इधर आधुनिकता की जो हवा बही है उसमें गाँव ,कस्बे भी तेजी से बदले हैं और यहाँ की औरतों का मन मिजाज भी नए कलेवर में ढ़ला है।पंचायत की राजनीति में औरतों को आरक्षण मिलने से प्रधानपतियों, ब्लॉक प्रमुखपतियों का हाल यह है कि पत्नी चुनाव लड़ती है और पतिदेव राजनीति करते हैं।इस मुद्दे को बड़ी सजगता से योगिता ने अपनी कहानी "नए घर में अम्मा " में उठाया है।धीरे -धीरे ही सही,जब सत्ता मिलेगी तो निर्णय लेने का अधिकार लेना भी आ ही जाएगा।कहानी एक बेसहारा बूढ़ी औरत के जीवन को बड़ी मार्मिकता से उकेरती है।
नए घर में अम्मा
“… ऐ जे सवेरे-सवेरे घुडिया किनकी खुल पड़ी …..” कहते कहते रामेश्वर ने एक लंबी छलांग लगाई और कूबड़ से दोहरी हुई अम्मा की पीठ पर चढ़ बैठा। पर अम्मा की पीठ क्या, न उठान, न पठार, बस एक फिसलन भरा कूबड़। सैज सैज कदमों से चलने वाली अम्मा अचानक आए उस भार को संभाल न सकीं और किसी गठरी की तरह लुढ़क पड़ीं।
देह का जोड़-जोड़ चोटिल हो गया। अम्मा किससे कहें, बस रो पड़ीं। उठने की कोशिश की, उठा न गया।
आज पता नहीं सवेरे-सवेरे किसका मुंह देखा था, रोती हुई अम्मा सोचने लगीं। सोचा था थोड़ा गुड़ रखा है, उसी से रोटी खा लेंगी। पर जब तक रोटी खाने की नौबत आई कुत्ता सब की सब लेकर भाग गया। अब कुबड़ी अम्मा कितना दौड़ पातीं कुत्ते के पीछे। बस चूल्हे के पास बैठी दुख मनाती रहीं। दुख से भूख कहां मिटती है। भूख मिटाने की आस में घर से निकल पड़ी थीं कि भतीजों की बहुओं में से कोई तो बुढिया को दो रोटी दे देगी। और रास्ते में ही रामेश्वर खिलौने सा खेल गया।
खिलौना ही तो हो गईं हैं अब अम्मा, पूरे गांव के लिए। कोई रीति-रिवाज पूछना हो तो बहुएं बहला कर लिवा ले जाती हैं। किसी का बालक रो रहा हो, तो अम्मा की गोद में पटक जाती हैं। और जब अम्मा अपने दुख में रोने लगें तो गाली देने से भी नहीं चूकतीं। उनके कई नामों में से एक नाम ‘रोवन वारी अम्मा’ भी है। कि अम्मा कभी भी रो पड़ती हैं, न दिन देखतीं, न दोपहरी। कभी-कभी तो आधी रात को ही सुबक-सुबक कर रोने लगती हैं। और फिर बड़ी-छोटी, नई-पुरानी कोई भी बहू अम्मा को कोसने लगती।
रोटी से लेकर बोटी तक सब नोंच डालते ये हैं लड़के, जो कभी अम्मा ने गोद खिलाए थे। अब क्या इस पर अम्मा रो भी नहीं सकतीं। ये लड़के जब जवान हो जाते हैं, तो किसी की परवाह नहीं करते। जिसका जहां दांव लगे, उसी पर हाथ साफ करता चलता बनता है।
अम्मा खूब पहचानती है इनकी परछाइयां, पर पहचान कर करें भी तो क्या! किसके सामने गुहार लगाएं। यहां कौन सी कचहरी जुड़ रही है, जो अम्मा के लिए न्याय करे।
बाबा जब तक थे, तब तक और बात थी। ज्यादा लाड़ न था, तो ये नर्क भी तो न था। दोनों जने मिल बैठकर आपस में ही दुख-सुख बांट लेते थे। ये प्यार ही था कि बाबा के हुक्के से लेकर बीड़ी तक अम्मा ही सुलगा कर देतीं। और कभी-कभी जब बहुत प्यार आता, बाबा बस देखते रहते और अम्मा उनकी बीड़ी निबटा देतीं। अब न बाबा रहे, न सुख और प्यार भरे वो दिन। आख-औलाद कोई हुई नहीं।
बाबा के जाने के बाद उनकी जमीन-जायदाद पर सब कुत्तों की तरह टूट पड़े। पर कलह ऐसी मची कि किसी ने न किसी को खेत-खलिहान लेने दिए, न बोने दिए। अम्मा ने कुनबे से बाहर वालों को जमीन जोतने-बोने को देनी चाही, तो लठ बज गए। बस तब से ये ऐसी ही खाली पड़ी है। सब की आंखों में चुभती, पर कोख में एक बीज रोपे जाने को तरसती।
और अम्मा…. उनकी खाली देह को तो बंजर जमीन जान कर सबके घोड़े खुल गए। जिस पर गर्मी चढ़ती, अम्मा पर चढ़ बैठता। सब जानते हैं, सब के बारे में। तो कोई किसी को कुछ नहीं कहता। पहली बार जब उनका अपना देवर उनकी दीवार फांद आया था, तो अम्मा गहरी दहशत में आ गईं थीं। ऐसा सदमा लगा कि कई दिन तक अम्मा को चूल्हे की ठंडी राख बुहारने का भी होश नहीं रहा। न देहरी से बाहर कदम रखा। ये चढ़ते बुढ़ापे का बचपना ही था कि अम्मा को लगता था बूढ़ी विधवा का कौन क्या बिगाड़ लेगा।
देवरों के बाद, भतीजों ने और फिर तो किसी रिश्ते-नाते की पहचान ही नहीं रही। और किसी के ऐसा करने की कोई वजह भी न रही। अब अम्मा दहशत में नहीं आती, बस ऐसे रो पड़ती हैं, जैसे चलते-चलते कोई बच्चा गिरकर रो पड़ता है। देह तो दुखती ही है, मन भी खूब दुखता है। पर कौन देखे उनके घाव- बस कह देते हैं रोवन वारी अम्मा।
रोवन वारी कुबड़ी अम्मा कीचड़ में पड़ी फिर रो रहीं थीं।
“ऐ मैया जे डुकरिया सवेरे-सवेरे फिर रोवन लागीं” बिसेसर की बहू ने जिराफ की तरह भीतर से ही दीवार से गर्दन उचका कर देखा। वह खाना पका रही थी और अम्मा के रोने की आवाज बिल्कुल पास से आई तो उचक कर देखने लगीं। देखा अम्मा कीचड़ में लथपथ पड़ी हैं। दौड़ कर बाहर आई, “ऐ अम्मा यहां क्यों पड़ी हो, उठत चौं नाओ। जे बालकन की तरह डकरा काय को रईयो।”
“ऐ भैना, जने कौन हतो... तू ही उठा, मेरे बस की नाए।”
बिसेसर की बहू हाथ बढ़ाकर उठाती जातीं थी और अम्मा को झिड़कती जाती थी। “ऐसी बूढ़ी न हो गईं। हमारी अम्मा को देखो, तुमते ठाड़ी है।
उठो, नेक नेक में रोवन लागतो।”
“तेरी अम्मा खाए हैं दूध-मिठाई। मेरी तो रोटी भी कुत्ता ले गओ।” अम्मा जब संभलीं तो मन की व्यथा कहने लगीं।
“पहले पैर-हाथ धोए लेओ, फिर खा लइयो रोटी। अब हाल बनाई है।”
अम्मा की जान में जान आई। भले ही कीचम कींच हो गईं पर अब रोटी तो खा ही लेंगी। ये बहू अच्छी है, भला हुआ जो यहीं गिरी।
अब यही हो गई थी अम्मा की नियति। कभी कोई गिरा देता, तो कभी कोई हाथ बढ़ाकर उठा लेता। सुख-दुख, स्वर्ग-नरक सब यहीं भोग रहीं थीं अम्मा।
भूख ज्यादा नहीं होती थी। बस दो ही रोटी में पेट ऐसा भर गया कि अम्मा को अब शाम तक की कोई फिक्र नहीं थी। गाय को चारा डाल ही चुकीं थीं, तो अब अम्मा दिन भर को निरचू हो गईं। कहीं भी घूमने जा सकतीं थीं, किसी ठौर भी बैठ सकती थीं। सोचा कहीं और जाने से अच्छा है, यहीं बैठें बिसेसर के यहां। इसकी बहू भली भी है और थोड़ी समझ वाली भी।
रोटी खाकर अम्मा आंगन में आ बैठीं। पंखा चल रहा था, ठंडी-ठंडी हवा लग रही थी। देख कर अम्मा का मन ललचा गया, “ऐ रेखा...काउ से कह के मेरी छान भी छबवा दे। जे डुकरिया भी दो घड़ी शांति से रह लेगी।”
“मैं तो कह दूं, पर तुम्हारे घरैया ही लड़ जाएंगे। कहेंगे तू कौन है हमारे घर में लड़ाई लगवावे वाली।”
“लड़ें सब ऐं, करे कोई न है। सामन-भादौ सिगरौ पानी-पानी हो जात है। सर्दी-गर्मी और बुरी।”
“अम्मा छान-छप्पर छोड़ो, अब तुम भी पक्का घर बनवा लो। सरकार ने इतनी योजना चला रखीं हैं। प्रधाननी से कहो।”
“ऐ मुझ अभागिन को घरैया नाय कर रहे, सरकार कहां करेगी।”
“अरे एक बेर पूछ के तो देखो।”
“ऐ भैना मोए न समझ काउ की, तू ही करवा दे। जो तोपे होय। मैं तो अपनी सारी धरती तेरे नाम कर जाउंगी।”
“अम्मा तुम अपने पास रखो अपनी धरती, तुम्हारी धरती पे तो पहले ही बहुत जने मरे पड़ रहे हैं। तुम जाओ किसी दिन प्रधाननी के पास। धरती छोड़ो, घर बनवा लो। दो-चार दिन सुख के कट जाएंगे।”
अम्मा को बात कुछ-कुछ भली लगी। पंखे की हवा खाकर दिमाग भी कुछ ठंडा सा हो गया। पेट भी भर गया था। आज पूरा दिन अम्मा के पास खाली था। सोचा काल करे सो आज कर…. अम्मा की गीली धोती भी अब तक सूख चुकी थी। पीठ पर कूबड़ लादे अम्मा हौले-हौले कदमों से प्रधाननी के घर की तरफ चल पड़ीं।
पुलक में भरी अम्मा प्रधाननी के घर की तरफ चली जा रहीं थीं कि कुछ शैतान बच्चों ने लकड़ी उठाई और अम्मा को बैल की तरह हांकना शुरू कर दिया।
अम्मा ने छोटी-मोटी गाली दीं, तो बच्चों को और मजा आने लगा। अम्मा बीच-बीच में मुड़कर बच्चों को मारने की कोशिश करतीं तो बच्चे छिटक कर दूर हो जाते और फिर वही हांकने का दौर जारी।
सामने से गांव का ही एक और युवक कपिल आ रहा था। बच्चों की ये शरारत देखी तो डपट कर सबको भगाया। फिर लगा अम्मा का हालचाल पूछने- “कितकू चली जा रहीं अम्मा, इतनी घाम में।”
अम्मा मौन रहीं, कुछ न बोलीं कि जैसे किसी खास मिशन पर हों। वे अपना भेद किसी को देना नहीं चाहतीं थीं। कि जब तक काम हो न जाए किसी को नहीं बताना चाहिए। पता नहीं कौन विघ्न डाल दे। किसी के मन का नहीं पता चलता आजकल। और जब से बाबा छोड़कर गए हैं, अम्मा को किसी पर भरोसा नहीं रहा। कोई नहीं साथ निभाता। सब अपनी अपनी राह हो लेते हैं।
अम्मा भी बस अब अपनी राह चली जा रहीं थीं। राह में विघ्न मिले या ठंडी छांव, अम्मा किसी कारण रुकने वाली नहीं।
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ये पहली बार था जब गांव में कोई औरत प्रधान बनी हो। नहीं तो पहले प्रधान जी के घर के लोग ही प्रधान बना करते थे। वो वाला प्रधान का घर बहुत बड़ा है। घर क्या है पूरी हवेली है।
ये तो अभी नई-नई प्रधान बनी हैं, तो रौब दाब अभी वैसा नहीं है। तो ये छोटा वाला घर प्रधाननी का घर है। प्रधान के घर से छोटा। और जहां कोई भी ऐरा-गेरा पहुंच जाता है। आज अम्मा भी बड़े अरमान लेकर यहां आ पहुंची थीं।
घर तो जाना-पहचाना था, पर कभी सोचा नहीं था, उन्हें भी कभी प्रधाननी से काम पड़ सकता है। सो नजदीक आकर सहम गईं। लोग बाग यूं ही कहते हैं, प्रधाननी, ये तो पूरा प्रधान का घर लगता था-
बाहर दालान का नजारा ही बड़ा भव्य था। दोपहर में भी बैठक जमी हुई थी, लोग चारपाई, मूढ़े, कुर्सियां डाले बैठे थे। कुछ लोग जमीन पर भी बैठे थे। बीच में प्रधान जी बहुत व्यस्त से लग रहे थे। प्रधान जी यानी प्रधाननी के पति।
भई इतना बड़ा आदमी, उसके पास तो सौ काम होते हैं। और प्रधाननी थोड़ी अच्छी लगती हैं, आदमियों के बीच यूं कुर्सी डालकर बैठतीं, तो सारा काम उनके पति यानी प्रधान जी ही संभालते हैं।
अम्मा ने सब सुन रखा था ‘प्रधाननी’ के बारे में। तो वे पहले से ही तैयार थीं कि प्रधान जी ही मिलेंगे पहले पहल तो।
प्रधाननी बहुत सुंदर हैं, घूंघट करे रहती हैं। जब बहुत जरूरी काम हो तब ही घर से बाहर निकलती हैं। कहीं जाना हो तो भी प्रधान जी के साथ ही जीप में बैठ कर जाती हैं। पढ़ी-लिखी हैं तभी तो प्रधान बनी हैं, पर ऐसी गर्वीली भी नहीं हैं कि पति को ही कुछ न समझें। घर की मान-मर्यादा भी बहुत अच्छे से जानती हैं। ये भव्य दरबार, ऐसी मान-मर्यादा वाली प्रधाननी और लोगों का ऐसा जमघट। देखकर अम्मा खुद ही में सकुचा गईं। आवाज गुम हो गई। कुछ कहने, बताने की हिम्मत ही न हुई। यूं पंखे की ठंडी हवा में और बैठी रहतीं तो उनकी आंख लग जातीं। ये कोई अच्छी बात है, बस यही सोचकर अम्मा लौट पड़ीं। उन्हें कुछ नहीं कहना। बस सिर का पल्लू संभाला, और अपना कूबड़ पीठ पर लादे, जिस राह आईं थीं उसी राह वापस हो लीं।
दूरी तो अब भी उतनी ही थी पर अम्मा बहुत धीमे चलतीं थीं। लौटते हुए धूप और कड़ी हो गई। जिस पुलक से चली आईं थीं वो भी अब निराशा में बदल गई। सोचा बिसेसर की बहू रेखा से ही कहेंगी, उनके बस का नहीं है प्रधान जी से सीधे बात करना।
वो चाहेगी तो बिसेसर के साथ फिर चली आएंगी। वो जरा शउूर से बात कर लेगा।
दुख का समय जब तक है, तब तक तो काटना ही पड़ेगा। जहां इतने दिन काटे कुछ दिन और सही।
लौटते हुए मन हो रहा था सीधी बिसेसर के घर ही चली जाएं। पर सकुचा गईं, जो आज प्यार से बोल रही है, पता नहीं कब डांट कर भगा दे। ऐसा अम्मा के साथ बहुत बार हो चुका था। जो लोग उन्हें कभी प्यार से बुलाकर बिठाते, वही अम्मा को कभी भगा भी देते। उन्हें अब इसकी समझ भी खोने लगी थी कि कौन भला है, कौन बुरा। कौन कब मान देगा, कब अपमान कर झिड़क देगा।
बस यही सोच कर अम्मा ने अपने घर जाना ही सही समझा। टूटा-फूटा जैसा है, है तो अपना ही।
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चलते-चलते थक गईं थीं, बस आकर पानी पिया। देखा गाय के लिए रखा पानी भी खत्म हो गया है। घड़ा उठाकर बचा हुआ पानी गाय के लिए डाल दिया। उसे भी प्यास लग आई होगी। वो भी उन्हीं की तरह बूढ़ी हो गई है। बस सार में बंधी रहती है। उसका तो खूंटा है, उसी से बंधी है। दूध भले न दें, पर अम्मा से प्यार का नाता है उसका। कभी मां लगती है, कभी बेटी। प्यार से अपनी गाय की पीठ सहलाई और एक कोन में जाकर बैठ गईं। दिन भर की थकान और हारी हुई हिम्मत में दो कदम चलना भी भारी होता है।
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टूटी छान बरसात में ज्यादा याद रहती है, बाकी दिन तो कट ही जाते हैं। यूं ही अम्मा भी अपना घर पक्का करवाने की बात लगभग भूल ही गईं थीं। कि फिर एक और हादसा हो गया- अम्मा दोपहर में हैंडपंप से पानी भर रहीं थीं कि सामने से हरीश आ गया। नाते में पोता लगता है, पर एकदम बेहया है। कुबड़ी दादी को हैंडपंप चलाते और पानी भरते देखा तो उसका दांव लग गया - “ओ दादी, ओ दादी तू मोए कर लै। मैं तेरो सब काम कर दे करंगो।”
अम्मा झुकी हुई हैंडपंप पर पानी भर रहीं थीं कि उसने दादी के कूल्हों को बेहद बेहयाई से छू दिया। और जल्दी जल्दी हैंडपंप चलाने लगा।
अम्मा चौंक पड़ीं। अब हिम्मत इतनी बढ़ गई है। शर्म लिहाज बिल्कुल उतार फेंकी। इसकी तो अभी मसें भी नहीं फूलीं। शिखर चबाकर दांत काले कर लिए हैं, सोच रहा है जवान हो गया।
अम्मा जितना चौंकी, उतनी ही दुखी हो गईं। अब तक सबके घरों में नल लग गए हैं। बस उन्हें ही बाहर पानी भरने आना पड़ता है। फिर ग्लानि होने लगी कि इतनी दोपहर में जब कोई घर से बाहर भी नहीं निकलता, उन्हें पानी भरने की क्या जरूरत थी। अब गांव में वो वाली बात कहां रहीं है। अबकी घर बनवाएंगी तो नल भी घर के अंदर ही लगवाएंगी। गुसलखाना भी पक्का बनवाएंगी और पक्की चौखट, पक्का दरवाजा, उस पर सांकल भी पक्की।
अम्मा के मन में फिर से पक्का घर हिलोर लेने लगा। उन्हें खुद पर ग्लानि हुई, उस दिन चली तो गईं थीं प्रधाननी के घर। थोड़ी हिम्मत करके बोल ही देतीं।
अब पानी का होश नहीं था। आधा भरा घड़ा ही उठाकर ले चलीं। और घड़ा रखकर सीधे बिसेसर के घर।
मन ही मन सोच रहीं थीं, बिसेसर की बहू है तो भली पर गुस्सा हो गई तो क्या पता। पर कैसे न कैसे करके वे उसे मना ही लेंगी, बिसेसर को उनके साथ प्रधाननी के घर भेजने को।
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कितने तो अरमान लेकर आईं थीं। पर बिसेसर के घर पहुंच कर पता चला कि बहू तो अपने पीहर चली गई है। अब किससे कहें। हिम्मत फिर कमजोर पड़ गई। पर हरीश के हाथों की पकड़ अब भी उन्हें अपने पीछे महसूस हो रही थी। कभी टपकती छत याद आती, तो कभी रेखा के पक्के घर में ठंडी हवा देता पंखा।
अब जब तक घर बन नहीं जाता, अम्मा को चैन पड़ने वाला नहीं था।
जब कोई राह नहीं सूझी तो अकेले ही चल पड़ी प्रधाननी के घर।
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दालान में पहुंचकर चुपचाप बैठ गईं कि जब तक कोई पूछेगा नहीं, कुछ नहीं कहेंगी। दालान में भी पंखे लगे हुए थे, ठंडी हवा में कुछ सांस आई। पर मन में उथल पुथल जारी रही।
बहुत देर से बैठीं थीं, किसी ने ध्यान नहीं दिया। शर्बतों के गिलास आए तो अम्मा ने भी लपक कर एक गिलास उठा लिया। अब सबका ध्यान गया कि ये यहां क्यों बैठी हैं। प्रधान जी को घेरे बैठी मंडली में से ही एक आदमी पूछ बैठा, “अम्मा तुम क्यों बैठी हो यहां। क्या बात हो गई?”
“कुछ नहीं बेटा, मैं तो नेक बहू से मिलने आई।” अम्मा ने अदृश्य प्रधाननी को लक्षित करके दिशाहीन इशारा किया।
“कहो, क्या बात है बेहद शालीन स्वर में इस बार प्रधान जी बोले।”
इस मधुरता ने अम्मा की हिम्मत कुछ और बढ़ाई।
“ऐ बेटा तुम्हारे बाबा तो रहे नाय, घर-खेत कौन देखे। अब तुम्हारो ही आसरा है। नेक मेरी छान छबवा देओ। तो बड़ी कृपा होगी।” अम्मा ने पूरी शालीनता और अनुग्रह से कहने की कोशिश की। अम्मा चाहती तो पक्का घर बनवाना थीं, पर मुंह से बस इतना ही निकल पाया।
“छान का क्या करोगी अम्मा, छत डलवा लो पूरी। कौन रोक रहा है।”
ये सवाल था कि जवाब था, अम्मा को समझ न आया और वे बिल्कुल चुप हो गईं। चेहरे पर कुछ खिसियाहट उतर आई। फिर निराशा और फिर दुख।
बस आंसू ही न निकले...
गर्दन नीचे किए बैठी ही थीं कि प्रधान जी की मंडली का ही एक और आदमी बोल पड़ा, - “अपना घर बनवाने से कौन रोक सकता है। इस उम्र में आपको धूप-घाम खाने की क्या जरूरत है? घर में कोई और नहीं है क्या।”
आदमी पढ़ा-लिखा पर गांव के सामान्य ज्ञान से अपरिचित था शायद। मंडली के एक और आदमी ने कान में फुसफुसाकर कुछ कहा, तो उसे ऐसा कुछ समझ आया कि इंटरव्यू में गलत जवाब देने जैसा पश्चाताप उसके चेहरे पर उतर आया।
अब मंडली की चर्चा का केंद्र अम्मा ही थीं- सब अम्मा के बारे में तरह-तरह की बातें करके एक-दूसरे का ज्ञानवर्धन कर रहे थे। और अम्मा नीचे मुंडी लटकाए दीन हीन भाव से बस अपने बारे में कुछ जानी-कुछ अनजानी सुने जा रहीं थीं।
बस बात नहीं हो रही थी तो अम्मा के घर की, जिसके लिए अम्मा इतनी उम्मीद लिए यहां चली आईं थीं।
मंडली में दुखियारी, अपने ही कुनबे और गांव भर की सताई अम्मा की कथा समाप्त होने में ही न आती थी।
तभी अंदर से एक बच्चा दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि कुबड़ी अम्मा को मम्मी अंदर बुला रहीं हैं। बच्चा प्रधान जी का था। यानी प्रधाननी खुद अम्मा को अंदर बुला रहीं हैं।
मंडली थोड़ी चौकन्नी हुई और उन्हें अहसास हुआ कि वे बहुत देर से एक अनंत कथा में डूबे थे।
अम्मा के लिए तो ये तो बिन मांगी मुराद के पूरे होने जैसा था। अम्मा ने तो क्या, वहां बैठे किसी आदमी ने भी नहीं सोचा था कि कुबड़ी अम्मा के लिए भीतर से बुलावा आ जाएगा।
प्रधान जी का चेहरा भी थोड़ा सचेत हो गया। प्रधाननी घूंघट में रहती हैं, उनका पूरा मान-सम्मान करती हैं पर कभी-कभी ऐसे झटके भी दे जाती हैं।
अब उन्होंने बुलाया है तो अम्मा को जाना ही होगा कि जैसे मामला सीधे हाई कोर्ट ने अपने हाथ में ले लिया है। अब निचली अदालतों की जिरह बेकार है।
अम्मा पुलक में भर कर बच्चे के पीछे-पीछे चल पड़ीं।
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रेखाचित्र-अनुप्रिया
अंदर का नजारा और भी सुंदर था।
क्रोशिए से बुने हुए बंदनवार दरवाजों पर टंगे थे। चोखटों पर बेल-बूटों की गुलाबी-हरी चित्रकारी की हुई थी। प्रधाननी उसी बच्चे को पढ़ा रहीं थीं जो उन्हें बुलाने आया था।
सामने दो चार मूंज के चटौने पड़े हुए थे। उन्हीं में से एक चटौना उठा कर बच्चे ने अम्मा के लिए डाल दिया।
अम्मा को लगा कि जैसे साक्षात लक्ष्मी के आदेश पर गणेश जी ने उनके लिए आसन बिछा दिया हो-
वे भाव विभोर होकर उस पर बैठ गईं। सम्मान पूर्वक बैठाए जाने में भी एक अजब सुख होता है, अम्मा को बार-बार यह अहसास हो रहा था।
भीतर से एक लड़की अम्मा के लिए गिलास भर कर मठा ले आई। अब तो अम्मा के आंसू ही निकल आए।
“ऐ भैना मो पे नाय पियो जाओ। जे बालकन को ही दे दे।
तेरे दस्सन हे गए, मेरे ताएं तो जोई भोत है।”
“कहो अम्मा क्या बात है?” - मिश्री सी मधुर और सुघड़ आवाज में प्रधाननी ने पूछा।
अम्मा के कानों को ठंडक सी मिल गई। दुख में डूबी आवाज कर्कशा हो जाती है। सुखी गृहस्थिन ऐसी ही मधुर आवाज में बोलती होंगी। अम्मा ने मन ही मन खुद को समझाया।
फिर हिम्मत जुटा कर टूटी छान, फूटी किस्मत और सूखी देह को रौंदती सब दास्तान धीरे-धीरे कह सुनाई।
प्रधाननी की आंखों में आंसू आ गए। सुनते-सुनते, गला रुंध गया। बच्चों को उन्होंने व्यथा कथा के बीच ही दादी के पास जाने को कह दिया था।
माहौल बहुत गमगीन हो गया था। अम्मा की बस एक ही आस थी कि उनका घर बन जाए। अब प्रधाननी को भी अहसास हुआ कि जो वो अखबारों में पढ़ती हैं, वो तो उनके अपने गांव में ही हो रहा है। तो उनके प्रधान बनने का क्या फायदा। आजादी के इतने सालों बाद भी अगर एक बूढ़ी बेबस विधवा सिर छुपाने को छत नहीं जुटा पा रही तो लानत है ऐसे लोकतंत्र पर। और बेकार है उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनकी प्रधानी, उनके सब संकल्प।
एक बार तो मन में आया कि अम्मा को अपने ही घर में रख लें। पर इससे सिर्फ अम्मा का भला होगा, उनमें वह आत्मसम्मान और सुरक्षा का भाव नहीं आ पाएगा, जिसकी वे हकदार हैं।
प्रधाननी शादी नहीं करना चाहतीं थी, पुलिस में भर्ती होकर देश सेवा करना चाहतीं थीं। पर गांव में परिवार में उनकी एक न चली और शादी होकर यहां आ गईं। एक ही सुख था कि परिवार पढ़ा-लिखा है और उनकी पढ़ाई-लिखाई की इज्जत करता है।
प्रधान जी ने तो यह भी कह दिया था कि कुछ साल रुक कर वे एक स्कूल बनवा देंगे, जिसे प्रधाननी ही संभालेंगी।
इसी दौरान जब उन्हें प्रधानी के चुनाव लड़ने का मौका मिला तो देश सेवा का उनका पुराना सपना फिर से जाग उठा।
चुपचाप ब्याह दी जाने वाली भोली भाली लड़की से इस गांव की प्रधान बनने तक जो कायापलट हुआ वह उनके पति के प्यार और सहयोग के कारण ही संभव हो पाया, नहीं तो वे क्या कर सकतीं थीं अगर वे भी पिताजी की तरह उनकी बात न मानते। यही सोचकर प्रधाननी वही सब करती थीं जो प्रधान जी कहते थे। पर कभी-कभी अपनी बुद्धि और कौशल का भी प्रयोग कर ही लेती थीं। जब पुराने संकल्प याद आते।
इस बार भी उनके मन के भीतर वही ज्वाला दहक उठी थी, जिसमें हर गरीब को उसका हक दिलवाना उनका संकल्प था। उन्हें घृणा हुई कि उनके गांव में भी ऐसे लोग हैं जो अपने ही घर की बूढ़ी औरत को इतना दुख दे रहे हैं।
उन्होंने ठान लिया वे जल्द से जल्द अम्मा का घर बनवाने में मदद करेंगी। और कोशिश करेंगी कि अम्मा को सरकारी पेंशन भी दिलवा दें। कम से कम कुछ तो सहारा होगा।
वे अम्मा का घर बनवाने में जरूर मदद करेंगी, इस वादे के साथ उन्होंने अम्मा को विदा किया। साथ ही एक लड़के को उन्हें घर तक छोड़ आने को भी साथ कर दिया।
अब तो अम्मा का आत्मविश्वास न पूछो। अम्मा जैसे उड़ती हुई अपने घर को चली जा रहीं थीं- प्रधाननी की दी सुरक्षा उनके साथ थी। सब लौटती हुई अम्मा को देख रहे थे, और उनके पीछे-पीछे चले आ रहे रौबदार आदमी को भी।
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कुछ अम्मा ने बताई तो कुछ फैलते-फैलते फैल गई कि अम्मा की प्रधाननी के घर में कैसी आवभगत हुई। प्रधाननी अब उनके लिए पक्का मकान बनवाकर देगी।
कुछ लोग हैरान हुए, तो कुछ ने अम्मा को मूर्ख साबित करने की कोशिश की, कि अम्मा कहां प्रधाननी की बातों में आ गईं। कुछ ने तो दिन भी गिन लिए कि चुनाव आने वाले होंगे, तभी प्रधाननी इतना उपकार दिखा रहीं हैं। पर कई बार गिनने के बाद भी हिसाब कुछ बैठा नहीं कि अभी प्रधाननी को प्रधाननी बने साल डेढ़ साल ही बीता होगा। फिर यह कहकर मन को तसल्ली दी कि कहीं तो चुनाव होंगे, प्रधाननी अपनी उसी पार्टी को खुश करने के लिए ये कर रहीं होंगी।
दिन तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे, कभी प्रधाननी के घर से अम्मा के लिए भोजन आ जाता, तो कभी कोई बुलावा अम्मा के लिए आ जाता। अब तो बहुओं में भी अम्मा की खूब पूछ होने लगी कि अम्मा का उठना बैठना प्रधाननी के संग है। बिसेसर की बहू ने भी मीठा सा ताना दिया कि “अम्मा अब क्यों आएंगी यहां, अब तो उनका उठना बैठना प्रधाननी के घर है।”
बाबा के जाने के बाद अम्मा को अपने जीवन में पहली बार जीवन का अहसास हो रहा था।
प्रधाननी कहीं अंगूठा लगाने को भी कह देतीं, तो भी अम्मा ऐसी खुश हो जातीं कि जैसे उन्हें खजाने की दबी गागर मिल गई हो।
प्रधाननी से ही उन्हें मालूम पड़ा कि उनके खाली पड़े खेत में कटहल के जो पेड़ खड़े हैं, वे भी किसी खजाने से कम नहीं। और यह आश्वासन भी दिया कि प्रधाननी खुद किसी से कह कर उनके खेत बटायी पर लगवा देंगी। धरती खाली पड़ी रहने से तो अच्छा है आधी ही फसल मिल जाए।
अम्मा ने कहां सोचा था कि बुढ़ापे में आंखों में इतनी रोशनी आ जाएगी।
और एक दिन तो प्रधाननी ने अम्मा को फोटो खिंचवाने के लिए ही बुलवा लिया।
“ऐ भैना मैं नाय अच्छी लागती फोटू खिंचवावती। तू अच्छी लागेई, तू खिंचवा ले।”
अम्मा ने शर्माते हुए लाड़ में भरकर प्रधाननी से कहा।
प्रधाननी मधुर मुस्कान में हंस पड़ी और कहा कि फोटो तो आपको ही खिंचवाना होगा, तभी घर बनेगा।
एक के बाद एक ऐसे खुशियां अम्मा के जीवन में दस्तक देंगी, अम्मा ने सोचा भी नहीं था। अब तो कभी पल्ला सीधा करें, कभी माथे पर खींच लाएं।
बस किसी तरह उनकी फोटो खिंच जाए - यौवन की उमंग फिर से जाग गई कि उनकी फोटो बिल्कुल उतनी ही सुंदर बने जितनी सुंदर वे कभी हुआ करतीं थीं।
फोटो खिंचा, अंगूठे लगे, कागज पत्तर तैयार हुए….
अम्मा से खुशी संभाले न संभल रहीं थी, पर राज मन में दबाए रहीं।
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कभी-कभी अम्मा को ख्याल आ जाता कि अगर कभी प्रधाननी उनके घर आ गई तो उसे वे कहां बैठाएंगी, सब खटिया झूला हो गईं हैं। बक्से में पुरानी कढ़ाईदार चादरें तो पड़ी हैं, पर खटिया भी तो अच्छी होनी चाहिए।
उन्हें मूंज के वे चटौने याद आ गए जो प्रधाननी के घर करीने से एक कोने में बिछे रहते हैं। लगा खटिया जब बनेगी, तब बनेगी चटौने तो वे बुन ही सकती हैं। ऐसा भी कहीं बुढ़ापा नहीं आ गया। ये तो दुखों ने दोहरी कर दी, नहीं तो उम्र तो उनकी बिसेसर की अम्मा से भी कम है।
“हां, रंगीन चटौना (आसन) बनाएंगी अम्मा, क्या पता कब प्रधाननी ही आ जाएं।”
अम्मा खेतों के किनारे से मूंज काट लाईं। रामेश्वर की बहू से रंग दार टिक्की मांग लाईं और जुट गईं अपने काम में।
अब खाली दोपहरियों में इधर-उधर घूमने की बजाए अम्मा अपना चटौना बुनने में लगी रहतीं। बहुत सालों बाद ये काम फिर से करने की ठानी थी, तो पहले जैसी गति तो न रही थी, पर हिम्मत बांध ली थी तो करके ही दम लेंगी।
चटौना बुनते-बुनते पसीना पसीना हो जातीं, तो सोचती दो एक बीजने (पंखे) भी बुन लेने चाहिए। ऐसी गर्मी में कैसे घड़ी भर भी बैठ पाएंगी प्रधाननी।
तो कभी सोचने लगतीं, आंगन कैसा खोरा हो गया है, लीप ही लेतीं तो अच्छा हो जाता। क्या हुआ जो पक्का नहीं है। लीपकर साफ सुथरा तो रखना ही चाहिए।
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इधर प्रधाननी के घर में क्लेश हो गया कि प्रधाननी उस कुबड़ी अम्मा के पीछे मति हार रहीं हैं।
इतनी योजनाएं हैं, घर बनवाने को कौन मना करता है। खाता भी खुलवा देंगे, पेंशन भी बंधवा देंगे। पर अपना हिस्सा तो रखना ही चाहिए। जानती नहीं हर चीज के लिए उपर तक पैसा देना पड़ता है। और आए गए जो इतनी मंडली दिन भर दालान में बैठी रहती है, उसका चाय पानी का खर्चा कौन से सरकारी फंड में आता है। सब इसी तरह निकालना पड़ता है।
प्रधाननी कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं, बस अड़ गईं हैं, “आप को हमारी सौगंध, जो अम्मा के एक पैसे पर भी नजर डाली। उनपे पहले ही विपदा की कौन कमी है, जो आप अपना हिस्सा निकाल ले रहे हों। ऐसे तो पूरा घर भी नहीं बन पाएगा।”
जबकि प्रधाननी तो चाहतीं थीं कि अम्मा को पक्के घर के साथ-साथ नल भी लगवा दें, शौचालय भी बनवा दें और पेंशन भी बंधवा दें।
मामला कुछ भावुक सा हो गया था।
पढ़ी-लिखी, सुंदर, दृढ़संकल्प, युवा प्रधाननी और बूढ़ी, विधवा, कुबड़ी अम्मा की दोस्ती के किस्से गांव भर में कहे-सुने जाने लगे हैं।
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पूरे कुनबे की छाती पर तब पटेला चल गया, जब ईंटों भरा ट्रक अम्मा के आंगन में खाली किया जाने लगा।
बस भैया अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो अम्मा नहीं आए किसी के हाथ। घर कुनबे के लड़के थोड़े हैरान हुए, और ज्यादा परेशान हो गए।
अम्मा की खुशी का ठिकाना नहीं। अम्मा ने हैंडपंप से ताजा पानी भरा, उसमें बताशे घोले और सब मजदूरों को ठंडा पानी पिलाया। दौड़ कर आसपास में जो दिखा सब को बुला लाईं। कि उनका पक्का घर बन रहा है, प्रधाननी बनवा रहीं हैं।
अम्मा तो अब किसी प्रधान से कम नहीं। चेहरे पर एक अलग सी रौनक आ गई, चाल में तेजी आ गई।
दिन बीतते-बीतते दीवारें अम्मा से उूंची हो गईं। चौखटें चढ़ गईं। और एक दिन पक्की छत भी बन गई। अम्मा के लिए ये किसी सपने से कम नहीं था, जो एक-एक ईंट करके उनके सामने पूरा हो रहा था। कहां टूटी छान, कहां लाल-लाल दीवारों पर डली पक्की छत।
ऐसी छत जिस पर पंखे भी टंग सकते हैं। बल्ब भी जल सकते हैं। दरवाजे पर कुंडी भी लगाई जा सकती है।
ऐसा सुख जिसे पूरा बताने को अम्मा के पास शब्द नहीं हैं। हर घड़ी, वे इस सुख को केवल महसूस कर पा रहीं हैं और उसकी चमक पूरी देह में महसूस होने लगी है।
सबसे पहले प्रधाननी के घर बताशे लेकर पहुंची अम्मा कि उनका घर बन गया। नल भी लग गया। और टट्टी ऐसी सुंदर बनी है कि जंगल फिरने बाहर जाने की भी जरूरत नहीं।
प्रधाननी तो साक्षात देवी बनकर उनके जीवन में आईं हैं। सो, एक बार फिर से यह कहकर खुश कर दिया कि अब जल्दी ही तुम्हें गैस वाला चूल्हा दिलवा देंगे। लकड़ी फूंकने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
ऐसा संपन्न बुढ़ापा, उन्होंने जवानी में भी नहीं सोचा था। अम्मा तो बस प्रधाननी के पैरों में गिर पड़ीं।
पर प्रधाननी ने तो उन्हें अपनी सहेली बना लिया था, पैर छूने भी न पाईं थीं कि पकड़ कर छाती से चिमटा लिया। अम्मा की आंख से आंसू बहने लगे - किस मां ने ऐसी देवी जैसी लड़की जनी है। भगवान तुझे बार-बार प्रधाननी बनाए।
फिर गांव भर में इस खुशी को बांटा। नए घर के बताशे बांटती अम्मा को अपनी धोती पुरानी लगने लगी और देह नई।
वे एक नए जीवन में प्रवेश कर रहीं थीं, जहां रोवन वारी अम्मा नहीं, घड़ी-घड़ी खुशी के बताशे बांटती अम्मा रहने वाली थीं।
गांव के लड़कों को अम्मा की ये खुशी अजीब सा अहसास दे रही थी। खुश तो नहीं थे पर प्रधाननी के डर के मारे कुछ कर नहीं पा रहे थे। हर समय प्रधाननी के भेजे आदमी ईंट, रेती के पास खड़े रहते। एक ईंट उठाने का भी मौका नहीं मिल पाया। सलाह बनी कि मकान बन गया तो उड़ी फिर रहीं हैं। किसी दिन दबोच लेंगे तो सब अकड़ निकल जाएगी। प्रधाननी कितने दिन रखवाली कर लेंगी।
सबसे अनजान अम्मा ढलती शाम में अपने नए घर के आंगन में पैर फैलाए बैठी थीं कि हरीश अंदर घुसा चला आया-
“ओ दादी, ओ दादी अब नए घर में अकेली काह् करेई, अब तो तू मोए कर लै।”
हरीश ने तंबाकू चबाए दांतों और चेहरे पर घृणित भाव भरकर बस इतना ही कहा था कि अम्मा क्रोध में चिल्ला पड़ीं – “हट जा, मर जा, कहूं ऐ जाकै, सोग उठाए, तेरी तेरहीं कर दउूं तेरी…”
अम्मा की ये आक्रोश भरी आवाज और ये भारी भरकम गालियां गांव के लिए नई थीं, आसपास की सब औरतें-बच्चे अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर देखने लगे।
अम्मा में जानें कहां से इतनी ताकत आ गई कि उनके हाथ में चिमटा, फूंकनी, बेलन, झाड़ू जो आया फेंकती जाएं और गाली देती जाएं। यह ख्याल भी न रहा कि जिस लड़के की तेरहवीं करने और शोक मनाने की वे गालियां दे रहीं हैं, वह नाते में उनका पोता लगता है।
हरीश जिस हौंसले से आया था, उसी रफ्तार से भाग खड़ा हुआ। पर अम्मा तो अब शांत ही न होती थीं -
गुस्से से आग बबूला वे तब तक सामान उठा उठाकर फेंकती रहीं, जब तक उन्हें यह यकीन नहीं हो गया कि हरीश अब जा चुका है।
थक गईं पर गुस्सा शांत न हुआ, न एक भी आंसू निकला आंख से।
आक्रोश और आवेश में देहरी के बाहर तक निकल आईं कि कोई और तो नहीं! आज सबको बाहर खदेड़ देंगी, ये उनका अपना घर है। अम्मा को लगा आज उनकी पीठ पर कूबड़ का भार नहीं है और उनका कद पहले की ही तरह सीधा होने लगा है।
“ऐ अम्मा आज तो कतई जबरजंग है गईं!” ये रेखा की आवाज थी। अम्मा के स्वाभिमान की जीत में अपनी मुस्कान शामिल करती। वह अपने आंगन की दीवार से जिराफ की तरह गर्दन निकाले मुस्कुरा रही थी।
“आ जाओ रोटी खाये लेओ, अब हाल बनाई है।”
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योगिता यादव
युवा कथाकार एवं पत्रकार
दिल्ली