बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

केशव तिवारी की कविताएँ



केशव एकदम अलग ढब के कवि हैं, अपनी तरह के अकेले। वे लोक के निकट होकर भी लोकवादी नहीं हैं। आधुनिक हैं पर आधुनिकतावादी नहीं हैं। कृत्रिम बनाव-श्रृंगार से रहित, लेकिन सुन्दर कविताएँ लिखते हैं। उनकी सादगी सुन्दर है और नितान्त मौलिक भी।
                                         कात्यायनी



(1)

 ये कोई शुभेक्षा नही है ।

कोई अचानक नही चला जाता
बस प्राथमिकताएँ विस्थापित
करती रहतीं हैं

समय की कुठार से घायल होता
बचता बचाता 
चोटें छुपाता दिखाता

दर्द की कई अबूझ लिपियाँ लिखता
 जिसे आगामी मनुष्यता पढ़ेगी

आज नही तो कई कई साल बाद
किसी गले से निकली पीड़ा की पुकार
फिर फिर लौटेगी जरूर 

पूरे अंतरिक्ष मे उसके लिए जगह 
नही है
 सिवा किसी दुखी के गले के

जब पुराने भ्रम नष्ट हो रहे होंगे
और कुछ लोग नए भ्रम रचने में
लगे होंगे

किसी कविता की कोई पंक्ति
कृपाण सी उसे छिन्न भिन्न करती
कंठों से कंठों की यात्रा में निकल लेगी

तब कवि किसान योद्धा और मुक्ति के गायक
सब समय की शिला पर 
पहट रहे होंगे अपने अपने  औजार

ये कोई स्वप्न और शुभेक्षा नहींं है
ये विश्वास है जो बार बार फलित
हुआ है इस धरा पर ।


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(2)
न चाहते हुए भी 

कुछ मित्र बहुत संघर्ष में थे
साथ साथ संघर्ष की 
कविता लिखते 

धीरे धीरे संवाद में नही रह गए
निर्मल आनंद की आखिरी खबर 
यही थी कहीं चौकीदारी करते थे

चोरों से लड़ते उनके सर पर
लगी थी चोट 

इटारसी से गुजरो तो लगता है
विनय जरूर यहीं के
सहेली गांव में अब भी  होगा

लगता स्टेशन का कर्मचारी
लाल झंडी दिखा हमें ही 
उतर जाने को कह रहा है

कोई जैसे हाँथ पकड़- पकड़
रोक रहा हो

कुछ मित्र उनके शहर से गुजरो तो
स्टेशन पर पूड़ी -सब्जी लिए मिलते थे

असंवाद स्मृतियों को प्राणलेवा 
बना देता है

कभी -कभी किसी के  कहीं होने की 
भनक भी  लगती
मन और उदास हो जाता है

अभी हाल में अचानक उसके गांव के एक व्यक्ति से
पता चला
 
राजकुमार चाक में एक्सीडेंट में नही रहा
पिता थाने में उठाने भी 
नही गए उसकी मोटर सायकिल

सफल मित्र और निकट बने रहे अपनी सफलता की चकाचौंध करते

और असफल मित्र आह किस अंधेरे में कहाँ होंगे ..!

अच्छा लगता है कभी कभी घर गांव
जाओ को कोई पुराना पूछते -पूछते
आ जाता है

मैं उन तमाम घूस खोरों को जानता हूँ 
जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो
गांव आते जाते रहते हैं

इन गांव में छूट गए मित्रो को किसी के खेत से चना उखाड़ने किसी के  आम तोड़ने के जुर्म में

चोर लिहाड़ा और क्या- क्या 
 कहते सुनता हूँ

कहने वालों के मुंह पर थूक
देने का मन होता है

क्योंकि मुझे उनके बारे में 
पता है सब कुछ

ये  अजनबियत हमारे रिश्तों
को और और दूर बढ़ाएगी

न चाहते हुए भी हमे फिर- फिर 
लिखनी पड़ेगी 

ऐसी ही कितनी और 
कविताएं।

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(3)

वो समझा रहा था बच्चे को
वक्त ख़राब है साये पर भी
भरोसा करने लायक नही है

हालाँँकि उसे यह समझाया गया था
आपसी भरोसे पर टिकी है दुनिया

इसी तरह प्रेम के बारे में कहा
बहुत घातक मर्ज है 

वैसे वो सूर और घनानंद  मीर और ग़ालिब के
स्कूल का विद्यार्थी रहा है 

उसने यह भी कहा ईमानदारी
भीख मंगवा कर ही छोड़ती है

ये बात अपने ईमानदार पिता के स्वाभिमानी
चेहरे को भूल के कही

अंतिम बात उसने कही ये सब उसने
जीवन अनुभव से पाया है
किताबों से नही 

मजबूरी ये थी वो जो समझा रहा था
उसे वो खुद ही नही समझ पा रहा था ।

कितने चेहरे सवाल कर रहे थे
तू ये क्या कह रहा है।

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(4)

जाने के कारण थे
न रुक पाने की मजबूरियां थी

कुछ बदले इसका गहरा दबाव था
अब बहुत हो गया वाले अंदाज में
उठ खड़ा होना था

समय की पुकार सुनने के लिए
बहुत सी पुकारों को
अन सुना करना था

बहुत - बहुत कुछ एक झटके में 
भूलना था 

जिसे कई कई बार निहारा था कठिन दिनों में 
उस भरोसे की नदी को
एक सांस में पार करना था।

वक़्त कम था और 
बहुत कुछ करना था।

केशव तिवारी
बाँदा
उत्तर प्रदेश




3 टिप्‍पणियां:

  1. जबरजस्त। केशव दादा चमत्कार रचते हैं

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  2. गाथांतर एक अच्छा प्रयास है। (पहले तो नाम से यह कथा ब्लॉग लगा।)
    केशव तिवारी की पहली और चौथी कविताएं गहरे उतरती हैं।

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  3. आज पहली बार गाथांतर खोला। केशव तिवारी की ये कविताएं दूर तक ले जाती हैं।

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