सोमवार, 13 दिसंबर 2021

वन्दना वाजपेयी की कहानी

                 तारीफ



मटर-पनीर , मलाई कोफ्ता, बथुए का रायता , इमली की चटनी ,मेवों से तर-बतर गाज़र का हलवा  और रुमाली रोटी, डाइनिंग टेबल पर सुन्दर डोंगों में ये सारा कुछ सजा कर ज्योति अपने पति राहुल का इंतजार करने लगी | माहौल को थोडा रोमांटिक करने के लिए उसने बगीचे से दो गुलाब के फूल तोड़ कर एक काँच की प्लेट में थोड़ा पानी भर कर उनकी पंखुरियां बखेर दी | भीनी –भीनी खुशबु से पूरा कमरा महक उठा |

  इस उत्साह  की खास वजह ये थी कि आज ज्योति ने पहली बार  राहुल के लिए खाना बनाया था | विवाह के बाद ससुराल में यूँ तो सासू माँ ने एक कड़ाही में पांच गुलगुले चुआ कर रसोई छूने का शगुन करवा लिया था , पर पूरा खाना बनाने को उन्होंने ये कहकर मना कर दिया था कि अभी नयी आई हो , दो चार दिन आराम कर लो , चकला-बेलन तो एक बार पकड़ा तो मरते दम तक औरत के हाथ से छूटता नहीं है |

 

अब सासू माँ को ये तो पता नहीं था कि खाना बनाना ज्योति का शौक था | बचपन से ही जब माँ रसोई में खाना बना रही होतीं वो भी पास बैठ कर बनाने की जिद करती | माँ ने बच्चों का खेल समझ कर उसको छोटा सा चकला बेलन ला कर दे दिया था | यहीं से शुरू हुआ खाना बनाने के प्रति उसका अगाध प्रेम , जो उम्र के साथ बढ़ता ही गया | पढाई लिखाई में वो सामान्य थी पर रसोई शास्त्र में हमेशा अव्वल नंबर लाती |

 रसोई उसकी संगीतशाला  थी , चकला, बेलन , कड़ाही और चमचा , उसके वाध्ययंत्र , जिनसे वो तरह –तरह के भोजन रागों का आविष्कार करती थी | तभी तो खाने वाले भी अंगुलियाँ चाट-चाट कर खाते थे | पिताजी तो तारीफ़ करते नहीं थकते थे, मेरी बेटी का बनाया जाफरानी पुलाव कभी खाया है? , कभी आइयेगा हमारे घर कलाकंद खाने पूरे भारत में ऐसा कलाकंद कहीं नहीं मिलेगा, अरे नहीं भाई साहब , बाज़ार के नहीं हैं ये मोतीचूर के लड्डू तो मेरी बेटी ने घर में बनाये हैं , नाम जरूर ज्योति है पर है अन्नपूर्णा |  

किशोरावस्था से उसके यहाँ सहेलियों का जमघट लगा रहता | सबकी माँ की हिदायत जो होती ,  जाओ ज्योति से दो चार ढंग की चीजें सीख कर आओ , कितना भी पढ़ लिख जाओ, रसोई तो औरत को ही संभालनी पड़ती है | और सहेलियाँ उसे घेर लेतीं | ज्योति जरा रुमाली रोटी बनाने की विधि बताना , अच्छा ज्योति बताना खीर में शक्कर का अंदाज कैसे करते हैं, खिचड़ी में पानी कितना डालें?  वो किसी शिक्षक की भांति सबके सवालों को सुलझाती रहती |

जब विवाह की बात चली तब अनुप्रिया ने उसका हाथ पकड़  कर कहा , “ बड़े नसीब वाले हैं  राहुल जीजाजी जो उन्हें इन हाथों से बना खाना खाने को मिलेगा | “देखना अंगुलियाँ चाट –चाट कर तारीफ़ करेंगे , इतना हुनर है हमारी ज्योति के पास” , राधिका ने समर्थन किया | मृणालिनी भी कहाँ चुप बैठने  वाली थी झट से बोल पड़ी,  “देखना इनका लव सॉंग होगा , ‘तुम खिलाती रहो , मैं खाता रहूँ , इतना बढ़िया खाने से और प्यार आता है “ उसकी इस बात पर सब खिलखिला पड़ीं |

 

 ज्योति लजाते हुए अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगती  , जब वो अपने राहुल के लिए खाना बनाएगी और वो अपनी बाहों में भींच कर कहेगा , मेरी ज्योति से अच्छा खाना कोई नहीं बना सकता, सारी  जिन्दगी खाता रहूँगा तब भी कभी मन तृप्त नहीं होगा | मैं बहुत खुशनसीब हूँ ज्योति जो मुझे तुम्हारे जैसे पत्नी मिली |” वो उसके होंठों पर हाथ रखकर कहेगी , “ इतनी तारीफ़ ना करिए , आप जैसे ज्ञानी पति  को अपने हाथों से बना कर खिलाना मेरा भी तो सौभाग्य हैं |” राहुल उसका हाथ हटा कर उसे अपने सीने से लगा लेगा और जिन्दगी रसगुल्लों की चाशनी की तरह मिठास से तर –बतर हो जायेगी |

 

वो अपने ख्यालों में खोयी ही थी कि राहुल आ गया | वो जल्दी –जल्दी डोंगों से खाना उसकी प्लेट में परोसने लगी | राहुल ने उसे रोकते हुए कहा , “ मैं कर लूँगा इतना , तुम अपनी प्लेट भी लगा लो |” वो अपनी प्लेट लगाने लगी | राहुल ने प्लेट लगाने के बाद अखबार खोल लिया | सुबह घंटा भर पढ़ा हुआ अखबार वो दोबारा पढने लगा | ज्योति उसके चेहरे के बनते –बिगड़ते भावों से खाने के पसंद –नापसंद का अनुमान लगाने लगी | तभी राहुल की उडती से नज़र ज्योति पर पड़ी , वो उसे ही एकटक देख रही थीं | “ क्या हुआ ?” राहुल ने पूछा | कु ... कु... कुछ नहीं , खाना कैसा लगा ?” उसने सकपकाते हुए पूंछा | “ हूँ , ठीक है |” राहुल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया |

 

थोड़ी देर अखबार में सर घुसाए रखने के बाद उसने फिर सर उठाया | ज्योति को आशा जगी | राहुल ने कहना शुरू किया , “ ये शेयर मार्किट इस समय बहुत गड़बड़ कर रही है | मेरे ख्याल से इस समय बुल की जगह बीयर मार्केट   में पैसा लगाना सेफ रहेगा | “ उसके बाद उसने फिर से अखबार में डुबकी  लगा ली | उसे शेयर मार्किट तो समझ में नहीं आती थीं पर इतना तो समझ ही गयी कि उसके मलाई-कोफ्ते , मटर पनीर .... राहुल ने नहीं , बुल और बीयर ने खा लिए | मन में निराशा तो थी पर उसने अपनी उम्मीद की थाली  शाम के खाने की तरफ सरका दी |

 

शाम से सुबह हुई , सुबह से फिर शाम की यात्रा करते –करते चार  महीने बीत गए पर ज्योति के हिस्से में तारीफ़ नहीं आई | राहुल खाने की मेज पर कभी देश की उठती गिरती समस्यों में उलझा होता, तो केक कितनी मुलायम  बनी है इस बात का ध्यान कहाँ जाता   , कभी कोई अंतर्राष्ट्रीय घटना के आगे इडली-सांभर  की बात करना भी अल्पज्ञता की निशानी होती , कभी ऑफिस की समस्याओं में जलेबी उलझ कर रह जाती तो कभी घर परिवार की समस्याएं जाफरानी पुलाव को चट कर जातीं | कारण कुछ भी हो उसको इतने महीने बाद भी तारीफ नहीं मिली तो नहीं मिली |

धीरे –धीरे उसका सब्र जवाब देने लगा | सलीके से रसमलाई की गार्निश करती अँगुलियाँ शब्दों का सलीका भूल गयीं | “ कभी तो मुंह से खाने की तारीफ में कुछ बोल दिया करो, क्या सर  अखबार में घुसाए –घुसाए खाते रहते हो , ये जो मुँह  में बिना ठीक से देखे  ठूस रहे हो ना उसको बनाने में भी मेहनत  लगती है |” वो गुस्से में फूट पड़ी |

“ तो क्या , तुम्हारी प्रशंसा के लिए गीत –काव्य लिखूं , खाना ही तो बनाया है , ऐसा कौन सा मंगल गृह का नया रास्ता खोज लिया है , दुनिया भर की औरतें बनाती हैं, इसमें नया क्या है ? जरा सा कुछ हल्दी मसाले इधर –उधर कर दिए और लगीं तारीफ की उम्मीद करने | देखो मैं तुम्हारा पिता की तरह भोजन भट्ट नहीं हूँ ,  जो हर रोज अँगुलियाँ चाट –चाट कर तुम्हारे खाने की तारीफ़ करता फिरूँ |  बहुत सारे काम हैं मेरे पास करने को, बैठे –बैठे तारीफ़ करने के अलावा  |”  धडाम से कुर्सी फेंकते  हुए राहुल ने कहा और खाना अधूरा छोड़ कर ही चला गया | शायद पुरुष का अहंकार ज्योति का कहने का तरीका बर्दाश्त नहीं कर पाया था |

 

उसकी आँखें पछतावे से भीग गयीं | बेकार ही कहा , खाना भी नहीं खाया | कम से कम पूरा खा तो लेते थे | सारा दिन ऑफिस में मेहनत करते हैं , मैं भी किस बात पर उलझ पड़ी | तुरंत राहुल को मनाने चली गयी |  “ सॉरी राहुल , मुझे ऐसे नहीं कहना चाहिए था , तुम प्लीज खाना खा लो |” राहुल अपनी फ़ाइल में सर गड़ाए बैठा रहा | दो –दिन बात भी नहीं की | धीरे –धीरे सीज फायर हो गया | राहुल सामान्य तौर से खाना खाने लगा और वो सामान्य तौर से तारीफ की उम्मीद करने लगी |

 

एक दिन राहुल अपने दोस्त के घर  उसको लेकर गया | वहां  खाना खाते समय ना अखबार था ना  शेयर मार्किट  ना राष्ट्रीय , अंतर्राष्ट्रीय समस्याएं , राहुल खाना खाते हुए बार –बार तारीफ कर रहा था | भाभी जी , आपके हाथों का जवाब नहीं , ये मटर पनीर  कितना स्वादिष्ट बना है | वाह –वाह जाफरानी पुलाव के तो कहने ही क्या | वो विस्फारित नेत्रों से राहुल को देखने  लगी | उसने नोटिस किया कि जब भी अपने दोस्तों के यहां जाता है, स्वाद को गैरमामूली चीज समझने वाला राहुल  उनकी पत्नियों के बनाये खाने की तारीफ़ करता है | ये वजह एक बार फिर उसको नाराज करने के लिए काफी थी |

 

घर आ कर साड़ी बदलते हुए उसने राहुल को टोंका , “ क्या बात है राहुल , अपने दोस्तों की पत्नियों के खाने की तो इतनी तारीफ़ करते हो , कभी मेरी भी कर दिया करों |

“ हाँ , तो ?, खाना पसंद आया तो कर दी , कभी तुम भी अच्छा बनाओगी  तो तुम्हारी भी कर दूँगा | अभी तो तुम्हारी फिगर की तारीफ करने का दिल कर रहा है “,कहते हुए राहुल ने उसे अपनी और खींच लिया | सुबह भारी  मन से उठने के बाद वो सोचने लगी  कि शरीर की संतुष्टि हमेशा मन की संतुष्टि नहीं होती | अपने स्नेह और हुनर के पारिश्रमिक के रूप में तारीफ के दो बोल ही चाहती थी वो | उसकी ये छोटी से इच्छा भी राहुल पूरी नहीं कर सकता | सोचते –सोचते उसे तेज उबकाई आने लगी |







 

अब उनकी जिंदगी में नन्हा गौरव भी शामिल हो गया था | मातृत्व के शुरू के वर्षों में ज्योति का राहुल की तारीफ़ के प्रति इतना ध्यान ही नहीं गया | उन दोनों के बीच बातें भी मुख्यत : गौरव की ही होती | अरे देखो , ‘पापा कहा , अरे ये तो चलने लगा , कौन से स्कूल में एडमिशन कराना है | ऐसा नहीं था कि जिन्दगी थम गयी थी , अभी भी दोस्तों के यहाँ जाना –खाना पीना यूँ ही चल रहा था पर जिन्दगी की प्राथमिकता ‘गौरव के इर्द –गिर्द ही घूमती | सेरेलेक और बेबी फ़ूड की बातों में अपने व् राहुल के लिए क्या पका रही है इसका ख्याल भी कम ही  रहता |

 

इसी बीच अनुप्रिया का ट्रांसफर उसी शहर में हो गया | उसने राहुल और ज्योति को खाने पर बुलाया |  उसने सरसों का साग और मक्के की रोटी, हरी धनिया की चटनी , दाल मखनी और साथ में थोडा सा नैनू (ताज़ा निकाला हुआ मक्खन) परोसा | जाड़े के दिन थे  गर्म –गर्म खाने का स्वाद कुछ और ही बढ़ गया था | राहुल ने खाते –खाते कहा , अनु , आपके हाथों का जवाब नहीं क्या खाना बनती हैं आप , बड़े भाग्यशाली हैं आप के पति जो आप जैसे पत्नी मिली है | कौर मुँह में ले जाते हुए ज्योति के हाथ जैसे रुक गए |

तभी अनु बोल पड़ी , “ जीजाजी आप तो झूठी तारीफ़ रहने ही दीजिये , गुरु तो आपके घर की रसोई में बैठा हैं , ये सब बनाना मैंने ज्योति से ही तो सीखा है |”

“गुरु गुड ही रह गया और चेला चीनी हो गया , ये सारे हुनर तो बेगम साहिबा मायके में ही छोड़ आयीं “ राहुल ने हँसते हुए कहा और सब उसकी बात पर हँस पड़े |

उसकी वर्षों दबी इच्छा कुरिद गयीं , आँखें डबडबा  गयीं , वो खाना छोड़ कर अंदर दूसरे कमरे  में चली गयी | अनु बात को भांप कर उसके पीछे –पीछे आई और उसके पास बैठ कर बड़े प्यार से बोली , “ ज्योति तू  भी ना ,किस बात पर दुखी होने बैठ  गयी ,  दुनिया के सारे मर्द ऐसे ही होते हैं , उन्हें अपनी बीबी में कोई हुनर नज़र नहीं आता , और दूसरों की बीबी में कोई दोष नहीं , ऐसी बातों को दिल पर नहीं लेते | फिर जीजाजी ने तो मजाक में कहा था |

“मजाक” ज्योति ने अनु का हाथ हटाते हुए कहा , “ शायद मजाक ही होगा, पर मेरी तो हसरत रही ही गयीं अपने बनाये खाने की तारीफ़ सुनने की |”

“ हाँ तुझे लग सकता है तू इतना स्वादिष्ट खाना जो बनाती आई है , मैं तो रोज बनाती भी नहीं पर जिस दिन बनाती हूँ , मन तो तारीफ़ के लिए मचलता है , पर मेरे पति को भी देखो , जल्दी से आवाज़ फूटेगी ही नहीं तारीफ की , जैसे भगवान् ने स्वादेन्द्रियाँ बनायीं ही ना हो , अगर कभी कुछ कहेंगे भी तो नमक कम है , आज हल्दी कुछ ज्यादा हो गयी, इसलिए तो  मैं रोज बनाने का सिरदर्द लेती ही नहीं , पार्टी वगैरह में ही रसोई में हाथ लगाती हूँ , अपना मियाँ नहीं तो दूसरों के मियाँ तो तारीफ़ करते हैं ना” कहते हुए अनुप्रिया ने शरात में बायीं आंख दबा दी | उसको भी हंसी आ गयी |   

 

लौटते समय कार में सन्नाटा पसरा रहा ,वो सोचती रही अनुप्रिया कह सकती है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता , ऑफिसर है ,महीने के आखिर में नोटों की गड्डी  लाती है, उसके पति भी उसके ऑफिस और घर संचालन की कितनी तारीफ़ कर रहे थे, पर उसका तो एक यही हुनर है , जिसका गर्व वो अपने पति की आंखो में देखना चाहती है ....पर वो बस खाना ही तो बनाती हो , कहकर उसका स्वाभिमान ही कुचल देते हैं | उस रात   पति –पत्नी अलग –अलग कमरे में सोये | इस बार वो भी हथियार डालने के मूड में नहीं थी | दो दिन बाद राहुल ही आया उसे मनाने , “ क्या  यार जरा सी बात पर मुँह फुलाए बैठी हो , देखो मुझे खाने का ज्यादा शौक  नहीं है , तुम भी अच्छा खाना बनाती  हो , पर अपनी ही बीबी की रोज –रोज क्या तारीफ करूँ | वैसे अनु ने खाना वाकई अच्छा बनाया था | मतलब मुझे अच्छा लगा , कह दिया | तुम चाहो तो उससे सीख लो |” ज्योति कुछ कहना चाहती थी कि गौरव आ गया| मेरी मम्मी दुनिया की बेस्ट कुक हैं कहते हुए वो उससे लिपट गया |  ज्योति अपने आंसू ना रोक सकी | उम्मीदों  की सुई गौरव की और घूम गयी |

 

वो दिन उसकी जिंदगी के थोड़े अच्छे दिन थे | जो भी बनाती गौरव व् उसके दोस्त प्रशंसा कर देते | वो दुगने जोश से कुछ नया , बेहतर बनाने की कोशिश करती | हमेशा अखबार में सर घुसा कर खाने वाला राहुल भी अब बेटे की देखा देखी खाने पर टिप्पडी करने लगा , पर ज्यादातर टिप्पड़ियाँ नकारात्मक ही होतीं |

“मेरी माँ , साग को सरसों के तेल में बनाती थीं | ये आँवले रात में में पानी में भिगो दो तभी मुरब्बा अच्छा बनेगा , तुम हल्दी –नमक  तेजस्वनी की तरह थोडा कम डाला करो |  मुलायम सा नैनू कैसे बनाते हैं जरा अनु से पूँछ लो ना प्लीज |कभी –कभी उसका दिल दुखता पर गौरव की तारीफ़ उस पर लेप लगा देती | मन में सोचती , शायद अनुप्रिया सही ही कहती है , पुरुष दुनिया भर की औरतों क तारीफ़ करेगा पर अपनी पत्नी में उसे नुक्स ही नज़र आयेंगे | चलो बेटे के बहाने ही सही उसकी प्रयोगशाला चल तो रही है , वाद्य यंत्र बज तो रहे हैं |

 

किशोरावस्था में कदम रखते ही गौरव ने भी रंग बदलना शुरू कर दिया | अब उसे माँ के हाथ का खाना नहीं बाज़ार का खाना पसंद आने लगा | स्थिति ये हो गयी  की आज क्या खाओगे बेटा ? , पूंछने पर भी वो नाराज़ हो जाता , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है ? जीवन में और कोई काम नहीं है क्या , जो हर समय खाने की बात करती रहती हो ? वो जो भी बनाती कभी कॉपी , कभी लैपटॉप , कभी मोबाइल करते हुए गटक लेता | कभी –कभी उसकी प्रश्न वाचक निगाहों को देखकर झुन्झुला जाता , “ मम्मी आप भी , खा तो लिया ना बस इतना काफी नहीं , आपको इतनी तारीफ की जरूरत क्यों महसूस होती है |” वो महसूस कर रही थी कि गौरव तेजी से अपने पिता में बदलता जा रहा है , जिनके मन में औरतों की मेहनत और घरेलु काम के प्रति कोई सम्मान नहीं  होता | वो ऑफिस या स्कूल –कॉलेज में किये गए अपने काम को तो काम मानते हैं , उसकी तारीफ़ भी चाहते हैं , पर उनकी निगाह में घरेलू औरतें  “ दिन भर करना ही क्या होता है “ के दायरे में आती हैं | माँ की ममता पर पिता का खून भारी पड़ने लगा |

 

बारहवीं के बाद गौरव इंजीनयरिंग करने हॉस्टल चला गया | ज्योति को अब खाना बनाने से अरुचि होने लगी | गठिया के कारण शरीर भी साथ नहीं देता , उच्च रक्त चाप और अन्जाइना भी शरीर में घर बना चुके थे | घी –तेल , मिर्च –मसाला , शक्कर , स्वाद के ज्यादातर नुमाइनदे  स्वास्थ्य ने छीन लिए  थे | सादा और उबला ही बनना था | अब तो बस खाना बनाने के लिए बनाती , मन भी नहीं लगता , बस पेट भरना है यही ख्याल रहता |धीरे –धीरे रसोई में घुसने की भी इच्छा साथ छोड़ने लगी |  कभी –कभी कोई पुरानी  सहेली याद दिला देती तो आश्चर्य होता क्या वही थी वो ज्योति जो इतना अच्छा खाना बनाती थी |

 

जिन्दगी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी | समय ने उसकी थाली से एक स्वाद और छीन लिया | दो दिन के बुखार में राहुल उससे हमेशा के लिए दूर चले गए | जब तक डेंगू पॉजिटिव की रिपोर्ट आती मरीज ही जा चुका  था | उस समय गौरव की पोस्टिंग मुंबई में थी जहाँ वह अपनी पत्नी परिधि और दो जुडवाँ बच्चों के साथ रह रहा था | पिता के ना रहने पर कुछ दिन के लिए आया था , फिर वापस चला गया | वो अकेली घर की दीवारों पर सर मारती | एक टाइम खाना बना लेती वही दोनों टाइम खाती | कई बार तो फ्रिज में रख देती और  गर्म कर –कर के दो तीन दिन में खा कर खत्म कर पाती | टी . वी पर आस्था चैनल देखकर मन बंटाती  और शाम को अपनी लाठी के सहारे पास के मंदिर में चली जाती | जीवन और थाली दोनों ही बेस्वाद हो चले थे |

 

धीरे –धीरे शरीर अशक्त हो चला था | अब तो चला –फिर भी ना जाता , काम किये ना होता |  ७२ की उम्र से कहीं ज्यादा रोगों ने उसे तोड़ दिया था | अकेली बीमार अशक्त माँ की आंखे  गौरव और उसके बच्चों के आने  की बात जोहती रहतीं| बच्चे आ जाते तो कुछ रौनक हो जाती | खाना बनाने के लिए उन दिनों कांता को बुलवा लेती | कांता दूसरों के घर में खाना बनाया करती थीं | कितनी बार कह चुकी थी , अम्माँ हमें हमेशा के लिए लगवा लो , गर्म –गर्म रोटियाँ देंगे , पर वो ही ना कर देती |  “अरे अकेले प्राणी को खाना ही कितना है, बच्चे आते हैं तो जी करता है कुछ खा लें, उबला सादा खाना पसंद ही नहीं करते | अब उम्र हो गयी है , रसोई में ज्यादा देर खड़े होने का ही मन नहीं करता , घबराहट होने लगती है , इसलिए तुम्ह्को बुला लेती हूँ |” कांता जानती थी कि बुढ़िया अपने लिए ज्यादा कुछ बनाती नहीं है , तो उसे क्या लगवायेगी , फिर भी चुहल में हर बार आग्रह करती और हर बार वही उत्तर सुन मुस्कुरा देती |    उधर परिधि की नौकरी लग गयी | उस साल गर्मी की छुट्टियों में गौरव अकेले ही आया | आते ही ऐलान कर दिया , “मम्मी , अब तुम अकेली नहीं रहोगी , हमारे साथ चलो |”

“क्या बहु भी ऐसा ही चाहती है |” उसने बेटे से अपनी शंका का समाधान चाहा |

“ हां माँ , उसी ने ही तो मुझे भेजा है , तुम्हे लाने के लिए , कहा है अब मम्मी अकेले नहीं रहेंगी , अब उनकी बैठ कर खाने की उम्र है |”  गौरव ने कहा तो ख़ुशी से उसकी रुलाई फूट गयी | कहीं  तो उसकी कदर है सोच कर वो अपना सामन बांधने  लगी |

 

मुंबई में हफ्ता – पंद्रह दिन बहुत अच्छे बीते | बहु पूछ –पूछ कर खाना बनाती | बच्चे दादी –दादी कर के पास घूमते | यहां  बुढ़ापा ठीक से कटेगा ये सोच कर वो आश्वस्त हो चली थीं |

 हर रात की तरह उस रात भी घुटनों की अलसी के तेल से मालिश कर वो सो गयी , इस बात से बेखबर की बगल के कमरे में बहु –बेटा उसी के कारण झगड़ रहे हैं |  

परिधि – “देखो तुम्हारी माँ को रोज –रोज पका –पका कर मैं नहीं खिला सकती | बुढ़िया तो किचन में घुसती भी नहीं |”

गौरव – “ठीक से बात करो , माँ का गठिया का दर्द जोरो पर है , आजकल , ठीक से चला नहीं जा रहा |”

परिधि – लो जी , कर लो बात ,ठीक से क्यों बोलूं , मैंने तो इसी लिए बुलाया था कि खाना और बच्चे वो संभाल लेंगी तो मैं आराम से नौकरी कर पाऊँगी | मुंबई के खर्चे कितने हैं , खाना पकाने वाली भी कितनी महंगी  है , ऊपर से छुट्टियां भी बहुत करती हैं , दो का चार खर्च करती हैं , सामान मारती  हैं सो अलग  |

गौरव –“पर मैं तो तुम्हारे नाम से ही माँ को लाया था , अब तुम हीं ... अपनी मंशा पहले बताना चाहिए  थीं ना |” 

परिधि –“कितनी बार कहा था , मम्मी आ जायेंगी तो बच्चों और उनकी फरमाइशों को वही देखेंगी , मूल से सूद प्यारा जो होता है | सुनते कहाँ हो मेरी बात , पर देखो ये मुझसे नहीं होगा , दिन भर ऑफिस में काम करूँ और सुबह शाम रसोई में पूरी ड्यूटी  दूँ और बुढिया आराम से गठिया का बहाना बना कर पलंग तोड़े |मैंने तो बुलाया ही रसोई के काम में मदद के लिए था | सोच लो , नौकरी छोड़ दूंगी तो लोन की क़िस्त कैसे भरोगे ?”

गौरव – “लेकिन... लेकिन अब माँ को वापस कैसे भेजूँ ?”

परिधि – “देखिये मैं कुछ नहीं जानती | मैं एक दिन साफ़ –साफ़ कह दूंगी , यहां  रहना है तो खाना बनाना पड़ेगा , जब सारा दिन घर में ही रहती हो तो ऐसी आरामतलबी नहीं चलेगी |”

गौरव  – “रुको , रुको , मैं ही कोई तरकीब निकालता हूँ | “

परिधि – “ठीक है , पर जल्दी करना | “

                       गौरव चुपचाप उठ कर माँ के कमरे की तरफ गया  | इन बातों से बेखबर वो निश्चिन्त सो रही थी | उसे इत्मीनान हुआ की माँ ने उसके व् परिधि के बीच की कोई बात नहीं सुनी है | सारी  रात अपने बिस्तर पर लेते-लेते योजनायें बनता रहा | आँखों में नींद का नाम नहीं था |

दूसरे दिन सुबह गौरव जल्दी उठ कर माँ के कमरे में गया | वो घुटनों में अलसी के तेल की मालिश कर रही थी | गौरव ने माँ के हाथ से तेल की शीशी ले ली और घुटनों में लगाने लगा | ज्योति ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा , ‘ चल हट , तुझे ऑफिस को देर हो रही है |

गौरव ने मालिश जारी रखते हुए ,” माँ अपनी सेवा का हक़ तो ना छीनो मुझसे , सही ही कहा गया है , माँ के क़दमों में तो जन्नत होती है |”

ज्योति : “अरे , आज तो बड़ी –बड़ी बातें कर रहा है , किसने सिखाया तुझे ये सब ?”

गौरव : “ उम्र के साथ ये ज्ञान आ ही जाता है कि माता –पिता अनमोल होते हैं , फिर  परिधि भी आपकी बहुत तारीफ़ करती है |”

“अच्छा “अपनी आंखो में उठ आये बवंडर को पल्लू से पोछने लगी |

 

 “ हाँ माँ , एक बात कहने का दिल और कर रहा है ...... वर्षों हो गए तुम्हारे हाथों के आलू के पराठे नहीं खाए | कितने स्वादिष्ट बनाती  थी तुम, मेरे पूरे क्लास में हिट  थे , पराग तो अक्सर कहता , अपनी माँ से आलू के पराठे बनवा कर लाओ |” गौरव माँ की और स्नेह से देखता हुआ बोला |

 “ माँ , कभी तबियत ठीक महसूस हो तो फिर बनाना” थोडा रुक कर गौरव ने फिर कहा |

ज्योति ने हाथ झिटकते  हुए कहा , हट पगले , पहले क्यों नहीं बताया | अभी बना देती हूँ | कहते हुए अपने घुटनों के दर्द को भूल वो झटके से उठी , दर्द के जोर से एक हल्की चीख निकली , पर वो रुकी नहीं , उसके कदम लाठी लेकर रसोई की ओर बढ़ने लगे |

 

सुबह नाश्ते की टेबल पर पूरा परिवार यानि परिधि बच्चे और गौरव, अपने स्कूल और ऑफिस के लिए तैयार होकर  नाश्ता करने लगे |

माँ , तुम्हारे हाथों के आलू के पराठों का जवाब नहीं , गौरव ने  परिधि को देखकर आँख मारते हुए जोर से कहा |

“ हाँ माँ , मैं तो कभी भी आप के जैसा खाना नहीं बना सकती “ आँख मारते हुए परिधि ने भी जवाबी तान मिलाई |  

“अरे बेटा, उठना नहीं ,  ये वाला और खाना , ये और भी ज्यादा कुरकुरा है”, दर्द से बेजार टांगों की परवाह ना करते हुए माँ का ममत्व रसोई से उड़ता हुआ डाइनिंग टेबल पर छितर  गया |

अब वो रोज खाना बनाती है और सब जी भर –भर के उसकी  तारीफ़ करते हैं ।





परिचय


वंदना बाजपेयी 
शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय ) 
सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com
 दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर  एडिटर,त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका गाथान्तर  के कुछ अंकों में सह सम्पादन, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद अभी ऑनलाइन साहित्यिक वेब पत्रिका www.atootbandhann.com का संचालन 
कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओ, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग, समीक्षा  आदि प्रकाशित | कुछ कहानियों, कविताओं, समीक्षाओं  का नेपाली, पंजाबी, उर्दू और मराठी, अंग्रेजी  में अनुवाद ,महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी  हाउस में नाट्य मंचन | 
 प्रकाशित पुस्तकें
 
कहानी संग्रह –विसर्जन, वो फोन कॉल 
कविता संग्रह -मायके आई हुई बेटियाँ (शीघ्र प्रकाश्य)
साझा काव्य संग्रह .... गूँज , सारांश समय का ,अनवरत -१ , काव्य शाला 
साझा कहानी संग्रह ... सिर्फ तुम, मृग तृष्णा 
साझा इ  उपन्यास -देह की दहलीज पर (मातृभारती.कॉम ) 
वेब सीरीज -रेडी गेट सेट गो (प्रतिलिपि पर )
सम्पादित –दूसरी पारी( आत्मकथात्मक लेख संग्रह )
संपर्क – vandanabajpai5@gmail.com

रविवार, 5 दिसंबर 2021

विशेष

अंबेडकर की पुण्यतिथि पर विशेष

अंबेडकर को पढ़ते हुए
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शंभुनाथ

‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ अंबेडकर

1933 में ‘हंस’ के एक मुखपृष्ठ पर अंबेडकर की तस्वीर देकर प्रेमचंद ने  टिप्पणी की थी, ‘आपने अनेक कष्ट झेलकर तथा सतत प्रयत्नशील रहकर बाधाओं पर विजय प्राप्त की थी और अपनी विद्वता से यह प्रमाणित कर दिया कि तथाकथित अछूतों को भगवान ने किसी असामान्य तत्व से नहीं बनाया। आप विश्वविख्यात महापुरुषों में से एक हैं।’ यह राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समर्थक एक महान हिंदी कथाकार का अंबेडकर के प्रति सम्मान है। यह अंबेडकर के विचारों की व्यापक स्वीकृति का भी उदाहरण है। प्रेमचंद मानते थे कि राष्ट्रवाद की परियोजना सामाजिक क्रांति के बिना अधूरी है। उन्हें राष्ट्र और हाशिए के बीच संवाद जरूरी लगा था, खुद उनका लेखन यही था।
अंबेडकर (1891-1965) ने एक जगह अपने बारे में लिखा है, ‘मैं एक महाड़ महिला के पेट से पैदा हुआ हूँ। गरीबी के बारे में कहूं तो आज जो गरीबों में गरीब छात्र हैं, उनसे अलग स्थिति मेरी नहीं थी।… बंबई में डेवलपमेंट डिपार्टमेंट की एक चाल के दस बाय दस के कमरे में माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहकर एक पैसे के मिट्टी के तेल के दिये की रोशनी में मैंने पढ़ाई की है।’ (बाबासाहेब अंबेडकर का संपूर्ण वाङ्मय, खंड 39, 1938 का एक भाषण) उन्होंने शुरू में छोटी-मोटी नौकरियां कीं, अपमान सहे, फिर बड़ौदा नरेश के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और इंग्लैंड गए। उन्होंने लौटकर फुले, अय्यनकलि, पेरियार रामास्वामी आदि के आंदोलनों की परंपरा में दलित आंदोलन की एक संगठित वैचारिक जमीन तैयार की।

जाति का विनाश

अंबेडकर के नेतृत्व में महाड़ आंदोलन (1927) ने महाराष्ट्र में पहली बार  दलितों को संगठित संघर्ष का रास्ता दिखाया था। उन्होंने चवदार तालाब से पानी लेकर विषमतापूर्ण जाति व्यवस्था को चुनौती दी थी। 20वीं सदी में शिक्षित दलित अब राष्ट्रवाद के प्रतीक्षालय में बैठे रहने और ‘साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई खत्म होने तक अपने दुखों को सीने से लगाए रखकर मुसीबतों को सहते रहने’ के लिए तैयार नहीं थे। अंबेडकर को शिक्षित होने के बावजूद अपने व्यक्तिगत जीवन में छुआछूत की कड़वी पीड़ा सहनी पड़ी थी।
वे सुधार को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कहते हैं, ‘सत्य यह है कि सामाजिक सुधार के बिना सच्ची राष्ट्रीयता का उदय संभव नहीं है।’ (जाति का विनाश)। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को श्रम व्यवस्था मानने से इनकार कर दिया। उनके संपूर्ण जीवन की केंद्रीय चिंता जाति का विनाश है। यह नवजागरणकालीन सामाजिक सुधार को सामाजिक क्रांति के स्तर पर ले जाना है। उन्होंने अपना मशहूर लेख ‘जाति का विनाश’ आर्य समाज से जुड़े ‘जाति पांति तोड़क मंडल’ के लाहौर अधिवेशन में पढ़ने के लिए लिखा था, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु की विद्रोहात्मकता को देखकर मंडल ने अपना आमंत्रण वापस ले लिया था।

विडंबना का वर्तमान

देखा जा सकता है कि 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों से बी.आर.अंबेडकर की राजनीतिक स्वीकृति तेजी से बढ़ी है और सर्वव्यापी हुई है। संविधान बनने के समय अंबेडकर जब हिंदू कोड बिल का सुधार करके हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह, स्त्रियों के पति से संबंधविच्छेद के समान अधिकार और संपत्ति में स्त्रियों के अधिकार को कानून बना रहे थे, धार्मिक कट्टरवादियों ने उस समय प्रचंड विरोध किया था। उनकी परंपरा में पले-बढ़े लोग आज अंबेडकर पर फूलमालाएं चढ़ा रहे हैं। अंबेडकर इसलिए भी कइयों को अचानक अनुकूल लगने लगे कि उन्होंने अपने सेकुलर रुझान के कारण समान नागरिक कानून का समर्थन किया था।
कहना मुश्किल है कि इधर अंबेडकर के सबके लिए श्रद्धेय होने को एक नई संभावना के रूप में देखा जाए या विडंबना के रूप में। अंबेडकर का सर्वस्वीकृत हो उठने का निश्चय ही यह अर्थ नहीं है कि अब जाति का विनाश या सामाजिक क्रांति नजदीक है, क्योंकि यह तो दरअसल अब पहले से ज्यादा कठिन है। यह भी चिंताजनक है कि अंबेडकर के विभिन्न वैचारिक पहलुओं को सामने लाने की उत्सुकता अब बहुत कम बची है। वे एक ‘चिह्न’ या पूजा की वस्तु बना दिए गए हैं।
अंबेडकर के व्यक्तित्व और सोच का निर्माण एक जटिल समय में हुआ था। वे दलित आंदोलन और जाति उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के एक प्रभावशाली प्रतीक हैं। इसलिए वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर में उनके विचारों को ‘अस्मिता की राजनीति’ से एक अधिक बड़े रैशनल परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत महसूस हो सकती है, क्योंकि उदारीकरण के जमाने में ही मानवजाति अनुदारता के एक भीषण मोड़ पर खड़ी है।
अस्मिता की राजनीति की खूबी है कि यह एक स्थिर निशाना और स्थिर पहचान देती है, साथ ही पहचान का एक एलीट वृत्त बना लेती है। अस्मितावाद एक खास वर्चस्व को छोड़कर दूसरी समस्याओं की ओर देखने नहीं देता। यह किसी भी अभाव, वंचना और पीड़ा का वास्तविक समाधान नहीं है, यह आज से पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं हुआ था। इसने व्यक्तिगत रूप से कुछ को सीढ़ी जरूर दे दी, पर समाज ऊपर नहीं उठा। इसने सिर्फ आत्मतुष्ट मध्यवर्ग का दायरा थोड़ा बढ़ा दिया, ‘मैं सुखी तो जग सुखी!’
अंबेडकर का आंदोलन अस्मिता की राजनीति की जगह दलितों के अधिकारों का आंदोलन था। आज उसे कई बार ‘अस्मिता की राजनीति’ में सीमाबद्ध कर दिया जाता है और नहीं देखा जाता कि यदि कुछ गिने-चुने समर्थ व्यक्तियों को सीढ़ी मिली भी तो भूमंडलीकरण के युग में अधिकांश लोगों को सांप मिले हैं। इन सापों ने बहुत से लोगों को वस्तुतः नीचे सरका दिया है। साधारण मध्यवर्ग बुरे हाल में है। अस्मिता की राजनीति को सीढ़ी-सांप के खेल के संदर्भ में समझने की जरूरत है।

धर्म, नैतिकता और जातीयता के सवाल

अंबेडकर धर्म को भेदभाव, पाखंड तथा हिंसा से मुक्त एक उच्च जमीन पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘आजकल के युवाओं में धर्म के प्रति उदासीनता है।’ आगे यह भी कहते हैं, ‘धर्म अफीम है। लेकिन मुझमें जो भी अच्छी बातें हैं और मेरी शिक्षा का जनता के लिए जो उपयोग हुआ है, वह सब मेरे अंदर बसी धार्मिक भावना के कारण ही हुआ है। मैं धर्म चाहता हूँ, धर्म का ढोंग नहीं चाहता।’ (वही, खंड 39, 1938 का भाषण)। वे हिंदू धर्म को नरक इसलिए कहते थे कि यह ढोंग से भर गया था। यह इसका भी संकेत है, नवजागरण में धर्म की भूमिका अंबेडकर के समय तक बनी हुई थी, भले वे बौद्ध मन के व्यक्तित्व थे। उन्होंने विद्यार्थियों और युवाओं के चरित्र में पांच गुण देखने चाहे थे- विद्या, बुद्धि (अंधविश्वासों को समझनेवाली प्रज्ञा), करुणा, शील और मैत्री। वे बुद्ध, कबीर और फुले को अपना गुरु मानते थे। इसपर सोचने की जरूरत है कि आगे चलकर दलित आंदोलन ने उपर्युक्त जरूरी गुणों और उन महान व्यक्तियों के जीवन आदर्शों पर कितना जोर दिया।
अंबेडकर शिक्षा का महत्व बताते हुए साफ कर देते हैं, ‘शिक्षा से जातिवाद नष्ट हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।’ (वही, खंड-40, 1956 का भाषण)। वे कहते हैं, ‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ (वही, खंड-39, 1938)। जाहिर है, वे दलित आंदोलन में ज्योतिबा फुले के ‘सत्य मार्ग’ की जरूरत नए ढंग से बता रहे थे। उनका मानना था, ‘शील और सौजन्य के अभाव में शिक्षित व्यक्ति हिंस्र पशु से भी क्रूर और डरावना होता है।’ (वही)। निश्चय ही वे यह बात सिर्फ ब्राह्मणों के संदर्भ में नहीं कह रहे होंगे।

नवजागरण का एक लक्षण है ज्ञान को महत्व देना, यह बात अंबेडकर में है। वे कहते हैं, ‘उपाधियां ज्ञान नहीं होतीं। विश्वविद्यालय की उपाधियों और बुद्धिमत्ता का कोई आपसी ताल्लुक नहीं है।’ (वही)। उनके ज्ञान का अर्थ व्यापक है।

अंबेडकर नवजागरण काल के व्यक्तियों की तारीफ में एक भाषण में कहते हैं, ‘पहले हिंदुस्तान के राजनीतिक नेतृत्व की धुरी दादाभाई, रानाडे, तिलक, आगरकर, गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे व्यक्तियों के हाथों में था। वे सब पुराने नेता अच्छे कपड़े पहनते थे और पढ़ाई के बाद ही बोला करते थे। आज यह रिवाज बदल चुका है।’ (वही, 1939) उपर्युक्त सूची में तिलक का नाम बहुतों को विस्मय में डाल सकता है। बल्कि अंबेडकर तिलक के संबंध में कहते हैं, ‘कारावास के असल दुख और क्लेश तो तिलक ने भोगे।… कारावास के उनके अनुभवों को देखकर आंखों से आंसुओं की जगह खून की बूंदें रिस सकती हैं।’ (वही)। महाराष्ट्र नवजागरण के व्यक्तित्वों के योगदान को समझने और मान्यता देने में अंबेडकर ने जरा भी बौद्धिक दकियानूसीपन का परिचय नहीं दिया और न ही आज के कई बुद्धिजीवियों की तरह उच्छेदवादी नजरिया अपनाया।
अंबेडकर का नवजागरण से संपर्क बुद्धिवाद की तरफ उनके झुकाव की वजह से स्पष्ट है, ‘हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन की बुनियाद बुद्धिवाद होनी चाहिए।’ (वही, 1944)। वे चाहते थे, लोग ‘बुद्धि की कसौटी पर खरी न उतरनेवाली बातों को न मानें।’ (वही)। मनुष्य का बौद्धिक विकास वस्तुतः अवधारणाओं के संकट से मुक्त करता है और अवधारणाओं में विकास लाता है।
गौर करने की बात है, अंबेडकर ने मद्रास प्रांत में दलितों की जस्टिस पार्टी की यह कहकर आलोचना की थी, ‘ नौकरी पर लगे अ-ब्राह्मण लोग समाज से अलिप्त रहकर ऐशोआराम का जीवन बिताने लगे। ब्राह्मणों को गालियां देनेवाले ब्राह्मणेतर लोग फिर ब्राह्मणों की तरह ही सेंट लगाने, पूजा करने, अच्छे कपड़े पहनने आदि ब्राह्मणों के आचार-विचार अपनाने लगे।… ब्राह्मणवाद उसी प्रकार जिंदा रहा।’ (वही, 1944)। कहना न होगा कि 21वीं सदी में सत्ता-संपन्न ब्राह्मणेतरों द्वारा यह घटना उत्तर प्रदेश में दुहराई गई। आज बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन  मामूली सत्ता मिलते ही छोटे-छोटे स्वार्थ में लिप्त हो जाना आम बात है। दरअसल धीरे-धीरे ‘सुधारों’ को पीछे छोड़कर ‘अधिकारों’ की बात ही बची रह गई।
दलित होने का अर्थ पहचान की एकरूपता नहीं है। दलित की एक स्थानीय राष्ट्रीय पहचान भी हो सकती है। वह अपनी भारतीय, ग्लोबल और नई पेशागत पहचान भी रख सकता है, यहां उसकी भूमिका विस्तृत हो जाती है। अंबेडकर अपनी मराठी जातीयता का उद्घोष करते हैं, ‘अपने महाराष्ट्रीय होने का मुझे बेहद गर्व है, यह बात मैं यहां विशेष जोर देकर बताना चाहता हूँ। महराष्ट्रीयों में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य प्रांत के लोगों में आपको दिखाई न देंगे।’ (वही, 1938)। हिंदी क्षेत्र में इस तरह का जातीय बोध नहीं पनप सका।

साम्राज्यवाद के बारे में

अंबेडकर कहते थे, ‘साम्राज्यवाद हटे, यह मेरी इच्छा है।’ वे ‘जिम्मेदार स्वराज’ और ‘जिम्मेदार राजनीतिक सत्ता’ की धारणाओं के साथ यह सवाल उठाते हैं-‘अस्पृश्य बंधु, मजदूर और किसानों के बीच रिश्ते कैसे ठीक किए जा सकते हैं?’ (वही)। उनकी चिंता के केंद्र में अस्पृश्यों को शामिल करते हुए एक बड़ा मेहनतकश वर्ग है। निःसंदेह वे अस्पृश्यता से जन्मी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को लेकर सबसे अधिक मुखर थे। शूद्रों और अंत्यजों के भीतर भी अस्पृश्यता सहित जाति भेदभाव के विभिन्न रूप मौजूद थे। इस मामले को लेकर भी उनमें चिंता थी। उनके सामने ही महाड़ और चमार के भेद सामने आ गए थे। दरअसल उन्होंने धर्मांतरण का समर्थन इसलिए भी किया था कि ‘धर्म बदलेंगे तो कम से कम महाड़, मांग, चमार आदि नाम तो हमसे चिपकेगा नहीं!’ (वही, 1939)। वे सही कहते थे कि भारतीय समाज के अभिशाप- जाति के संपूर्ण विनाश की बुनियाद पर ही एक ‘जिम्मेदार स्वराज’ बन सकता है और लोकतंत्र आ सकता है।
अंबेडकर ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ न कभी आवाज उठाई और न वे कभी जेल गए। वे खुद बताते हैं कि किस तरह यह दलितों की राजनीतिक उन्नति के लिए उनकी एक रणनीति है, ‘कोई भले चाहे जितना बलवान क्यों न हो, दुश्मन पर चौतरफा हमला नहीं कर सकता। मैंने भी हमेशा एक-एक दुश्मन पर हमला कर उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश की है। लेकिन आज तक मैंने जिस (ब्रिटिश) सरकार के साथ पूरी ईमानदारी बरती, वही आज हमारे खिलाफ हो गई है! इस देश में अंग्रेजों का राज्य हम ले आए हैं, यह ऐतिहासिक सत्य है। अंग्रेजों के पक्ष में खून बहाकर हमने पेशवा युग को समाप्त किया।… निर्णायक लड़ाई में अंग्रेजों की जीत केवल महाड़ वीरों की वीरता के कारण हुई। कोरेगांव में खड़ा विजयस्तंभ इसकी गवाही देता है।’ (वही, 1941)। ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिर्फ अपने औपनिवेशिक हित को प्रधान मानता है, यह अंबेडकर को तब समझ में आया, जब उसके अत्याचार के दायरे में मुंबई के महाड़, मांग, बेठिया जाति के लोग प्रत्यक्ष रूप से आ गए। उन्होंने  घोषणा की, ‘आज तक मैं हिंदू धर्म और हिंदू समाज पर हमले करता आया हूँ, लेकिन अब… मैं उससे सौ गुना तेज हल्ला (ब्रिटिश) सरकार पर बोलूंगा।’ (वही, 1941)। स्पष्ट है कि वे आगे चलकर अंग्रेजों का साथ देने की घटना को महिमामंडित नहीं करते।
लेपेल ग्रिफिन (1838-1908) जैसे ब्रिटिश प्रशासक और कूटनीतिज्ञ की समझ यह थी कि भारत में राष्ट्रीय विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए जाति प्रथा एक अच्छी चीज है, क्योंकि जाति प्रथा समाज को हमेशा विभाजित रखेगी और इसके आधार पर आंदोलनों को विभाजित करना आसान होगा।
अंबेडकर देश की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वे विभिन्न आंदोलनों को जोड़ने के पक्ष में वक्तव्य देते हैं, ‘अपना देश आजाद रहा तभी हम भी आजाद रहेंगे, यह सही है। जाहिर है, देश की आजादी को संकट में डालनेवाली नीति हमें नहीं रखनी चाहिए।’ (वही, 1939)। हालांकि वे मुख्यतः इस तरह सोचते थे, ‘अपना राजनीतिक काम थोड़ी देर रोककर आप अगर अस्पृश्यता को नष्ट करेंगे, तभी साबित होगा कि आप ईमानदार हैं।’ अंबेडकर ने पूना पैक्ट के बाद एक बार बातचीत में गांधी से कहा था, ‘हमारी एक ही लड़ाई है आपसे। आप राष्ट्रीय कल्याण के लिए काम करते हैं, हमारे हितों के लिए नहीं। यदि आप अपना पूरा समय दलित वर्गों के लिए दें तो आप हमारे नायक होंगे।’ यह गांधी के वश की बात नहीं थी कि वे स्वाधीनता की लड़ाई और राष्ट्रीय एकता के प्रयत्न बंद कर दें। दरअसल जब तक देश में सामाजिक गैर-बराबरी या आधुनिकीकरण पूरी तरह न आ जाए, तब तक अंग्रेजी राज बना रहे, इस तर्क को अनगिनत कुर्बानियां दे चुकी देश की जनता मानने के लिए तैयार नहीं थी।  बल्कि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उसका ब्रिटिश उपनिवेशवाद से असंतोष और संघर्ष लगातार तीव्र होता जा रहा था।

अंबेडकर की एक सीमा है कि वे सवर्ण समाज में गरीबी, वंचना और भेदभाव नहीं देख पाते थे, ‘आज स्पृश्य समाज अधिकारारूढ़ है। अतः स्पृश्य समाज की हालत संतोषजनक है। उनके जीवन में सबकुछ आसान है, (जबकि) आपकी राह में संकट ही संकट खड़े हैं। आपका मार्ग कांटों से भरा हुआ है।’ (वही, 1942) समाज में शोषण और दमन के लिए जाति प्रथा को एक बड़े कारक के रूप में देखना एक चीज है, और बाकी अंतर्विरोधों की उपेक्षा करके समाज को सिर्फ स्पर्श्य और अस्पर्श्य में बंटा देखना एक बिलकुल दूसरी बात है।

कहना न होगा कि सवर्ण समाज में भी ज्यादातर लोग गरीब, बेरोजगार और किसी न किसी तरह से उत्पीड़ित ही रहे हैं। आज भी कई भुखमरी की दशा तक पहुँच जाते हैं। कई किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन सभी की जीवन दशा को सिर्फ इसलिए संतोषजनक नहीं कहा जा सकता कि वे स्पृश्य हैं। देर-सबेर समझने की जरूरत है कि इनके बीच भी सांस्कृतिक सुधार और आर्थिक विकास का पहुंचना जरूरी है। आमतौर पर 19वीं सदी से शुरू हुआ सांस्कृतिक सुधार कई कृत्रिम राजनीतिक विवादों की वजह से आधे रास्ते में ठहर गया था। यह 21वीं सदी में धार्मिक पुनरुत्थानवाद के उभरने और धीरे-धीरे लगभग सौ सालों में एक ठोस जमीन बना लेने की एक बड़ी वजह है।
जाति के विनाश के लिए धार्मिक कूपमंडूकता को मिटाना जरूरी है। इस पर सोचने की जरूरत है कि यह क्यों न हो सका? दरअसल इस देश के श्रमिक आंदोलनों पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आर्थिक मुद्दों- अपने वेतन बढ़ाने और काम करने की दशाओं में सुधार के अलावा धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन को आगे बढ़ाएं, दलितों और स्त्रियों के मुद्दे पर विशेष ध्यान दें और नवजागरण के अधूरे कार्यों को पूरा करें। लेकिन जिस तरह 19 वीं सदी में ‘राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने सुधार आंदोलन के काम को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था और अपने को राजनीतिक सुधारवाद तक सीमित कर लिया था और 1947 के बाद तो वह सत्ता के नशे में इस काम से पूरी तरह विमुख हो गई, उसी तरह श्रमिक आंदोलन भी मुख्यतः ‘अर्थवाद’ में फँस गए।

ब्राह्मणवाद से लड़ने का अर्थ

अंबेडकर पूंजीवाद से लड़ने के अलावा ‘ब्राह्मणवाद’ से भी लड़ने की बात करते थे, क्योंकि उन्हें इस देश में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अभाव को मिटाए बिना आर्थिक मुक्ति संभव नहीं दिखती थी। इसके लिए लगातार संघर्ष चलना चाहिए था। लेकिन तथ्य यह है कि बड़े उद्देश्यों को लेकर शुरू हुए ऐसे  आंदोलन बार-बार तात्कालिकतावाद में फँसे। व्यक्तियों की निजी या सामुदायिक घनिष्ठताओं ने नाक से दूर की सचाइयों को समझने नहीं दिया। अंबेडकर के बाद जाति के विनाश का आंदोलन ‘जिम्मेदार स्वराज’ या सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्यों से हटकर तात्कालिक फायदे के कीचड़ में फँस गया। पिछड़ी और दलित जातियां एक मिलीजुली उदात्त भूमिका निभाने की जगह अंतर्शत्रुता से भर गईं।
अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद को स्पष्ट किया है, ‘दुश्मन मानकर ब्राह्मणवाद से टक्कर लेनी चाहिए, यह मेरा कहना है। और मैं चाहता हूँ कि कोई इसका गलत अर्थ न निकाले। ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब ब्राह्मण जाति से नहीं है। इस संदर्भ में मैं इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। ब्राह्मणवाद का मेरी नजर में मायने है- आजादी, समता और बंधुत्व का अभाव।’ (वही, 1938)। यह सही धारणा है  जो भुला दी गई। आज कुछ दलितों को ऊंचे पद या पुरस्कार दे दिए जाते हैं। यह भी देखना है कि क्यों यह प्रतीकात्मक प्रतिनिधिकता आंखों में धूल झोंकना नहीं है।
कहना न होगा कि वैश्वीकरण के दौर में आजादी, समता तथा बंधुत्व के लोकतांत्रिक तत्व तेजी से गायब हुए। अब मूल्यों, उसूलों और वस्तुपरक कसौटी को वे भी नहीं अपनाते जो इनकी हमेशा बात करते हैं। पक्षपात एक खुल्ला खेल फर्रुखावादी है! इसमें ऊंची जातियों के क्षमतावान लोग सबसे आगे हैं। इसलिए यदि ब्राह्मणवाद से संघर्ष का अर्थ भी सिकुड़ता गया और दलित आंदोलन संकुचित सत्ता संघर्ष में खोता गया तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। निश्चय ही तात्कालिक फायदे में लिप्तता एक सार्वभौम विपदा है।

राष्ट्र और हाशिए का संवाद

भारत में ‘राष्ट्र’और हाशिये के बीच तनाव स्वाभाविक है, लेकिन इससे राष्ट्र बेमतलब नहीं हो जाता और न सामंजस्यपरक मानवीय राष्ट्रीय भावना अप्रासंगिक हो जाती है। अंततः ‘राष्ट्र’ ही समाधानदाता है। उससे लड़ना भी होगा, प्रेम भी करना होगा। अंबेडकर की लड़ाइयों के दिनों में सभी देशप्रेमी उनके उग्र कथनों के बावजूद उनके महत्व को समझ रहे थे। विविधताओं और विचित्रताओं से भरा भारत अपने नए सफर के लिए मार्ग खोज रहा था। कहा जा सकता है कि वह ‘विद्रोहों और समझौतों’ से बना एक मिलाजुला मार्ग था, क्योंकि अंग्रेजों की व्यापक औपनिवेशिक लूट और अत्याचारों की वजह से यदि देश की आजादी भारत के बहुत से लोगों और सभी राष्ट्रीयताओं का मुख्य लक्ष्य बन चुकी हो तो उस जटिल माहौल में धार्मिक-सामाजिक सुधारों को न उग्र रूप देना संभव था और न पूरी तरह त्याग देना।
अंबेडकर और गांधी दोनों देशप्रेमी हैं, पर अंबेडकर का लक्ष्य गांधी के लक्ष्य से बिलकुल अलग है। अंबेडकर नई भारतीय विडंबनाओं की सही कल्पना कर रहे थे। वे देश की राजनीतिक आजादी के पहले अस्पृश्यों के राजनीतिक अधिकार और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी जल्दी तय कर लेना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर सामाजिक विभाजन का अपना विमर्श प्रस्तुत किया, ‘जिस प्रकार मुसलमान हिंदुओं से साफ तौर पर अलग दिखाई देते हैं, उसी प्रकार अस्पृश्य भी हिंदुओं से अलग हैं। भारतीय राष्ट्र-जीवन में हमें पृथक और विभक्त घटक के तौर पर जाना जाएगा। अस्पृश्य हिंदुओं का एक हिस्सा है, इस सोच का आपको पुरजोर विरोध करना होगा।… इस देश में कई पंथ हैं- (1) हिंदू, (2) मुसलमान, (3) ईसाई, (4) अस्पृश्य।’ (वही, खंड-39)। उन्होंने स्वाभाविक रूप से घोषित किया, ‘गांधी हमारे सबसे बड़े प्रतिपक्ष हैं।’ अंबेडकर स्पेस रखते हुए आगे स्पष्ट करते हैं कि वे ‘दुश्मन’ शब्द का प्रयोग करने से बचे हैं!
देखा जा सकता है, उपर्युक्त ‘स्पेस’ का महत्व है। अंबेडकर ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर धर्मनिरपेक्ष लोककल्याणकारी भारतीय गणराज्य के लिए जो संविधान बनाया, वह 19वीं -20वीं सदी के लगभग डेढ़ सौ साल की भारतीय आशाओं, स्वप्नों और संघर्षों का प्रतिबिंब है, निश्चय ही सामाजिक विभाजन के अंंबेडकर के उपर्युक्त विचार का दर्पण नहीं। अंबेडकर द्वारा निर्मित उस संविधान की आलोचना उस समय उन सबने की थी जो वस्तुतः आज उसे बचाने के लिए सबसे ज्यादा आगे हैं!
अंबेडकर निश्चय ही एक खास सामुदायिक कैंप के प्रवक्ता थे। लेकिन वे अपनी चिंता एक समुदाय तक सीमित नहीं रखते। 9 दिसंबर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में भाषण दिया, ‘आज हम राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक नजरिए से विभाजित हैं, इसका मुझे अहसास है। एक-दूसरे के खिलाफ लड़नेवाली छावनियों के समूह हैं हम। बल्कि मैं तो यह भी मानता हूँ  कि मैं ऐसी ही एक छावनी का नेता हूँ। महोदय, यह सब भले सही हो, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि समय और स्थितियों को अगर अनुकूल बनाया जाए तो कोई भी शक्ति इस देश को एक होने से रोक नहीं सकती। विभिन्न जातियां और संप्रदाय होने के बावजूद हमें एक होने से कोई रोक नहीं सकता।’ (वही, खंड-40)। उनकी ऐसी बातों को उड़ा देना संभव नहीं है। बल्कि इस पर सोचा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और धार्मिक कट्टरवादियों की चुनौतियों को देखते हुए सचमुच फिर एक वैसा ही वक्त आया है या नहीं।
देखा जा सकता है कि अंग्रेजों ने राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव में अंबेडकर को धोखा दिया और जिस राष्ट्रीय कांग्रेस का कटु तरीके से अंबेडकर ने लगातार विरोध किया, उसने उनकी योग्यता को समझते हुए उन्हें सरकार में शामिल किया। इसके बाद, यह सभी जानते हैं कि अंबेडकर ने वह संविधान बनाया जो 21वीं सदी के दूसरे दशक से भारतीय जनता के लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे बड़ा हथियार है और वस्तुतः इस संघर्ष का रक्षक भी। यह हर फासीवाद, धर्मांधता और भेदभाव के गले में हड्डी की तरह है।
अंबेडकर ने कहा था, ‘संविधान पर अमल करना पूरी तरह संविधान पर ही निर्भर नहीं करता।’(वही, खंड-40, 1949)। उन्होंने आशंका व्यक्त की थी, ‘मेरे मन में खयाल आता है कि इस जनतांत्रिक संविधान का क्या होगा? इसे महफूज रखने के लिए मेरा यह देश समर्थ रहेगा या एकबार फिर वह अपनी आजादी गवां बैठेगा?’ (वही)। यह संविधान लागू होने के पहले का कथन है, जिसमें उनकी चिंता साफ झलकती है। उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीतिक दल स्वयं को देश से बड़ा मानने लगें तो आजादी खतरे में पड़ जाएगी। आजादी बार-बार खतरे में पड़ी भी। यह भी उल्लेखनीय है कि बंबई ही अंबेडकर के आंदोलन का केंद्र था। यह आधुनिक महानगर आगे चलकर अंध-राष्ट्रवाद और धार्मिक पुनरुत्थान का भी एक बड़ा केंद्र बन गया।

हमारा देश कहां है?

यह एक वास्तविकता है कि देश में आज जातिवाद से काफी लोग मुक्त हैं, तथाकथित ऊँची जातियों, पिछड़ी-निम्न सभी जातियों में। कुछ के भीतर चोर दरवाजा हो सकता है, लेकिन बड़ी संख्या में नौजवानों के अलावा बुजुर्गों में भी जातिवाद के अब अनगिनत सच्चे विरोधी हैं। लड़कियों ने जाति तोड़कर विवाह किए हैं। उनकी निगाह में कोई ऊँच-नीच नहीं है। साफ हो चुका है कि दहेज के राक्षस की जान जातिवाद के मटकों में है। इन मटकों को नौजवानों ने तोड़ना शुरू कर दिया है!
आज जो किसी के अंध समर्थक नहीं हैं, उनकी खैर नहीं है। आज जो उदारवादी हैं, जाति-आश्रय नहीं चुनते और चापलूसी नहीं करते उन्हें इन सबका खामियाजा भुगतना पड़ता है, पर ऐसे व्यक्तियों में अटूट साहस होता है। आज बहुतों का जातिवाद-विरोध सहभोजन तक सीमित न होकर सामाजिक अंतरंगता और सम्मिश्रण का मामला है।

यह भी एक यथार्थ है कि जाति चीता की तरह पीछे से हमला करती है। ऊंची जातियों के क्षमतावान लोगों के बीच एक मौन गठबंधन रहता है। दुर्भाग्यजनक है कि शिक्षा, आधुनिकीकरण और प्रगतिशील आंदोलनों के बावजूद भारत में जातिवाद पहले से बड़े शातिर रूप में मौजूद है और फिलहाल धर्म उसकी इम्युनिटी बढ़ा रहा है।

अंबेडकर का जीवन और संघर्ष भारत में 1980 के बाद नए सिरे से दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष, विमर्श और मुक्ति की प्रेरणा बना। यह ऊंची जातियों के लिए भी प्रेरणा रहा है। यह आवाज की ताकत है कि वे राजनीतिक आत्मसातीकरण के शिकार हो रहे हैं। यह भी देखने की जरूरत है कि उनके विचारों में ‘पृथकता’ और ‘सहयोग’ का द्वैध रहा है, चाहे वह उपनिवेशवाद के संदर्भ में हो, संविधान निर्माण के संदर्भ में हो या राष्ट्रीय भावना के संदर्भ में। यह तथ्य भी सामने है कि नई स्थितियों में पृथकता की पुरानी लक्ष्मण रेखाओं की तुलना में नई लक्ष्मण रेखाएं ज्यादा गहरी हुई हैं। आज की समस्याएं निशाने को व्यापक बनाने की मांग करती हैं, क्योंकि पुराने निशाने अपना स्थान बदल चुके हैं और पुराने हथियार भोथड़े हो चुके हैं!
1990 के बाद दलितों की सामाजिक स्थिति कुछ उन्नत हुई हो, संपन्नता में कुछ फर्क आया हो और वे मध्यवर्ग में पहले से ज्यादा शामिल हुए हों, लेकिन  दलितों पर अत्याचार और उनकी उपेक्षा के कई नए रूप भी सामने हैं। किसी दलित लड़के का ऊँची जाति की लड़की से विवाह आज के जमाने में भी उत्तेजना पैदा करता है। कहा जा सकता है, दलित अपने क्रूर अतीत और विडंबनापूर्ण वर्तमान के बीच बहुत संकटपूर्ण दशाओं से गुजर रहे हैं। यह भी अब काफी साफ है कि वैश्वीकरण के जमाने में अकेले में किसी की मुक्ति संभव नहीं है!
देखा जा सकता है कि देशभक्ति के दौर में ही ‘भारतीय राष्ट्र’ सबसे ज्यादा खतरे में है। निर्बुद्धिपरक विचारों और छवियों ने हमारे राष्ट्र पर, राष्ट्रीय भावना पर कब्जा कर लिया है।  एक बड़ी सचाई यह है कि ‘राष्ट्र’ से ज्यादा ताकत ‘कार्पोरेट जगत’ के पास है। ऐसे कठिन दौर में चुनौती ‘राष्ट्र’ को पृथकतावाद के बल पर तोड़ने की नहीं, उसे भारतीय महाजाति के सामाजिक और संवैधानिक सपनों के साथ वापस पाने की है। इसलिए सिर्फ दलित ही नहीं हर सच्चे भारतवासी की जुबान पर अंबेडकर का सवाल नए संदर्भ में मौजूद है-‘मेरा देश कहां है?’
सभार... वागर्थ
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