शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

रतनारे नयन उपन्यास पर आशीष कुमार की पड़ताल

सृजन की प्रक्रिया स्वयं का प्रस्थान है : रतनारे नयन
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                                               आशीष कुमार 

हर शहर का अपना एक इतिहास होता है और इतिहास अपने गर्भ में अनगिनत सच छिपाए रहता है।इतिहास में जितना कुछ लिखा है,उससे कहीं अधिक अनलिखा भी होता है।इसी ' अनलिखे सच ' को खंगालने की कोशिश इतिहासकार और लेखक करते रहे हैं।किसी भी शहर का इतिहास लिखना बेहद जोखिम भरा काम है। रतनारे नयन के माध्यम से उषा किरण खान ने  पटना शहर के इतिहास को लिखकर इसी जोखिम भरे सच से हमारा साक्षात्कार कराया है।इस उपन्यास की मूल कथावस्तु पटना शहर के इर्द गिर्द बुनी गई है। पटना शहर की सामाजिक - राजनीतिक गतिविधि एवं बहुसंस्कृति का चित्रांकन रतनारे नयन में जीवंतता के साथ हुआ है। इस शहर की विशेषता यहां के निवासियों की जीवटता एवं जिजीविषा में निहित है।यह शहर ऐतिहासिक, पारम्परिक और आधुनिक भी है।यहां विकास की प्रक्रिया धीमी रही,पर रही जरूर। अंग्रेजो से लेकर गौतम बुद्ध की कर्मभूमि रही पटना की धरती को लेखिका ' रतनारे नयन ' के माध्यम से देखती हैं और इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता को व्याख्यायित करती हैं।जिस प्रतीक का प्रयोग लेखिका ने रतनारे नयन के द्वारा किया है,वह पटना की आदि देवी 'पटन देवी ' हैं - " इस विस्तृत फलक को लगातार देखती रहती हैं निस्पृह खड़ी पटना की आदि देवी पटन देवी उन्हीं के रतनारे नयन हैं।" ( फ्लैप से )
इस उपन्यास का प्रारंभ मारवाड़ियों और सुनारों के आगमन से होता है।राजपूताने से रोजी - रोटी की तलाश में मारवाड़ियों का यहां आना,इस शहर के विकास में उनकी भूमिका और अमीरी - गरीबी को एक साथ साधने वाले एक नए किस्म के शहर का उदय इसकी पृष्ठभूमि में समाहित है।इस उपन्यास का कैनवास व्यापक है।इसमें एक के समानांतर छह कथाएं एक साथ चलती है। इस उपन्यास में बबलू गोप एवं रूपा का प्रसंग,ज्योति और शांतनु बजाज, रमन जी - श्यामा, राखाल - प्रमिला, रीना एवं सी एल झा , उमेंदर कौर और यश ठाकुर की कथा प्रमुख है।उपन्यास में एक और प्रमुख किरदार शाहनी ( बूढ़ी स्त्री ) का है, जो स्त्री चेतना की प्रतीक है। प्रगतिशील सोच की इस स्त्री ने स्त्री - चेतना को न केवल प्रतिबिंबित किया है, बल्कि यह बताने का प्रयत्न भी किया है कि अब स्त्री उपेक्षिता नहीं रही। इस कृति को कई अर्थों में भी पढ़ा जा सकता है।यह उपन्यास वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और सफेदपोश कारगुज़ारियों पर विमर्श का पाठ भी प्रस्तावित करता है। राजनीति में युवाओं का आगमन, चुनावी हथकंडे, अपहरण, बलात्कार आदि पर चिंतन की नई जमीन तैयार करता है।
लेखिका स्त्री चेतना को नया आयाम देती है।स्त्री शिक्षा की प्रबल समर्थक उपन्यास की एक स्त्री पात्र श्यामारमण स्त्री - शिक्षा के प्रति विचार व्यक्त करते हुए कहती है - " स्त्रियों की दुनिया बसने लगी है।एक नई दुनिया,एक नया विस्तार,एक नया क्षितिज।उस क्षितिज पर अक्षम, अशिक्षित,दलित, पीड़ित स्त्री का संसार और सक्षम, शिक्षित संघर्ष सम्पन्न स्त्री का मिलन होने का समय है।यह समय है उषा की लालिमा इठलाती हुई गंगा,सोनभद्र पुनपुन के तरल जल में उतर रही है।आधी आबादी निर्भय होकर सेमिनारों, कांफ्रेंसों और समारोहों में चांद की कलाओं की तरह चिंतनपरक रहा।" ( पृष्ठ : 179)
मूल कथा बलातकृता रुपा और बबलू गोप की चुनावी राजनीति को लेकर है।क्षेपक रूप में नगर को राजधानी बनाने का औचित्य, फांसीवाद का विस्तार और आधुनिक प्रजातंत्र की स्थापना की पहल इत्यादि आते हैं।
साहित्य और संस्कृति के मुद्दे हर शहर को एक खास रुख़ देते हैं।किस तरह से साहित्य सभाओं पर ठेकेदारों का कब्जा होता गया और शहर की साहित्यिक परम्परा का अवसान हो गया बनारस - इलाहाबाद की तरह पटना भी इससे अछूता नहीं है।एक उदाहरण देखिए - "साहित्य संस्कृति में गहरे धंसे बिहारियों ने तब भी अपना काम नहीं छोड़ा है।हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन के ठकुराई चंगुल में चले जाने,वहां काठ की तलवार की ठकाठक सुनने से बाज आए साहित्यकारों ने अपने - अपने ठिकाने ढूंढ़ लिए।( पृष्ठ:136)
साहित्यिक राजनीति पर यह तल्ख़ टिप्पणी है।पटना शहर के प्रति लेखिका का यह लगाव ही है कि वह हर छोटी बड़ी घटना को उपन्यास में गूथने का प्रयास करती हैं।यह कृति पटना शहर के सुर्ख और स्याह दोनों पक्षों पर रोशनी डालती है। शहर के उदभव और विकास के साथ ही बबलू गोप की राजनीतिक इच्छाएं निरंतर बढ़ती रहती हैं। रतनारे नयन की कथा इक्कीसवीं सदी के आम चुनाव की पूर्व संध्या पर आकर ख़तम होती है।इस घोषणा के साथ कि इक्कीसवीं सदी स्त्रियों की होगी।
उपन्यास को पढ़ते हुए एक सवाल उभरता है कि शहर और राजनीति को केंद्र बनाकर लिखे गए उपन्यास में शिक्षा व्यवस्था और विश्वविद्यालयों की गुटबाजी को लेकर सवाल क्यों नहीं उठाए गए हैं ? जबकि लेखिका खुद अकादमिक दुनिया में एक लंबा समय गुजारा 
 है।क्या इस उपन्यास को आंचलिक की श्रेणी में रखा जा सकता है ? वास्तव में, रतनारे नयन नायक केंद्रित नहीं,पटना शहर केंद्रित कथा है। यहां शहर खुद नायक की भूमिका में है।इसमें पटना शहर का व्यक्तित्वीकरण है।उपन्यास का शीर्षक अमृतलाल नागर के खंजन नयन की याद दिलाता है।कितनी संदर्भवान हैं ये पंक्तियां-"साहित्य में तीन स- समाज,उसका संघर्ष,उसकी संवेदना है तो वह खालिश है वरना बेमानी खलिश।"
इस उपन्यास में साहित्य के तीन 'स' अपने पूरे उठान पर हैं।
( रतनारे नयन, लेखिका- उषाकिरण खान
 प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली )
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*( लेखक युवा आलोचक हैं।)
मो:09415863412/08787228949.

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

योगिता यादव की कहानी

      इधर आधुनिकता की जो हवा बही है उसमें गाँव ,कस्बे भी तेजी से बदले हैं और यहाँ की औरतों का मन मिजाज भी नए कलेवर में ढ़ला है।पंचायत की राजनीति में औरतों को आरक्षण मिलने से प्रधानपतियों,   ब्लॉक प्रमुखपतियों   का हाल यह है कि पत्नी चुनाव लड़ती है और पतिदेव राजनीति करते हैं।इस मुद्दे को बड़ी सजगता से योगिता ने अपनी कहानी "नए घर में अम्मा " में उठाया है।धीरे -धीरे ही सही,जब सत्ता मिलेगी तो निर्णय लेने का अधिकार लेना भी आ ही जाएगा।कहानी एक बेसहारा बूढ़ी औरत के जीवन को बड़ी मार्मिकता से उकेरती है।        





           नए घर में अम्मा




“… ऐ जे सवेरे-सवेरे घुडिया किनकी खुल पड़ी …..” कहते कहते रामेश्‍वर ने एक लंबी छलांग लगाई और कूबड़ से दोहरी हुई अम्‍मा की पीठ पर चढ़ बैठा। पर अम्‍मा की पीठ क्‍या, न उठान, न पठार, बस एक फि‍सलन भरा कूबड़। सैज सैज कदमों से चलने वाली अम्‍मा अचानक आए उस भार को संभाल न सकीं और किसी गठरी की तरह लुढ़क पड़ीं। 
देह का जोड़-जोड़ चोटिल हो गया। अम्‍मा किससे कहें, बस रो पड़ीं। उठने की कोशिश की, उठा न गया। 
आज पता नहीं सवेरे-सवेरे किसका मुंह देखा था, रोती हुई अम्‍मा सोचने लगीं। सोचा था थोड़ा गुड़ रखा है, उसी से रोटी खा लेंगी। पर जब तक रोटी खाने की नौबत आई कुत्‍ता सब की सब लेकर भाग गया। अब कुबड़ी अम्‍मा कितना दौड़ पातीं कुत्‍ते के पीछे। बस चूल्‍हे के पास बैठी दुख मनाती रहीं। दुख से भूख कहां मिटती है। भूख मिटाने की आस में घर से निकल पड़ी थीं कि भतीजों की बहुओं में से कोई तो बुढिया को दो रोटी दे देगी। और रास्‍ते में ही रामेश्‍वर खिलौने सा खेल गया।  
खिलौना ही तो हो गईं हैं अब अम्‍मा, पूरे गांव के लिए। कोई रीति-रिवाज पूछना हो तो बहुएं बहला कर लिवा ले जाती हैं। किसी का बालक रो रहा हो, तो अम्‍मा की गोद में पटक जाती हैं। और जब अम्‍मा अपने दुख में रोने लगें तो गाली देने से भी नहीं चूकतीं। उनके कई नामों में से एक नाम ‘रोवन वारी अम्‍मा’ भी है। कि अम्‍मा कभी भी रो पड़ती हैं, न दिन देखतीं, न दोपहरी। कभी-कभी तो आधी रात को ही सुबक-सु‍बक कर रोने लगती हैं। और फि‍र बड़ी-छोटी, नई-पुरानी कोई भी बहू अम्‍मा को कोसने लगती। 
रोटी से लेकर बोटी तक सब नोंच डालते ये हैं लड़के, जो कभी अम्‍मा ने गोद खिलाए थे। अब क्‍या इस पर अम्‍मा रो भी नहीं सकतीं। ये लड़के जब जवान हो जाते हैं, तो किसी की परवाह नहीं करते। जिसका जहां दांव लगे, उसी पर हाथ साफ करता चलता बनता है। 
अम्‍मा खूब पहचानती है इनकी परछाइयां, पर पहचान कर करें भी तो क्‍या! किसके सामने गुहार लगाएं। यहां कौन सी कचहरी जुड़ रही है, जो अम्‍मा के लिए न्‍याय करे। 
बाबा जब तक थे, तब तक और बात थी। ज्‍यादा लाड़ न था, तो ये नर्क भी तो न था। दोनों जने मिल बैठकर आपस में ही दुख-सुख बांट लेते थे। ये प्‍यार ही था कि बाबा के हुक्‍के से लेकर बीड़ी तक अम्‍मा ही सुलगा कर देतीं। और कभी-कभी जब बहुत प्‍यार आता, बाबा बस देखते रहते और अम्‍मा उनकी बीड़ी निबटा देतीं। अब न बाबा रहे, न सुख और प्‍यार भरे वो दिन। आख-औलाद कोई हुई नहीं। 
बाबा के जाने के बाद उनकी जमीन-जायदाद पर सब कुत्‍तों की तरह टूट पड़े। पर कलह ऐसी मची कि किसी ने न किसी को खेत-खलिहान लेने दिए, न बोने दिए। अम्‍मा ने कुनबे से बाहर वालों को जमीन जोतने-बोने को देनी चाही, तो लठ बज गए। बस तब से ये ऐसी ही खाली पड़ी है। सब की आंखों में चुभती, पर कोख में एक बीज रोपे जाने को तरसती।  
और अम्‍मा…. उनकी खाली देह को तो बंजर जमीन जान कर सबके घोड़े खुल गए। जिस पर गर्मी चढ़ती, अम्‍मा पर चढ़ बैठता। सब जानते हैं, सब के बारे में। तो कोई किसी को कुछ नहीं कहता। पहली बार जब उनका अपना देवर उनकी दीवार फांद आया था, तो अम्‍मा गहरी दहशत में आ गईं थीं। ऐसा सदमा लगा कि कई दिन तक अम्‍मा को चूल्‍हे की ठंडी राख बुहारने का भी होश नहीं रहा। न देहरी से बाहर कदम रखा। ये चढ़ते बुढ़ापे का बचपना ही था कि अम्‍मा को लगता था बूढ़ी विधवा का कौन क्‍या बिगाड़ लेगा।
देवरों के बाद, भतीजों ने और फि‍र तो किसी रिश्‍ते-नाते की पहचान ही नहीं रही। और किसी के ऐसा करने की कोई वजह भी न रही। अब अम्‍मा दहशत में नहीं आती, बस ऐसे रो पड़ती हैं, जैसे चलते-चलते कोई बच्‍चा गिरकर रो पड़ता है। देह तो दुखती ही है, मन भी खूब दुखता है। पर कौन देखे उनके घाव- बस कह देते हैं रोवन वारी अम्‍मा।   
रोवन वारी कुबड़ी अम्‍मा कीचड़ में पड़ी फि‍र रो रहीं थीं। 
“ऐ मैया जे डुकरिया सवेरे-सवेरे फि‍र रोवन लागीं” बिसेसर की बहू ने जिराफ की तरह भीतर से ही दीवार से गर्दन उचका कर देखा। वह खाना पका रही थी और अम्‍मा के रोने की आवाज बिल्‍कुल पास से आई तो उचक कर देखने लगीं। देखा अम्‍मा कीचड़ में लथपथ पड़ी हैं। दौड़ कर बाहर आई, “ऐ अम्‍मा यहां क्‍यों पड़ी हो, उठत चौं नाओ। जे बालकन की तरह डकरा काय को रईयो।”
“ऐ भैना, जने कौन हतो... तू ही उठा, मेरे बस की नाए।”
बिसेसर की बहू हाथ बढ़ाकर उठाती जातीं थी और अम्‍मा को झिड़कती जाती थी। “ऐसी बूढ़ी न हो गईं। हमारी अम्‍मा को देखो, तुमते ठाड़ी है। 
उठो, नेक नेक में रोवन लागतो।” 
“तेरी अम्‍मा खाए हैं दूध-मिठाई। मेरी तो रोटी भी कुत्‍ता ले गओ।” अम्‍मा जब संभलीं तो मन की व्‍यथा कहने लगीं। 
“पहले पैर-हाथ धोए लेओ, फि‍र खा लइयो रोटी। अब हाल बनाई है।” 
अम्‍मा की जान में जान आई। भले ही कीचम कींच हो गईं पर अब रोटी तो खा ही लेंगी। ये बहू अच्‍छी है, भला हुआ जो यहीं गिरी।
अब यही हो गई थी अम्‍मा की नियति। कभी कोई गिरा देता, तो कभी कोई हाथ बढ़ाकर उठा लेता। सुख-दुख, स्‍वर्ग-नरक सब यहीं भोग रहीं थीं अम्‍मा। 
भूख ज्‍यादा नहीं होती थी। बस दो ही रोटी में पेट ऐसा भर गया कि अम्‍मा को अब शाम तक की कोई फि‍क्र नहीं थी। गाय को चारा डाल ही चुकीं थीं, तो अब अम्‍मा दिन भर को निरचू हो गईं। कहीं भी घूमने जा सकतीं थीं, किसी ठौर भी बैठ सकती थीं। सोचा कहीं और जाने से अच्‍छा है, यहीं बैठें बिसेसर के यहां। इसकी बहू भली भी है और थोड़ी समझ वाली भी। 
रोटी खाकर अम्‍मा आंगन में आ बैठीं। पंखा चल रहा था, ठंडी-ठंडी हवा लग रही थी। देख कर अम्‍मा का मन ललचा गया, “ऐ रेखा...काउ से कह के मेरी छान भी छबवा दे। जे डुकरिया भी दो घड़ी शांति से रह लेगी।”
“मैं तो कह दूं, पर तुम्‍हारे घरैया ही लड़ जाएंगे। कहेंगे तू कौन है हमारे घर में लड़ाई लगवावे वाली।” 
“लड़ें सब ऐं, करे कोई न है। सामन-भादौ सिगरौ पानी-पानी हो जात है। सर्दी-गर्मी और बुरी।”  
“अम्‍मा छान-छप्‍पर छोड़ो, अब तुम भी पक्‍का घर बनवा लो। सरकार ने इतनी योजना चला रखीं हैं। प्रधाननी से कहो।” 
“ऐ मुझ अभागिन को घरैया नाय कर रहे, सरकार कहां करेगी।” 
“अरे एक बेर पूछ के तो देखो।” 
“ऐ भैना मोए न समझ काउ की, तू ही करवा दे। जो तोपे होय। मैं तो अपनी सारी धरती तेरे नाम कर जाउंगी।” 
“अम्‍मा तुम अपने पास रखो अपनी धरती, तुम्‍हारी धरती पे तो पहले ही बहुत जने मरे पड़ रहे हैं। तुम जाओ किसी दिन प्रधाननी के पास। धरती छोड़ो, घर बनवा लो। दो-चार दिन सुख के कट जाएंगे।” 
अम्‍मा को बात कुछ-कुछ भली लगी। पंखे की हवा खाकर दिमाग भी कुछ ठंडा सा हो गया। पेट भी भर गया था। आज पूरा दिन अम्‍मा के पास खाली था। सोचा काल करे सो आज कर…. अम्‍मा की गीली धोती भी अब तक सूख चुकी थी। पीठ पर कूबड़ लादे अम्‍मा हौले-हौले कदमों से प्रधाननी के घर की तरफ चल पड़ीं। 
पुलक में भरी अम्‍मा प्रधाननी के घर की तरफ चली जा रहीं थीं कि कुछ शैतान बच्‍चों ने लकड़ी उठाई और अम्‍मा को बैल की तरह हांकना शुरू कर दिया। 
अम्‍मा ने छोटी-मोटी गाली दीं, तो बच्‍चों को और मजा आने लगा। अम्‍मा बीच-बीच में मुड़कर बच्‍चों को मारने की कोशिश करतीं तो बच्‍चे छिटक कर दूर हो जाते और फि‍र वही हांकने का दौर जारी। 
सामने से गांव का ही एक और युवक कपिल आ रहा था। बच्‍चों की ये शरारत देखी तो डपट कर सबको भगाया। फि‍र लगा अम्‍मा का हालचाल पूछने- “कितकू चली जा रहीं अम्‍मा, इतनी घाम में।” 
अम्‍मा मौन रहीं, कुछ न बोलीं कि जैसे किसी खास मिशन पर हों। वे अपना भेद किसी को देना नहीं चाहतीं थीं। कि जब तक काम हो न जाए किसी को नहीं बताना चाहिए। पता नहीं कौन विघ्‍न डाल दे। किसी के मन का नहीं पता चलता आजकल। और जब से बाबा छोड़कर गए हैं, अम्‍मा को किसी पर भरोसा नहीं रहा। कोई नहीं साथ निभाता। सब अपनी अपनी राह हो लेते हैं। 
अम्‍मा भी बस अब अपनी राह चली जा रहीं थीं। राह में विघ्‍न मिले या ठंडी छांव, अम्‍मा किसी कारण रुकने वाली नहीं। 
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ये पहली बार था जब गांव में कोई औरत प्रधान बनी हो। नहीं तो पहले प्रधान जी के घर के लोग ही प्रधान बना करते थे। वो वाला प्रधान का घर बहुत बड़ा है। घर क्‍या है पूरी हवेली है। 
ये तो अभी नई-नई प्रधान बनी हैं, तो रौब दाब अभी वैसा नहीं है। तो ये छोटा वाला घर प्रधाननी का घर है। प्रधान के घर से छोटा। और जहां कोई भी ऐरा-गेरा पहुंच जाता है। आज अम्‍मा भी बड़े अरमान लेकर यहां आ पहुंची थीं। 
घर तो जाना-पहचाना था, पर कभी सोचा नहीं था, उन्‍हें भी कभी प्रधाननी से काम पड़ सकता है। सो नजदीक आकर सहम गईं। लोग बाग यूं ही कहते हैं, प्रधाननी, ये तो पूरा प्रधान का घर लगता था- 
बाहर दालान का नजारा ही बड़ा भव्‍य था। दोपहर में भी बैठक जमी हुई थी, लोग चारपाई, मूढ़े, कुर्सियां डाले बैठे थे। कुछ लोग जमीन पर भी बैठे थे। बीच में प्रधान जी बहुत व्‍यस्‍त से लग रहे थे। प्रधान जी यानी प्रधाननी के पति। 
भई इतना बड़ा आदमी, उसके पास तो सौ काम होते हैं। और प्रधाननी थोड़ी अच्‍छी लगती हैं, आदमियों के बीच यूं कुर्सी डालकर बैठतीं, तो सारा काम उनके पति यानी प्रधान जी ही संभालते हैं। 
अम्‍मा ने सब सुन रखा था ‘प्रधाननी’ के बारे में। तो वे पहले से ही तैयार थीं कि प्रधान जी ही मिलेंगे पहले पहल तो।
प्रधाननी बहुत सुंदर हैं, घूंघट करे रहती हैं। जब‍ बहुत जरूरी काम हो तब ही घर से बाहर निकलती हैं। कहीं जाना हो तो भी प्रधान जी के साथ ही जीप में बैठ कर जाती हैं। पढ़ी-लिखी हैं तभी तो प्रधान बनी हैं, पर ऐसी गर्वीली भी नहीं हैं कि पति को ही कुछ न समझें। घर की मान-मर्यादा भी बहुत अच्‍छे से जानती हैं। ये भव्‍य दरबार, ऐसी मान-मर्यादा वाली प्रधाननी और लोगों का ऐसा जमघट। देखकर अम्‍मा खुद ही में सकुचा गईं। आवाज गुम हो गई। कुछ कहने, बताने की हिम्‍मत ही न हुई। यूं पंखे की ठंडी हवा में और बैठी रहतीं तो उनकी आंख लग जातीं। ये कोई अच्‍छी बात है, बस यही सोचकर अम्‍मा लौट पड़ीं। उन्‍हें कुछ नहीं कहना। बस सिर का पल्‍लू संभाला, और अपना कूबड़ पीठ पर लादे, जिस राह आईं थीं उसी राह वापस हो लीं।  
दूरी तो अब भी उतनी ही थी पर अम्‍मा बहुत धीमे चलतीं थीं। लौटते हुए धूप और कड़ी हो गई। जिस पुलक से चली आईं थीं वो भी अब निराशा में बदल गई। सोचा बिसेसर की बहू रेखा से ही कहेंगी, उनके बस का नहीं है प्रधान जी से सीधे बात करना। 
वो चाहेगी तो बिसेसर के साथ फि‍र चली आएंगी। वो जरा शउूर से बात कर लेगा।  
दुख का समय जब तक है, तब तक तो काटना ही पड़ेगा। जहां इतने दिन काटे कुछ दिन और सही। 
लौटते हुए मन हो रहा था सीधी बिसेसर के घर ही चली जाएं। पर सकुचा गईं, जो आज प्‍यार से बोल रही है, पता नहीं कब डांट कर भगा दे। ऐसा अम्‍मा के साथ बहुत बार हो चुका था। जो लोग उन्‍हें कभी प्‍यार से बुलाकर बिठाते, वही अम्‍मा को कभी भगा भी देते। उन्‍हें अब इसकी समझ भी खोने लगी थी कि कौन भला है, कौन बुरा। कौन कब मान देगा, कब अपमान कर झिड़क देगा।  
बस यही सोच कर अम्‍मा ने अपने घर जाना ही सही समझा। टूटा-फूटा जैसा है, है तो अपना ही। 
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चलते-चलते थक गईं थीं, बस आकर पानी पिया। देखा गाय के लिए रखा पानी भी खत्‍म हो गया है। घड़ा उठाकर बचा हुआ पानी गाय के लिए डाल दिया। उसे भी प्‍यास लग आई होगी। वो भी उन्‍हीं की तरह बूढ़ी हो गई है। बस सार में बंधी रहती है। उसका तो खूंटा है, उसी से बंधी है। दूध भले न दें, पर अम्‍मा से प्‍यार का नाता है उसका। कभी मां लगती है, कभी बेटी। प्‍यार से अपनी गाय की पीठ सहलाई और एक कोन में जाकर बैठ गईं। दिन भर की थकान और हारी हुई हिम्‍मत में दो कदम चलना भी भारी होता है।
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टूटी छान बरसात में ज्‍यादा याद रहती है, बाकी दिन तो कट ही जाते हैं। यूं ही अम्‍मा भी अपना घर पक्‍का करवाने की बात लगभग भूल ही गईं थीं। कि फि‍र एक और हादसा हो गया- अम्‍मा दोपहर में हैंडपंप से पानी भर रहीं थीं कि सामने से हरीश आ गया। नाते में पोता लगता है, पर एकदम बेहया है। कुबड़ी दादी को हैंडपंप चलाते और पानी भरते देखा तो उसका दांव लग गया - “ओ दादी, ओ दादी तू मोए कर लै। मैं तेरो सब काम कर दे करंगो।” 
अम्‍मा झुकी हुई हैंडपंप पर पानी भर रहीं थीं कि उसने दादी के कूल्‍हों को बेहद बेहयाई से छू दिया। और जल्‍दी जल्‍दी हैंडपंप चलाने लगा।  
अम्‍मा चौंक पड़ीं। अब हिम्‍मत इतनी बढ़ गई है। शर्म लिहाज बिल्‍कुल उतार फेंकी। इसकी तो अभी मसें भी नहीं फूलीं। शिखर चबाकर दांत काले कर लिए हैं, सोच रहा है जवान हो गया।  
अम्‍मा जितना चौंकी, उतनी ही दुखी हो गईं। अब तक सबके घरों में नल लग गए हैं। बस उन्‍हें ही बाहर पानी भरने आना पड़ता है। फि‍र ग्‍लानि होने लगी कि इतनी दोपहर में जब कोई घर से बाहर भी नहीं निकलता, उन्‍हें पानी भरने की क्‍या जरूरत थी। अब गांव में वो वाली बात कहां रहीं है। अबकी घर बनवाएंगी तो नल भी घर के अंदर ही लगवाएंगी। गुसलखाना भी पक्‍का बनवाएंगी और पक्‍की चौखट, पक्‍का दरवाजा, उस पर सांकल भी पक्‍की। 

अम्‍मा के मन में फि‍र से पक्‍का घर हिलोर लेने लगा। उन्‍हें खुद पर ग्‍लानि हुई, उस दिन चली तो गईं थीं प्रधाननी के घर। थोड़ी हिम्‍मत करके बोल ही देतीं। 
अब पानी का होश नहीं था। आधा भरा घड़ा ही उठाकर ले चलीं। और घड़ा रखकर सीधे बिसेसर के घर। 
मन ही मन सोच रहीं थीं, बिसेसर की बहू है तो भली पर गुस्‍सा हो गई तो क्‍या पता। पर कैसे न कैसे करके वे उसे मना ही लेंगी, बिसेसर को उनके साथ प्रधाननी के घर भेजने को। 
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कितने तो अरमान लेकर आईं थीं। पर बिसेसर के घर पहुंच कर पता चला कि बहू तो अपने पीहर चली गई है। अब किससे कहें। हिम्‍मत फि‍र कमजोर पड़ गई। पर हरीश के हाथों की पकड़ अब भी उन्‍हें अपने पीछे महसूस हो रही थी। कभी टपकती छत याद आती, तो कभी रेखा के पक्‍के घर में ठंडी हवा देता पंखा। 
अब जब तक घर बन नहीं जाता, अम्‍मा को चैन पड़ने वाला नहीं था।     
जब कोई राह नहीं सूझी तो अकेले ही चल पड़ी प्रधाननी के घर।  
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दालान में पहुंचकर चुपचाप बैठ गईं कि जब तक कोई पूछेगा नहीं, कुछ नहीं कहेंगी। दालान में भी पंखे लगे हुए थे, ठंडी हवा में कुछ सांस आई। पर मन में उथल पुथल जारी रही। 
बहुत देर से बैठीं थीं, किसी ने ध्‍यान नहीं दिया। शर्बतों के गिलास आए तो अम्‍मा ने भी लपक कर एक गिलास उठा लिया। अब सबका ध्‍यान गया कि ये यहां क्‍यों बैठी हैं। प्रधान जी को घेरे बैठी मंडली में से ही एक आदमी पूछ बैठा, “अम्‍मा तुम क्‍यों बैठी हो यहां। क्‍या बात हो गई?” 
“कुछ नहीं बेटा, मैं तो नेक बहू से मिलने आई।” अम्‍मा ने अदृश्‍य प्रधाननी को लक्षित करके दिशाहीन इशारा किया। 
“कहो, क्‍या बात है बेहद शालीन स्‍वर में इस बार प्रधान जी बोले।” 
इस मधुरता ने अम्‍मा की हिम्‍मत कुछ और बढ़ाई। 
“ऐ बेटा तुम्‍हारे बाबा तो रहे नाय, घर-खेत कौन देखे। अब तुम्‍हारो ही आसरा है। नेक मेरी छान छबवा देओ। तो बड़ी कृपा होगी।” अम्‍मा ने पूरी शालीनता और अनुग्रह से कहने की कोशिश की। अम्‍मा चाहती तो पक्‍का घर बनवाना थीं, पर मुंह से बस इतना ही निकल पाया। 
“छान का क्‍या करोगी अम्‍मा, छत डलवा लो पूरी। कौन रोक रहा है।” 
ये सवाल था कि जवाब था, अम्‍मा को समझ न आया और वे बिल्‍कुल चुप हो गईं। चेहरे पर कुछ खिसियाहट उतर आई। फि‍र निराशा और फि‍र दुख। 
बस आंसू ही न निकले... 
गर्दन नीचे किए बैठी ही थीं कि प्रधान जी की मंडली का ही एक और आदमी बोल पड़ा, - “अपना घर बनवाने से कौन रोक सकता है। इस उम्र में आपको धूप-घाम खाने की क्‍या जरूरत है? घर में कोई और नहीं है क्‍या।” 
आदमी पढ़ा-लिखा पर गांव के सामान्‍य ज्ञान से अपरिचित था शायद। मंडली के एक और आदमी ने कान में फुसफुसाकर कुछ कहा, तो उसे ऐसा कुछ समझ आया कि इंटरव्‍यू में गलत जवाब देने जैसा पश्‍चाताप उसके चेहरे पर उतर आया।
अब मंडली की चर्चा का केंद्र अम्‍मा ही थीं- सब अम्‍मा के बारे में तरह-तरह की बातें करके एक-दूसरे का ज्ञानवर्धन कर रहे थे। और अम्‍मा नीचे मुंडी लटकाए दीन हीन भाव से बस अपने बारे में कुछ जानी-कुछ अनजानी सुने जा रहीं थीं। 
बस बात नहीं हो रही थी तो अम्‍मा के घर की, जिसके लिए अम्‍मा इतनी उम्‍मीद लिए यहां चली आईं थीं।   
मंडली में दुखियारी, अपने ही कुनबे और गांव भर की सताई अम्‍मा की कथा समाप्‍त होने में ही न आती थी।  
तभी अंदर से एक बच्‍चा दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि कुबड़ी अम्‍मा को मम्‍मी अंदर बुला रहीं हैं। बच्‍चा प्रधान जी का था। यानी प्रधाननी खुद अम्‍मा को अंदर बुला रहीं हैं।
मंडली थोड़ी चौकन्‍नी हुई और उन्‍हें अहसास हुआ कि वे बहुत देर से एक अनंत कथा में डूबे थे। 
अम्‍मा के लिए तो ये तो बिन मांगी मुराद के पूरे होने जैसा था। अम्‍मा ने तो क्‍या, वहां बैठे किसी आदमी ने भी नहीं सोचा था कि कुबड़ी अम्‍मा के लिए भीतर से बुलावा आ जाएगा। 
प्रधान जी का चेहरा भी थोड़ा सचेत हो गया। प्रधाननी घूंघट में रहती हैं, उनका पूरा मान-सम्‍मान करती हैं पर कभी-कभी ऐसे झटके भी दे जाती हैं। 
अब उन्‍होंने बुलाया है तो अम्‍मा को जाना ही होगा कि जैसे मामला सीधे हाई कोर्ट ने अपने हाथ में ले लिया है। अब निचली अदालतों की जिरह बेकार है। 
अम्‍मा पुलक में भर कर बच्‍चे के पीछे-पीछे चल पड़ीं। 
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                                                              रेखाचित्र-अनुप्रिया


अंदर का नजारा और भी सुंदर था। 
क्रोशिए से बुने हुए बंदनवार दरवाजों पर टंगे थे। चोखटों पर बेल-बूटों की गुलाबी-हरी चित्रकारी की हुई थी। प्रधाननी उसी बच्‍चे को पढ़ा रहीं थीं जो उन्‍हें बुलाने आया था। 
सामने दो चार मूंज के चटौने पड़े हुए थे। उन्‍हीं में से एक चटौना उठा कर बच्‍चे ने अम्‍मा के लिए डाल दिया। 
अम्‍मा को लगा कि जैसे साक्षात लक्ष्‍मी के आदेश पर गणेश जी ने उनके लिए आसन बिछा दिया हो- 
वे भाव विभोर होकर उस पर बैठ गईं। सम्‍मान पूर्वक बैठाए जाने में भी एक अजब सुख होता है, अम्‍मा को बार-बार यह अहसास हो रहा था। 
भीतर से एक लड़की अम्‍मा के लिए गिलास भर कर मठा ले आई। अब तो अम्‍मा के आंसू ही निकल आए। 
“ऐ भैना मो पे नाय पियो जाओ। जे बालकन को ही दे दे। 
तेरे दस्‍सन हे गए, मेरे ताएं तो जोई भोत है।” 
“कहो अम्‍मा क्‍या बात है?” - मिश्री सी मधुर और सुघड़ आवाज में प्रधाननी ने पूछा। 
अम्‍मा के कानों को ठंडक सी मिल गई। दुख में डूबी आवाज कर्कशा हो जाती है। सुखी गृहस्थिन ऐसी ही मधुर आवाज में बोलती होंगी। अम्‍मा ने मन ही मन खुद को समझाया। 
फि‍र हिम्‍मत जुटा कर टूटी छान, फूटी किस्‍मत और सूखी देह को रौंदती सब दास्‍तान धीरे-धीरे कह सुनाई। 
प्रधाननी की आंखों में आंसू आ गए। सुनते-सुनते, गला रुंध गया। बच्‍चों को उन्‍होंने व्‍यथा कथा के बीच ही दादी के पास जाने को कह दिया था। 
माहौल बहुत गमगीन हो गया था। अम्‍मा की बस एक ही आस थी कि उनका घर बन जाए। अब प्रधाननी को भी अहसास हुआ कि जो वो अखबारों में पढ़ती हैं, वो तो उनके अपने गांव में ही हो रहा है। तो उनके प्रधान बनने का क्‍या फायदा। आजादी के इतने सालों बाद भी अगर एक बूढ़ी बेबस विधवा सिर छुपाने को छत नहीं जुटा पा रही तो लानत है ऐसे लोकतंत्र पर। और बेकार है उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनकी प्रधानी, उनके सब संकल्‍प। 
एक बार तो मन में आया कि अम्‍मा को अपने ही घर में रख लें। पर इससे सिर्फ अम्‍मा का भला होगा, उनमें वह आत्‍मसम्‍मान और सुरक्षा का भाव नहीं आ पाएगा, जिसकी वे हकदार हैं। 
प्रधाननी शादी नहीं करना चाहतीं थी, पुलिस में भर्ती होकर देश सेवा करना चाहतीं थीं। पर गांव में परिवार में उनकी एक न चली और शादी होकर यहां आ गईं। एक ही सुख था कि परिवार पढ़ा-लिखा है और उनकी पढ़ाई-लिखाई की इज्‍जत करता है। 
प्रधान जी ने तो यह भी कह दिया था कि कुछ साल रुक कर वे एक स्‍कूल बनवा देंगे, जिसे प्रधाननी ही संभालेंगी। 
इसी दौरान जब उन्‍हें प्रधानी के चुनाव लड़ने का मौका मिला तो देश सेवा का उनका पुराना सपना फि‍र से जाग उठा। 
चुपचाप ब्‍याह दी जाने वाली भोली भाली लड़की से इस गांव की प्रधान बनने तक जो कायापलट हुआ वह उनके पति के प्‍यार और सहयोग के कारण ही संभव हो पाया, नहीं तो वे क्‍या कर सकतीं थीं अगर वे भी पिताजी की तरह उनकी बात न मानते। यही सोचकर प्रधाननी वही सब करती थीं जो प्रधान जी कहते थे। पर कभी-कभी अपनी बुद्धि‍ और कौशल का भी प्रयोग कर ही लेती थीं। जब पुराने संकल्‍प याद आते।  
इस बार भी उनके मन के भीतर वही ज्‍वाला दहक उठी थी, जिसमें हर गरीब को उसका हक दिलवाना उनका संकल्‍प था। उन्‍हें घृणा हुई कि उनके गांव में भी ऐसे लोग हैं जो अपने ही घर की बूढ़ी औरत को इतना दुख दे रहे हैं। 
उन्‍होंने ठान लिया वे जल्‍द से जल्‍द अम्‍मा का घर बनवाने में मदद करेंगी। और कोशिश करेंगी कि अम्‍मा को सरकारी पेंशन भी दिलवा दें। कम से कम कुछ तो सहारा होगा। 
वे अम्‍मा का घर बनवाने में जरूर मदद करेंगी, इस वादे के साथ उन्‍होंने अम्‍मा को विदा किया। साथ ही एक लड़के को उन्‍हें घर तक छोड़ आने को भी साथ कर दिया। 
अब तो अम्‍मा का आत्‍मविश्‍वास न पूछो। अम्‍मा जैसे उड़ती हुई अपने घर को चली जा रहीं थीं- प्रधाननी की दी सुरक्षा उनके साथ थी। सब लौटती हुई अम्‍मा को देख रहे थे, और उनके पीछे-पीछे चले आ रहे रौबदार आदमी को भी। 
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कुछ अम्‍मा ने बताई तो कुछ फैलते-फैलते फैल गई कि अम्‍मा की प्रधाननी के घर में कैसी आवभगत हुई। प्रधाननी अब उनके लिए पक्‍का मकान बनवाकर देगी। 
कुछ लोग हैरान हुए, तो कुछ ने अम्‍मा को मूर्ख साबित करने की कोशिश की, कि अम्‍मा कहां प्रधाननी की बातों में आ गईं। कुछ ने तो दिन भी गिन लिए कि चुनाव आने वाले होंगे, तभी प्रधाननी इतना उपकार दिखा रहीं हैं। पर कई बार गिनने के बाद भी हिसाब कुछ बैठा नहीं कि अभी प्रधाननी को प्रधाननी बने साल डेढ़ साल ही बीता होगा। फि‍र यह कहकर मन को तसल्‍ली दी कि कहीं तो चुनाव होंगे, प्रधाननी अपनी उसी पार्टी को खुश करने के लिए ये कर रहीं होंगी।   

दिन तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे, कभी प्रधाननी के घर से अम्‍मा के लिए भोजन आ जाता, तो कभी कोई बुलावा अम्‍मा के लिए आ जाता। अब तो बहुओं में भी अम्‍मा की खूब पूछ होने लगी कि अम्‍मा का उठना बैठना प्रधाननी के संग है। बिसेसर की बहू ने भी मीठा सा ताना दिया कि “अम्‍मा अब क्‍यों आएंगी यहां, अब तो उनका उठना बैठना प्रधाननी के घर है।” 
बाबा के जाने के बाद अम्‍मा को अपने जीवन में पहली बार जीवन का अहसास हो रहा था। 
प्रधाननी कहीं अंगूठा लगाने को भी कह देतीं, तो भी अम्‍मा ऐसी खुश हो जातीं कि जैसे उन्‍हें खजाने की दबी गागर मिल गई हो। 
प्रधाननी से ही उन्‍हें मालूम पड़ा कि उनके खाली पड़े खेत में कटहल के जो पेड़ खड़े हैं, वे भी किसी खजाने से कम नहीं। और यह आश्‍वासन भी दिया कि प्रधाननी खुद किसी से कह कर उनके खेत बटायी पर लगवा देंगी। धरती खाली पड़ी रहने से तो अच्‍छा है आधी ही फसल मिल जाए। 
अम्‍मा ने कहां सोचा था कि बुढ़ापे में आंखों में इतनी रोशनी आ जाएगी। 
और एक दिन तो प्रधाननी ने अम्‍मा को फोटो खिंचवाने के लिए ही बुलवा लिया। 
“ऐ भैना मैं नाय अच्‍छी लागती फोटू खिंचवावती। तू अच्‍छी लागेई, तू खिंचवा ले।” 
अम्‍मा ने शर्माते हुए लाड़ में भरकर प्रधाननी से कहा। 
प्रधाननी मधुर मुस्‍कान में हंस पड़ी और कहा कि फोटो तो आपको ही खिंचवाना होगा, तभी घर बनेगा। 
एक के बाद एक ऐसे खुशियां अम्‍मा के जीवन में दस्‍तक देंगी, अम्‍मा ने सोचा भी नहीं था। अब तो कभी पल्‍ला सीधा करें, कभी माथे पर खींच लाएं।
बस किसी तरह उनकी फोटो खिंच जाए - यौवन की उमंग फि‍र से जाग गई कि उनकी फोटो बिल्‍कुल उतनी ही सुंदर बने जितनी सुंदर वे कभी हुआ करतीं थीं। 
फोटो खिंचा, अंगूठे लगे, कागज पत्‍तर तैयार हुए….
अम्‍मा से खुशी संभाले न संभल रहीं थी, पर राज मन में दबाए रहीं। 
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कभी-कभी अम्‍मा को ख्‍याल आ जाता कि अगर कभी प्रधाननी उनके घर आ गई तो उसे वे कहां बैठाएंगी, सब खटिया झूला हो गईं हैं। बक्‍से में पुरानी कढ़ाईदार चादरें तो पड़ी हैं, पर खटिया भी तो अच्‍छी होनी चाहिए। 
उन्‍हें मूंज के वे चटौने याद आ गए जो प्रधाननी के घर करीने से एक कोने में बिछे रहते हैं। लगा खटिया जब बनेगी, तब बनेगी चटौने तो वे बुन ही सकती हैं। ऐसा भी कहीं बुढ़ापा नहीं आ गया। ये तो दुखों ने दोहरी कर दी, नहीं तो उम्र तो उनकी बिसेसर की अम्‍मा से भी कम है। 
“हां, रंगीन चटौना (आसन) बनाएंगी अम्‍मा, क्‍या पता कब प्रधाननी ही आ जाएं।” 
अम्‍मा खेतों के किनारे से मूंज काट लाईं। रामेश्‍वर की बहू से रंग दार टिक्‍की मांग लाईं और जुट गईं अपने काम में। 
अब खाली दोपहरियों में इधर-उधर घूमने की बजाए अम्‍मा अपना चटौना बुनने में लगी रहतीं। बहुत सालों बाद ये काम फि‍र से करने की ठानी थी, तो पहले जैसी गति तो न रही थी, पर हिम्‍मत बांध ली थी तो करके ही दम लेंगी। 
चटौना बुनते-बुनते पसीना पसीना हो जातीं, तो सोचती दो एक बीजने (पंखे) भी बुन लेने चाहिए। ऐसी गर्मी में कैसे घड़ी भर भी बैठ पाएंगी प्रधाननी। 
तो कभी सोचने लगतीं, आंगन कैसा खोरा हो गया है, लीप ही लेतीं तो अच्‍छा हो जाता। क्‍या हुआ जो पक्‍का नहीं है। लीपकर साफ सुथरा तो रखना ही चाहिए। 
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इधर प्रधाननी के घर में क्‍लेश हो गया कि प्रधाननी उस कुबड़ी अम्‍मा के पीछे मति हार रहीं हैं। 
इतनी योजनाएं हैं, घर बनवाने को कौन मना करता है। खाता भी खुलवा देंगे, पेंशन भी बंधवा देंगे। पर अपना हिस्‍सा तो रखना ही चाहिए। जानती नहीं हर चीज के लिए उपर तक पैसा देना पड़ता है। और आए गए जो इतनी मंडली दिन भर दालान में बैठी रहती है, उसका चाय पानी का खर्चा कौन से सरकारी फंड में आता है। सब इसी तरह निकालना पड़ता है।  
प्रधाननी कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं, बस अड़ गईं हैं, “आप को हमारी सौगंध, जो अम्‍मा के एक पैसे पर भी नजर डाली। उनपे पहले ही विपदा की कौन कमी है, जो आप अपना हिस्‍सा निकाल ले रहे हों। ऐसे तो पूरा घर भी नहीं बन पाएगा।”
ज‍बकि प्रधाननी तो चाहतीं थीं कि अम्‍मा को पक्‍के घर के साथ-साथ नल भी लगवा दें, शौचालय भी बनवा दें और पेंशन भी बंधवा दें। 
मामला कुछ भावुक सा हो गया था। 
पढ़ी-लिखी, सुंदर, दृढ़संकल्‍प, युवा प्रधाननी और बूढ़ी, विधवा, कुबड़ी अम्‍मा की दोस्‍ती के किस्‍से गांव भर में कहे-सुने जाने लगे हैं। 
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पूरे कुनबे की छाती पर तब पटेला चल गया, जब ईंटों भरा ट्रक अम्‍मा के आंगन में खाली किया जाने लगा। 
बस भैया अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो अम्‍मा नहीं आए किसी के हाथ। घर कुनबे के लड़के थोड़े हैरान हुए, और ज्‍यादा परेशान हो गए। 
अम्‍मा की खुशी का ठिकाना नहीं। अम्‍मा ने हैंडपंप से ताजा पानी भरा, उसमें बताशे घोले और सब मजदूरों को ठंडा पानी पिलाया। दौड़ कर आसपास में जो दिखा सब को बुला लाईं। कि उनका पक्‍का घर बन रहा है, प्रधाननी बनवा रहीं हैं। 
अम्‍मा तो अब किसी प्रधान से कम नहीं। चेहरे पर एक अलग सी रौनक आ गई, चाल में तेजी आ गई। 
दिन बीतते-बीतते दीवारें अम्‍मा से उूंची हो गईं। चौखटें चढ़ गईं। और एक दिन पक्‍की छत भी बन गई। अम्‍मा के लिए ये किसी सपने से कम नहीं था, जो एक-एक ईंट करके उनके सामने पूरा हो रहा था। कहां टूटी छान, कहां लाल-लाल दीवारों पर डली पक्‍की छत। 
ऐसी छत जिस पर पंखे भी टंग सकते हैं। बल्‍ब भी जल सकते हैं। दरवाजे पर कुंडी भी लगाई जा सकती है।
ऐसा सुख जिसे पूरा बताने को अम्‍मा के पास शब्‍द नहीं हैं। हर घड़ी, वे इस सुख को केवल महसूस कर पा रहीं हैं और उसकी चमक पूरी देह में महसूस होने लगी है। 
सबसे पहले प्रधाननी के घर बताशे लेकर पहुंची अम्‍मा कि उनका घर बन गया। नल भी लग गया। और टट्टी ऐसी सुंदर बनी है कि जंगल फि‍रने बाहर जाने की भी जरूरत नहीं। 
प्रधाननी तो साक्षात देवी बनकर उनके जीवन में आईं हैं। सो, एक बार फि‍र से यह कहकर खुश कर दिया कि अब जल्‍दी ही तुम्‍हें गैस वाला चूल्‍हा दिलवा देंगे। लकड़ी फूंकने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। 
ऐसा संपन्‍न बुढ़ापा, उन्‍होंने जवानी में भी नहीं सोचा था। अम्‍मा तो बस प्रधाननी के पैरों में गिर पड़ीं। 
पर प्रधाननी ने तो उन्‍हें अपनी सहेली बना लिया था, पैर छूने भी न पाईं थीं कि पकड़ कर छाती से चिमटा लिया। अम्‍मा की आंख से आंसू बहने लगे - किस मां ने ऐसी देवी जैसी लड़की जनी है। भगवान तुझे बार-बार प्रधाननी बनाए। 
फि‍र गांव भर में इस खुशी को बांटा। नए घर के बताशे बांटती अम्‍मा को अपनी धोती पुरानी लगने लगी और देह नई। 
वे एक नए जीवन में प्रवेश कर रहीं थीं, जहां रोवन वारी अम्‍मा नहीं, घड़ी-घड़ी खुशी के बताशे बांटती अम्‍मा रहने वाली थीं। 
गांव के लड़कों को अम्‍मा की ये खुशी अजीब सा अहसास दे रही थी। खुश तो नहीं थे पर प्रधाननी के डर के मारे कुछ कर नहीं पा रहे थे। हर समय प्रधाननी के भेजे आदमी ईंट, रेती के पास खड़े रहते। एक ईंट उठाने का भी मौका नहीं मिल पाया। सलाह बनी कि मकान बन गया तो उड़ी फि‍र रहीं हैं। किसी दिन दबोच लेंगे तो सब अकड़ निकल जाएगी। प्रधाननी कितने दिन रखवाली कर लेंगी।  
सबसे अनजान अम्‍मा ढलती शाम में अपने नए घर के आंगन में पैर फैलाए बैठी थीं कि हरीश अंदर घुसा चला आया- 
“ओ दादी, ओ दादी अब नए घर में अकेली काह् करेई, अब तो तू मोए कर लै।” 
हरीश ने तंबाकू चबाए दांतों और चेहरे पर घृणित भाव भरकर बस इतना ही कहा था कि अम्‍मा क्रोध में चिल्‍ला पड़ीं – “हट जा, मर जा, कहूं ऐ जाकै, सोग उठाए, तेरी तेरहीं कर दउूं तेरी…” 
अम्‍मा की ये आक्रोश भरी आवाज और ये भारी भरकम गालियां गांव के लिए नई थीं, आसपास की सब औरतें-बच्‍चे अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर देखने लगे। 
अम्‍मा में जानें कहां से इतनी ताकत आ गई कि उनके हाथ में चिमटा, फूंकनी, बेलन, झाड़ू जो आया फेंकती जाएं और गाली देती जाएं। यह ख्‍याल भी न रहा कि जिस लड़के की तेरहवीं करने और शोक मनाने की वे गालियां दे रहीं हैं, वह नाते में उनका पोता लगता है। 
हरीश जिस हौंसले से आया था, उसी रफ्तार से भाग खड़ा हुआ। पर अम्‍मा तो अब शांत ही न होती थीं - 
गुस्‍से से आग बबूला वे तब तक सामान उठा उठाकर फेंकती रहीं, जब तक उन्‍हें यह यकीन नहीं हो गया कि हरीश अब जा चुका है।
थक गईं पर गुस्‍सा शांत न हुआ, न एक भी आंसू निकला आंख से। 
आक्रोश और आवेश में देहरी के बाहर तक निकल आईं कि कोई और तो नहीं! आज सबको बाहर खदेड़ देंगी, ये उनका अपना घर है। अम्‍मा को लगा आज उनकी पीठ पर कूबड़ का भार नहीं है और उनका कद पहले की ही तरह सीधा होने लगा है। 
“ऐ अम्‍मा आज तो कतई जबरजंग है गईं!” ये रेखा की आवाज थी। अम्‍मा के स्‍वाभिमान की जीत में अपनी मुस्‍कान शामिल करती। वह अपने आंगन की दीवार से जिराफ की तरह गर्दन निकाले मुस्‍कुरा रही थी।  
“आ जाओ रोटी खाये लेओ, अब हाल बनाई है।” 
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योगिता यादव
युवा कथाकार एवं पत्रकार
 दिल्ली
  

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

केशव तिवारी की कविताएँ



केशव एकदम अलग ढब के कवि हैं, अपनी तरह के अकेले। वे लोक के निकट होकर भी लोकवादी नहीं हैं। आधुनिक हैं पर आधुनिकतावादी नहीं हैं। कृत्रिम बनाव-श्रृंगार से रहित, लेकिन सुन्दर कविताएँ लिखते हैं। उनकी सादगी सुन्दर है और नितान्त मौलिक भी।
                                         कात्यायनी



(1)

 ये कोई शुभेक्षा नही है ।

कोई अचानक नही चला जाता
बस प्राथमिकताएँ विस्थापित
करती रहतीं हैं

समय की कुठार से घायल होता
बचता बचाता 
चोटें छुपाता दिखाता

दर्द की कई अबूझ लिपियाँ लिखता
 जिसे आगामी मनुष्यता पढ़ेगी

आज नही तो कई कई साल बाद
किसी गले से निकली पीड़ा की पुकार
फिर फिर लौटेगी जरूर 

पूरे अंतरिक्ष मे उसके लिए जगह 
नही है
 सिवा किसी दुखी के गले के

जब पुराने भ्रम नष्ट हो रहे होंगे
और कुछ लोग नए भ्रम रचने में
लगे होंगे

किसी कविता की कोई पंक्ति
कृपाण सी उसे छिन्न भिन्न करती
कंठों से कंठों की यात्रा में निकल लेगी

तब कवि किसान योद्धा और मुक्ति के गायक
सब समय की शिला पर 
पहट रहे होंगे अपने अपने  औजार

ये कोई स्वप्न और शुभेक्षा नहींं है
ये विश्वास है जो बार बार फलित
हुआ है इस धरा पर ।


************






(2)
न चाहते हुए भी 

कुछ मित्र बहुत संघर्ष में थे
साथ साथ संघर्ष की 
कविता लिखते 

धीरे धीरे संवाद में नही रह गए
निर्मल आनंद की आखिरी खबर 
यही थी कहीं चौकीदारी करते थे

चोरों से लड़ते उनके सर पर
लगी थी चोट 

इटारसी से गुजरो तो लगता है
विनय जरूर यहीं के
सहेली गांव में अब भी  होगा

लगता स्टेशन का कर्मचारी
लाल झंडी दिखा हमें ही 
उतर जाने को कह रहा है

कोई जैसे हाँथ पकड़- पकड़
रोक रहा हो

कुछ मित्र उनके शहर से गुजरो तो
स्टेशन पर पूड़ी -सब्जी लिए मिलते थे

असंवाद स्मृतियों को प्राणलेवा 
बना देता है

कभी -कभी किसी के  कहीं होने की 
भनक भी  लगती
मन और उदास हो जाता है

अभी हाल में अचानक उसके गांव के एक व्यक्ति से
पता चला
 
राजकुमार चाक में एक्सीडेंट में नही रहा
पिता थाने में उठाने भी 
नही गए उसकी मोटर सायकिल

सफल मित्र और निकट बने रहे अपनी सफलता की चकाचौंध करते

और असफल मित्र आह किस अंधेरे में कहाँ होंगे ..!

अच्छा लगता है कभी कभी घर गांव
जाओ को कोई पुराना पूछते -पूछते
आ जाता है

मैं उन तमाम घूस खोरों को जानता हूँ 
जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो
गांव आते जाते रहते हैं

इन गांव में छूट गए मित्रो को किसी के खेत से चना उखाड़ने किसी के  आम तोड़ने के जुर्म में

चोर लिहाड़ा और क्या- क्या 
 कहते सुनता हूँ

कहने वालों के मुंह पर थूक
देने का मन होता है

क्योंकि मुझे उनके बारे में 
पता है सब कुछ

ये  अजनबियत हमारे रिश्तों
को और और दूर बढ़ाएगी

न चाहते हुए भी हमे फिर- फिर 
लिखनी पड़ेगी 

ऐसी ही कितनी और 
कविताएं।

**************

     






(3)

वो समझा रहा था बच्चे को
वक्त ख़राब है साये पर भी
भरोसा करने लायक नही है

हालाँँकि उसे यह समझाया गया था
आपसी भरोसे पर टिकी है दुनिया

इसी तरह प्रेम के बारे में कहा
बहुत घातक मर्ज है 

वैसे वो सूर और घनानंद  मीर और ग़ालिब के
स्कूल का विद्यार्थी रहा है 

उसने यह भी कहा ईमानदारी
भीख मंगवा कर ही छोड़ती है

ये बात अपने ईमानदार पिता के स्वाभिमानी
चेहरे को भूल के कही

अंतिम बात उसने कही ये सब उसने
जीवन अनुभव से पाया है
किताबों से नही 

मजबूरी ये थी वो जो समझा रहा था
उसे वो खुद ही नही समझ पा रहा था ।

कितने चेहरे सवाल कर रहे थे
तू ये क्या कह रहा है।

***************
(4)

जाने के कारण थे
न रुक पाने की मजबूरियां थी

कुछ बदले इसका गहरा दबाव था
अब बहुत हो गया वाले अंदाज में
उठ खड़ा होना था

समय की पुकार सुनने के लिए
बहुत सी पुकारों को
अन सुना करना था

बहुत - बहुत कुछ एक झटके में 
भूलना था 

जिसे कई कई बार निहारा था कठिन दिनों में 
उस भरोसे की नदी को
एक सांस में पार करना था।

वक़्त कम था और 
बहुत कुछ करना था।

केशव तिवारी
बाँदा
उत्तर प्रदेश




पुस्तक -चर्चा

---लेखक की अमरता--- स्वप्निल श्रीवास्तव
( स्मृति- लेख  बनाम सचेत मूल्यांकन)
 पुस्तक समीक्षा - श्रीधर मिश्र

       





1954 में जन्मे हिंदी के प्रतिनिधि कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने एक लंबा रचनात्मक संघर्ष किया है व उनका संघर्ष आज भी अनवरत जारी है ।वे कविता के अप्रितम योद्धा हैं तथा कविता की लगभग चार पीढ़ियों के साक्षी ही नहीं रहे हैं वरन उसके सहयात्री रहे हैं, लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि वे कविता की बदलती प्रवृत्तियों, चुनौतियों से तादात्म्य स्थापित करते हुए आज भी उतने ही प्रासंगिक व महत्वपूर्ण बने हुए हैं,  इलियट ने  लिखा था-- बूढ़ा गिध्द पंख क्यों फैलाये- यह उसने अपने समय के वरिष्ठ रचनाकारों के सन्दर्भ में खीज के साथ कहा था,  और यह खीज हिंदी के कवियों के सन्दर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक है, कवि जब वरिष्ठ कवि होकर प्रसिद्धि की उपलब्धि पा लेता है तो फिर उसकी कविता में  तनाव का मुहावरा लगभग खत्म हो जाता है, वह खुद को दुहराने लगता है तथा वह मात्र कलाश्रयी होकर रह जाता है, उसकी कविता की दुनिया भी उसकी निजी दुनिया की तरह तनाव रहित, सुरक्षित व वैभवशाली हो जाती है, प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय तक अंतिम दिनों में इसके शिकार  होगये, " कितनी नावों में कितनी बार(1967)," पहले मैं सन्नाटा  बुनता हूँ"(1974) तक आते आते अज्ञेय का मुहावरा काफी शिथिल पड़ गया था तथा वे खुद को दुहराने लगे थे, जबकि स्वप्निल श्रीवास्तव के प्रकाशित पांचों कविता संग्रहों क्रमशः, ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथिवी चाहिए, ज़िंदगी का मुकदमा, जबतक जीवन है, में स्वप्निल किसी दुहराव के शिकार नहीं हुए हैं बल्कि निरंतर वे अपनी ही भाषा तोड़ते हुए नज़र आते हैं, इसीलिए स्वप्निल की कविताओं में ताज़गी  तो महसूस होती ही है,  समय -समाज के दबावों की अनुगूंज भी मिलती है,  हिंदी के बहुत कम कवियों ने अपनी भाषा तोड़ने का जोखिम उठाया है, उसमें प्रमुख हैं निराला, एवम श्रीकांत वर्मा भी अपनी मगध सीरीज की कविताओं में अपनी भाषा तोड़कर  भाषा की सर्वथा नई भूमि पर कविताएं चरितार्थ करते हुए दिखते हैं, और इसी क्रम में स्वप्निल भी हिंदी कविता के प्रमुख कवि हैं जिन्होंने बदलते हुए परिवेश से साक्षात्कार करने के क्रम में अपनी भाषा तोड़ने का  लगातार जोखिम उठाया है इसीलिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं
    हालांकि उनके दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह " एक पवित्र नगर की दास्तान व स्तूप और महावत के साथ ही एक संस्मरण" जैसा  मैंने जीवन देखा" पहले प्रकाशित हो चुके हैं जो काफी चर्चित हुए, यह उनका नया संस्मरण याकि स्मृति लेख- "लेखक की अमरता"सद्यः प्रकाशित हुआ है  जो जितना रोचक- रोमांचक है उससे अधिक इस लिए महत्वपूर्ण है कि स्वप्निल ने अपने व्यक्तिगत संस्मरणों में  आज के साहित्यिक परिदृश्य की खूब खबर ली है, उनकी निडर व बेबाक टिप्पणियां धरोहर की तरह बहुमूल्य हैं, क्योंकि ये स्वप्निल के निरन्तर रचना-संघर्ष के घर्षण से उपजी अग्निस्फुलिंग सरीखी हैं, एक शांत व सम्वेदना के बड़े गहरे तल से सरोकार रखने वाले, सहज लेकिन विराट भाव बोध के कवि के उद्गार हैं। ये स्मृतिलेख वस्तुतः प्रकारांतर से मूल्यांकन भी हैं,     
    गिरीश कर्नाड, नामवर सिंह,केदरनाथ सिंह,मंगलेश डबराल, सव्यसाची, परमानन्द श्रीवास्तव,नंदकिशोर नवल,दूधनाथ सिंह,देवेंद्र कुमार बंगाली, बादशाह हुसैन रिज़वी जैसे महत्वपूर्ण  साहित्यकारों से साहचर्य के संस्मरण से स्वप्निल  अपने निजी अनुभव के सहारे  हमारे समय के साहित्यिक परिदृश्य की बड़ी गहन पड़ताल करते हैं, वे विमर्श के कई प्रस्थान विंदु नियत करते हैं, अपना अमर्ष व्यक्त करते हैं, उलाहना देते हैं व उनकी सीमाओं का रेखांकन भी करते हैं, अतः यह किताब कई अर्थों में महत्वपूर्ण  है।
   नामवर सिंह के सन्दर्भ में वे " तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज़ " शीर्षक के लेख में कहते हैं कि "  बनारस में उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा गुरु मिला।यह परम्परा और आधुनिकता का मिलन था, नामवर सिंह ने अपने गुरु की लीक से हट कर अपने लिए एक मार्ग बनाया--- उनकी स्थापनाएं विवाद का विषय बनती रहीं।लेकिन वह आलोचना क्या, जो विवाद का कारण न बने" 
    आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल  अपनी बेबाक व साहसिक टिप्पणीं करते हैं-" आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है लेकिन आलोचक के अपने दम्भ हैं।अपनी अपनी सेनाएं एक दूसरे से लड़ती हैं, जैसे वे एक दूसरे के शत्रु हों।आलोचक सेनापति की भूमिका में हैं"।  स्वप्निल आगे लिखते हैं कि" उन्होंने आलोचना को मार्क्सवादी धारा से जोड़ा और रचना को उसकी कसौटी पर कसने का काम किया।उनके सामने केवल रचना नहीं रचना के समय का समाज था,उनका मार्क्सवाद कट्टर मार्क्सवाद नहीं था, व्यवहारिक मार्क्सवाद था"
  स्वप्निल ने नामवर के बाद के दिनों पर भी खासी उत्तेजक टिप्पणी की  है जो उनके अदम्य साहस का परिचय देती है , स्वप्निल लिखते हैं कि " वह साहित्येतर कारणों से लोगों का उपनयन संस्कार करने लगे, सत्ता के साथ बढ़ती उनकी निकटता और उद्घाटन समारोहों की अतिशयता उन्हें निष्प्रभ करने लगी"
       "लेखक की अमरता" शीर्षक  के लेख में दूधनाथ सिंह से कृतित्व व उनके व्यक्तित्व से सम्वाद करते हुए स्वप्निल हिंदी की कुछ नई परम्पराओ पर बड़ा गहरा व खुला व्यंग्य करते हैं, हालाँकि भाषा की शालीनता अपनी जगह कायम है लेकिन व्यंग की धार इतनी पैनी है कि रक्त पहले निकला या दर्द पहले शुरू हुआ इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल होजाता है वे लिखते हैं " दूधनाथ सिंह ने अपनी अमरता के लिए कोई इंतजाम नहीं किया। उनके पास अंधभक्तो की फौज नहीं थी-- जो उनकी अमरता की कामना करे।हालांकि हिंदी में यह रिवाज बन रहा है कि कुछ लोग अमर होने के लिए मरने का इंतज़ार नहीं करते , वे जीते जी अमरता का अनुष्ठान करते रहते हैं, अपनी ग्रंथावलियाँ छपवाते हैं, किराए के आलोचकों से अपनी यशोगाथा लिखवाते हैं, नगर नगर में अभिनन्दन समारोह आयोजित करवाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें अपने शब्दों पर भरोसा नहीं है" 
     खुद पर व्यंग्य करना सबसे साहसिक कार्य होता है, स्वप्निल अपनी ही साहित्यिक बिरादरी के सच का बड़ी निर्ममता से पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं "लेकिन सबसे ज्यादा आदर्श की मांग लेखक से ही की जाती है।जबकि लेखक देवताओं से कम पतित पतित होता है" 
    वे दूधनाथ सिंह के सन्दर्भ में लिखते हैं" दूधनाथ सिंह ने अपने लेखन में परम्परा की रूढ़ि तोड़ा है, उनकी मूल विधा कहानी है लेकिन उन्होंने अपने लेखन को एक विधा तक सीमित नहीं किया है--- वे एक बेचैन लेखक हैं"  दूधनाथ सिंह की इस रचनात्मक बेचैनी के सन्दर्भ में स्वप्निल बड़ा वाजिब तर्क प्रस्तुत करते हैं " प्रायः विधाओं की आवाजाही को लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन उन्होंने अपनी बेचैनी को प्रकट करने के लिए अनेक विधाओं का चुनाव किया" रचनाकारों के विधागत कायांतरण के सम्बंध में स्वप्निल एक रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि " वस्तुतः एक विधा में विफल लोग दूसरे विधा का चुनाव करते हैं। कतिपय असफल कवि आलोचना की दुनिया मे प्रवेश करते हैं"  स्वप्निल के इस अभिकथन की जांच की जाय तो हिंदी के दो शीर्ष आलोचकों पर सही साबित होता है और वे हैं रामबिलास शर्मा व नामवर सिंह क्योंकि इन दोनों ने पहले कविताएं लिखीं व बाद में कवि कर्म छोड़ कर स्थायी रूप से आलोचना के क्षेत्र में आगये ।
      " केदारनाथ सिंह की कविता के उद्गम स्थल" लेख में स्वप्निल हिंदी के प्रतिनिधि कवि केदारनाथ सिंह के जीवन संघर्षों व रचनात्मक संघर्षो की चर्चा करते हैं, केदार नाथ सिंह के सन्दर्भ में वे लिखते हैं " उनकी कविताओं में खुद अपना चेहरा देखता हूँ"
  केदार नाथ की काव्यप्रवृत्ति की चर्चा करते हुए स्वप्निल केदारनाथ की कविताओं में गीत तत्व की बड़ी बारीकी से शिनाख्त करते हुए लिखते हैं कि " केदारनाथ जी व देवेंद्र जी गीतों के बाद कविता की दुनिया मे दाखिल हुए और अपने गीत तत्व को सुरक्षित रखा" 
    केदारनाथ की कविताओं व आलोचना के मन्तव्यों को लेकर स्वप्निल  अपना खुला आक्रोश व्यक्त करते हुए केदारनाथ का पक्ष लेते हैं । वे लिखते हैं " हिंदी के वे आलोचक जो कविता को क्रांति का हथियार मानते हैं, उन्हें केदारनाथ की कविता नहीं भाती।कुछ तो इतने कटु होगये हैं कि वे उनकी मृत्यु के बाद उनपर हमलावर होगये हैं, कई तो व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आए हैं"।
   इसके अलावा , छोटा कद लेकिन बड़ा पद लेख में परमानन्द श्रीवास्तव, क्या यह स्मृति का दूसरा समय है लेख में मंगलेश डबराल, आलोचक की सजग दृष्टि लेख में नंद किशोर नवल ,देवेंद्र कुमार की कविताई,धर्मिक नगर में कामरेड की आवाज़, बादशाह हुसैन रिज़वी के अफसाने, आदि लेख अत्यंत रोचक व महत्वपूर्ण हैं
    स्वप्निल   इन रचनाकारों के साथ बिताए पलों को याद करते हुए जहां लेख में खुद को आद्यंत उपस्थित रखते हैं वहीं वे अपनी सजग आलोचनात्मक चेतना के चलते भावुकता के शिकार नहीं होते  यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अपने परिचित व सुहृत को याद करते हुए प्रायः व्यक्ति भावुकता के वश में आकर अपने भीतर की अराजकता का शिकार हो जाता है, संस्मरण लेखन में इसके कई उदाहरण हैं,   स्वप्निल के ये स्मृति लेख इस लिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें उनकी आलोचनात्मक चेतना ने उनका कभी साथ नहीं छोड़ा है, अतः ये लेख जहाँ संस्मरण के रोचक प्रसंगों से किस्सागोई का आस्वाद देते हैं तो वहीं एक सचेत मूल्यांकन का निष्पक्ष उत्तरदायित्व भी निभाते हैं,  आलोचना का कोई बड़ा सामान्य पाठक वर्ग नही होता, इसके पाठक सीमित होते हैं  - शोधार्थी , शिक्षक, रचनाकार या आलोचक, लेकिन स्वप्निल ने स्मृतिलेखों के सिलसिले से आलोचना की जो नई प्रविधि इस किताब में विकसित की है इसे नए प्रयोग के रूप में लिया जाना समीचीन होगा
    इन लेखों में स्वप्निल ने अपने भाषा कौशल का परिचय दिया है,  संस्मरण के पलों में उनकी भाषा मे सम्वेदना की तरलता, भावुकता, के तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हैं, लेखों में  कहानी की रोचक शैली में कथाविकास है  तो वहीँ मूल्यांकन के सन्दर्भो में भाषा का तेवर, ताप बदल कर गवेषणात्मक  व व्यंजना प्रधान हो जाता है, एक ही लेख में भाषा के इतने प्रस्तर का रचाव स्वप्निल के कलात्मक सौष्ठव का परिचय देता है।
     आज की आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल ने लिखाहै-"आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है"-- उनकी इस चिंता को स्वीकार करते हुए यह कहा जा सकता है कि - "जब किसी युग मे कोई बड़ा आदमी नहीं होता तो लोग मिलकर उस समय को ही बड़ा कर लेते हैं"
  आलोचना के सन्दर्भ में इन  लेखों को अपने समय की आलोचना को बड़ा करने के सार्थक प्रयास के रूप में  लिया समीचीन होगा
  इतने महत्वपूर्ण लेखों के लिए स्वप्निल श्रीवास्तव को बधाई, आशा है यह किताब सुधी पाठकों में पर्याप्त समादर प्राप्त करेगी
 यह किताब पठनीय भी है व  संग्रहणीय भी।
    किताब के इतने सुरुचिपूर्ण व आकर्षक प्रकाशन  के  लिये प्रकाशक को साधुवाद
                       --  श्रीधर मिश्र, गोरखपुर
                        
  -  कृति-
लेखक की अमरता
 लेखक-  स्वप्निल श्रीवास्तव
 आपस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
   अयोध्या, उ0 प्र0

                                                                     स्वप्निल श्रीवास्तव

सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

प्रतिभा श्रीवास्तव की कविताएँ

#समकाल_कविता_का_स्त्रीकाल

साहित्य की अपनी सत्ता है और यहाँ कविता का अपना दरबार और दरबारी हैं।आप उन्हीं नामों तक पहुँच पाते हैं जिनके नाम की मुनादी इन दरबारों से होती है।इसी दरबारी कविता के समानांतर एक आम जन की कविता कहीं भी जीवन की नमी पा अँखुआ उठती है और बार -बार पैरों से कुचले जाने,जड़ों के काटने और नकारने के बाद भी छछन-बिछन जाती है।
इधर गाँवों और कस्बों से भी इस कविता के अँकुर फूटे हैं और तेजी से इनकी लताएँ दरबारों को ठेंगा दिखाते उस आम भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रहीं है जिनका लिखा किसी लोकगीत की तरह पीले पड़े पन्नों में बिहउती बक्से में सड़-गल जाता था। 
प्रतिभा आज़मगढ़ जनपद में एक स्कूल टीचर हैं और दो बेटियों की माँ हैं।उन्हें दो बेटियों का ताना ख़ूब सुनने को मिलता है।कुछ आज भी सलाह दे देते हैं कि एक बेटा तो होना ही चाहिए।सहकर्मी पुरुष लिखनेवाली औरतों को निर्लज्ज तक की उपमा मुँहपर दे देते हैं और उनके उत्तर से मुँह की भी खा लेते हैं। यही हमारी दुनिया है और यही यहाँ की रवायत है।वह लिख रही हैं अपने जीवन का अनुभव और बड़ी बेबाकी से पितासत्ता से सवाल पूछती हैं अपनी कविताओं में।
कल गाथांतर के मंच से जनपद की युवा कवयित्री प्रतिभा सिंह की कविताएँ आपके बीच थीं आज उन्ही की हमनाम प्रतिभा श्रीवास्तव की कविताएँ हम आपसे साझा कर रहे हैं।उम्मीद है इन गाँव ,कस्बों की आवाज आप तक पहुँचेगी और इनकी कविता इस बात की मुनादी करेगी कि बदल रही है औरतों की दुनिया उस आखिरी कोनों में जहाँ कभी सिर उठा कर बोलने का साहस नहीं था।

प्रतिभा श्रीवास्तव की कविताएँ...

"भाग्य और ईश्वर "
भाग्य औरतों के मत्थे थोपा गया अश्लील रुदन है 
बेटियाँ भाग भरोसे जनी गईं
भाग भरोसे एक बाप के बारह  हुईं
सबने कहा ये बेहया के फूल हैं
 डाढ बन जाएंगी
इनको तेल ,बुकुवा , उबटन की जरूरत नहीं रही
भाग भरोसे बेटियों के  पैरों में जान आई
बेटियां सब  खाती थीं
साग ,भात ,बासी मच्छी , थाली की बची रोटी ,छूटा  दाल का कटोरा, कच्चा ,पक्का सब
बेटियां बाप, भाई कक्का, काकी भी खाती थीं
ये कुल का शाप कही गईं

जिन बेटियों की पीठ पर भाई जन्में
 बड़भागी कहाईं
इनको जरा दुलार मिला
 कभी दूध , घी मिला
 कभी अम्मा के हाथ की ताजी रोटी 
कभी जलेबी का बड़ा छत्ता
बेटियाँ बसवारी की कईन सी बढ़ती रहीं
इनके माथा, होंठ , कान , नाक ,हाथ, पैर से भाग विचारा गया
ऊँचा माथा ,चौड़े हाथ , चपटे पैरों वाली लड़कियाँ अभागी  हुईं
छोटा मत्था ,सुंदर हाथ और छोटे पैरों वाली लड़कियाँ सुभागी हुईं
सुभागी लड़कियों के रिश्ते घर आये
इनके ब्याह के लिए नकारे गए लड़के
ये मान दुलार से ब्याही गईं
जिन घरों में पुत्र जन्में
वहाँ पूत जन्मने वाली बहू
का मान बढ़ा
ये गोल बिंदी सेंदुर की लंबी रेखा सजाए साड़ी गहनों से लदी मर्दों की पसंदीदा औरतों ने
 मर्दों की हर बात मानी 
ये घर की लड़की को दफनाने से खुद दफन हो जाने तक
 होंठो पर मुस्कान सजाए पीती रहीं आसुओं में घुला रक्त
इन घर के पुरुषों की चहेती औरतों ने 
स्वयं का पुरुष हो जाना ही सच माना
जिन अभागी बेटियों के बाप वर खोजते थके
उनके फेरे बेल के पत्ते , केले के तने , नीम के पेड़ से हुये
इनके ब्याह के लिए केवल एक पुरुष चाहिये था
ये भाग भरोसे ब्याही गईं
ये कम सूरत ,कम सीरत ,कम दहेज वाली बहुओं को खाने में पहले दिन  बासी कढ़ी मिली
ब्याह की दूसरी सुबह ये रसोई में थीं
इनकी बनाई दाल में स्वाद न आया ,सब्जी रंगहीन रही और रोटियाँ कभी गोल न बनीं
ये फूँकती रहीं चूल्हे में साँसे
पिघलाती रहीं गर्म रोटी पर  प्रेमिल ख्वाब
इनकी आँखे धुयँ के बादलों संग भाप बनीं
इनकी पीठ पर लाल चिमटों के निशान पड़े
इनकी उंगलियां गर्म तवे पर सुर्ख हुईं
ये मायके की उपेक्षित बेटियाँ  ससुराल की बेशऊर बहू रहीं 
ये बेटा जनने के लिए कई कई बार गिराती रहीं कोख 
ये पुरुष प्रेम के लिए पूजती रहीं बरसों बरस ईंट, पत्थर , शिवाले
इनके देह में अबूझ रोग लगे 
ये बड़ी कम उम्र निकलीं 
कोई स्टोव फटने से 
कोई बच्चा जनने से
कोई कुआँ ,तालाब डूब मरी
किसी  किसी का मरना हमेशा राज रहा
इन लड़कियों के लिए जन्म से मरण तक 
रोया गया भाग्य का रोना 
ये जन्मते ही बोझ समझी गई लड़कियाँ 
पूरी उम्र अभागी रहीं।
भाग्य और ईश्वर औरतों के हिस्से ही अधिक आया 
मर्दों ने चालाकी से  अपने हिस्से सदा पुरुषार्थ रखा।
 

*********************

"माँग और पूर्ति"

आँचल से बांध लिया एक टुकड़ा बादल,
जब बन्द मुट्ठी में कसाया मन
पलकों पर कुछ बूंद बारिशें अटकीं
दर्द दबा लिया दांतों के बीच
कि टीसता रहा सदैव
वह आह्लादित थी, 
अचंभित भी
कठोर बाहुपाश में जब तलाशा जा रहा था मोक्ष 
कसे जा रहे थे बन्धन के तीखे ताँत 
उसकी
 स्वीकृति के उपबन्धों में 
वह मानुषी से परे
 मिथकों में वर्णित अप्सरा थी ।
तेज नाखूनों से गीली मिट्टी पर लिखे गए असंख्य प्रेमगीत
मधुर लहरी में डूबी बावरी , 
रजनीगन्धा हुई
बादलों संग हवा सी लिपटी 
आकाशगंगा की लहरों पर तैरती 
तेजोमय तारा थी,
वह चिंता ,भय ,दुख से मुक्त थी
आत्मसात किया 
ईश्वरीय सत्ता का सिंहासन
पूर्ण माना जीवन का प्रारब्ध
किन्तु......
अन्तर्ध्वनित , 
आशंकित प्रश्न
क्या  ... इतना भर  ...
प्रेम है ??
अचानक थम गये सरपट भागते सातों घोड़े
सूरज ने मुँह छुपा लिया 
खोहों से निकल टिड्डियाँ फड़फड़ाने लगी
यह बोलती है ...!
प्रश्न करती हैं....!
प्रेम में प्रश्न।
प्रेम ईश्वर है.!
ईश्वर पर प्रश्न ...!!
पाप है..! ,पाप है...!, पाप है...!।
अफवाहों के पँख पहन बहुत दूर उड़ चला प्रश्नवाचक चिन्ह,
काश..
  घड़ी की सुइयाँ भी प्रेम में पड़ती 
अड़ कर रोक देतीं ,
ऋतुओं का बदलना
पावस की आभा में खिलखिलाते इंद्रधनुषी रंग
छिटक गए ...
क्या इतना भर प्रेम है ..?
जैसे हर बरस लौट आते हैं रूठे आवारा बादल 
दहलीज तक आती कच्ची मिट्टी की सड़क पर ठहरे पैरों के निशान लौट पड़े
सड़क के दूसरे छोर पर
फुसफुसाती हवाओं ने देखे पीठ पर चुभती अंगुलियाँ
गहनतम क्षणों में,
आकुल आँखों में घुलित कतरा भर खारा प्रश्न ......
क्या मात्र यही प्रेम है ??
कसी हुई गुलेल से छिटके कँचे
जीतनी थी जमाने की दौड़ 
छूटता गया 
गाँव ,नदी पहाड़
लौटती डाक के पत्र सदा ही अलिखित  रहे।
एक ऋतु जो बीत  गई
ठहर गई कहीं भीतर
तमाम कोशिशों में एक कोशिश
कि पढ़ सके भाषा 
बांच ले ज्ञान 
किताबों ने जिसे प्रेम सिखाया
वह  मात्र भावनाओं का व्यापार है
प्रेम  के अर्थशास्त्र  में
संवेदनाएं मुद्रा
और अवधारणाएं
माँग और सापेक्ष , निरपेक्ष पूर्ति हैं।
 
********************





"प्रेम "

काल की निर्मम पीठिका पर
 प्रेम का हस्ताक्षर लिखता  ,
नायिका की आँखों में 
सुंदर सपनों की श्रृंखला सजाता
नायक,
विस्तृत दृढ़ वक्ष पर, सिर टिकाए 
 अनिश्चित ,
किंतु आश्वस्त  , 
उलझी उंगलियों के बीच ब्रम्हाण्ड थामे हुए
 नायिका ।
यह दृश्य  सबसे सुंदर  हो सकता था ..,
बशर्ते कि ....,
प्रेमियों की हत्या के षड्यंत्र न रचे जाते ।
खोने और पाने के बीच , 
प्रेम के हिस्से अक्सर खोना आया ।
मछलियों का सागर के विरुद्ध होना..?
हवा को खिड़कियों में कैद रखना ..,
पृथ्वी को सूर्य के विरुद्ध करना
क्या सम्भव है..?
प्रेम के सौंदर्यशास्त्र में,
 विछोह सर्वाधिक सुन्दर था ..।
बहुत बेबस थी ,
मुंडेर पर बैठी हुई मैना
उसने असंख्य विरह के गीत गाये ..!
सिर पटक ,पटक कर पत्थरों को  मोम होने की सौगंध दी  
परन्तु ...,
प्रेम का परिणाम बदलना 
चिड़िया के बस में कब था..??
मनुष्यता के विकासक्रम में,
'सृजन ' सृष्टि का सार है ।
तथापि ,
प्रेम कैद है,
 सभ्यता की ऊँची मीनारों में 
प्रेमियों की मुट्ठी में बन्द हैं 
लाल,
गुलाबी,
पीले रंग की तमाम चिट्ठियां
और,
प्रेमिका के गालों पर ,
खिंची हैं प्रतीक्षा की कालजयी रेखाएं ।
यकीन मानिए..,
एक दिन , 
समुद्र में नमक इतना अधिक होगा कि ,
गल कर नष्ट हो जाएगी धरती ।
मेरा,तेरा,उसका .....,
ईश्वर एक होगा
 अथ, 
पुनर्जन्म के लिए जुड़े होंगे सैकड़ों हाथ ।
वास्तव में .., 
'प्रेम ' प्रकृति का 'प्राण 'है 
और..,
प्रेमियों की हत्या ,
विश्व की सबसे बड़ी क्षति ।

*************************

"राजधर्म ..  "

 अबकी,  झरबेरी के फूलों का रंग सुर्ख लाल है   
भटकटैया के काँटों की धार बड़ी तेज हुई ।
हवा में कुछ ऐसी तल्खी है कि
बिल्ली के बच्चों ने मना कर दिया दूध पीने से और
मिठाईलाल के कुएँ का पानी खारा हो गया है।
कई दिन से लापता है , 
बेचन की बेटी सोनपतिया 
बंशी किसान की फसल काट ले गए चोर
लेकिन  ...,
कहीं कोई क्षोभ नहीं 
हर्ष ही हर्ष है ।
सब देख रहे राजा को 
टकटकी लगाए
वह न्याय करेगा ....
वह दुःख हरेगा...
खबर फैली है कि.. ,
राजा  सर्वशक्तिमान है 
सर्वकालिक है 
उसे प्राप्त है ईश्वर का वरदान
उसके छूने भर से लोहा मोम और
 मोम लोहे में बदल जाता है।
बड़े भोर  ही 
मरचिरैया ने  टेर  लगाई है
सशंकित है पंडित रामदीन की गाय 
जो चरने जाती है 
कलीम कसाई के खेत के बगल
कामरान को एतराज है 
कि , उसके घर में मंदिर की घण्टियों की आवाज क्यों पहुँचे
राजा दोनों आँख खोल कुछ न देख पाने का अभ्यास कर रहा
राजा के अनुयायी तैयार हैं 
 अबकी ,
राजतिलक विशेष है
अबकी ,
अनिवार्य है मानव रक्त 
दीर्घजीवन के लिए।
अबकी, गौण  है भूख , प्यास ,दर्द 
 विशेष है ....,
राजधर्म ।।

***********



"मृत्यु से संवाद "

मौत..!
 खबर तुम कर देना..
दरवाजा खटखटाना या 
डोर बेल बजाना 
भीतर कदम रखने से पहले  ठहरना कुछ देर
आँधी जैसे , मत आना ..
न आना चोर जैसे
आना नदी की मद्धम लहर जैसे
अतिथि बन मत आना
कुछ रोज पहले आने के 
खबर करना 
टेलीफोन , फैक्स , एस एम एस 
या, 
 किसी रँगीन कागज पर भेज देना मेरा उजड़ा हुआ घर 
घर के भीतर 
बिलखते परिजन 
पगलाई प्रेमिका
और मिट्टी में धँसी मेरी अंकशायिनी 
मौत ..! 
 ये न हो पाए तो एक संकेत भर कर देना ।।
मेरे बच्चे  बहुत छोटे हैं ,
कहने का मौका भर  देना 
कि.... ,
गिद्ध बहुत हैं यहाँ
तुम्हें नोंच कर फेंक दें 
 इससे पहले ही
उड़ना सीख लो ।
न सही तो ....
पैरों पर दौड़ कर ,
बचना सीख लो
 माँ ... उसके जोड़ो में दर्द बहुत 
जिस  मालिश से दर्द जाता है 
 वह मेरे ही हाथ हैं।
पिता ...,
उन्हें दिखता कम है
मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाने से डरते उनकी आँखे मुझे देख के 
चमकती हैं ।
उन्हें सूचना देनी है 
 कि ...
ऑपरेशन सक्सेसफुल।
पत्नी.... 
उसका ईश , प्रेमी और और पूरी दुनिया 
 मैं...
उससे कहना है...  कि ,
मैं , उसे उतना नहीं चाहता जितना कि वह मुझे  
उससे प्रेम में किये ..
 छल गिनवाने हैं।
प्रेमिका ....जिसने कुछ नहीं चाहा  कभी
उसके साथ  एक पूरा दिन गुजारना है।
मौत ..! 
थोड़ा ठहरना ...
मुझे किये गए पाप और पुण्य का लेखा जोखा बनाना है।
ज्यादा नहीं ....
हफ्ते भर के कुल सात दिन  देना मुझे ,
छोटे बडे ,
सारे काम निबटा लूँगा ।

**************

"पति त्याज्या "

अभी कल की ही बात है.....
तुम्हारे कपड़े  ..हेयरस्टाइल ..चाल ढाल..  सक्रियता
ऑफिस से मिले किसी  काम में
जान लगा देने की तुम्हारी आदत चर्चा का विषय थी
उनका कहना था ..
 तुम्हारी बॉस के साथ बहुत नजदीकी है ..
ये कहते हुए 
उन दो पुरुषों के चेहरे पर  कुटिल मुस्कान थी ..
वहाँ बैठी दो औरतें उनकी हाँ में हां मिला रही थीं ।
एक तीसरी औरत जो शायद उनके विरोध में बोलना चाह रही थी 
 चुप कर गई  ।
उनका कहना था  ,
दुपटटा न लेना
दो  स्मार्ट फोन रखना
ऑफिस  के कार्यों में आगे रहना
प्रेम  कविता लिखना
फेसबुक पर फ़ोटो अपलोड करना 
बहस करना
पुरुष मित्र  बनाना.
सब औरतों की चरित्रहीनता के लक्षण हैं जैसे कि तुम्हारे बारे में वे सब जानते  हैं
तुम्हारे चारित्रिक दोष एक एक कर गिनाए जा रहे थे ।
तुम्हारे पक्ष में और उनके मत के विरुद्ध  बहुत से तर्क दिए मैंने
बात सिर्फ तुम्हारी ही तो नहीं थी  
  एक मुट्ठी आसमान  की खोज में निकली हर स्त्री की थी 
मैंने स्त्रियों के हक पर  कुंडली मारे 
कुंठित पुरुष सत्ता के विरुद्ध
एक पूरा वक्तव्य दिया 
वैदिक युग के बाद क्रमशः स्त्री की स्थिति में  अवनति की बात कही
धर्म के ठेकेदारों द्वारा रचित  आडम्बरों को स्त्री विरुद्ध सिद्ध किया
सती प्रथा  के विरुद्ध , समुचित शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए  औरत के  संघर्ष की याद दिलाई
गर्भ में मार दी गईं और बलत्कृत होती औरतों की बात कही ।
मैंने तर्क दिए यदि सावित्री बाई फुले पहला  महिला महाविद्यालय न देतीं 
 लडकियों के लिए विश्वविद्यालयों के द्वार आज भी बंद होते
 कहा कि ,
औरतें ..., 
घर से बाहर निकल रही  सब मिलकर बदलाव लाएंगी.
अभी तो शुरुआत  है 
आगे बहुत कुछ बदलेगा
जब संसद से सड़क तक आधी औरतें होंगी 
तब यह दुनिया औरतों के जीने लायक बन पाएगी
लेकिन ...
वे कब हार मानने वाले ...
ठठाकर हँसे ...
तुम्हारे ,घर.. परिवार ...खानदान. का समुचित पोस्टमार्टम के बाद
मेरे घर तक आये 
पुनश्च
तुम्हें पति त्याज्या
और मेरे लिये अर्थपूर्ण  मुस्कुराहट दिखा
अंततः
वे सन्तुष्ट हुए।।

*************

"छोड़ी गई प्रेमिकाएँ"

मैं प्रेम में नहीं ...!
ये सम्बन्ध , जरूरत भर है ।
जितना मुश्किल है ...
एक प्रेम में डूबी लड़की के लिए यह सुनना,
उतना ही आसान है ..
एक प्रेम से उकताए पुरुष के लिए यह कहना ।
लड़की तवे पर छौंकी जिंदा मछली सी छिटक गई,
प्रेमी की आँखों में ,
अमलताश के फूलों का रंग झक्क सफेद था।
वह सहेज लेती है , विभ्रांत मन
क्या ...?
अब नहीं आओगे  !
पता नहीं ..!
प्रेम व्यापार न हुआ
 कि  अधजगी रातों के बदले मांग लेती लड़के का एक पूरा दिन ।
दुर्लभता ही सदैव आकर्षक है,
सुलभता   से चाहत मर जाती।
यह मरी हुई चाहतों के लिये जिंदा बची लड़कियाँ..,
प्रेम बाँट ,
खाली  शीशी सा लुढ़कती हैं ,
रात बेरात ,
सूनी छत पर टहलती हैं,
भरी नींद में ,
चौंक कर जगती हैं।
ब्रम्हाण्ड की थाह लेने  वाला पुरुष,
औरत का मन की थाह न पा सका ।
बेहद उदास दिनों में ...,
लड़की पुरुष के लिए , 
घनी छांह... ,
मीठे जल का स्रोत.. ,
उजला दीपक ..., 
मां की लोरी... ,
कहानियों की सुंदर किताब थी ।
जिसे  सीने से लगा , वह बच्चा बना रहता।
जिन परिदों के अपने नीड़ नहीं .,
वे ,दूसरों के घोसले में अपने अंडे सेंकते हैं।
भावुक लड़कियां ,अभिशप्त हैं सेंक का आश्रय बनने को।
उसके ह्रदय में दर्द  का समंदर है।
भरी आंखों से प्रेमी को विदा करती लड़की ,
हमेशा ...खुश रहने की दुआ करती है ।
सड़क के उस पार जाने की शीघ्रता में 
प्रेमी नहीं देख पाता  , 
 कि ,उसके नाम का पहला अक्षर काढ़े हुए रुमाल को लड़की ने मुट्ठी में कस लिया है।
बाद के दिनों में...
स्याह रात की रोशनाई से लिखती है निशब्द चिट्ठियां ..,
पुराने सिक्कों को , मिट्टी की तहों में दबाती  
सिक्कों के घुल जाने की उम्मीद करती ।
ये , याद के कटोरे में तिनका तिनका घुलती हैं ।
ये ,भूले प्रेमी का नाम बायीं हथेली के उल्टी तरफ लिखाती हैं।
छोड़ी गई प्रेमिकाओं को ,
पुरानी डायरी सा भूलता प्रेमी ..
किसी नए जूड़े में ,रजनीगन्धा के फूल सजाते हुए गाता ...
"मेरे प्यार की ,उमर हो ,इतनी सनम,
तेरे नाम से शुरू ,तेरे नाम से खतम"
भावुक लड़कियाँ  ,
प्रेमियों के इन्तेजार में 
धरती में जमा 
कोई पेड़ बन जाती हैं।

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नाम  - प्रतिभा श्रीवास्तव 
रसायन शास्त्र एमएससी 
प्राथमिक शिक्षिका 
पता -आजमगढ़ उत्तर प्रदेश 
कविताएं प्रकाशित .जन सन्देश टाइम्स समाचार पत्र,सुबह सवेरे समाचार पत्र , सामयिक परिवेश पत्रिका,अदहन पत्रिका, बहुमत पत्रिका,  कविता बिहान पत्रिका ,स्त्री काल पत्रिका,स्त्री काल ब्लॉग ,पुरवाई ब्लॉग स्वर्णवानी पत्रिका । अभिव्यक्ति के स्वर में लघुकथाएं  इंडिया ब्लॉग और प्रतिलिपि पर कहानियां प्रकाशित।