बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल - 32


असीमा भट्ट की कविताएँ



दीदारगंज की यक्षिणी 

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 1. 

दीदारगंज की यक्षिणी की तरह तुम्हारा वक्ष

उन्नत और सुन्दर 

मेरे लिये वह स्थान जहांं सर रख कर सुस्ताने भर से 

मिलती है जीवन संग्राम के लिए नयी ऊर्जा 

हर समस्या का समाधान ....

तुम्हारे वक्ष पर जब-जब सर रख कर सोया 

ऐसा महसूस हुआ लेटा हो मासूम बच्चा जैसे मां की गोद में 

तुम ऐसे ही तान देती हो अपने श्वेत आंचल सी  पतवार

जैसे कि मुझे बचा लोगी जीवन के हर समुन्द्री  तूफ़ान से...

तुम्हारे आंचल की पतवार के सहारे फिर से झेल लूंगा हर ज्वारभाटा 

अनगिन रातें जब जब थका हूं...

हारा हूं ...

पराजित और असहाय महसूस किया है .....

तुम्हारे ही वक्ष से लगकर   

रोना चाहा 

 ज़ार-ज़ार 

हालांकि तुमने रोने नहीं दिया कभी  

पता नहीं 

हर बार कैसे भांप लेती हो 

मेरी चिंता 

और सोख लेती हो मेरे आंसू का एक एक बूंद 

अपने होठों से  

तुम्हारे वक्ष से ऐसे खेलता हूं, जैसे खेलता है बच्चा  

अपने सबसे प्यारे खिलौने से ....

 तुम्हारा उन्नत वक्ष 

उत्थान और विजय का ऐसा समागम जैसे 

फहरा रहा हो विजय ध्वज कोई पर्वतारोही हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर  


जब भी  लौटा हूं उदास या फिर कुछ खोकर 

तुमने वक्ष से लगाकर कहा   

कोई बात नहीं, "आओ मेरे बच्चे! मैं हूं ना'

एक पल में तुम कैसे बन जाती हो प्रेमिका से मां

कभी कभी तो बहन सरीखी भी 

एक साथ की पली बढ़ी 

हमजोली ... सहेली ....

'Ohh My love ! you are the most lovable lady on this earth" 

सचमुच तुम्हारा नाम महान प्रेमिकायों की सूचि में 

सबसे पहले लिखा जाना चाहिए 

ख़ुद को तुम्हारे पास कितना छोटा पाता हूं, जब जब तुम्हारे पास आता हूं

कहां दे पाता हूं, बदले में तुम्हे कुछ भी 

कितना कितना कुछ पाया है तुमसे 

कि अब तो तुमसे जन्म लेना चाहता हूँ 

तुममें, तुमसे सृष्टि की समस्त यात्रा करके निकलूं 

तभी तुम्हारा कर्ज़ चुका सकता हूं 

मेरी प्रेमिका ...."


2.


आईने में कबसे ख़ुद को निहारती 

शून्य में खड़ी हूं 

दीदारगंज की यक्षिणी सी मूर्तिवत 

तुम्हारे शब्द गूंज रहे हैं, मेरे कानों में प्रेमसंगीत की तरह   

कहां गए वो सारे शब्द ?

मेरे एक फ़ोन ने कि -

डॉक्टर कहता है - मुझे वक्ष कैंसर है, हो सकता है, वक्ष काटना पड़े. 

तुम्हारी तरफ़ से कोई आवाज़ न सुनकर लगा जैसे फ़ोन के तार कट गए हों  

स्तब्ध खड़ी हूं

कि आज तुम मुझे अपने वक्ष से लगाकर कहोगे 

-"कुछ नहीं होगा तुम्हें! "

चीख़ती हुई सी पूछती हूं

तुम सुन रहे हो ना ?

तुम हो ना वहां ?

क्या मेरी आवाज़ पहुंच रही है तुम तक ....

हां, ना कुछ तो बोलो!"


लम्बी चुप्पी के बाद बोले

-"हां, ठीक है, ठीक है 

तुम इलाज़ कराओ

समय मिला तो, आऊंगा...." 

3.  


समय मिला तो  ? ? ?

समझ गई थी सब कुछ 

अब कुछ भी जो नहीं बचा था मेरे पास 

तुम अब कैसे कह सकोगे 

 सौन्दर्य की देवी ....

प्रेम की देवी.....


सबकुछ तभी तक था

जब तक मैं सुन्दर थी 

मेरे  वक्ष थे  

एक पल में लगा जैसे 

खुदाई में मेरा विध्वंस हो गया है  

खंड-खंड होकर बिखर चुकी हूं, "दीदारगंज की यक्षिणी' की तरह  

क्षत-विक्षत खड़ी हूँ, 

अंग-भंग ...

खंडित प्रतिमा ...

जिसकी पूजा नहीं होती 


सौन्दर्य की देवी अब अपना वजूद खो चुकी है....


4. 


लेकिन मैं अपना वजूद कभी नहीं खो सकती 

मैं सिर्फ़ प्रेमिका नहीं! 


सृष्टि हूं 

आदि शक्ति हूं


और जब तक शिव भी शक्ति में समाहित नहीं होते 

शिव नहीं होते ....

मैं वैसे ही सदा सदा  रहूंगी 

सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी,  

शिव, सत्य और सुन्दर की तरह .... 


(*दीदारगंज की यक्षिणी को सौन्दर्य की देवी कहा जाता हैं)







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किसी से उधार मांग कर लायी थी ज़िन्दगी

वो भी किसी के पास

गिरवी रख दी....


असीमा भट्ट


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बहुत ख़ाली ख़ाली है मन


माथे पर एक बिंदी सजा लूं ...



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 स्त्री 


1.

रक्त सा लाल पैरों के निशान छोड़ती

वह प्रवेश करती है घर में 

जैसे इतिहास के पत्थर पर 

उकेर रही हो दुर्लभ आकृति 


2.

कहा नहीं किसी ने सीखो प्यार करना 

फिर भी स्त्री सीख ही जाती है प्रेम करना 

जैसे आम का पेड़ सीख जाता है बड़ा होना और मंजर देना 


3.

उसके पास होते हैं अनोखे जादुई पिटारे 

जिसमें भर कर रखती है 

सपने और उम्मीदें 

अगहन में कटे धान की तरह 

उसके पास रहती है 

अथाह आस्था 

जिससे रचती है 

विस्मय भरी दुनिया 

अपने घर के भीतर 

जिसे मानती है 

वह अपना संसार 


4.


मांगती कभी कुछ नहीं 

चाहती है मुठ्ठी भर 

प्यार

थोड़ी गुनगुनी धूप की तरह नर्म 

थोड़ा गर्म 

आग की तरह 

जिससे सेंक सके जीवन और रिश्ते  

आग को दुनिया में उसी ने उपजाया होगा 

जब पहली बार जलाया होगा किसी स्त्री ने अपना चूल्हा 


5.

एक दिन वह चली जायेगी कहीं 

नहीं रहेगी वह घर के किसी हिस्से में 

बस बची रहेगी उसकी स्मृति 

उसके पंजों की छाप दिवारों पर 

भित्ति चित्रों के समान 

प्राचीन सभ्यता की आदिम कला की तरह



                                                       असीमा भट्ट


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