरे मित्र थे।साथ खेलते और  स्कूल बस से साथ ही आते जाते थे।विनय के कारण ही वह जिले में शतरंज का सर्वोत्तम खिलाड़ी बना था। उसके लिए ही विनय ने प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया था।नवल को याद है कि उसके प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ज़िद करने पर विनय ने हंस कर कहा था कि तब तो उसे हार जाना पड़ेगा क्योंकि वह नवल को चैंपियन बनते देखना चाहता है।
 ऐसा क्या हो गया है कि विनय अब उससे दूर दूर रहता है। उसकी तरफ उदास सा देखता है और किसी और तरफ देखने लगता है।
 उसने तो पूछा भी था।
 वह कुछ नहीं हुआ है ऐसा कह कर टाल गया था।
 इन दिनों उसके पास किताबें नहीं होती हैं। अभ्यास पुस्तिकाएं भी नहीं होती हैं। भूगोल विषय के अध्यापक बहुत ही अनुशासन प्रिय हैं। उन्हें कक्षा में पुस्तकें न लेकर आने वाले विद्यार्थी लापरवाह लगते हैं। पिछले दिनों उन्होंने विनय को सचेत किया था कि अगर वह किताबें लेकर नहीं आएगा तो इसे वे उसकी उद्दंडता समझेंगे।तब उसे कक्षा में आने की आवश्यकता नहीं है।

 उन्होंने विनय को कक्षा के बाहर जाते देखकर कहा कि इसका अर्थ विनय की अनुशासन हीनता है और अब उन्हें प्रधानाध्यापक से उसकी शिकायत करनी पड़ेगी।
 विनय ठिठक गया था।
 उन्हें देख उठा था वह।
 पूरी कक्षा यह देखकर स्तब्ध हो गई।
 नवल का उस दिन क्लास में मन नहीं लगा।
 वह सोचता रहा कि क्या उसने सचमुच यह जानने का प्रयत्न किया है कि विनय ऐसा क्यों कर रहा है।वह बहुत अमीर नहीं है मगर इस अच्छे स्कूल में अपनी प्रतिभा के कारण उसे दाखिला मिला है। उसके अंक हमेशा सबसे अच्छे आते रहे हैं। गणित की कक्षा का तो वह हमेशा नायक रहा है। इस समय भी गणित के अध्यापक अख्त़र हुसैन जी उसकी क्षमता के बड़े प्रशंसक हैं। उन्होंने उसे अपनी पुस्तकें दे दी हैं और वे शायद उसकी स्थिति के बारे में जानते हैं।
 नवल को दुःख है कि वह पक्की मित्रता के बावजूद सब कुछ क्यों नहीं जानता।
 उसने तय किया कि उसे विनय की परिस्थिति के बारे में सब कुछ जानना ही है।
 घर आकर उसने अपनी मां से विनय के विषय में सब कुछ बताया।
 नवल के रुआंसे उदास चेहरे को देखकर वे दुःखी हुईं।
 शाम को उसके पिता के घर लौटने के बाद इस समस्या पर विचार किया गया। उसके माता पिता को लगा कि संभवतः विनय का परिवार किसी आर्थिक संकट में आ गया है।कोरोना महामारी के बाद कई परिवार ऐसे अनिष्ट को झेल रहे हैं।हो सकता है कि विनय के परिवार में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ हो।वे विनय के विषय में अधिक नहीं जानते थे क्योंकि पारिवारिक स्थिति के बारे में तो नवल भी नहीं जानता था मगर विनय का घर कहां है यह वह अवश्य जानता था।


विनय और उसकी बड़ी बहन उन्हें देखकर चकित हुए मगर फिर आवभगत में जुट गए। थोड़ी देर में ही वहां एक स्त्री आई  और उनके पास बैठ गई। सौम्या,विनय की बहन ने बताया कि वे उनकी मां की मित्र हैं और उनके साथ ही रहती हैं।
घर में बड़ी उदासी थी।
विनय के माता पिता नहीं दिख रहे थे।
थोड़ी देर में ही उन्हें पता चल गया कि ढ़ाई साल पहले एक भयानक बस दुर्घटना में दोनों की मृत्यु हो गई थी। पिता एक निजी उद्यम में काम करते थे जिससे कुछ धन मिला अवश्य किंतु उससे उन्होंने इस घर का बैंक से लिया गया ऋण चुका दिया। मां की मित्र का भी दुनिया में कोई नहीं है।वे इस घर के नीचे के तल पर एक सिलाई कढ़ाई का स्कूल चला रही हैं और सौम्या जो उस वक्त आईआईटी खड़गपुर में इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में थी, अपनी पढ़ाई छोड़ कर लौट आई है और वे अब किसी तरह विनय की पढ़ाई की व्यवस्था कर पा रहे हैं। उन्हें पता है कि फीस देने के बाद इस वर्ष की किताबें इत्यादि खरीदने में उन्हें थोड़ा वक्त लग रहा है।
विनय ने जैसे उन लोगों को आश्वस्त करते हुए बार बार कहा कि आज उसके पास सभी किताबें आ गई हैं।अख़्तर सर और संदीप सर ने इंतज़ाम कर दिया है।कल से उसके पास सब किताबें होंगी और उसे इस कारण कोई दंड नहीं मिलेगा।
विनय नवल के आने से हर्षित था।
बार बार उसे आश्वस्त कर रहा था मगर नवल की उदासी यहां आकर बढ़ गई थी।
उसकी मां ने सौम्या को गले से लगा लिया था। खूब स्नेह कर रही थीं वे।
सौम्या ने उनसे बार बार कहा भी कि उसे कोई दिक्कत नहीं है मगर नवल की मां ने पूछ लिया - ' फिर तुमने अपनी पढ़ाई क्यों छोड़ दी बिटिया!'
सौम्या हिचकिचा गई।
वस्तुत: वह किसी से मदद नहीं लेना चाहती थी,ऐसा लगा।
उसका परिवार आर्थिक रुप से बहुत मजबूत नहीं था मगर बहुत स्वाभिमानी था।वे सभी अपने प्रयत्न से इस परिस्थिति का सामना करना चाहते थे।

अपनी बहुत कम हो चुकी आय में वे मिलजुल कर कटौती पूर्वक काम चला रहे थे।
सौम्या ने बताया कि वह पास के ही एक ट्यूशन केंद्र पर आठवीं कक्षा तक के बच्चों के लिए गणित पढ़ा रही है और कुछ पैसा जुट जाने पर फिर से आईआईटी की प्रतियोगिता में भाग लेगी और अपनी शिक्षा पूरी करेगी।
नवल के माता पिता उसके आत्मविश्वास और संघर्ष से बहुत प्रभावित हुए।
वे दोनों भाई बहन आत्मसम्मान की आभा से दमक रहे थे।
नवल ने बहुत उम्मीद से भर कर मां की ओर देखा तो पाया कि वे उसको भरोसा दिलाती हुई मुस्कुरा रही थीं।उन दोनों ने सौम्या और विनय का अभिभावक बन कर उनकी शिक्षा में योगदान करना तय कर लिया था।
सौम्या के हिचकने पर नवल के पिता ने कहा कि हमारी मदद तुम्हारे ऊपर कृपा नहीं है बल्कि हमारे देश में कई ऐसी मददगार योजनाएं हैं,संबल हैं जिनके बारे में तुम लोग नहीं जान पाए हो।जब तक उस स्तर पर कुछ संभव नहीं हो पाएगा हम लोग तुम्हारे लिए सब कुछ ऐसे ही करेंगे जैसे नवल के लिए करते हैं। इसमें हमें खुशी होगी।
नवल के दिल पर से एक बहुत बड़ा दुःख हट रहा था।
वह यह बताता हुआ रो पड़ा था कि कैसे कक्षा के अन्य साथी विनय की परिस्थिति न जानते हुए उसका मज़ाक उड़ाया करते हैं।
उसकी मां ने उसे विनय सहित अपने अंक में ले लिया और कहा - 'अन्यथा कुछ न सोचो।वे कुछ जानते नहीं इसलिए ऐसा करते हैं। देखना उन्हें उसके संघर्ष का ज्ञान होगा तो वे इस पर गर्व करेंगे '

सचमुच उन्होंने ठीक कहा था।
एक दिन आया जब पूरी कक्षा ने विनय के लिए खड़े होकर ताली बजाई।
विनय ने गणित विषय में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर पूरे देश का नाम किया था।
उसकी बहन आईआईटी खड़गपुर की सबसे योग्य विद्यार्थी के रुप में आगे पढ़ रही थी।
 नवल को गर्व था कि उसने मित्रता में मनुष्यता की विजय को हासिल किया है।



परिचय

प्रोफेसर चंद्रकला त्रिपाठी सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनके दो कविता संग्रह क्रमशः ‘वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर’ तथा ‘शायद किसी दिन’ बेहतरीन संग्रहों में से हैं। इससे इतर गद्य की उनकी पुस्तक ‘इस उस मोड़ पर’ पिछले वर्षों में काफी चर्चित रही। 
पूर्वग्रह , शब्दयोग ,  चौथी दुनिया , परिकथा ,सुलभ इंडिया आदि पत्र -पत्रिकाओं  में कहानियाँ प्रकाशित।



एक प्रतिबद्धता थी कि न ई कलम को गाथांतर का मंच जरुर मिले।सामने विशाल साहित्य जगत है जिसमें से निरन्तर कुछ उम्मीदें तलाशती रही हूँ।उसी क्रम में प्रतिभा का नाम आता है।पेशे से शिक्षिका प्रतिभा की एक लघु कथा आज गाथांतर ब्लाग पर प्रस्तुत है

' फर्क ' -

------एक लघुकथा

सुबह कामवाली माधुरी देर से आई और आते ही सिर झुका के बर्तन साफ करने लगी । उसके ब्लाउज के बाहर ,पीठ पर लाल चकत्ते उभरे देखकर रागिनी उससे पूछ बैठी । "माधुरी , ! क्या आज फिर मारा तुम्हारे आदमी ने "??? माधुरी सिर झुकाये ही बोली , "हाँ बीबी जी , दारू के नशे में बौरा जाता है , और फिर ना मुझे पहचानता है और ना बच्चों को ", अपनी फ़टी हुई साड़ी के पल्लू को हटा कर चोट के लाल काले निशान दिखने लगी वह। "माधुरी कितनी बार तुझसे कहा है कि , जब वह तुझ पर हाथ उठाये तो हाथ में जो भी आये खींचकर तू भी मार "। नहीं मार पाती तो उस आदमी की रिपोर्ट कर दे , चार दिन थाने में बन्द रहेगा और पुलिस का डंडा पड़ेगा तब सारी अक्ल ठिकाने आ जायेगी "। "बीवी जी मर्द है मेरा ...! जैसा भी है मेरा और बच्चों का पेट तो भर रहा है ।जेल चला जायेगा तो मेरे छोटे छोटे बच्चे भूखे मर जायेंगे। बिन मर्द की लुगाई पूरे गाँव की भौजाई होती है बीवीजी"। "तू बनी रह पति व्रता । और ऐसे ही मार खाना जीवन भर । तुम 'छोटी औरतें ' अपने लिए लड़ना ही नहीं जानती ।तुम्हारी नियति में बस पीटा जाना ही लिखा है । हुंह ...!" "जिस दिन उसे छोड़ दूँगी पूरी दुनिया मुझे ठोकर मारेगी बीवीजी। 'सड़क का पत्थर बनने से , आँगन का पत्थर बन कर रहना बेहतर होता है ना बीवीजी '।" माधुरी दार्शनिक की भांति बोली। ****** आजकल रागिनी के पति मिस्टर महेश अक्सर देर से आते हैं ।कभी कभी नशे में धुत और बाहर खाना भी खाकर आने लगे थे । आज भी उन्हें आने में देर हो गयी । "मैं खाना खाकर आया हूँ रागिनी "। महेश घर में घुसते ही बोले। " यदि आपको खाना बाहर ही खाना रहता है तो कम से कम एक कॉल तो कर देते "। "आज फिर इतनी ज्यादा शराब पी है आपने ?? अपना नहीं तो बेटू का ख्याल किया करिये वह बड़ा हो रहा है ।आपको इस हाल में देखकर उस पर गलत असर पड़ता है "। रागिनी आवाज थोड़ी ऊँची करके बोली। "व्हाई यू आर सो एंग्री डार्लिंग .? यू नो आई एम् अ बिजनेस मैन ।और बिजनेस में इतना चलता है जान ।" महेश , रागिनी को बाँहों में भरकर उसके होंठो पर होंठ रखते हुए बोले । शराब का एक तेज भभूका रागिनी की नाक से टकराया ।उसे उबकाई आने लगी ।उसने महेश को तेजी से परे हटाया जिससे महेश लड़खड़ाते हुए बेड पर गिरे और उनका सिर बेड के सिरहाने से टकरा गया । "यू बिच ..!! साली मुझ पर हाथ उठाती है । मैं खिलाता हूँ , पहनता हूँ , ये आलिशान बंगला , गाड़ी , सब मेरी कमाई से है ।" महेश ने उसकी गर्दन पर अपने नाखून गड़ा दिए । रागिनी गिड़गिड़ाई "महेश छोडो दर्द हो रहा है "। "हरामजादी ..! तेरी महंगी साड़ियां और ये ब्रांडेड लिपस्टिक मेरे पैसों की है ।" महेश उसके होंठो को अंगूठे से रगड़ते हुए बोला । वह बड़बड़ाये जा रहा था । "दो कौड़ी की लौंडी तेरे जैसी सैकड़ों रख सकता हूँ मैं ।तू आजकल बहुत उड़ने लगी है, आज तुझे बताता हूँ दर्द क्या होता है ।" यह कहते हुये महेश ने अपनी बेल्ट निकाली और रागिनी को जमीन पर गिरा कर पीटने लगा। रागिनी गिड़गिड़ाती रही , लेकिन नशे में डूबे महेश ने उसे तब तक पीटा जब तक वह थक नहीं गया । आज रागिनी का उच्च शिक्षित , बड़े घर की बेटी, बहू , होने का दर्प चूर चूर हो गया। उसकी सोच के दायरे में उसमें और माधुरी के बीच की औरत का 'फर्क 'समाप्त हो गया था ।। ******

प्रतिभा श्रीवास्तव
आज़मगढ़

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

कविताएँ

                                              रवि शंकर सिंह की कविताएँ





       (1)
किस्सा बच्चों का
------
तेज धार -सी
हड्डियों को छेदती
इन सर्द हवाओं से बचने के लिए
आओ घेर लो
इस अलाव को

बचपन की बहुत सारी कहानियाँ
जुड़ी हैं इस आग से
कहा था एक बार
एक किस्सागो में
हमारा ईश्वर कैद है
किसी अजाने मुल्क में
जिसे आज तक 
छुड़ा नहीं पाया किसी ने
उनकी शर्तों के मुताबिक

कितना फर्क है आज
जब हम समझते हैं झूठ -सच को
तब कोई किस्सागो
मनगढ़त कहानियाँ नहीं सुनाता
यह कहकर
साफ मना कर देता है
कि तुम एक देशद्रोही हो

छोड़ों बच्चों
बताओ 
क्या सुनाऊँ तुम्हें
उस जंगल की कहानी
जहाँ से विस्थापित हो गये जानवर
पेड़ काट दिये गये
जला दिये गये पत्ते
मोड़ दी गयीं
नदियों की राहें
पहाड़ का सीना चीरकर

कहना भी नहीं
सुनाने को उस राजा की कहानी
जिसने कर के रूप में
लाया था ऐसा कानून
खून देने की घोषणा की गयी थी
जनता को खून से
देश की लचर आर्थिक व्यवस्था को
मजबूत बनाने की
शपत ली गयी थी
उनसे माँगा गया था
प्रत्येक घर से थोड़ा -थोड़ा राष्ट्रवाद
और इंकार करने पर
दुश्मनों के लश्करों में 
जाने का दिया गया तथा आदेश

क्या देख रहे हो बच्चो
बिल्कुल आसमान साफ है
चाँद -सितारे छुपे हैं बादलों में
दादी की कहानियों के देवी -देवता
अब नहीं आते धरती पर
हर एक हत्या का 
गवाह होते हैं देवी-देवता
जो ऊपर से देखते हुए
नहीं उतरते जमीं पर
अदालत में गवाही देने
आखिर किससे डरते हैं
आखिर वह कौन है
जो खत्म कर देगा उनका अस्तित्व

क्या सुनाऊँ
उस जादूगर की कहानी
जो रहता है
एक बड़े से सोने के महल में
महल की सुरक्षा में
बड़े-बड़े आदमखोर हैवान खड़े हैं
खेल दिखता है दिन में
और रात में
गायब कर देता है उनके
गाँव -शहर को

मैं कोई कहानियाँ नहीं सुनाऊँगा
जिसमें राजा-रानी ,जादूगर और कोई जंगल हो
मिटा दो उन कहानियों को
खुद बनो कहानी का हिस्सा
और बन जाओ नायक
खुदमुख्तारी ही बचा सकती है
तुम्हारा बजूद !

(2)

उड़ान
-----
कोशिश करता हूँ समझने की
क्या है
मेरे अंदर जो हलचल पैदा कर रहा

उसके चले रास्ते पर
उगे पावों के निशान को
क्यों तलाश कर
रंग भरता हूँ उनमें
लाल,हरे ,गुलाबी
नापता हूँ अपने पैरों से
उनके रंग -बिरंगे पैरों के आकार

कक्षा में व्यख्यान देते हुए
भूल जाता हूँ विषय-वस्तु 
और ढूंढ़ने लगता हूँ
किताबों में रखी 
फूल की सूखी पंखुड़ियों में
उसकी देह की महक

किसी दिन
पंछी बनकर
उतर जाऊँगा धीरे -धीरे 
उसकी आत्मा के वृक्ष पर
वहीं मैं छोड़ दूँगा
 थोड़ा -सा पंख !
(3)
 शिकार
-----
सांसों को रोकना
कुछ देर जरूरी लगता है
इससे अंदाजा लग सकता है
कितनी देर
अगर नदी में डूबने लगे 
तो जिंदा रह सकते हैं

जटिल समय में
प्रयोग जारी रखना
समय के साथ चलना माना जाता है
इसके कई प्रमाण
विशेषज्ञों की फाइलों से
आजकल झाँक रहे हैं

जो कभी पानी मे उतरे नहीं
उनका विश्वास है
साथ मजबूरी भी
इससे तो कम-से -कम 
नदी में बहते हुए जीवों
के बारे में समझ लेंगे
हुनर सीख लेगे
पानी में हाथ-पैर चलाने की
पत्ते पर तैर रही चींटियों से
बतिया लेंगे कुछ पल
कि उसने कैसे बनाई है पत्ते की नाव

सीखने के दरमियाँ भूल गया
कि मैंने देखा था
नदी को पैरों से नापने वाले का 
अचानक एक पैर
मगरमच्छ का निवाला बनते

हमें बताया गया
ज्ञान फर्जी था
मुझे पता तब चला
जब नदी के तट से
इस वारदात को देखा

गरीबों की चमड़ियों से बनी नाव में
बैठा मलाह
ही कातिल था
ना जाने कितने लोगों को
डूबा दिया बीच में

नदी को पार करने के लिए
भाड़े की बोली लग रही थी वहाँ
उनके दिमाग में उपजा गलत सवाल
मेरे सामने सपना बनकर उभर रहा था
और मैं गलत सपने का शिकार बन बैठा !






(4)

लौट आओ
-----
लौट आओ
सम्हालों अपने साम्राज्य को
जब से तुम गये हो
वे तुमसे धीरे-धीरे रूठ रहे हैं
जिन्हें तुमने बसाया था अपनी हाथों

देखता हूँ
उस नन्हें से पौधे को
जब भी उसके करीब जाता हूँ
मुझे निहारता है टकटकी लगाकर
मेरे आँखों में ढूंढता है
तुम्हारे आने की खबर
मेरी पलके छुपा लेती हैं
सच्चाई जिसे मैं कह नहीं पाता
क्या जवाब दूँ
उस नन्हें से पौधे को

जिसका इंतजार करते थे तुम
देखते थे रोज उसकी राह
वह डाकिया आया था कल
लेकर तुम्हारे लिए चिट्टी
वह चिट्टी तुम्हारे बिछड़े हुए दोस्त की है
जिसका जिक्र रोज करते थे तुम
चाय की चुस्की लेते हुए
कागज के टुकड़े में लिखे शब्द
जवाब माँगते हैं तुमसे
बोलो क्या लिखूँ ?

आकर देखो
खाली लगता है घर का कोना -कोना
अब तो दीवारों पर
दीमक लगने लगी हैं
कमजोर कर रहीं दीवारें

हवा में उड़ रहे धुल के कण
जमीन के फर्श पर
धीरे-धीरे उतर रहे हैं
और उससे बनी डरावनी आकृति
मुझे डरा रही

कैसे रोकूँ
इस फूहड़ अहसास को
जो मेरे हृदय में
रफ्ता-रफ्ता टिसटीसा रहा हैं

इस कंपकपाती ठंड में
मुठ्टी में क़ैद किये 
सीने से लगाये
सबकी राहत के लिए
लौट आओ ,लौट आओ मेरे दोस्त
थोड़ी -सी गर्मी लेकर

(5)

भटकाव
------
आजकल रात भी
जी चुराती मुझे देखकर

आधी रात को 
जब मेरी नींद टूटी 
सूरज सो चुका होता

बलरेज पर आकर देखता हूँ
आसमान की ओर
कि कहीं दिख जायें चांद-तारे

लेकिन आसमान ने
बादलों को चादर बनाकर
ओढ़ लिया है

ऐसी रात को नाम देता हूँ
शांत रात
गली में
आवाज भी नहीं आ रही कुत्तों के भौंकने की
सड़कों पर गुजरने वाली गाड़ियाँ
अपनी मंजिल पर पहुँच गईं जल्दी

अरे !पगली कहाँ गई
जो गंदी मोटरियों के साथ
सोया करती थी सड़क के किनारे
क्या हो गया है मुझे 
जो इन सबों को ढूंढ रहा हूँ मैं

अब जुगनू की चमक फीकी पड़ने लगी
लौटना चाहिए मुझे
काँटों भरे बिस्तर पर
वहीं सुनूंगा
मुर्गों के बोलने की आवाज !



परिचय
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रवि शंकर सिंह
जन्म-04/01/1992
शिक्षा -स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र),यू.जी.सी.नेट,पी-एच.डी.
प्रकाशन- एक कविता संग्रह 'बाकी सवाल'
जनपथ,वागर्थ ,समहुत, छपते -छपते,अमरावती मंडल,अहा! जिन्दगी ,नवलेखन अंक वागर्थ ,परिकथा ,कथा,करुणावती, इरावती ,रेवांत और हिमतरु पत्रिका में कविताएँ प्रकाशित।विभिन्न पत्रिकाओं में रेखाचित्र,रिपोर्ट्स ,लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित।

सम्प्रति -  साहित्यिक पत्रिका जनपथ के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध।

सम्पर्क- द्वारा -नरेन्द्र कुमार सिंह
रुद्रापुरी, मझौआं बाँध         
 आरा-802301(बिहार)
मो.न.-09931495545
8709829351


मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

कहानी

       संभावनाशील लेखिका चित्रा पवार की कहानी टाइपराइटर मानव जीवन संघर्ष को बेबाकी से रेखांकित करती है।कथादेश पत्रिका में प्रकाशित यह कहानी इन दिनों चर्चा में है।आइए पढ़ते हैं चित्रा की कहानी....



                                                                टाइपराइटर


शहर की कचहरी को आप संकट मोचन हनुमान का मंदिर ही समझिए ।
जहाँ दिन निकलते ही फरियादी लम्बी लम्बी कतारों में अपने दुःख दर्द का पिटारा लिए दौड़े चले आते हैं।
जो फरियादी अभी पहली या दूसरी बार ही यहाँ आए हैं उनका पिटारा कुछेक कागज या एक दो गिनती की फाइल वाला दुबला पतला सा रहता है और फरियादी हट्टा कट्टा। परंतु जो फरियादी इस दरबार में वर्षों से अर्जी लगा रहे हैं उनके गाल पिचक कर जबड़े में धंस गए हैं और कमर धनुषाकार हो गई है। उनके जूते चप्पल अपने वजूद से मोटी सिलाई और गठाई के बलबूते हाँफते हुए बस जैसे तैसे दौड़ रहे हैं।
इन लोगों को देखकर मालूम होता है कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते–लगाते सिर्फ चप्पल जूते ही नहीं घिसते आदमी भी घिस जाते हैं। बड़े बुजुर्ग ऐसे ही नसीहत नहीं देते थे कि ‘कोर्ट कचहरी की सीढ़ियां जो आदमी एक बार चढ़ गया फिर नहीं उतरता भले ही उसके तन से कपड़े उतर जाएं, खेत बिके, घर बिके, आदमी राजा से रंक हो जाए पर मुकदमा पीछा नहीं छोड़ता, इसलिए जितना संभव हो इनसे बचने में ही भलाई है’।
  कुछ ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंने कचहरी की आजीवन सदस्यता ग्रहण कर ली है कचहरी के दरवाजे पर हर रोज सांझ सवेरे हाजिरी लगाना अपना धर्म समझते हैं। इनका झोला देखकर देखने वाले के मन में एक बारगी यह संदेह जरूर उत्पन्न होता है कि यह कोई कबाड़ी वाला तो नहीं है कुछ लोग दया दिखाते हैं, “हाय !!! बेचारा कितना गरीब है ! रद्दी रखने को रेहड़ा तक नहीं खरीद सकता, इतना बोझ सिर पर ही ढो रहा है” ।
कुछ सीधी साधी घरेलू स्त्रियां तो रद्दी का भाव तक पूछ डालती है, हद है क्या कहा जाए ! ( माफ कीजिएगा, कचहरी की संगत में मुझे बड़बोलेपन की लत पड़ गई है ।)
अब वो बेचारी भी क्या जाने समझे कोर्ट कचहरी के चक्कर ...!
सुबह कचहरी शुरू होते ही वकील और उनके चेले देवी देवताओं को मन ही मन मनाते, काला परिधान धारण किए अपनी अपनी गद्दियों पर आकर जम जाते हैं ।
देखिए तो जरा इन कानून के जानकर भाई साहब को,; कैसे नजर का तोर चीते जैसा होने पर भी बड़ा सा चश्मा आँखों पर चढ़ा कर यूँ फाइलों में गर्दन गाड़े बैठें हैं गोया किसी बहुत गंभीर और पेचीदा मसले में उलझे हो।
क्लाइंट की उन्हें कोई चिंता ही नहीं रहती क्योंकि गेट के बाहर घूमते उनके गुर्गो का काम ही मुर्गे फसाने का है।
इनकी विशेषज्ञता इस बात में है कि इन्हें फेस रीडिंग में महारत हासिल है।
आने वालों का मुँह देखते ही एक पल में झट से ताड़ लेते हैं कि परेशानी और जेब का आकार प्रकार कितना है। पोशाक और गाडी देखते ही दिमाग में सेट बही खाता तुरंत लाभ हानि का जोड़ घटाव करने लगता है।
चेले कान में आ कर फुसफुसाते हैं,” साहब कोट वाला आदमी चार चक्का से आया है ,वो भी सियाज में बैठकर....अरे साहब मारुति सियाज एस है इस मोटे के पास ... बारह लाख की गाड़ी रखता है तब तो जरूर कोई मोटी चिड़िया होगी...!
“अबे साले बकबकाता ही रहेगा या पकड़ कर भी लाएगा...जा जल्दी दौड़कर जा, नहीं तो चौधरी जी के संतरी,मंत्री, प्रधानमंत्री बिनोदवा ने देख लिया तो खिसकने नहीं देगा”
हा हा हा हा..... दोस्तों सुबह से लेकर साँझ तक दिन में न जाने ऐसे कितने ही रोचक सीन देखता हूं मैं ...
धत्त तेरे की...!
मैं कौन ...
यह बताना तो मैं भूल ही गया
अच्छा ठहरिये... ठहरिये बताता हूं...
सुनिए दोस्तों मैं वही जिसकी आवाज कचहरी से सौ कदम दूर से ही सुनाई देने लगती है, मेरी.. टक टक टक टक की आवाज सुनकर निपट अंधा आदमी भी कचहरी का पता बडी आसानी से बता सकता है।
कुछ समझे ...अरे भई टाइपराइटर…मैं हूं टाइपराइटर,, जिसके बिना कचहरी वैसी ही है जैसे जल बिन मछली!!
मैं यहाँ अपने उस्ताद गनपत नरायन के साथ बरामदे के ठीक सामने गोलाई में फैले घनी मीठी छांव वाले नीम के नीचे पैंतीस बरस से बैठता आ रहा हूं। उस्ताद इलाहाबाद के बासी ठहरे, बाप हरदेव पासी की बाबा वकीलों से किसी बात पर लंबी ठन गई, इलाहाबाद जैसे शहर में पंडितों से एक पासी का आँख में आँख डालकर बात करना शहर बदर कर गया। मजबूरन बाप बेटे कुछ जरूरी समान और मुझे लेकर सपरिवार पछाई के इलाहाबाद यानी मेरठ शहर में आ बसे। मेरठ में हाईकोर्ट भले ही ना हो लेकिन रुतबा और केस दोनों हाईकोर्ट से छटाक भर भी कम न थे, फिर यहां का बार एसोसिएशन हाईकोर्ट बेंच के लिए दिन रात सरकार की नाक में नकेल डाले हुए हैं एक ना एक दिन बेंच मंजूर होते ही इलाहाबाद से कम थोड़े ही रहेगा अपना मेरठ।



बाप–बेटे मेहनती थे ही, पत्थर से पानी निकालना बखूबी जानते थे। कुछ ही दिनों में धंधा चल निकला।
कचहरी के गेट में घुसते ही दिखाई पड़ता है नीम का विशालकाय पेड़, उसकी मोटी डाली पर लटका बोर्ड आपको हमारे तक आसानी से पहुँचा देगा, बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा है “अपनी चौकी नीम तले वाले गनपत जी टाइपिस्ट ”
उसके नीचे बारीक अक्षरों में लिखा है।
‘हमारे यहाँ टाइपिंग उचित दाम पर होती है’। तो फिर देर किस बात की हमसे मिलने घूमते टहलते चले आइए किसी दिन मेरठ कचहरी में!
गनपत नरायन सिर्फ मेरे ही उस्ताद नहीं हैं बल्कि अगल बगल बैठे टोटल बयालीस टाइपिस्टों के भी उस्ताद हैं।
उनकी उंगलियाँ चलती नहीं हैं नाचती हैं मियाँ ... यूँ थिरकती हैं जैसे कोई खूबसूरत नर्तकी बिजली की गति से नृत्य कर रही हो।
एक माँ जैसे अपने बच्चे की एक –एक रग जानती है ठीक वैसे ही उस्ताद भी मेरे सत्ताईस सौ से ज्यादा कल पुर्जों से भली भांति परिचित हैं। मेरे अंगों को यूँ नर्म कपड़े से पोंछते हैं जैसे में धातु से बना कोई मशीनी उपकरण ना होकर हाड मांस का नाजुक सा बदन वाला उनका अपना बच्चा होऊं।
अगर कोई गलती से भी कह देता, “अरे गनपत स्वामी कब तक चलाओगे इस पुराने औजार को अब तो नया खरीद लो, खटारा हो गया है... अब बेच भी डालो इसे किसी कबाड़ी वाले को”।
उस्ताद तिलमिला जाते हैं बर्दाश्त नहीं है उन्हें की कोई मेरी शान के खिलाफ़ एक शब्द भी कहे ।
मेरा और मेरे उस्ताद का रिश्ता बिलकुल सुल्तान और बाबा भारती जैसा है। बाबा भारती जब सुल्तान की गर्दन सहलाते तो सुल्तान ख़ुशी से हिनहिना उठता, ठीक वैसे ही जब मेरे उस्ताद की उंगलियां मेरे बदन को छूती हैं तो मैं प्रफुल्लित होकर टका टक दौड़ने लगता हूँ ।
मैं पैंतीस बरस से लिख रहा हूं उस्ताद का दिमाग ,वो सोचते जाते हैं और मैं लिखता जाता हूँ ऐसी बारीक समझ है हमारे बीच की कहीं एक ही शरीर के अंगों के बीच भी ऐसा तालमेल ढूँढे से न मिलेगा। उनकी उंगलियों के पोरों को छूकर बता सकता हूँ कि आज उस्ताद का मिजाज कैसा है।
जब उस्ताद खुश होते हैं उनकी उंगलियाँ मुझे यूँ छूती हैं मानो पियानो बजा रही हो मेरी कानफौडू टक टक की आवाज में न जाने कहाँ से इतनी मधुरता आ जाती है संगीतमय हो जाता है मेरा स्वर...
वैसे तो तीन दशक के साथ में ऐसी मधुरता लिए पल न जाने कितनी बार आये होंगे, ठीक से याद भी नहीं पड़ता। लेकिन कुछ पल आज तक मेरे जेहन में ज्यों के त्यों छपे हैं जैसे कल की ही बात हो, जब उस्ताद की शादी हुई थी उस समय कई माह तक मैं पियानो सा बजता रहा था, सिलाई कढ़ाई में निपुण हमारी नई नवेली भाभी जी ने मेरे लिए भी दो पोशाक बनाई थीं, एक मोरनी रंग की जिस पर सफेद और जामुनी रंग के रेशमी धागों से भरमा कढ़ाई से चमेली के फूल बने थे।
और दूसरी पोशाक पीले रंग की, जिस पर हरी जंजीर की कढ़ाई से गेहूं की बालियां बनी थी
जिन्हें पहन कर में उबड़ खाबड़ मशीन से एक दम किसी संग्रहालय में रखा कीमती सजावटी सामान सा लगने लगता। शाम के समय जब उस्ताद दुकान बढ़ाते मुझे बक्से में रखकर कपड़े से ढक देते या फिर दिन में थोड़ी बहुत देर के लिए कमर सीधी करनी होती तब कपड़ा ओढ़ा देते, मैं अपने दूसरे साथियों को मुँह चिढ़ाने लगता। उन सबके बीच में मैं अपने आप को राजा समझने लगता और उन सभी को अपनी प्रजा…
हाँ तो हम बात कर रहे थे उस्ताद के खुश होने की !
उस्ताद की पहली संतान के जन्म के समय भी हम दोनों साथ–साथ खुशी से झूमे थे, लयबद्ध होकर गुनगुनाए थे।
 मुझे आज भी याद है उस दिन उस्ताद ने पूरी कचहरी में पेड़े बांटे थे और मेरा रिबन, जो अभी दो महीने पहले ही बदला था उसे भी उस्ताद ने ख़ुशी में पहले ही बदल दिया था, और लगे हाथ सर्विस भी करा दी थी रिबन बदलते हुए कह रहे थे, “बिटिया हुई है ख़ुशी का दिन है तू भी खूब चमकीला लिख और खूब चमक”..
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है उस्ताद की उँगलियों की बेचैनी से मुझे यह भांपने में देर न लगी कि आज उस्ताद की मनोदशा कुछ ठीक नहीं है ।
मैं बेचैन हो उठा सुबह से दोपहर होने को आयी मगर अभी तक उस्ताद की उदासी रहस्य बनी हुई थी। वही उंगलियाँ जो कभी एक हिज्जा तक गलत न करती आज पूरी की पूरी लाइन गड़बड़ कर रही थीं।
न जाने आज क्या हुआ है उस्ताद को !कैसे मालूम पड़े!
भगवान का शुक्र है कि ढलती दुपहरी तक बगल वाली कुर्सी पर बैठे रामजी काका की नजर अनमने से बैठे उस्ताद के चेहरे पर पड़ गयी ।
रामजी काका ने मशीन रोक दी कुर्सी से उठकर उस्ताद के सामने आ खड़े हुए।
गनपत कोई बात है क्या?
नहीं कुछ नहीं!
“अरे भाई अब बताओगे भी की क्या हुआ, सुबह से गुमसुम बैठे हो, न दुआ सलाम, न हाल चाल, कोई बात ही नहीं कर रहे हो, बस जब से आये हो जुबान पर ताला मारे बैठे हो”।
“कोई बात नहीं है काका, मुझे काम करने दो और आप भी काम करो”।
“काम होता रहेगा, उठो अभी”,
रामजी काका ने उस्ताद का हाथ पकड़ लिया।
रामजी काका का इतने हक और अपने पन से पूछना उस्ताद के सब्र के बाँध को तोड़ गया।
फफक कर रो पड़े
“बेटी की सगाई और गोद भराई में चार लाख से अधिक रुपया खर्च हो गया, दहेज का जो भी समान था सब सगाई में ही लड़के वालों के यहाँ पहुंचा दिया था”।
“अरे तो क्या हुआ पुरखों के बनाए रीति रिवाज हैं बेटी का बाप अपनी बित से बाहर जाकर खर्च करता ही है, तुम पैसे के लिए रो रहे हो ...” रामजी काका उस्ताद के सर पर हल्की सी चपत लगाकर ठहाका मार कर हँसने लगे ।
“अब लड़का शादी के लिए मना कर रहा है”, उस्ताद ने धीरे से कहा और आँखें गहरी मूँद कर आँसुओं की एक लंबी लड़ी टपका दी ।
यह सुनकर रोया तो मैं भी था पर मेरे आंसू मेरी पथरीली कटी फ़टी दरारों वाली काया में जाकर समा गए।
रामजी काका का मुँह खुला का खुला रह गया।
इस घटना के बाद उस्ताद महीनों उदास रहे।
चेहरे की चमक उस दिन लौटी जब एक बीडीओ साहब ने उनके समक्ष उनकी लड़की की काबिलीयत पर मोहित हो कर बिना दहेज की शादी का प्रस्ताव रखा दिया, दरअसल बीडीओ साहब हमारे उस्ताद की बेटी को जेएनयू में पढ़ाई के दिनों से ही जानते थे वे वहाँ उस्ताद की बेटी से दो साल सीनियर थे। लड़की का बढ़ चढ़ कर आंदोलनों में भाग लेना, सही गलत बातों पर बेबाकी से अपना पक्ष रखना और यूनिवर्सिटी में अव्वल आना उस पर मोहित हो जाने के लिए पर्याप्त था लेकिन बीडीओ साहब अपने दिल की बात तब तक न कहना चाहते थे तब तक की एक बेटी के बाप को उसकी बेटी का अच्छे से ख्याल रखने का भरोसा न दे सकें।
लग गए सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में।
जैसे ही पी सी एस का फाइनल रिजल्ट आया अगले ही दिन उस्ताद के दरवाजे पर आ जमे और दिल का सारा हाल कह सुनाया। उस्ताद ने रसोई की चौखट पर खड़ी अपनी बेटी की तरफ देखा, पिता से नजरे मिलते ही उसने मुस्कुरा कर गर्दन झुका ली।
बस देर किस बात की थी उस्ताद ने रिश्ते के लिए हाँ कर दी।
पढ़े लिखे संस्कारी दामाद ने ज्यादा चटक मटक को तवज्जोह न देकर सादगी से गिनती के बारातियों के साथ आ कर विवाह कर लिया।
बिदाई के समय उस्ताद रामजी काका के गले लगकर खूब रोये ...
होने को तो विवाह में पूरा घर खानदान इकट्ठा था।
परंतु रिश्तेदारों से ज्यादा आत्मीयता मित्रों के साथ बन जाती है।
उस्ताद जानते थे कि इस समय उनकी मनोस्थिति रामजी काका से बेहतर और कोई नहीं समझेगा।
समझने को तो मैं सबसे बेहतर समझता हूं लेकिन उस्ताद के घर नहीं जाता हूँ न, उस्ताद रोज शाम को मुझे यही कचहरी के एक कमरे में बक्से के भीतर बन्द करके रख जाते हैं।
अगर उस समय उस्ताद के सामने मैं होता तो बिला शक रामजी काका की जगह उस्ताद मुझसे लिपटकर रोए होते।
कचहरी में इतने बरसो के साथ में हमने खूब सुख दुःख का समय देखा, तिल के ताड़ बनते देखे, भावनाओं की सौदेबाजी देखी (कभी कभी लगता कि यह कचहरी न्याय की चौखट न होकर कोई अंधी सुरंग है जिसमें आदमी एक बार अगर भूले से भी कदम रख दे तो फिर यह सुरंग उसे निकलने का रास्ता ही नहीं देती आदमी अंदर गया नहीं की सुरंग का दरवाजा बन्द)
नौजवान लड़के देखे जो नौकरी के लिए एफिडेविट बनवाते, शपथ पत्र बनवाते, परेशान हो इधर उधर दौड़ते रहते।
वारिस प्रमाण पत्र, वसीयतनामा, प्रार्थना पत्र, जमीनी हेर फेर के कागज, सरकारी अमले से पीड़ितों की अंतहीन व्यथा, दाखिल खारिज के दस्तावेज, तजबिशानी, बड़े नेताओं, बिजनैसमेनो का रिवाल्वर पिस्टल के आवेदन–पत्र, राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी, आईजीआरएस, न्यायालय का काउंटर या रिट आती तो अधिकारियों के अर्दली सीधे उस्ताद के सामने आ खड़े होते उस्ताद ऐसा जवाब लिखते की कोई बड़े से बड़े कानूनची भी उसमें लिखे को कहीं से कहीं तक काट न सकता था और भी न जाने क्या–क्या और किस–किस की व्यथा लिखते पढ़ते हम दोनों इन बरसों में न जाने कितनी बार साथ–साथ रोये, साथ–साथ हँसे थे।
हम दोनों सुबह काम में लगते तो फिर पूरे दिन कतार न टूटती, एक तो उस्ताद का काम फुर्तीला और साफ़ सफाई का ...दूसरा किसी को लूटते न थे, जो जायज था वही लेते।
कभी एक कहावत सुनी थी की “कमेरे कु काम दिक्खै अर आलसी कू खाट”।
यह कहावत हम दोनों पर चरितार्थ होती, छुट्टी वाला दिन बक्से में बंद पड़े–पड़े काटे नहीं कटता, एक–एक क्षण पहाड़ जैसा लगता, वही स्थिति उस्ताद की होती छुट्टी के अगले दिन और दिनों से एक घण्टा पहले ही हाजिर हो जाते।
ऊपर से वकीलों की आये दिन की हड़ताल।
वकीलों की हड़ताल मतलब वकालत बन्द, वकालत बन्द तो जिरह कौन करें इस चक्कर में कोर्ट बन्द, कोर्ट बन्द तो फरियादियों का आना बंद, फरियादियों का आना बंद तो दोस्तों हमारी टक टक भी बंद ...।
उस्ताद आग बबूला हुए खूब बरसते वकीलों की बात बेबात की हड़ताल पर।
रामजी काका ठहरे ठन्डे दिमाग के आदमी, मुस्कुरा कर कहते, “अरे भाई बार का तो काम ही बहिष्कार करना है, ठीक है इसी बहाने दो चार दिन हमारे हाथ भी सुस्ता लेते है”।
वैसे भी मुझे चलाने वाले व्यक्ति मेडिटेशन के भी मास्टर हो जाते है, उनके दिमाग में जो चलता है हाथ साथ के साथ कागज पर उतारते रहते है, ध्यान हटा नहीं की लो हो गयी लाइन गड़बड़ ...
मुझे चलाने वाला बस अपने में मग्न हुआ पूरी दुनिया से बेफिक्र बस सोचता और लिखता रहता है।
उसकी इस योग साधना में मेरा भी कम योगदान नहीं है।
मेरी आवाज किसी बाहरी शोर शराबे को उनके आस पास फटकने तक नहीं देती, जिससे उनकी एकाग्रता भंग हो।
शायद मेरी यही खूबियां हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी भाप गये होंगे तभी तो उन्होंने गोदरेज से देश में ही मेरा निर्माण करा लिया था। वैसे भी कुछ व्यक्तियों का कहना है कि मैं बहुत बेसुरा हूं किसी को मेरी आवाज से माइग्रेन की समस्या होती है तो किसी को नींद नहीं आती।



इन पैंतीस सालो में मैंने भी कचहरी की धूल ऐसे ही नहीं फांकी है कुछ कानून मैं भी जानता हूं।
मैं इन सभी आरोपों को शिरे से खारिज करता हूं उसके पक्ष में मेरे पास मजबूत तर्क है, पूछिये मार्क ट्वेन से की अगर मेरी आवाज से व्यवधान होता तो क्या वह टॉम स्वायर जैसी कालजयी रचना मेरी बटनों पर लिख पाते ?
या फिर दुनिया के दूसरे महान लेखक जैसे मण्टो, रस्किन बांड या फिर कुंवर नरायन मेरी खटर पटर के साथ क्यों लिखना पसन्द करते, लेखकों का उदाहरण यहाँ मैंने इसलिए दिया क्योंकि लेखन चिंतन मनन का विषय है जिसके लिए एकाग्रता नितांत आवश्यक है।
सो दोस्तों इस बेबुनियाद आरोप से तो हम टाइपराइटर बा इज्जत बरी होते हैं।
अब लौटते हैं अपनी कहानी पर, यानी की उस्ताद गनपत नरायन और उनके टाइप राइटर यानी की मेरी कहानी पर।
उस्ताद की उम्र अब साठ पार हो चली है। ऊपर से काम का इतना दबाव, कभी–कभी तो बीपी भी अचानक ऊपर नीचे चला जाता है।
कई बार संगी साथी टोक देते हैं अरे भाई अब वह उम्र नहीं रही जब चौबीसों घण्टे काम करके भी गात की फुर्ती ज्यो की त्यों बनी रहती थी, क्या हाल बना रखा है अपना, कम काम किया करो अब सुस्ताने की उम्र है इतना काम का बोझ लेना ठीक नहीं ...
चाहते तो उस्ताद भी थे कम काम करना, मगर घर के हालात, ऊपर से जवान लड़के का बेफिक्र घूमना फिरना।
घर की पूरी जिम्मेवारी बूढ़े कंधों पर ही थी।
 लड़के को कई बार कचहरी साथ लेकर आये, डाँट डपट कर बैठाया भी, खूब कोशिश कि किंतु सब अखारत ,, जिस काम में इंसान अपनी तौहीन समझता हो उसे भला क्यों करने लगा, आखिर जोर जबरदस्ती से कितने दिन साथ बैठाते।
नौकरी भी बंधी बधाई तनख्वाह वाली न थी दिन भर टक टक करते तब जाकर कही सांझ तक चार सौ, पांच सौ कमा पाते, फिर साल में मेरी जरूरत भी दो सर्विस की हो गयी थी मैं तो जैसे तैसे एक सर्विस से ही गुजारा कर लेता लेकिन उस्ताद न मानते, “कहते तेरा सहयोग है तो दो रोटी में कमी नहीं, तुझे कुछ हो गया तो समझो मेरे हाथ ही टूट जाएंगे, इस उम्र में माँ बाप को बेटा कमा कर खिलाता है, हमारा तो तू ही बेटा है घर तेरी कमाई से ही चलता है”।
इसी तरह दिन कट रहे थे उसी कचहरी के माहौल में, नरमी–गर्मी, धूप–छाव वाले दिन।
अपने प्रति बेपरवाही और काम की अधिकता के कारण दिन ब दिन उस्ताद की तबीयत गिरती जा रही थी।
पूरा दिन खांसते रहते, हल्का बुखार भी चौबीसों घण्टे बना रहता।
मुझसे उनका यह हाल देखा न जाता, पिंजरे में बंद पक्षी सा फड़फड़ा कर रह जाता हूं।
अपने आप से चिढ़ होती, काश यह मशीनी काया बोल सकती तो उस्ताद को खूब खरी खोटी सुनाता जबरदस्ती अस्पताल भेजकर जांच कराता, उनसे कहता चलो ,,घर ले चलो मुझे जो भी थोड़ा बहुत काम मिले वही बिस्तर में बैठकर करना। अगर काम नहीं भी मिलेगा तब भी कोई बडी बात नहीं, भले ही यह कंप्यूटर का जमाना हो मगर आज भी बहुत से ऐसे युवा है जो नौकरी की मांग या शौक के लिए ही सही टाइपराइटर चलाना सीखना चाहते हैं और फिर आप तो उस्ताद है आप से बेहतर कौन सीखा सकता है देखना कुछ ही दिनों में दूर दूर तक के बच्चे आने लगेंगे। तुम्हारे पास सिखाने का समय भी न होगा, और जब स्वस्थ हो जाना फिर आ जमेंगे यही ‘अपनी चौकी नीम तले कचहरी वाले गनपत जी’ वाले अपने पुराने ठिकाने पर ..”।
साल दो साल के भीतर ही बीमारी अपने परिणाम साक्षात् दिखाने लगी। लगभग बासठ, तिरसठ की उम्र में ही उस्ताद अस्सी पार के बुड्ढे दिखने लगे।
कहां बिना नागा किए नित नेम से अपनी चौकी पर हम दोनों जमे रहते, आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी किसी भी मौसम में उस्ताद काम से छुट्टी न करते, कुछ वकील ठिठोली करते, लो भैया भले ही मेघ ऊक जाए पर क्या मजाल की गनपत की चौकी खाली दिख जाए।
शरीर की दुर्बलता बढ़ती ही जा रही थी, कई–कई दिन तक बिस्तर में मुंह दिए पड़े रहते, यहाँ में बक्से की दीवार से कान लगाए पूरा दिन राह ताकता रहता कि शायद उस्ताद की कुछ खबर मिले, या फिर उस्ताद ही चले आएं किसी दिन।
थोड़ा भी आराम मिलता तो दो चार दिन में उस्ताद कचहरी दौड़े आते ,, मुझे बक्से से निकलवा कर घण्टों साफ़ सफाई के बहाने दुलारते रहते, भरे भरे गले से न जाने अंदर ही अंदर क्या बड़बड़ाते फिर गर्दन नीची कर गमछे की किनोर से आँखें पोंछ लेते।
हम दोनों गले तक भर जाते, इतना लंबा सफर एक साथ तय किया था हमने, मुझे ऐसा कोई दिन याद नहीं आता जिस दिन उस्ताद ने कभी मेरी देख रेख में कोई कोताही की हो, कभी तेजी से उठाया पटका नहीं, हमेशा झाड़ पोंछ कर साफ़ सुथरा रखा...
मैंने भी कहां कमी की थी दौड़ते दौड़ते हाँफ जाता था पर कभी हार नहीं मानी, हमेशा इसी कोशिश में लगा रहता की थोड़ा और तेज चलूँ, आज दो चार रुपये की ओर अधिक कमाई हो जाए।
कदम से कदम मिला कर चले साथी का पीछे छूटना, मुझ हृदयहीन के न जाने किस भावनात्मक पुर्जे में हुक सी उठा देता।
धिक्कारता खुद को आखिर क्या मिला उस्ताद को इतने बरस तक मेरे साथ रहकर !! वही अभाव की पैबन्द लगी जिंदगी…!!
मात्र अभाव अथक परिश्रम के उपरान्त भी विपन्नता, करोड़ों शब्द लिखने वाला, लाखों लोगों का जीवन बदलने वाला एक टाइपिस्ट जिंदगी भर दो वक्त की रोटी में उलझा रहा ।
वही साधारण खान पान, पोशाक।
मुझे तो याद नहीं पड़ता की उस्ताद कभी डब्बे में चार रोटी और आधी कटोरी सब्जी से अलग कोई पकवान, मेवा मिष्ठान ले कर कचहरी आये हो।
अब फरियादी खाली चौकी देखकर लौट जाते किसी दूसरे टाइपिस्ट के पास। सप्ताह दस दिन में उस्ताद बैठते भी तो पूरा दिन मक्खी मारते, पहले जिस आदमी के पास दम भरने तक की फुर्सत न थी अब वह ठाली बैठे दूसरों का मुंह देखता रहता। ग्राहक नियमित होता है किसी से बंध गया तो फिर जल्दी नहीं टूटता। उस्ताद के बंधे हुए ग्राहक टूट कर दूसरे टाइपिस्टों से जुड़ चुके थे।
जो दूसरों से बच जाता वह एक आध काम ही अब उस्ताद के पल्ले पड़ता।
इसी उदासी में गर्मी ,बरसात और शरद् बीत गए। शुरूआती सर्दी तेवर लेकर आई।
जाता अगहन बारिश ओला बरसा कर हड्डियों में जाड़ा भर गया।
उस्ताद पूरे पूस माह कचहरी नहीं आये।
तरह तरह की आशंकाएं मुझे भयभीत कर जाती, लाख जतन करने के बाद भी उस्ताद की कहीं से कोई खोज खबर न मिलती।
रामजी काका भी कुछ दिनों से तहसील छोड़ दीवानी में अपने लड़के के साथ बैठने लगे थे।
और कोई ऐसा न था जो उस्ताद से हमदर्दी रखता हो सब मुंह देखी पर भलमन साहत दिखाने वालों में से थे।
होली के आस पास एक दिन रामजी काका की आवाज सुनाई दी।
मैंने तुरंत बक्से की दीवार से कान सटा दिए। हर्ष विषाद, अनजान भय से मिश्रित भाव मेरे भीतर हिलोरे मारने लगे।
मैं उस्ताद की आवाज सुनने को बेचैन हो उठा, बदन उनकी उँगलियों की छुअन पाने को कुलबुलाने लगा।
रामजी काका ने कमरे में किसी से बात करते हुए प्रवेश किया ,...“लो भाई, यह रहा तुम्हारे पापा का बक्सा”, यह कहकर काका ने साथ आए व्यक्ति के हाथ में बक्से की चाबी थमा दी।
...उनके साथ में उस्ताद का बेटा आया था
मैं पूछना चाहता था ! उस्ताद कहां हैं...!!और ...!!और ...यह क्यों आया है यहाँ, उस्ताद क्यों नहीं आए, क्या अब उनका जी नहीं चाहता मुझसे मिलने को, क्या भूल गए उस्ताद अपने इस मशीनी बेटे को”..???
लड़के ने बक्सा खौला, उस में से मुझे उठाकर फर्श पर लगभग फेंकते हुए पटक दिया।
बक्सा टटोला कुछ बुदबुदाया, “स्टेपलर, खाली स्टाम्प पेपर, इंक पैड, पेन, सिक्के, कॉपी सब काम का समान है...”।
कहते हुए बक्सा बन्द कर हाथ में उठा लिया।
“अरे बेटा यह भी रख लो, देखो छूट गया”, रामजी काका ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा।
इसका क्या करूँगा काका, कबाड़ है ,, कबाड़.. आप ही कबाड़ी में बेच देना, अब पापा तो रहे नहीं ...।
यह मेरे किस काम का..कम्प्यूटर का जमाना है काका ,कम्प्यूटर का,कौन इसमें अपना माथा फोड़े..”।
कहते–कहते लड़का सरर्रर से कमरे के बाहर निकल गया।
मैं जमीन पर पड़ा गनपत नरायन का अनाथ पुत्र उनके जाते की कबाड़ हो गया...जीवन भर न जाने कितनों का दुःख दर्द, कितनों की व्यथा में उनकी जबान बना रहने वाला यह टाइप राइटर आज समझ पाया कि मैं तो बेजबान हूं। महज एक मशीन यह भी पुरानी ,आउटडेटेड ,एक्सपायरी...!!!
आदमियों से खचाखच भरी इस कचहरी में जिस चौकी की मैं और मेरे उस्ताद कभी शान हुआ करते थे।
 वह चौकी वीरान पड़ी है पतझड़ में नीम के सूखे पत्ते उस के ऊपर उदास और निढाल पड़े हैं।
वह दफ्ती हवा में फड़फड़ा कर करुण स्वर में कुछ विलाप करती प्रतीत हो रही है जिस पर लिखा है,“अपनी चौकी नीम तले वाले गनपत जी टाइपिस्ट, हमारे यहां टाइपिंग उचित दामों पर होती है”।

                                                                                                                                                  चित्रा पंवार




संक्षिप्त परिचय
नाम– चित्रा पंवार ।
पता– गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश।
संप्रति– अध्यापन ।
साहित्यिक यात्रा –प्रेरणा अंशु, ककसाड,  दैनिक जागरण, कथादेश, वागर्थ, सोच विचार, रचना उत्सव, गाथांतर, अरण्यवाणी आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं, तथा कई साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ।

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रकाशन योजना के अंतर्गत ‘दो औरतें ’ नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।

संपर्क सूत्र – chitra.panwar20892@gmail.com

शनिवार, 20 अगस्त 2022

चित्रा पंवार की कविताएँ




संवेदनशील मन अक्सर कुछ रचता है,वह चित्र हो या गीत,कविता हो या कहानी ,कभी भी ,कहीं भी किसी नई सृष्टि सा उग आता है मन के ताखे पर और रचनाकार अपनी समस्त ऊर्जा का तेल भर संभावनाओं की बाती डाल रचना का दीया जलाता है।कविता मनुष्य की रचनात्मकता का वह चरम बिन्दु है जहाँ वह मन की सारी दीवारें गिरा अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करता है।

वर्तमान समय स्त्री कविता का सबसे समृद्ध समय है,आज एक साथ चार जीवित पीढियां रचनाशील हैं।अनामिका, सविता सिंह, कात्यायनी, निर्मला पुतुल से लेकर शैलजा पाठक ,बाबुषा कोहली आदि कवयित्रियों ने कविता की दुनिया को आलोकित कर यह भरोसा दिलाया है कि स्त्री की अभिव्यक्ति अब किसी आश्रय की मुहताज नहीं रही। 

चित्रा पंवार स्त्री कविता में प्रवेश कर रहा वह स्वर हैं जो उम्मीद जगाती है कि अभी बहुत कुछ लिखा जाना शेष है।




                                                                     

                                                                    चित्रा पंवार



परिचय

नाम – चित्रा पंवार
जन्मस्थान – मेरठ, उत्तर प्रदेश
संप्रति – शिक्षण
साहित्यिक यात्रा – वागर्थ, दैनिक जागरण, सोच विचार, प्रेरणा अंशु, गाथांतर, रचना उत्सव, अरण्यवाणी आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं में आलेख, कविता, कहानी प्रकाशित तथा कई साझा काव्य संग्रहों में कविताएं प्रकाशित ।


 स्त्री पृथ्वी है

1.

आसान कहा
किसी सूरज के प्रेम में
पृथ्वी हो जाना
ना चुम्बन, ना आलिंगन
ना धड़कनों पर कान धर
सांसों का प्रेम गीत सुन पाना
बस दूर से निहारना
और घूमते रहना
निरंतर
उसी दुखो भरे
विरह पथ पर
मिलन की प्रतीक्षा लिए

2

यकीनन पृथ्वी स्त्री ही है
जो घूमती है उम्रभर
किसी के प्रेम में पड़कर
उसके घर, परिवार
बच्चों को संभालती
चकरघिन्नी बनी
बस उस एक के इर्दगिर्द
समेट लेती है अपनी दुनिया
अपना सारा वजूद

3

स्त्री अगर किसी से प्रेम करती है
तो कभी
उसका साथ नहीं छोड़ती
फिर भले ही उसे
लाख तपिश क्यों न सहनी पड़े
वह झुलस ही क्यों ना जाए
सूरज के प्रेम में पड़ी
पृथ्वी की तरह...

4

पृथ्वी गोल है
बिलकुल सपाट
बहुत कठोर!!
यह भ्रम है
कोरा भ्रम
कभी ध्यान से देखना उसकी गहरी आंखों में
मिल जाएंगी तुम्हें
उसके पलकों के नीचे जमी नमकीन झीलें
प्रेम से छूना उसकी सपाट काया
अनगिनत खरोंचों से भरी उसकी देह
तुम्हारा अंगुली के पोरों को
लहूलुहान कर देगी
धीरे से खोलना उसके मन की गिरहों को
बहुत रीती और पिघली हुई मिलेगी भीतर से
बिलकुल एक स्त्री की तरह

5

जब दोनों हाथों से
लूटी खसौटी जाओ
दबा दी जाओ
अनगिनत जिम्मेदारियों के तले
तुम्हारे किए को उपकार
नहीं अधिकार समझा जाने लगे
तब हे स्त्री
डौल जाया करो ना !
तुम भी
अपनी धुरी से
पृथ्वी की तरह ।।

6

कोरी कल्पना
और किस्से कहानी
से अधिक कुछ भी नहीं
ये सारी बातें
की पृथ्वी
टिकी है
गाय के सींग पर
शेषनाग के फन,
सूर्य की शक्ति
या फिर
लटकी है अंतरिक्ष के बीचों बीच
गुरुत्वाकर्षण के बल पर
सच तो यह है
की अपनी करुणा, प्रेम
सृजन और जुनून
के बल पर
स्त्रियां लादे
घूम रही हैं
पृथ्वी का बोझा
अपनी पीठ पर
युगों युगों से

8.

   स्त्री देखती है
  नींद में ख्वाब
  ख्वाब में घर के काम
  दूध वाले, सब्जी वाले का हिसाब
  बच्चों का होमवर्क
  खोजती हैं पति का रूमाल, मोजा, टाई
  दोहराती है सास ससुर के रूटीन हेल्थ चेकअप की डेट
  इसी बीच
  झांक आती है पल भर को
  मायके का आंगन
  निरंतर घूमती रहती है एक औरत
  अपने कर्तव्य पथ पर
  क्योंकि जानती हैं वो
  पृथ्वी के रुक जाने का अर्थ
  सम्पूर्ण सृष्टि का रुक जाना है।








दो औरतें

1.

दो औरतें जब निकलती हैं अकेले
निकाल फेंकती हैं अपने भीतर बसी दुनिया
उछाल देती हैं हवा में उम्र का गुब्बारा
जिम्मेदारियों में दबे कंधे उचकने लगते हैं
वैसे ही जैसे उछलता है बालमन
बेफिक्र अल्हड़ कदम नापना चाहते हैं
दहलीज से आगे बढ़ कर अपने हिस्से की जमीन
पंख लगाए उड़ती हैं खुले आसमान में
बंद पिंजड़ों से मुक्त चिड़ियों सी
हवा में हाथ पसार गहरी सांस भर
मुस्कुरा उठतीं हैं स्वप्न भरी आँखें
शीशी में वर्षों बंद पड़ी केवड़े सी हँसी
खुलते ही फ़ैल जाती है क्षितिज तक
चिल्लाते हुए बच्चे दौड़ पड़ते हैं उसी ओर
‘देखो इंद्रधनुष निकल आया’
घूरती नजरों से बेपरवाह
अपने आप में रमी
बस अपने साथ होतीं हैं
उस वक्त
दो औरतें..

2.

जब मिलती हैं दो औरतें
बस, रिक्शे, सब्जी मंडी, अस्पताल, हाट बाजार में
जी खोल करती हैं बातें
घुलने लगती है गहरी दबी वर्षों पुरानी गांठ
धधकता,उबलता लावा बाहर निकाल
मन को ठंडाती हैं वैसे ही
जैसे पानी के छींटों से शांत हो आता है
दूध का उफान
फल, सब्जी खरीदते अक्सर बता जाती हैं
अपनों की जीभ का स्वाद
बजाजे में ललचाती हुई इच्छाओं को दबा
खरीद लेती हैं साड़ी, कुर्ता– सलवार
सजा लेती हैं खुद का बदन
बाप, भाई, पति और बेटों के अनुसार
एक मुलाकात में ही जान जाती हैं वो
एक दूसरे के भीतर बसा उनका पूरा परिवार
और उसकी पसन्द ना पसन्द
जुदा होते समय
एक जैसी हो कर लौटती हैं
वो बिना नाम वाली
दो औरतें….

3.

ईर्ष्या नहीं करती
एक– दूसरे से
दो औरतें
वह तो बस मोहरें होती हैं
बिछाई गई बिसात की
जिसे बिछाता है खेलने वाला
अपनी चिरविजयी मानसिकता के साथ
शतरंज के खिलाड़ी की कुटिल शह पर नाचती हुई
बादशाह के बचाव में तैनात सेना सी
बस अनजाने में
एक दूसरे के सामने आ खड़ी होती हैं
दो औरतें…

4.

बातचीत के शुरुआती दौर में वह होती हैं
माँ– बेटी, हम उम्र बहनें
सखी– सहेली, ननद–भौजाई
सास– बहू, देवरानी– जेठानी
दादी– पोती, बुआ– भतीजी
गुरु–शिष्या
या रिश्तों में बंधा कोई और नाम
मगर धीरे– धीरे
हृदय की खुलती हुई गिरहों के
झरते भावों में डूबी हुई
अंततः बचती हैं शेष
दो औरतें…

5.

तुम कुछ भी न थे
सही सुना
कुछ भी न थे तुम
नंगी आँखों से कोई देख भी न सकता था तुम्हें
मगर महसूस कर सकती थी वह, तुम्हारा होना
जब दुनिया झुठलाती तब वह जोर देकर कहती
की तुम हो!
गर्भ में पालती रही ममता नौ माह तक
एक स्त्री के यकीन का मूर्त रूप हो तुम
इसके सिवा और कुछ भी नहीं
यह फौलादी शरीर, रौबदार आवाज , रुपया, पैसा,नाम
कुछ भी न था तुम्हारे पास
बिलांद भर की बेजान देह और सुबकती आवाज
दया के पात्र, लजलजाती हड्डियों का ढांचा मात्र थे तुम
माँ के लहू, अस्थि रस,दुलार और श्रम
का परिणाम है यह तुम्हारा अस्तित्व
तुम्हारे वामांग में बैठी हुई ये स्त्री
अग्नि की परिक्रमा से पूर्व
भला कितना जानती थी तुम्हें?
मगर भलीभांति जानती थी वह
तुम्हारे ख़्वाब और खुशियां
सजाना जानती थी
तुम्हारा घर, मन, बिस्तर और परिवार
बन जाना चाहती थी वह
तुम्हारी लक्ष्मी, रति, अन्नपूर्णा और सावित्री
होने को तो क्या नहीं हो सकती थी वह
मगर उसने स्वीकारा बस तुम्हारी होना
यूँ तो इतिहास भी रच सकती थी वह
किन्तु उसने तुम्हारी संतान को रचा
जीवन साथी से न जाने कब बन गई जीवन सारथी

हे पुरुष!
तुम्हारे इस कंगूरों, बेल–बूटों, ऊंची मीनारों, शिखर कलश से
सुसज्जित जीवन भवन की शिल्पी हैं ये
दो औरतें….

6.

दूर तक फैला दुःख का अथाह सागर
एक दूसरे की छोटी–बड़ी खुशियाँ
बेरंग जीवन के स्याह– सफेद धब्बे
मन की व्यथा
तन की पीड़ा
रसोई के पकवान
निंदा रस का स्वाद
अपनों के ख्वाब
मन्नत और उपवास
जेवर, साड़ी, श्रृंगार
पति, बेटों का प्यार
आँखों से बहता पीहर
कम खर्च में घर चलाने का हुनर
कल्पनाओं का सुखद संसार
घर परिवार में अपना स्थान
होंठों की मुस्कान
सब कुछ साँझा कर लेती हैं
जब मिल बैठती हैं
दो औरतें….

बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल - 32


असीमा भट्ट की कविताएँ



दीदारगंज की यक्षिणी 

---------------------------

 1. 

दीदारगंज की यक्षिणी की तरह तुम्हारा वक्ष

उन्नत और सुन्दर 

मेरे लिये वह स्थान जहांं सर रख कर सुस्ताने भर से 

मिलती है जीवन संग्राम के लिए नयी ऊर्जा 

हर समस्या का समाधान ....

तुम्हारे वक्ष पर जब-जब सर रख कर सोया 

ऐसा महसूस हुआ लेटा हो मासूम बच्चा जैसे मां की गोद में 

तुम ऐसे ही तान देती हो अपने श्वेत आंचल सी  पतवार

जैसे कि मुझे बचा लोगी जीवन के हर समुन्द्री  तूफ़ान से...

तुम्हारे आंचल की पतवार के सहारे फिर से झेल लूंगा हर ज्वारभाटा 

अनगिन रातें जब जब थका हूं...

हारा हूं ...

पराजित और असहाय महसूस किया है .....

तुम्हारे ही वक्ष से लगकर   

रोना चाहा 

 ज़ार-ज़ार 

हालांकि तुमने रोने नहीं दिया कभी  

पता नहीं 

हर बार कैसे भांप लेती हो 

मेरी चिंता 

और सोख लेती हो मेरे आंसू का एक एक बूंद 

अपने होठों से  

तुम्हारे वक्ष से ऐसे खेलता हूं, जैसे खेलता है बच्चा  

अपने सबसे प्यारे खिलौने से ....

 तुम्हारा उन्नत वक्ष 

उत्थान और विजय का ऐसा समागम जैसे 

फहरा रहा हो विजय ध्वज कोई पर्वतारोही हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर  


जब भी  लौटा हूं उदास या फिर कुछ खोकर 

तुमने वक्ष से लगाकर कहा   

कोई बात नहीं, "आओ मेरे बच्चे! मैं हूं ना'

एक पल में तुम कैसे बन जाती हो प्रेमिका से मां

कभी कभी तो बहन सरीखी भी 

एक साथ की पली बढ़ी 

हमजोली ... सहेली ....

'Ohh My love ! you are the most lovable lady on this earth" 

सचमुच तुम्हारा नाम महान प्रेमिकायों की सूचि में 

सबसे पहले लिखा जाना चाहिए 

ख़ुद को तुम्हारे पास कितना छोटा पाता हूं, जब जब तुम्हारे पास आता हूं

कहां दे पाता हूं, बदले में तुम्हे कुछ भी 

कितना कितना कुछ पाया है तुमसे 

कि अब तो तुमसे जन्म लेना चाहता हूँ 

तुममें, तुमसे सृष्टि की समस्त यात्रा करके निकलूं 

तभी तुम्हारा कर्ज़ चुका सकता हूं 

मेरी प्रेमिका ...."


2.


आईने में कबसे ख़ुद को निहारती 

शून्य में खड़ी हूं 

दीदारगंज की यक्षिणी सी मूर्तिवत 

तुम्हारे शब्द गूंज रहे हैं, मेरे कानों में प्रेमसंगीत की तरह   

कहां गए वो सारे शब्द ?

मेरे एक फ़ोन ने कि -

डॉक्टर कहता है - मुझे वक्ष कैंसर है, हो सकता है, वक्ष काटना पड़े. 

तुम्हारी तरफ़ से कोई आवाज़ न सुनकर लगा जैसे फ़ोन के तार कट गए हों  

स्तब्ध खड़ी हूं

कि आज तुम मुझे अपने वक्ष से लगाकर कहोगे 

-"कुछ नहीं होगा तुम्हें! "

चीख़ती हुई सी पूछती हूं

तुम सुन रहे हो ना ?

तुम हो ना वहां ?

क्या मेरी आवाज़ पहुंच रही है तुम तक ....

हां, ना कुछ तो बोलो!"


लम्बी चुप्पी के बाद बोले

-"हां, ठीक है, ठीक है 

तुम इलाज़ कराओ

समय मिला तो, आऊंगा...." 

3.  


समय मिला तो  ? ? ?

समझ गई थी सब कुछ 

अब कुछ भी जो नहीं बचा था मेरे पास 

तुम अब कैसे कह सकोगे 

 सौन्दर्य की देवी ....

प्रेम की देवी.....


सबकुछ तभी तक था

जब तक मैं सुन्दर थी 

मेरे  वक्ष थे  

एक पल में लगा जैसे 

खुदाई में मेरा विध्वंस हो गया है  

खंड-खंड होकर बिखर चुकी हूं, "दीदारगंज की यक्षिणी' की तरह  

क्षत-विक्षत खड़ी हूँ, 

अंग-भंग ...

खंडित प्रतिमा ...

जिसकी पूजा नहीं होती 


सौन्दर्य की देवी अब अपना वजूद खो चुकी है....


4. 


लेकिन मैं अपना वजूद कभी नहीं खो सकती 

मैं सिर्फ़ प्रेमिका नहीं! 


सृष्टि हूं 

आदि शक्ति हूं


और जब तक शिव भी शक्ति में समाहित नहीं होते 

शिव नहीं होते ....

मैं वैसे ही सदा सदा  रहूंगी 

सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी,  

शिव, सत्य और सुन्दर की तरह .... 


(*दीदारगंज की यक्षिणी को सौन्दर्य की देवी कहा जाता हैं)







-------------



किसी से उधार मांग कर लायी थी ज़िन्दगी

वो भी किसी के पास

गिरवी रख दी....


असीमा भट्ट


------------------



बहुत ख़ाली ख़ाली है मन


माथे पर एक बिंदी सजा लूं ...



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 स्त्री 


1.

रक्त सा लाल पैरों के निशान छोड़ती

वह प्रवेश करती है घर में 

जैसे इतिहास के पत्थर पर 

उकेर रही हो दुर्लभ आकृति 


2.

कहा नहीं किसी ने सीखो प्यार करना 

फिर भी स्त्री सीख ही जाती है प्रेम करना 

जैसे आम का पेड़ सीख जाता है बड़ा होना और मंजर देना 


3.

उसके पास होते हैं अनोखे जादुई पिटारे 

जिसमें भर कर रखती है 

सपने और उम्मीदें 

अगहन में कटे धान की तरह 

उसके पास रहती है 

अथाह आस्था 

जिससे रचती है 

विस्मय भरी दुनिया 

अपने घर के भीतर 

जिसे मानती है 

वह अपना संसार 


4.


मांगती कभी कुछ नहीं 

चाहती है मुठ्ठी भर 

प्यार

थोड़ी गुनगुनी धूप की तरह नर्म 

थोड़ा गर्म 

आग की तरह 

जिससे सेंक सके जीवन और रिश्ते  

आग को दुनिया में उसी ने उपजाया होगा 

जब पहली बार जलाया होगा किसी स्त्री ने अपना चूल्हा 


5.

एक दिन वह चली जायेगी कहीं 

नहीं रहेगी वह घर के किसी हिस्से में 

बस बची रहेगी उसकी स्मृति 

उसके पंजों की छाप दिवारों पर 

भित्ति चित्रों के समान 

प्राचीन सभ्यता की आदिम कला की तरह



                                                       असीमा भट्ट


समकाल :कविता का स्त्री काल -31



विश्वासी एक्का आदिवासी स्त्री स्वर की प्रमुख कवियत्री हैं जो स्त्री शोषण के प्रश्नों से गुजरते हुए  पितृसत्ता , प्रकृति , संस्कृति और समसामयिक घटनाओं को भी बड़ी शिद्दत से अपनी कविताओं में समेटती हैं। 
 

कविताएं

1. तुम्हें पता न चला 

तुम मगन हो नृत्य करते रहे 
मांदल की थाप पर झूमते रहे
जंगल भी गाने लगा तुम्हारे साथ 
उत्सवधर्मी थे तुम,
कोई अंगार रख गया सूखे पत्तों के बीच
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ …|
तुम खेत जोतते रहे
पथरा गये ढेलों को फोड़ते रहे
धूप और बरसात की परवाह किये बिना
जूझते रहे दिन और रात
श्रमजीवी थे तुम, 
कोई धीरे से खेतों की मेड़ फोड़ गया
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ |
तुम बनाते रहे भित्तिचित्र 
पेड़-पौधे, कछुवा, बंदर, चिड़िया 
पालते रहे गाय और बकरियाँ 
पशुपालक थे तुम,
कोई सौदागर घूमता रहा वेश बदलकर
बहका कर, हांककर ले गया तुम्हारे पशुओं को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला........ |
तुम्हारी अमराई में कोयल कूकती रही
तुम्हारा मन भीगता रहा
तुम सुनते रहे भुलावे का गीत
विश्वासप्रवण थे तुम,
अमावस की रात 
वो काट कर ले गये पेड़ों को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |
तुम उंगलियों में जोड़ते रहे जीवन के वर्ष 
खाट पर नहीं जमीन पर निश्चिंत सोते रहे 
दुःस्वप्नों से जागते रहे 
भोर होने के पहले ही 
बड़े जीवट थे तुम, 
कोई जहरीले नाग छोड़ गया
तुम्हारे बिछौने के नीचे
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |





2. तुम और मैं 

तुम मुझे कविता सी गाते
शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से सजाते
मैं भी कभी छंदबद्ध
तो कभी छंदमुक्त हो
जीवन का संगीत रचती
पर देखो तो
मैं तुम्हें गद्य सा पढ़ती रही
गूढ़ कथानक और एकालापों में उलझी रही
यात्रावृत्तांतों की लहरीली सड़कों पर
भटकती रही
और तुम व्यंग्य बन गये, 
मैं स्त्री थी स्त्री ही रही...... 
तुम पुरुष थे, अब महापुरुष बन गये |

3. ये लड़कियां 

तुमने कहा लड़कियों को कितना पढ़ाओगे
आख़िर तो उन्हें चूल्हा-चौका ही करना है 
अब वे हर जगह आगे
पढ़ाई में, नौकरी में, माता-पिता की सेवा में
देश में, विदेश में, धरती में, आसमान पर, 
वे उस प्रत्येक जगह पर
जहां तुमने उन्हें जाने से रोका था |
कितनी नाफरमान और ढीठ हैं न ये लड़कियां
पैदाइश रोक दिये जाने की 
लाख कोशिशों के बाद भी 
उग आई हैं जंगलों की तरह
खिल उठी हैं फूलों की तरह
बरस गईं पानी की तरह
उछल पड़ीं बास्केटबॉल की तरह |
उग आई हैं सूरज और चाँद की तरह
कि छा गईं धरती पर हरियाली की तरह,
तमाम खतरों के बाद भी
उड़ती-फिरती हैं तितलियों की तरह
परवाज़ है उनकी शाहीन की तरह
कि उन्हें पता है मुक्त गगन में भी 
उड़ना है कहां-कहां |
एकतरफा प्रेम में तेज़ाब डाल दिया 
बलात्कार कर जला दिया
चरित्रशंका पर गला घोंटा
एक बार नहीं बार-बार | 
इतना कुछ, इतना सब कुछ
फिर भी स्वाद ने लड़कियों का साथ नहीं छोड़ा
आज भी उनके हाथों बने खाने की बात ही अलग होती है |

4. लंबी यात्राएं

वे चल रहे हैं निरंतर आदम के जमाने से
अदन वाटिका से निकल
यरदन,नील,और फ़रात के किनारे -किनारे
पहले इक्के-दुक्के
फिर जत्थों में
वाचा का संदूक लिये कारवां से लेकर
अकेले ही अपना सलीब उठाये |
लाद कर ऊँट और घोड़ों पर
कबीले का तम्बू, राशन, कपड़े-लत्ते |
इब्राहिम की चौदहवीं पीढ़ी 
अपने मसीहा के आने तक
अब भी और जाने कब तक........ |
बेबीलोन गवाह है
वे स्वर्ग तक पहुंचने की सीढ़ी मुकम्मल न कर सके 
टूट गये भाषा की लड़ाई में |
सदोम और अमोरा में 
आग और गंधक बरसा,
मिश्र पर सात-सात विपत्तियां आईं
मेढ़कों का आक्रमण 
कुटकियों के झुण्ड 
डांसों के झुण्ड 
पशुओं की मौत 
ओलावृष्टि 
टिड्डियों का आक्रमण 
और फिर घना अंधकार |
सिंधुघाटी से छोटा नागपुर 
दक्षिण प्रदेश |
जीविकोपार्जन के लिए महानगर
महामारियों के दौर में घर वापसी
महामारी के बाद संभवतः 
पुनः महानगरों की ओर प्रस्थान, 
यह एक ही जीवन में 
पृथ्वी को माप लेने जैसी अनंत यात्रा तो नहीं 
इनके हौसले कहते हैं 
ये उन तमाम अंधेरी गलियों से 
निकल ही आयेंगे
जैसे इस्राइली आखिरकार निकल आये थे
मिश्र से फिरौन के अत्याचार से |
(यरदन, नील, फ़रात- अरब देश की महानदियां 
इब्राहिम – ईसाइयों के पूर्वज
वाचा का संदूक- ईश्वर और मनुष्य के बीच वाचा का प्रतीक 
फिरौन- मिश्र का हाकिम )




5. हम साथ हैं 

इस साल महुए ने टपकने से मना कर दिया 
फूल कोचों में पंख सिकोड़े सोते रहे, सहमे रहे 
शायद उन्हें पता चल गया था 
उनकी कद्र करने वालों पर 
काला साया मंडरा रहा है |
पलास इस साल दहके नहीं 
गुंचे कडुवा गये, काले पड़ गये
शायद उन्हें पता चल गया था
सड़कें लाल रंग में डूबने को हैं |
अमलतास भी कहां खिले इस साल
उनकी अधखिली लड़ियां
लटकती रहीं अनमनी |
भूखे पेट सड़कों पर हजारों मील चलते
मजदूरों की आँखों और चेहरों पर
पीला रंग पसरा हुआ है |
सरहुल भी कहां मना इस साल
फूल दुबके रहे पत्तों की ओट 
फलों ने हवाओं संग
गोल-गोल घूमते अठखेलियाँ करने की
अभिलाषा ही नहीं पाली,
वे देख रहे थे आढ़े-तिरछे, पथरीले
रास्तों पर मजदूरों के जत्थों को 
लगातार चलते हुए |
इस साल बरस रहे हैं बादल बेमौसम ही
जैसे मजदूरों की आँखें, 
भीग रही है धरती
जैसे मजदूरों के मन
अंकुरित हो रही हैं वनस्पतियां
जैसे मजदूरों के हौसले |
ये क्या हुआ! कैसे हुआ! क्या होगा आगे! 
इन बेमतलब के पचड़ों में 
नहीं पड़ते वे
आस्थावान हैं वे प्रकृति के प्रति 
उस पर अवलंबित जीवन के प्रति |
( कोरोनाकाल में प्रभावित मजदूरों के लिए)


परिचय

विश्वासी एक्का 

पता
महारानी लक्ष्मीबाई, 
वार्ड क्रमांक. -09,न्यू कॉलोनी
, पटेलपारा, अम्बिकापुर, 
सरगुजा(छत्तीसगढ.)
जन्म – ग्राम -बटईकेला-जिला-सरगुजा(छत्तीसगढ )
हिंदी विषय में स्नातकोत्तर और पीएच.डी. | सन् 2017 में नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से कहानी पुस्तिका ‘कजरी ‘ प्रकाशित, 2018 में कविता संग्रह ‘लछमनिया का चूल्हा' प्रकाशित ,इसी वर्ष उत्कृष्ट कविता सृजन के लिए, हिंदी साहित्य सम्मेलन छत्तीसगढ़ प्रदेश द्वारा ‘पुनर्नवा’ पुरस्कार, 2019 में साहित्य अकादमी दिल्ली में काव्यपाठ | आकाशवाणी अम्बिकापुर से समय -समय पर, कविता- कहानी पाठ | अक्षरपर्व,वागर्थ,,इंडिया टुडे, छत्तीसगढ़ मित्र, दक्षिणकोशल, पक्षधर, नया पथ, हाशिये की आवाज में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित | वर्तमान में शासकीय राजमोहनी देवी कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बिकापुर में,सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत |


समकाल :, कविता का स्त्रीकाल -33



पँखुरी सिन्हा की कविताएँ


खड़े होने की बराबर जगह
 
वह खड़ा हुआ तो मुझे लगा 
उसका कद कितना ऊँचा था 
मुझसे तो ऊँचा था ही 
काफी ऊँचा था 
वह पुरुष था 
और मेरी औरतना दृष्टि 
पुरुषों को बक्श कर 
अतिरिक्त ऊँचाई 
तृप्त होती तो थी 
पर तभी
जब व्यवहार पुरुषोचित हो 
अगर वो बक्शें 
औरत को भी कुछ ज़्यादा कद 
कंधे से कन्धा मिलाकर 
खड़े होने की बराबर जगह..................
 
 
 
 
विद्या पीठ

न बताना भी एक अदा है 
न कहने की तरह 
यानी मना करना 
पर एकदम साफ़ मना करना नहीं 
कर पाना नहीं 
सवाल भी साफ़ नहीं 
जवाब की भरसक गुंजाइश नहीं 
कुछ भी दो टूक सच नहीं 
पांच टूक पोशाक नहीं 
जूता, छाता, टोपी, गमछा 
जनेऊ, लोटा 
संस्कारों की मर्दानी ठसक गयी
विद्यापीठों में स्त्री मुक्ति 
अब भी एक लड़ाई है 
पर न बताना 
वहां भी उम्र 
फॉर्म से बाहर
स्त्रियों के साथ भी
बिल्कुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम
मन की बातें 
कुछ मन में रख लेना भी एक अदा है 
और जैसे उम्र भी हो 
मन ही की बात
फॉर्म की लिखाई से बाहर
इसलिए वह इतालवी लड़की 
पूछती रह गयी 
पर मैंने केवल अपनी 
वह उम्र बताई 
जब ब्याही गयी थी 
वह भी दो साल घटा कर 
उनसे ताल मिलाने को 
जिनकी मैं जानती थी 
दो से ज़्यादा साल 
घटाई होती थी उम्र..................


मुद्रा 

उल्टे लटके होते हैं चमगादड़ घंटो 
यही होती है उनकी निद्रा की मुद्रा 
और दिखाई नहीं देती 
गुफाओं के अँधेरे में 
लेकिन इस कारण नहीं खुदवाये 
राजाओं ने गुफाओं में 
तंत्र सिद्धि के चित्र 
न मंत्र लिखे गए
सूर्य प्रकाश के स्वागत में 
वो समूचा चँदोवा 
जिसे आज भी हम 
सभ्यता कह 
सिंहासन पर बिठाते हैं 
हाथी की पीठ पर 
आहिस्ता चलता 
दर्शन का 
एक के बाद दूसरा 
सिद्धांत नहीं 
जिस की ज़मीन 
दरअसल फतह कर रहे थे 
घोड़े पर आये 
मुसलमान योद्धा..............


जल में स्थिर है मछली

घंटों बे टेक स्थिर होती है 
मछली जल में 
बुलबुले छोड़ती 
तलाशती नहीं थककर 
पानी की ज़मीन पर पाँव
एकदम कल खिलेगी 
कह देती है
फूल की कली 
पर असह्य लगता है इंतज़ार 
और सबकुछ 
जब वो कहता है 
झूठा है 
मेरा आलिंगन 
मुझे दरअसल प्यार नहीं उससे 
वह आश्वासन है 
सारी आरामदेह बातों का 
और प्रबंधकर्ता भी...............

(रेडियो पर प्रसारित, आकाशवाणी दिल्ली, इंद्रप्रस्थ चैनल, २०१४)


हज़ार सूर्योदय वाली आवाज़
हज़ार सूर्योदय थे उसकी आवाज़ में 
आसमान के सब तारों की चमक 
दुनिया के सब चन्द्रमाओं की ठंढक थी उसमें 
दिक्कत ये थी कि इतनी कम करता था बातें वो मुझसे 
उन सब लोगों की बनिस्पत 
जिनसे प्यार नहीं करता था 
या कि कहता था कि प्यार नहीं करता था 
करता था केवल मुझसे प्यार 
या कि कहता था 
समुद्र लरजता था उसकी इस बात में
या साथ साथ कई समुद्र लरजते थे 
जैसे एक साथ 
उसकी मेरी आँखों में 
ये जलकुम्भी से भरे तालाब कैसे बन गए 
उसके मेरे समुद्र 
कहाँ गयीं वो नदियाँ 
जो ताज़ा कर जाती थीं हमें 
लिए जीवन का सहज प्रवाह 
सतत प्रवाह?
कहाँ गयीं नदिओं सी हमारी भी बातें?
जबकि उसकी बातों में थे हज़ार सूर्योदय.......

                             पंखुरी सिन्हा