सोमवार, 13 दिसंबर 2021

वन्दना वाजपेयी की कहानी

                 तारीफ



मटर-पनीर , मलाई कोफ्ता, बथुए का रायता , इमली की चटनी ,मेवों से तर-बतर गाज़र का हलवा  और रुमाली रोटी, डाइनिंग टेबल पर सुन्दर डोंगों में ये सारा कुछ सजा कर ज्योति अपने पति राहुल का इंतजार करने लगी | माहौल को थोडा रोमांटिक करने के लिए उसने बगीचे से दो गुलाब के फूल तोड़ कर एक काँच की प्लेट में थोड़ा पानी भर कर उनकी पंखुरियां बखेर दी | भीनी –भीनी खुशबु से पूरा कमरा महक उठा |

  इस उत्साह  की खास वजह ये थी कि आज ज्योति ने पहली बार  राहुल के लिए खाना बनाया था | विवाह के बाद ससुराल में यूँ तो सासू माँ ने एक कड़ाही में पांच गुलगुले चुआ कर रसोई छूने का शगुन करवा लिया था , पर पूरा खाना बनाने को उन्होंने ये कहकर मना कर दिया था कि अभी नयी आई हो , दो चार दिन आराम कर लो , चकला-बेलन तो एक बार पकड़ा तो मरते दम तक औरत के हाथ से छूटता नहीं है |

 

अब सासू माँ को ये तो पता नहीं था कि खाना बनाना ज्योति का शौक था | बचपन से ही जब माँ रसोई में खाना बना रही होतीं वो भी पास बैठ कर बनाने की जिद करती | माँ ने बच्चों का खेल समझ कर उसको छोटा सा चकला बेलन ला कर दे दिया था | यहीं से शुरू हुआ खाना बनाने के प्रति उसका अगाध प्रेम , जो उम्र के साथ बढ़ता ही गया | पढाई लिखाई में वो सामान्य थी पर रसोई शास्त्र में हमेशा अव्वल नंबर लाती |

 रसोई उसकी संगीतशाला  थी , चकला, बेलन , कड़ाही और चमचा , उसके वाध्ययंत्र , जिनसे वो तरह –तरह के भोजन रागों का आविष्कार करती थी | तभी तो खाने वाले भी अंगुलियाँ चाट-चाट कर खाते थे | पिताजी तो तारीफ़ करते नहीं थकते थे, मेरी बेटी का बनाया जाफरानी पुलाव कभी खाया है? , कभी आइयेगा हमारे घर कलाकंद खाने पूरे भारत में ऐसा कलाकंद कहीं नहीं मिलेगा, अरे नहीं भाई साहब , बाज़ार के नहीं हैं ये मोतीचूर के लड्डू तो मेरी बेटी ने घर में बनाये हैं , नाम जरूर ज्योति है पर है अन्नपूर्णा |  

किशोरावस्था से उसके यहाँ सहेलियों का जमघट लगा रहता | सबकी माँ की हिदायत जो होती ,  जाओ ज्योति से दो चार ढंग की चीजें सीख कर आओ , कितना भी पढ़ लिख जाओ, रसोई तो औरत को ही संभालनी पड़ती है | और सहेलियाँ उसे घेर लेतीं | ज्योति जरा रुमाली रोटी बनाने की विधि बताना , अच्छा ज्योति बताना खीर में शक्कर का अंदाज कैसे करते हैं, खिचड़ी में पानी कितना डालें?  वो किसी शिक्षक की भांति सबके सवालों को सुलझाती रहती |

जब विवाह की बात चली तब अनुप्रिया ने उसका हाथ पकड़  कर कहा , “ बड़े नसीब वाले हैं  राहुल जीजाजी जो उन्हें इन हाथों से बना खाना खाने को मिलेगा | “देखना अंगुलियाँ चाट –चाट कर तारीफ़ करेंगे , इतना हुनर है हमारी ज्योति के पास” , राधिका ने समर्थन किया | मृणालिनी भी कहाँ चुप बैठने  वाली थी झट से बोल पड़ी,  “देखना इनका लव सॉंग होगा , ‘तुम खिलाती रहो , मैं खाता रहूँ , इतना बढ़िया खाने से और प्यार आता है “ उसकी इस बात पर सब खिलखिला पड़ीं |

 

 ज्योति लजाते हुए अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगती  , जब वो अपने राहुल के लिए खाना बनाएगी और वो अपनी बाहों में भींच कर कहेगा , मेरी ज्योति से अच्छा खाना कोई नहीं बना सकता, सारी  जिन्दगी खाता रहूँगा तब भी कभी मन तृप्त नहीं होगा | मैं बहुत खुशनसीब हूँ ज्योति जो मुझे तुम्हारे जैसे पत्नी मिली |” वो उसके होंठों पर हाथ रखकर कहेगी , “ इतनी तारीफ़ ना करिए , आप जैसे ज्ञानी पति  को अपने हाथों से बना कर खिलाना मेरा भी तो सौभाग्य हैं |” राहुल उसका हाथ हटा कर उसे अपने सीने से लगा लेगा और जिन्दगी रसगुल्लों की चाशनी की तरह मिठास से तर –बतर हो जायेगी |

 

वो अपने ख्यालों में खोयी ही थी कि राहुल आ गया | वो जल्दी –जल्दी डोंगों से खाना उसकी प्लेट में परोसने लगी | राहुल ने उसे रोकते हुए कहा , “ मैं कर लूँगा इतना , तुम अपनी प्लेट भी लगा लो |” वो अपनी प्लेट लगाने लगी | राहुल ने प्लेट लगाने के बाद अखबार खोल लिया | सुबह घंटा भर पढ़ा हुआ अखबार वो दोबारा पढने लगा | ज्योति उसके चेहरे के बनते –बिगड़ते भावों से खाने के पसंद –नापसंद का अनुमान लगाने लगी | तभी राहुल की उडती से नज़र ज्योति पर पड़ी , वो उसे ही एकटक देख रही थीं | “ क्या हुआ ?” राहुल ने पूछा | कु ... कु... कुछ नहीं , खाना कैसा लगा ?” उसने सकपकाते हुए पूंछा | “ हूँ , ठीक है |” राहुल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया |

 

थोड़ी देर अखबार में सर घुसाए रखने के बाद उसने फिर सर उठाया | ज्योति को आशा जगी | राहुल ने कहना शुरू किया , “ ये शेयर मार्किट इस समय बहुत गड़बड़ कर रही है | मेरे ख्याल से इस समय बुल की जगह बीयर मार्केट   में पैसा लगाना सेफ रहेगा | “ उसके बाद उसने फिर से अखबार में डुबकी  लगा ली | उसे शेयर मार्किट तो समझ में नहीं आती थीं पर इतना तो समझ ही गयी कि उसके मलाई-कोफ्ते , मटर पनीर .... राहुल ने नहीं , बुल और बीयर ने खा लिए | मन में निराशा तो थी पर उसने अपनी उम्मीद की थाली  शाम के खाने की तरफ सरका दी |

 

शाम से सुबह हुई , सुबह से फिर शाम की यात्रा करते –करते चार  महीने बीत गए पर ज्योति के हिस्से में तारीफ़ नहीं आई | राहुल खाने की मेज पर कभी देश की उठती गिरती समस्यों में उलझा होता, तो केक कितनी मुलायम  बनी है इस बात का ध्यान कहाँ जाता   , कभी कोई अंतर्राष्ट्रीय घटना के आगे इडली-सांभर  की बात करना भी अल्पज्ञता की निशानी होती , कभी ऑफिस की समस्याओं में जलेबी उलझ कर रह जाती तो कभी घर परिवार की समस्याएं जाफरानी पुलाव को चट कर जातीं | कारण कुछ भी हो उसको इतने महीने बाद भी तारीफ नहीं मिली तो नहीं मिली |

धीरे –धीरे उसका सब्र जवाब देने लगा | सलीके से रसमलाई की गार्निश करती अँगुलियाँ शब्दों का सलीका भूल गयीं | “ कभी तो मुंह से खाने की तारीफ में कुछ बोल दिया करो, क्या सर  अखबार में घुसाए –घुसाए खाते रहते हो , ये जो मुँह  में बिना ठीक से देखे  ठूस रहे हो ना उसको बनाने में भी मेहनत  लगती है |” वो गुस्से में फूट पड़ी |

“ तो क्या , तुम्हारी प्रशंसा के लिए गीत –काव्य लिखूं , खाना ही तो बनाया है , ऐसा कौन सा मंगल गृह का नया रास्ता खोज लिया है , दुनिया भर की औरतें बनाती हैं, इसमें नया क्या है ? जरा सा कुछ हल्दी मसाले इधर –उधर कर दिए और लगीं तारीफ की उम्मीद करने | देखो मैं तुम्हारा पिता की तरह भोजन भट्ट नहीं हूँ ,  जो हर रोज अँगुलियाँ चाट –चाट कर तुम्हारे खाने की तारीफ़ करता फिरूँ |  बहुत सारे काम हैं मेरे पास करने को, बैठे –बैठे तारीफ़ करने के अलावा  |”  धडाम से कुर्सी फेंकते  हुए राहुल ने कहा और खाना अधूरा छोड़ कर ही चला गया | शायद पुरुष का अहंकार ज्योति का कहने का तरीका बर्दाश्त नहीं कर पाया था |

 

उसकी आँखें पछतावे से भीग गयीं | बेकार ही कहा , खाना भी नहीं खाया | कम से कम पूरा खा तो लेते थे | सारा दिन ऑफिस में मेहनत करते हैं , मैं भी किस बात पर उलझ पड़ी | तुरंत राहुल को मनाने चली गयी |  “ सॉरी राहुल , मुझे ऐसे नहीं कहना चाहिए था , तुम प्लीज खाना खा लो |” राहुल अपनी फ़ाइल में सर गड़ाए बैठा रहा | दो –दिन बात भी नहीं की | धीरे –धीरे सीज फायर हो गया | राहुल सामान्य तौर से खाना खाने लगा और वो सामान्य तौर से तारीफ की उम्मीद करने लगी |

 

एक दिन राहुल अपने दोस्त के घर  उसको लेकर गया | वहां  खाना खाते समय ना अखबार था ना  शेयर मार्किट  ना राष्ट्रीय , अंतर्राष्ट्रीय समस्याएं , राहुल खाना खाते हुए बार –बार तारीफ कर रहा था | भाभी जी , आपके हाथों का जवाब नहीं , ये मटर पनीर  कितना स्वादिष्ट बना है | वाह –वाह जाफरानी पुलाव के तो कहने ही क्या | वो विस्फारित नेत्रों से राहुल को देखने  लगी | उसने नोटिस किया कि जब भी अपने दोस्तों के यहां जाता है, स्वाद को गैरमामूली चीज समझने वाला राहुल  उनकी पत्नियों के बनाये खाने की तारीफ़ करता है | ये वजह एक बार फिर उसको नाराज करने के लिए काफी थी |

 

घर आ कर साड़ी बदलते हुए उसने राहुल को टोंका , “ क्या बात है राहुल , अपने दोस्तों की पत्नियों के खाने की तो इतनी तारीफ़ करते हो , कभी मेरी भी कर दिया करों |

“ हाँ , तो ?, खाना पसंद आया तो कर दी , कभी तुम भी अच्छा बनाओगी  तो तुम्हारी भी कर दूँगा | अभी तो तुम्हारी फिगर की तारीफ करने का दिल कर रहा है “,कहते हुए राहुल ने उसे अपनी और खींच लिया | सुबह भारी  मन से उठने के बाद वो सोचने लगी  कि शरीर की संतुष्टि हमेशा मन की संतुष्टि नहीं होती | अपने स्नेह और हुनर के पारिश्रमिक के रूप में तारीफ के दो बोल ही चाहती थी वो | उसकी ये छोटी से इच्छा भी राहुल पूरी नहीं कर सकता | सोचते –सोचते उसे तेज उबकाई आने लगी |







 

अब उनकी जिंदगी में नन्हा गौरव भी शामिल हो गया था | मातृत्व के शुरू के वर्षों में ज्योति का राहुल की तारीफ़ के प्रति इतना ध्यान ही नहीं गया | उन दोनों के बीच बातें भी मुख्यत : गौरव की ही होती | अरे देखो , ‘पापा कहा , अरे ये तो चलने लगा , कौन से स्कूल में एडमिशन कराना है | ऐसा नहीं था कि जिन्दगी थम गयी थी , अभी भी दोस्तों के यहाँ जाना –खाना पीना यूँ ही चल रहा था पर जिन्दगी की प्राथमिकता ‘गौरव के इर्द –गिर्द ही घूमती | सेरेलेक और बेबी फ़ूड की बातों में अपने व् राहुल के लिए क्या पका रही है इसका ख्याल भी कम ही  रहता |

 

इसी बीच अनुप्रिया का ट्रांसफर उसी शहर में हो गया | उसने राहुल और ज्योति को खाने पर बुलाया |  उसने सरसों का साग और मक्के की रोटी, हरी धनिया की चटनी , दाल मखनी और साथ में थोडा सा नैनू (ताज़ा निकाला हुआ मक्खन) परोसा | जाड़े के दिन थे  गर्म –गर्म खाने का स्वाद कुछ और ही बढ़ गया था | राहुल ने खाते –खाते कहा , अनु , आपके हाथों का जवाब नहीं क्या खाना बनती हैं आप , बड़े भाग्यशाली हैं आप के पति जो आप जैसे पत्नी मिली है | कौर मुँह में ले जाते हुए ज्योति के हाथ जैसे रुक गए |

तभी अनु बोल पड़ी , “ जीजाजी आप तो झूठी तारीफ़ रहने ही दीजिये , गुरु तो आपके घर की रसोई में बैठा हैं , ये सब बनाना मैंने ज्योति से ही तो सीखा है |”

“गुरु गुड ही रह गया और चेला चीनी हो गया , ये सारे हुनर तो बेगम साहिबा मायके में ही छोड़ आयीं “ राहुल ने हँसते हुए कहा और सब उसकी बात पर हँस पड़े |

उसकी वर्षों दबी इच्छा कुरिद गयीं , आँखें डबडबा  गयीं , वो खाना छोड़ कर अंदर दूसरे कमरे  में चली गयी | अनु बात को भांप कर उसके पीछे –पीछे आई और उसके पास बैठ कर बड़े प्यार से बोली , “ ज्योति तू  भी ना ,किस बात पर दुखी होने बैठ  गयी ,  दुनिया के सारे मर्द ऐसे ही होते हैं , उन्हें अपनी बीबी में कोई हुनर नज़र नहीं आता , और दूसरों की बीबी में कोई दोष नहीं , ऐसी बातों को दिल पर नहीं लेते | फिर जीजाजी ने तो मजाक में कहा था |

“मजाक” ज्योति ने अनु का हाथ हटाते हुए कहा , “ शायद मजाक ही होगा, पर मेरी तो हसरत रही ही गयीं अपने बनाये खाने की तारीफ़ सुनने की |”

“ हाँ तुझे लग सकता है तू इतना स्वादिष्ट खाना जो बनाती आई है , मैं तो रोज बनाती भी नहीं पर जिस दिन बनाती हूँ , मन तो तारीफ़ के लिए मचलता है , पर मेरे पति को भी देखो , जल्दी से आवाज़ फूटेगी ही नहीं तारीफ की , जैसे भगवान् ने स्वादेन्द्रियाँ बनायीं ही ना हो , अगर कभी कुछ कहेंगे भी तो नमक कम है , आज हल्दी कुछ ज्यादा हो गयी, इसलिए तो  मैं रोज बनाने का सिरदर्द लेती ही नहीं , पार्टी वगैरह में ही रसोई में हाथ लगाती हूँ , अपना मियाँ नहीं तो दूसरों के मियाँ तो तारीफ़ करते हैं ना” कहते हुए अनुप्रिया ने शरात में बायीं आंख दबा दी | उसको भी हंसी आ गयी |   

 

लौटते समय कार में सन्नाटा पसरा रहा ,वो सोचती रही अनुप्रिया कह सकती है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता , ऑफिसर है ,महीने के आखिर में नोटों की गड्डी  लाती है, उसके पति भी उसके ऑफिस और घर संचालन की कितनी तारीफ़ कर रहे थे, पर उसका तो एक यही हुनर है , जिसका गर्व वो अपने पति की आंखो में देखना चाहती है ....पर वो बस खाना ही तो बनाती हो , कहकर उसका स्वाभिमान ही कुचल देते हैं | उस रात   पति –पत्नी अलग –अलग कमरे में सोये | इस बार वो भी हथियार डालने के मूड में नहीं थी | दो दिन बाद राहुल ही आया उसे मनाने , “ क्या  यार जरा सी बात पर मुँह फुलाए बैठी हो , देखो मुझे खाने का ज्यादा शौक  नहीं है , तुम भी अच्छा खाना बनाती  हो , पर अपनी ही बीबी की रोज –रोज क्या तारीफ करूँ | वैसे अनु ने खाना वाकई अच्छा बनाया था | मतलब मुझे अच्छा लगा , कह दिया | तुम चाहो तो उससे सीख लो |” ज्योति कुछ कहना चाहती थी कि गौरव आ गया| मेरी मम्मी दुनिया की बेस्ट कुक हैं कहते हुए वो उससे लिपट गया |  ज्योति अपने आंसू ना रोक सकी | उम्मीदों  की सुई गौरव की और घूम गयी |

 

वो दिन उसकी जिंदगी के थोड़े अच्छे दिन थे | जो भी बनाती गौरव व् उसके दोस्त प्रशंसा कर देते | वो दुगने जोश से कुछ नया , बेहतर बनाने की कोशिश करती | हमेशा अखबार में सर घुसा कर खाने वाला राहुल भी अब बेटे की देखा देखी खाने पर टिप्पडी करने लगा , पर ज्यादातर टिप्पड़ियाँ नकारात्मक ही होतीं |

“मेरी माँ , साग को सरसों के तेल में बनाती थीं | ये आँवले रात में में पानी में भिगो दो तभी मुरब्बा अच्छा बनेगा , तुम हल्दी –नमक  तेजस्वनी की तरह थोडा कम डाला करो |  मुलायम सा नैनू कैसे बनाते हैं जरा अनु से पूँछ लो ना प्लीज |कभी –कभी उसका दिल दुखता पर गौरव की तारीफ़ उस पर लेप लगा देती | मन में सोचती , शायद अनुप्रिया सही ही कहती है , पुरुष दुनिया भर की औरतों क तारीफ़ करेगा पर अपनी पत्नी में उसे नुक्स ही नज़र आयेंगे | चलो बेटे के बहाने ही सही उसकी प्रयोगशाला चल तो रही है , वाद्य यंत्र बज तो रहे हैं |

 

किशोरावस्था में कदम रखते ही गौरव ने भी रंग बदलना शुरू कर दिया | अब उसे माँ के हाथ का खाना नहीं बाज़ार का खाना पसंद आने लगा | स्थिति ये हो गयी  की आज क्या खाओगे बेटा ? , पूंछने पर भी वो नाराज़ हो जाता , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है ? जीवन में और कोई काम नहीं है क्या , जो हर समय खाने की बात करती रहती हो ? वो जो भी बनाती कभी कॉपी , कभी लैपटॉप , कभी मोबाइल करते हुए गटक लेता | कभी –कभी उसकी प्रश्न वाचक निगाहों को देखकर झुन्झुला जाता , “ मम्मी आप भी , खा तो लिया ना बस इतना काफी नहीं , आपको इतनी तारीफ की जरूरत क्यों महसूस होती है |” वो महसूस कर रही थी कि गौरव तेजी से अपने पिता में बदलता जा रहा है , जिनके मन में औरतों की मेहनत और घरेलु काम के प्रति कोई सम्मान नहीं  होता | वो ऑफिस या स्कूल –कॉलेज में किये गए अपने काम को तो काम मानते हैं , उसकी तारीफ़ भी चाहते हैं , पर उनकी निगाह में घरेलू औरतें  “ दिन भर करना ही क्या होता है “ के दायरे में आती हैं | माँ की ममता पर पिता का खून भारी पड़ने लगा |

 

बारहवीं के बाद गौरव इंजीनयरिंग करने हॉस्टल चला गया | ज्योति को अब खाना बनाने से अरुचि होने लगी | गठिया के कारण शरीर भी साथ नहीं देता , उच्च रक्त चाप और अन्जाइना भी शरीर में घर बना चुके थे | घी –तेल , मिर्च –मसाला , शक्कर , स्वाद के ज्यादातर नुमाइनदे  स्वास्थ्य ने छीन लिए  थे | सादा और उबला ही बनना था | अब तो बस खाना बनाने के लिए बनाती , मन भी नहीं लगता , बस पेट भरना है यही ख्याल रहता |धीरे –धीरे रसोई में घुसने की भी इच्छा साथ छोड़ने लगी |  कभी –कभी कोई पुरानी  सहेली याद दिला देती तो आश्चर्य होता क्या वही थी वो ज्योति जो इतना अच्छा खाना बनाती थी |

 

जिन्दगी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी | समय ने उसकी थाली से एक स्वाद और छीन लिया | दो दिन के बुखार में राहुल उससे हमेशा के लिए दूर चले गए | जब तक डेंगू पॉजिटिव की रिपोर्ट आती मरीज ही जा चुका  था | उस समय गौरव की पोस्टिंग मुंबई में थी जहाँ वह अपनी पत्नी परिधि और दो जुडवाँ बच्चों के साथ रह रहा था | पिता के ना रहने पर कुछ दिन के लिए आया था , फिर वापस चला गया | वो अकेली घर की दीवारों पर सर मारती | एक टाइम खाना बना लेती वही दोनों टाइम खाती | कई बार तो फ्रिज में रख देती और  गर्म कर –कर के दो तीन दिन में खा कर खत्म कर पाती | टी . वी पर आस्था चैनल देखकर मन बंटाती  और शाम को अपनी लाठी के सहारे पास के मंदिर में चली जाती | जीवन और थाली दोनों ही बेस्वाद हो चले थे |

 

धीरे –धीरे शरीर अशक्त हो चला था | अब तो चला –फिर भी ना जाता , काम किये ना होता |  ७२ की उम्र से कहीं ज्यादा रोगों ने उसे तोड़ दिया था | अकेली बीमार अशक्त माँ की आंखे  गौरव और उसके बच्चों के आने  की बात जोहती रहतीं| बच्चे आ जाते तो कुछ रौनक हो जाती | खाना बनाने के लिए उन दिनों कांता को बुलवा लेती | कांता दूसरों के घर में खाना बनाया करती थीं | कितनी बार कह चुकी थी , अम्माँ हमें हमेशा के लिए लगवा लो , गर्म –गर्म रोटियाँ देंगे , पर वो ही ना कर देती |  “अरे अकेले प्राणी को खाना ही कितना है, बच्चे आते हैं तो जी करता है कुछ खा लें, उबला सादा खाना पसंद ही नहीं करते | अब उम्र हो गयी है , रसोई में ज्यादा देर खड़े होने का ही मन नहीं करता , घबराहट होने लगती है , इसलिए तुम्ह्को बुला लेती हूँ |” कांता जानती थी कि बुढ़िया अपने लिए ज्यादा कुछ बनाती नहीं है , तो उसे क्या लगवायेगी , फिर भी चुहल में हर बार आग्रह करती और हर बार वही उत्तर सुन मुस्कुरा देती |    उधर परिधि की नौकरी लग गयी | उस साल गर्मी की छुट्टियों में गौरव अकेले ही आया | आते ही ऐलान कर दिया , “मम्मी , अब तुम अकेली नहीं रहोगी , हमारे साथ चलो |”

“क्या बहु भी ऐसा ही चाहती है |” उसने बेटे से अपनी शंका का समाधान चाहा |

“ हां माँ , उसी ने ही तो मुझे भेजा है , तुम्हे लाने के लिए , कहा है अब मम्मी अकेले नहीं रहेंगी , अब उनकी बैठ कर खाने की उम्र है |”  गौरव ने कहा तो ख़ुशी से उसकी रुलाई फूट गयी | कहीं  तो उसकी कदर है सोच कर वो अपना सामन बांधने  लगी |

 

मुंबई में हफ्ता – पंद्रह दिन बहुत अच्छे बीते | बहु पूछ –पूछ कर खाना बनाती | बच्चे दादी –दादी कर के पास घूमते | यहां  बुढ़ापा ठीक से कटेगा ये सोच कर वो आश्वस्त हो चली थीं |

 हर रात की तरह उस रात भी घुटनों की अलसी के तेल से मालिश कर वो सो गयी , इस बात से बेखबर की बगल के कमरे में बहु –बेटा उसी के कारण झगड़ रहे हैं |  

परिधि – “देखो तुम्हारी माँ को रोज –रोज पका –पका कर मैं नहीं खिला सकती | बुढ़िया तो किचन में घुसती भी नहीं |”

गौरव – “ठीक से बात करो , माँ का गठिया का दर्द जोरो पर है , आजकल , ठीक से चला नहीं जा रहा |”

परिधि – लो जी , कर लो बात ,ठीक से क्यों बोलूं , मैंने तो इसी लिए बुलाया था कि खाना और बच्चे वो संभाल लेंगी तो मैं आराम से नौकरी कर पाऊँगी | मुंबई के खर्चे कितने हैं , खाना पकाने वाली भी कितनी महंगी  है , ऊपर से छुट्टियां भी बहुत करती हैं , दो का चार खर्च करती हैं , सामान मारती  हैं सो अलग  |

गौरव –“पर मैं तो तुम्हारे नाम से ही माँ को लाया था , अब तुम हीं ... अपनी मंशा पहले बताना चाहिए  थीं ना |” 

परिधि –“कितनी बार कहा था , मम्मी आ जायेंगी तो बच्चों और उनकी फरमाइशों को वही देखेंगी , मूल से सूद प्यारा जो होता है | सुनते कहाँ हो मेरी बात , पर देखो ये मुझसे नहीं होगा , दिन भर ऑफिस में काम करूँ और सुबह शाम रसोई में पूरी ड्यूटी  दूँ और बुढिया आराम से गठिया का बहाना बना कर पलंग तोड़े |मैंने तो बुलाया ही रसोई के काम में मदद के लिए था | सोच लो , नौकरी छोड़ दूंगी तो लोन की क़िस्त कैसे भरोगे ?”

गौरव – “लेकिन... लेकिन अब माँ को वापस कैसे भेजूँ ?”

परिधि – “देखिये मैं कुछ नहीं जानती | मैं एक दिन साफ़ –साफ़ कह दूंगी , यहां  रहना है तो खाना बनाना पड़ेगा , जब सारा दिन घर में ही रहती हो तो ऐसी आरामतलबी नहीं चलेगी |”

गौरव  – “रुको , रुको , मैं ही कोई तरकीब निकालता हूँ | “

परिधि – “ठीक है , पर जल्दी करना | “

                       गौरव चुपचाप उठ कर माँ के कमरे की तरफ गया  | इन बातों से बेखबर वो निश्चिन्त सो रही थी | उसे इत्मीनान हुआ की माँ ने उसके व् परिधि के बीच की कोई बात नहीं सुनी है | सारी  रात अपने बिस्तर पर लेते-लेते योजनायें बनता रहा | आँखों में नींद का नाम नहीं था |

दूसरे दिन सुबह गौरव जल्दी उठ कर माँ के कमरे में गया | वो घुटनों में अलसी के तेल की मालिश कर रही थी | गौरव ने माँ के हाथ से तेल की शीशी ले ली और घुटनों में लगाने लगा | ज्योति ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा , ‘ चल हट , तुझे ऑफिस को देर हो रही है |

गौरव ने मालिश जारी रखते हुए ,” माँ अपनी सेवा का हक़ तो ना छीनो मुझसे , सही ही कहा गया है , माँ के क़दमों में तो जन्नत होती है |”

ज्योति : “अरे , आज तो बड़ी –बड़ी बातें कर रहा है , किसने सिखाया तुझे ये सब ?”

गौरव : “ उम्र के साथ ये ज्ञान आ ही जाता है कि माता –पिता अनमोल होते हैं , फिर  परिधि भी आपकी बहुत तारीफ़ करती है |”

“अच्छा “अपनी आंखो में उठ आये बवंडर को पल्लू से पोछने लगी |

 

 “ हाँ माँ , एक बात कहने का दिल और कर रहा है ...... वर्षों हो गए तुम्हारे हाथों के आलू के पराठे नहीं खाए | कितने स्वादिष्ट बनाती  थी तुम, मेरे पूरे क्लास में हिट  थे , पराग तो अक्सर कहता , अपनी माँ से आलू के पराठे बनवा कर लाओ |” गौरव माँ की और स्नेह से देखता हुआ बोला |

 “ माँ , कभी तबियत ठीक महसूस हो तो फिर बनाना” थोडा रुक कर गौरव ने फिर कहा |

ज्योति ने हाथ झिटकते  हुए कहा , हट पगले , पहले क्यों नहीं बताया | अभी बना देती हूँ | कहते हुए अपने घुटनों के दर्द को भूल वो झटके से उठी , दर्द के जोर से एक हल्की चीख निकली , पर वो रुकी नहीं , उसके कदम लाठी लेकर रसोई की ओर बढ़ने लगे |

 

सुबह नाश्ते की टेबल पर पूरा परिवार यानि परिधि बच्चे और गौरव, अपने स्कूल और ऑफिस के लिए तैयार होकर  नाश्ता करने लगे |

माँ , तुम्हारे हाथों के आलू के पराठों का जवाब नहीं , गौरव ने  परिधि को देखकर आँख मारते हुए जोर से कहा |

“ हाँ माँ , मैं तो कभी भी आप के जैसा खाना नहीं बना सकती “ आँख मारते हुए परिधि ने भी जवाबी तान मिलाई |  

“अरे बेटा, उठना नहीं ,  ये वाला और खाना , ये और भी ज्यादा कुरकुरा है”, दर्द से बेजार टांगों की परवाह ना करते हुए माँ का ममत्व रसोई से उड़ता हुआ डाइनिंग टेबल पर छितर  गया |

अब वो रोज खाना बनाती है और सब जी भर –भर के उसकी  तारीफ़ करते हैं ।





परिचय


वंदना बाजपेयी 
शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय ) 
सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com
 दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर  एडिटर,त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका गाथान्तर  के कुछ अंकों में सह सम्पादन, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद अभी ऑनलाइन साहित्यिक वेब पत्रिका www.atootbandhann.com का संचालन 
कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओ, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग, समीक्षा  आदि प्रकाशित | कुछ कहानियों, कविताओं, समीक्षाओं  का नेपाली, पंजाबी, उर्दू और मराठी, अंग्रेजी  में अनुवाद ,महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी  हाउस में नाट्य मंचन | 
 प्रकाशित पुस्तकें
 
कहानी संग्रह –विसर्जन, वो फोन कॉल 
कविता संग्रह -मायके आई हुई बेटियाँ (शीघ्र प्रकाश्य)
साझा काव्य संग्रह .... गूँज , सारांश समय का ,अनवरत -१ , काव्य शाला 
साझा कहानी संग्रह ... सिर्फ तुम, मृग तृष्णा 
साझा इ  उपन्यास -देह की दहलीज पर (मातृभारती.कॉम ) 
वेब सीरीज -रेडी गेट सेट गो (प्रतिलिपि पर )
सम्पादित –दूसरी पारी( आत्मकथात्मक लेख संग्रह )
संपर्क – vandanabajpai5@gmail.com

रविवार, 5 दिसंबर 2021

विशेष

अंबेडकर की पुण्यतिथि पर विशेष

अंबेडकर को पढ़ते हुए
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शंभुनाथ

‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ अंबेडकर

1933 में ‘हंस’ के एक मुखपृष्ठ पर अंबेडकर की तस्वीर देकर प्रेमचंद ने  टिप्पणी की थी, ‘आपने अनेक कष्ट झेलकर तथा सतत प्रयत्नशील रहकर बाधाओं पर विजय प्राप्त की थी और अपनी विद्वता से यह प्रमाणित कर दिया कि तथाकथित अछूतों को भगवान ने किसी असामान्य तत्व से नहीं बनाया। आप विश्वविख्यात महापुरुषों में से एक हैं।’ यह राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समर्थक एक महान हिंदी कथाकार का अंबेडकर के प्रति सम्मान है। यह अंबेडकर के विचारों की व्यापक स्वीकृति का भी उदाहरण है। प्रेमचंद मानते थे कि राष्ट्रवाद की परियोजना सामाजिक क्रांति के बिना अधूरी है। उन्हें राष्ट्र और हाशिए के बीच संवाद जरूरी लगा था, खुद उनका लेखन यही था।
अंबेडकर (1891-1965) ने एक जगह अपने बारे में लिखा है, ‘मैं एक महाड़ महिला के पेट से पैदा हुआ हूँ। गरीबी के बारे में कहूं तो आज जो गरीबों में गरीब छात्र हैं, उनसे अलग स्थिति मेरी नहीं थी।… बंबई में डेवलपमेंट डिपार्टमेंट की एक चाल के दस बाय दस के कमरे में माता-पिता और भाई-बहनों के साथ रहकर एक पैसे के मिट्टी के तेल के दिये की रोशनी में मैंने पढ़ाई की है।’ (बाबासाहेब अंबेडकर का संपूर्ण वाङ्मय, खंड 39, 1938 का एक भाषण) उन्होंने शुरू में छोटी-मोटी नौकरियां कीं, अपमान सहे, फिर बड़ौदा नरेश के सहयोग से उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और इंग्लैंड गए। उन्होंने लौटकर फुले, अय्यनकलि, पेरियार रामास्वामी आदि के आंदोलनों की परंपरा में दलित आंदोलन की एक संगठित वैचारिक जमीन तैयार की।

जाति का विनाश

अंबेडकर के नेतृत्व में महाड़ आंदोलन (1927) ने महाराष्ट्र में पहली बार  दलितों को संगठित संघर्ष का रास्ता दिखाया था। उन्होंने चवदार तालाब से पानी लेकर विषमतापूर्ण जाति व्यवस्था को चुनौती दी थी। 20वीं सदी में शिक्षित दलित अब राष्ट्रवाद के प्रतीक्षालय में बैठे रहने और ‘साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई खत्म होने तक अपने दुखों को सीने से लगाए रखकर मुसीबतों को सहते रहने’ के लिए तैयार नहीं थे। अंबेडकर को शिक्षित होने के बावजूद अपने व्यक्तिगत जीवन में छुआछूत की कड़वी पीड़ा सहनी पड़ी थी।
वे सुधार को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कहते हैं, ‘सत्य यह है कि सामाजिक सुधार के बिना सच्ची राष्ट्रीयता का उदय संभव नहीं है।’ (जाति का विनाश)। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को श्रम व्यवस्था मानने से इनकार कर दिया। उनके संपूर्ण जीवन की केंद्रीय चिंता जाति का विनाश है। यह नवजागरणकालीन सामाजिक सुधार को सामाजिक क्रांति के स्तर पर ले जाना है। उन्होंने अपना मशहूर लेख ‘जाति का विनाश’ आर्य समाज से जुड़े ‘जाति पांति तोड़क मंडल’ के लाहौर अधिवेशन में पढ़ने के लिए लिखा था, लेकिन इसकी अंतर्वस्तु की विद्रोहात्मकता को देखकर मंडल ने अपना आमंत्रण वापस ले लिया था।

विडंबना का वर्तमान

देखा जा सकता है कि 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों से बी.आर.अंबेडकर की राजनीतिक स्वीकृति तेजी से बढ़ी है और सर्वव्यापी हुई है। संविधान बनने के समय अंबेडकर जब हिंदू कोड बिल का सुधार करके हिंदुओं के अंतरजातीय विवाह, स्त्रियों के पति से संबंधविच्छेद के समान अधिकार और संपत्ति में स्त्रियों के अधिकार को कानून बना रहे थे, धार्मिक कट्टरवादियों ने उस समय प्रचंड विरोध किया था। उनकी परंपरा में पले-बढ़े लोग आज अंबेडकर पर फूलमालाएं चढ़ा रहे हैं। अंबेडकर इसलिए भी कइयों को अचानक अनुकूल लगने लगे कि उन्होंने अपने सेकुलर रुझान के कारण समान नागरिक कानून का समर्थन किया था।
कहना मुश्किल है कि इधर अंबेडकर के सबके लिए श्रद्धेय होने को एक नई संभावना के रूप में देखा जाए या विडंबना के रूप में। अंबेडकर का सर्वस्वीकृत हो उठने का निश्चय ही यह अर्थ नहीं है कि अब जाति का विनाश या सामाजिक क्रांति नजदीक है, क्योंकि यह तो दरअसल अब पहले से ज्यादा कठिन है। यह भी चिंताजनक है कि अंबेडकर के विभिन्न वैचारिक पहलुओं को सामने लाने की उत्सुकता अब बहुत कम बची है। वे एक ‘चिह्न’ या पूजा की वस्तु बना दिए गए हैं।
अंबेडकर के व्यक्तित्व और सोच का निर्माण एक जटिल समय में हुआ था। वे दलित आंदोलन और जाति उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के एक प्रभावशाली प्रतीक हैं। इसलिए वैश्वीकरण और निजीकरण के दौर में उनके विचारों को ‘अस्मिता की राजनीति’ से एक अधिक बड़े रैशनल परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत महसूस हो सकती है, क्योंकि उदारीकरण के जमाने में ही मानवजाति अनुदारता के एक भीषण मोड़ पर खड़ी है।
अस्मिता की राजनीति की खूबी है कि यह एक स्थिर निशाना और स्थिर पहचान देती है, साथ ही पहचान का एक एलीट वृत्त बना लेती है। अस्मितावाद एक खास वर्चस्व को छोड़कर दूसरी समस्याओं की ओर देखने नहीं देता। यह किसी भी अभाव, वंचना और पीड़ा का वास्तविक समाधान नहीं है, यह आज से पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं हुआ था। इसने व्यक्तिगत रूप से कुछ को सीढ़ी जरूर दे दी, पर समाज ऊपर नहीं उठा। इसने सिर्फ आत्मतुष्ट मध्यवर्ग का दायरा थोड़ा बढ़ा दिया, ‘मैं सुखी तो जग सुखी!’
अंबेडकर का आंदोलन अस्मिता की राजनीति की जगह दलितों के अधिकारों का आंदोलन था। आज उसे कई बार ‘अस्मिता की राजनीति’ में सीमाबद्ध कर दिया जाता है और नहीं देखा जाता कि यदि कुछ गिने-चुने समर्थ व्यक्तियों को सीढ़ी मिली भी तो भूमंडलीकरण के युग में अधिकांश लोगों को सांप मिले हैं। इन सापों ने बहुत से लोगों को वस्तुतः नीचे सरका दिया है। साधारण मध्यवर्ग बुरे हाल में है। अस्मिता की राजनीति को सीढ़ी-सांप के खेल के संदर्भ में समझने की जरूरत है।

धर्म, नैतिकता और जातीयता के सवाल

अंबेडकर धर्म को भेदभाव, पाखंड तथा हिंसा से मुक्त एक उच्च जमीन पर देखते हैं। वे कहते हैं, ‘आजकल के युवाओं में धर्म के प्रति उदासीनता है।’ आगे यह भी कहते हैं, ‘धर्म अफीम है। लेकिन मुझमें जो भी अच्छी बातें हैं और मेरी शिक्षा का जनता के लिए जो उपयोग हुआ है, वह सब मेरे अंदर बसी धार्मिक भावना के कारण ही हुआ है। मैं धर्म चाहता हूँ, धर्म का ढोंग नहीं चाहता।’ (वही, खंड 39, 1938 का भाषण)। वे हिंदू धर्म को नरक इसलिए कहते थे कि यह ढोंग से भर गया था। यह इसका भी संकेत है, नवजागरण में धर्म की भूमिका अंबेडकर के समय तक बनी हुई थी, भले वे बौद्ध मन के व्यक्तित्व थे। उन्होंने विद्यार्थियों और युवाओं के चरित्र में पांच गुण देखने चाहे थे- विद्या, बुद्धि (अंधविश्वासों को समझनेवाली प्रज्ञा), करुणा, शील और मैत्री। वे बुद्ध, कबीर और फुले को अपना गुरु मानते थे। इसपर सोचने की जरूरत है कि आगे चलकर दलित आंदोलन ने उपर्युक्त जरूरी गुणों और उन महान व्यक्तियों के जीवन आदर्शों पर कितना जोर दिया।
अंबेडकर शिक्षा का महत्व बताते हुए साफ कर देते हैं, ‘शिक्षा से जातिवाद नष्ट हो जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।’ (वही, खंड-40, 1956 का भाषण)। वे कहते हैं, ‘‘शिक्षा से अधिक शील को महत्व दें। साथ ही, अपनी शिक्षा का प्रयोग दीन-दुखी जनता के उद्धार के लिए न करके यदि केवल ‘अपनी नौकरी भली-अपना परिवार भला’ की भावना के साथ करेंगे तो समाज को आपकी शिक्षा से लाभ ही क्या?’’ (वही, खंड-39, 1938)। जाहिर है, वे दलित आंदोलन में ज्योतिबा फुले के ‘सत्य मार्ग’ की जरूरत नए ढंग से बता रहे थे। उनका मानना था, ‘शील और सौजन्य के अभाव में शिक्षित व्यक्ति हिंस्र पशु से भी क्रूर और डरावना होता है।’ (वही)। निश्चय ही वे यह बात सिर्फ ब्राह्मणों के संदर्भ में नहीं कह रहे होंगे।

नवजागरण का एक लक्षण है ज्ञान को महत्व देना, यह बात अंबेडकर में है। वे कहते हैं, ‘उपाधियां ज्ञान नहीं होतीं। विश्वविद्यालय की उपाधियों और बुद्धिमत्ता का कोई आपसी ताल्लुक नहीं है।’ (वही)। उनके ज्ञान का अर्थ व्यापक है।

अंबेडकर नवजागरण काल के व्यक्तियों की तारीफ में एक भाषण में कहते हैं, ‘पहले हिंदुस्तान के राजनीतिक नेतृत्व की धुरी दादाभाई, रानाडे, तिलक, आगरकर, गोखले, फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे व्यक्तियों के हाथों में था। वे सब पुराने नेता अच्छे कपड़े पहनते थे और पढ़ाई के बाद ही बोला करते थे। आज यह रिवाज बदल चुका है।’ (वही, 1939) उपर्युक्त सूची में तिलक का नाम बहुतों को विस्मय में डाल सकता है। बल्कि अंबेडकर तिलक के संबंध में कहते हैं, ‘कारावास के असल दुख और क्लेश तो तिलक ने भोगे।… कारावास के उनके अनुभवों को देखकर आंखों से आंसुओं की जगह खून की बूंदें रिस सकती हैं।’ (वही)। महाराष्ट्र नवजागरण के व्यक्तित्वों के योगदान को समझने और मान्यता देने में अंबेडकर ने जरा भी बौद्धिक दकियानूसीपन का परिचय नहीं दिया और न ही आज के कई बुद्धिजीवियों की तरह उच्छेदवादी नजरिया अपनाया।
अंबेडकर का नवजागरण से संपर्क बुद्धिवाद की तरफ उनके झुकाव की वजह से स्पष्ट है, ‘हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन की बुनियाद बुद्धिवाद होनी चाहिए।’ (वही, 1944)। वे चाहते थे, लोग ‘बुद्धि की कसौटी पर खरी न उतरनेवाली बातों को न मानें।’ (वही)। मनुष्य का बौद्धिक विकास वस्तुतः अवधारणाओं के संकट से मुक्त करता है और अवधारणाओं में विकास लाता है।
गौर करने की बात है, अंबेडकर ने मद्रास प्रांत में दलितों की जस्टिस पार्टी की यह कहकर आलोचना की थी, ‘ नौकरी पर लगे अ-ब्राह्मण लोग समाज से अलिप्त रहकर ऐशोआराम का जीवन बिताने लगे। ब्राह्मणों को गालियां देनेवाले ब्राह्मणेतर लोग फिर ब्राह्मणों की तरह ही सेंट लगाने, पूजा करने, अच्छे कपड़े पहनने आदि ब्राह्मणों के आचार-विचार अपनाने लगे।… ब्राह्मणवाद उसी प्रकार जिंदा रहा।’ (वही, 1944)। कहना न होगा कि 21वीं सदी में सत्ता-संपन्न ब्राह्मणेतरों द्वारा यह घटना उत्तर प्रदेश में दुहराई गई। आज बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन  मामूली सत्ता मिलते ही छोटे-छोटे स्वार्थ में लिप्त हो जाना आम बात है। दरअसल धीरे-धीरे ‘सुधारों’ को पीछे छोड़कर ‘अधिकारों’ की बात ही बची रह गई।
दलित होने का अर्थ पहचान की एकरूपता नहीं है। दलित की एक स्थानीय राष्ट्रीय पहचान भी हो सकती है। वह अपनी भारतीय, ग्लोबल और नई पेशागत पहचान भी रख सकता है, यहां उसकी भूमिका विस्तृत हो जाती है। अंबेडकर अपनी मराठी जातीयता का उद्घोष करते हैं, ‘अपने महाराष्ट्रीय होने का मुझे बेहद गर्व है, यह बात मैं यहां विशेष जोर देकर बताना चाहता हूँ। महराष्ट्रीयों में कुछ ऐसे गुण हैं जो अन्य प्रांत के लोगों में आपको दिखाई न देंगे।’ (वही, 1938)। हिंदी क्षेत्र में इस तरह का जातीय बोध नहीं पनप सका।

साम्राज्यवाद के बारे में

अंबेडकर कहते थे, ‘साम्राज्यवाद हटे, यह मेरी इच्छा है।’ वे ‘जिम्मेदार स्वराज’ और ‘जिम्मेदार राजनीतिक सत्ता’ की धारणाओं के साथ यह सवाल उठाते हैं-‘अस्पृश्य बंधु, मजदूर और किसानों के बीच रिश्ते कैसे ठीक किए जा सकते हैं?’ (वही)। उनकी चिंता के केंद्र में अस्पृश्यों को शामिल करते हुए एक बड़ा मेहनतकश वर्ग है। निःसंदेह वे अस्पृश्यता से जन्मी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को लेकर सबसे अधिक मुखर थे। शूद्रों और अंत्यजों के भीतर भी अस्पृश्यता सहित जाति भेदभाव के विभिन्न रूप मौजूद थे। इस मामले को लेकर भी उनमें चिंता थी। उनके सामने ही महाड़ और चमार के भेद सामने आ गए थे। दरअसल उन्होंने धर्मांतरण का समर्थन इसलिए भी किया था कि ‘धर्म बदलेंगे तो कम से कम महाड़, मांग, चमार आदि नाम तो हमसे चिपकेगा नहीं!’ (वही, 1939)। वे सही कहते थे कि भारतीय समाज के अभिशाप- जाति के संपूर्ण विनाश की बुनियाद पर ही एक ‘जिम्मेदार स्वराज’ बन सकता है और लोकतंत्र आ सकता है।
अंबेडकर ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ न कभी आवाज उठाई और न वे कभी जेल गए। वे खुद बताते हैं कि किस तरह यह दलितों की राजनीतिक उन्नति के लिए उनकी एक रणनीति है, ‘कोई भले चाहे जितना बलवान क्यों न हो, दुश्मन पर चौतरफा हमला नहीं कर सकता। मैंने भी हमेशा एक-एक दुश्मन पर हमला कर उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश की है। लेकिन आज तक मैंने जिस (ब्रिटिश) सरकार के साथ पूरी ईमानदारी बरती, वही आज हमारे खिलाफ हो गई है! इस देश में अंग्रेजों का राज्य हम ले आए हैं, यह ऐतिहासिक सत्य है। अंग्रेजों के पक्ष में खून बहाकर हमने पेशवा युग को समाप्त किया।… निर्णायक लड़ाई में अंग्रेजों की जीत केवल महाड़ वीरों की वीरता के कारण हुई। कोरेगांव में खड़ा विजयस्तंभ इसकी गवाही देता है।’ (वही, 1941)। ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिर्फ अपने औपनिवेशिक हित को प्रधान मानता है, यह अंबेडकर को तब समझ में आया, जब उसके अत्याचार के दायरे में मुंबई के महाड़, मांग, बेठिया जाति के लोग प्रत्यक्ष रूप से आ गए। उन्होंने  घोषणा की, ‘आज तक मैं हिंदू धर्म और हिंदू समाज पर हमले करता आया हूँ, लेकिन अब… मैं उससे सौ गुना तेज हल्ला (ब्रिटिश) सरकार पर बोलूंगा।’ (वही, 1941)। स्पष्ट है कि वे आगे चलकर अंग्रेजों का साथ देने की घटना को महिमामंडित नहीं करते।
लेपेल ग्रिफिन (1838-1908) जैसे ब्रिटिश प्रशासक और कूटनीतिज्ञ की समझ यह थी कि भारत में राष्ट्रीय विद्रोह को फैलने से रोकने के लिए जाति प्रथा एक अच्छी चीज है, क्योंकि जाति प्रथा समाज को हमेशा विभाजित रखेगी और इसके आधार पर आंदोलनों को विभाजित करना आसान होगा।
अंबेडकर देश की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। वे विभिन्न आंदोलनों को जोड़ने के पक्ष में वक्तव्य देते हैं, ‘अपना देश आजाद रहा तभी हम भी आजाद रहेंगे, यह सही है। जाहिर है, देश की आजादी को संकट में डालनेवाली नीति हमें नहीं रखनी चाहिए।’ (वही, 1939)। हालांकि वे मुख्यतः इस तरह सोचते थे, ‘अपना राजनीतिक काम थोड़ी देर रोककर आप अगर अस्पृश्यता को नष्ट करेंगे, तभी साबित होगा कि आप ईमानदार हैं।’ अंबेडकर ने पूना पैक्ट के बाद एक बार बातचीत में गांधी से कहा था, ‘हमारी एक ही लड़ाई है आपसे। आप राष्ट्रीय कल्याण के लिए काम करते हैं, हमारे हितों के लिए नहीं। यदि आप अपना पूरा समय दलित वर्गों के लिए दें तो आप हमारे नायक होंगे।’ यह गांधी के वश की बात नहीं थी कि वे स्वाधीनता की लड़ाई और राष्ट्रीय एकता के प्रयत्न बंद कर दें। दरअसल जब तक देश में सामाजिक गैर-बराबरी या आधुनिकीकरण पूरी तरह न आ जाए, तब तक अंग्रेजी राज बना रहे, इस तर्क को अनगिनत कुर्बानियां दे चुकी देश की जनता मानने के लिए तैयार नहीं थी।  बल्कि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि उसका ब्रिटिश उपनिवेशवाद से असंतोष और संघर्ष लगातार तीव्र होता जा रहा था।

अंबेडकर की एक सीमा है कि वे सवर्ण समाज में गरीबी, वंचना और भेदभाव नहीं देख पाते थे, ‘आज स्पृश्य समाज अधिकारारूढ़ है। अतः स्पृश्य समाज की हालत संतोषजनक है। उनके जीवन में सबकुछ आसान है, (जबकि) आपकी राह में संकट ही संकट खड़े हैं। आपका मार्ग कांटों से भरा हुआ है।’ (वही, 1942) समाज में शोषण और दमन के लिए जाति प्रथा को एक बड़े कारक के रूप में देखना एक चीज है, और बाकी अंतर्विरोधों की उपेक्षा करके समाज को सिर्फ स्पर्श्य और अस्पर्श्य में बंटा देखना एक बिलकुल दूसरी बात है।

कहना न होगा कि सवर्ण समाज में भी ज्यादातर लोग गरीब, बेरोजगार और किसी न किसी तरह से उत्पीड़ित ही रहे हैं। आज भी कई भुखमरी की दशा तक पहुँच जाते हैं। कई किसानों ने आत्महत्या कर ली। इन सभी की जीवन दशा को सिर्फ इसलिए संतोषजनक नहीं कहा जा सकता कि वे स्पृश्य हैं। देर-सबेर समझने की जरूरत है कि इनके बीच भी सांस्कृतिक सुधार और आर्थिक विकास का पहुंचना जरूरी है। आमतौर पर 19वीं सदी से शुरू हुआ सांस्कृतिक सुधार कई कृत्रिम राजनीतिक विवादों की वजह से आधे रास्ते में ठहर गया था। यह 21वीं सदी में धार्मिक पुनरुत्थानवाद के उभरने और धीरे-धीरे लगभग सौ सालों में एक ठोस जमीन बना लेने की एक बड़ी वजह है।
जाति के विनाश के लिए धार्मिक कूपमंडूकता को मिटाना जरूरी है। इस पर सोचने की जरूरत है कि यह क्यों न हो सका? दरअसल इस देश के श्रमिक आंदोलनों पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी कि वे आर्थिक मुद्दों- अपने वेतन बढ़ाने और काम करने की दशाओं में सुधार के अलावा धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन को आगे बढ़ाएं, दलितों और स्त्रियों के मुद्दे पर विशेष ध्यान दें और नवजागरण के अधूरे कार्यों को पूरा करें। लेकिन जिस तरह 19 वीं सदी में ‘राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने सुधार आंदोलन के काम को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था और अपने को राजनीतिक सुधारवाद तक सीमित कर लिया था और 1947 के बाद तो वह सत्ता के नशे में इस काम से पूरी तरह विमुख हो गई, उसी तरह श्रमिक आंदोलन भी मुख्यतः ‘अर्थवाद’ में फँस गए।

ब्राह्मणवाद से लड़ने का अर्थ

अंबेडकर पूंजीवाद से लड़ने के अलावा ‘ब्राह्मणवाद’ से भी लड़ने की बात करते थे, क्योंकि उन्हें इस देश में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अभाव को मिटाए बिना आर्थिक मुक्ति संभव नहीं दिखती थी। इसके लिए लगातार संघर्ष चलना चाहिए था। लेकिन तथ्य यह है कि बड़े उद्देश्यों को लेकर शुरू हुए ऐसे  आंदोलन बार-बार तात्कालिकतावाद में फँसे। व्यक्तियों की निजी या सामुदायिक घनिष्ठताओं ने नाक से दूर की सचाइयों को समझने नहीं दिया। अंबेडकर के बाद जाति के विनाश का आंदोलन ‘जिम्मेदार स्वराज’ या सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्यों से हटकर तात्कालिक फायदे के कीचड़ में फँस गया। पिछड़ी और दलित जातियां एक मिलीजुली उदात्त भूमिका निभाने की जगह अंतर्शत्रुता से भर गईं।
अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद को स्पष्ट किया है, ‘दुश्मन मानकर ब्राह्मणवाद से टक्कर लेनी चाहिए, यह मेरा कहना है। और मैं चाहता हूँ कि कोई इसका गलत अर्थ न निकाले। ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब ब्राह्मण जाति से नहीं है। इस संदर्भ में मैं इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। ब्राह्मणवाद का मेरी नजर में मायने है- आजादी, समता और बंधुत्व का अभाव।’ (वही, 1938)। यह सही धारणा है  जो भुला दी गई। आज कुछ दलितों को ऊंचे पद या पुरस्कार दे दिए जाते हैं। यह भी देखना है कि क्यों यह प्रतीकात्मक प्रतिनिधिकता आंखों में धूल झोंकना नहीं है।
कहना न होगा कि वैश्वीकरण के दौर में आजादी, समता तथा बंधुत्व के लोकतांत्रिक तत्व तेजी से गायब हुए। अब मूल्यों, उसूलों और वस्तुपरक कसौटी को वे भी नहीं अपनाते जो इनकी हमेशा बात करते हैं। पक्षपात एक खुल्ला खेल फर्रुखावादी है! इसमें ऊंची जातियों के क्षमतावान लोग सबसे आगे हैं। इसलिए यदि ब्राह्मणवाद से संघर्ष का अर्थ भी सिकुड़ता गया और दलित आंदोलन संकुचित सत्ता संघर्ष में खोता गया तो इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। निश्चय ही तात्कालिक फायदे में लिप्तता एक सार्वभौम विपदा है।

राष्ट्र और हाशिए का संवाद

भारत में ‘राष्ट्र’और हाशिये के बीच तनाव स्वाभाविक है, लेकिन इससे राष्ट्र बेमतलब नहीं हो जाता और न सामंजस्यपरक मानवीय राष्ट्रीय भावना अप्रासंगिक हो जाती है। अंततः ‘राष्ट्र’ ही समाधानदाता है। उससे लड़ना भी होगा, प्रेम भी करना होगा। अंबेडकर की लड़ाइयों के दिनों में सभी देशप्रेमी उनके उग्र कथनों के बावजूद उनके महत्व को समझ रहे थे। विविधताओं और विचित्रताओं से भरा भारत अपने नए सफर के लिए मार्ग खोज रहा था। कहा जा सकता है कि वह ‘विद्रोहों और समझौतों’ से बना एक मिलाजुला मार्ग था, क्योंकि अंग्रेजों की व्यापक औपनिवेशिक लूट और अत्याचारों की वजह से यदि देश की आजादी भारत के बहुत से लोगों और सभी राष्ट्रीयताओं का मुख्य लक्ष्य बन चुकी हो तो उस जटिल माहौल में धार्मिक-सामाजिक सुधारों को न उग्र रूप देना संभव था और न पूरी तरह त्याग देना।
अंबेडकर और गांधी दोनों देशप्रेमी हैं, पर अंबेडकर का लक्ष्य गांधी के लक्ष्य से बिलकुल अलग है। अंबेडकर नई भारतीय विडंबनाओं की सही कल्पना कर रहे थे। वे देश की राजनीतिक आजादी के पहले अस्पृश्यों के राजनीतिक अधिकार और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी जल्दी तय कर लेना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर सामाजिक विभाजन का अपना विमर्श प्रस्तुत किया, ‘जिस प्रकार मुसलमान हिंदुओं से साफ तौर पर अलग दिखाई देते हैं, उसी प्रकार अस्पृश्य भी हिंदुओं से अलग हैं। भारतीय राष्ट्र-जीवन में हमें पृथक और विभक्त घटक के तौर पर जाना जाएगा। अस्पृश्य हिंदुओं का एक हिस्सा है, इस सोच का आपको पुरजोर विरोध करना होगा।… इस देश में कई पंथ हैं- (1) हिंदू, (2) मुसलमान, (3) ईसाई, (4) अस्पृश्य।’ (वही, खंड-39)। उन्होंने स्वाभाविक रूप से घोषित किया, ‘गांधी हमारे सबसे बड़े प्रतिपक्ष हैं।’ अंबेडकर स्पेस रखते हुए आगे स्पष्ट करते हैं कि वे ‘दुश्मन’ शब्द का प्रयोग करने से बचे हैं!
देखा जा सकता है, उपर्युक्त ‘स्पेस’ का महत्व है। अंबेडकर ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण मोड़ पर धर्मनिरपेक्ष लोककल्याणकारी भारतीय गणराज्य के लिए जो संविधान बनाया, वह 19वीं -20वीं सदी के लगभग डेढ़ सौ साल की भारतीय आशाओं, स्वप्नों और संघर्षों का प्रतिबिंब है, निश्चय ही सामाजिक विभाजन के अंंबेडकर के उपर्युक्त विचार का दर्पण नहीं। अंबेडकर द्वारा निर्मित उस संविधान की आलोचना उस समय उन सबने की थी जो वस्तुतः आज उसे बचाने के लिए सबसे ज्यादा आगे हैं!
अंबेडकर निश्चय ही एक खास सामुदायिक कैंप के प्रवक्ता थे। लेकिन वे अपनी चिंता एक समुदाय तक सीमित नहीं रखते। 9 दिसंबर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में भाषण दिया, ‘आज हम राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक नजरिए से विभाजित हैं, इसका मुझे अहसास है। एक-दूसरे के खिलाफ लड़नेवाली छावनियों के समूह हैं हम। बल्कि मैं तो यह भी मानता हूँ  कि मैं ऐसी ही एक छावनी का नेता हूँ। महोदय, यह सब भले सही हो, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि समय और स्थितियों को अगर अनुकूल बनाया जाए तो कोई भी शक्ति इस देश को एक होने से रोक नहीं सकती। विभिन्न जातियां और संप्रदाय होने के बावजूद हमें एक होने से कोई रोक नहीं सकता।’ (वही, खंड-40)। उनकी ऐसी बातों को उड़ा देना संभव नहीं है। बल्कि इस पर सोचा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और धार्मिक कट्टरवादियों की चुनौतियों को देखते हुए सचमुच फिर एक वैसा ही वक्त आया है या नहीं।
देखा जा सकता है कि अंग्रेजों ने राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव में अंबेडकर को धोखा दिया और जिस राष्ट्रीय कांग्रेस का कटु तरीके से अंबेडकर ने लगातार विरोध किया, उसने उनकी योग्यता को समझते हुए उन्हें सरकार में शामिल किया। इसके बाद, यह सभी जानते हैं कि अंबेडकर ने वह संविधान बनाया जो 21वीं सदी के दूसरे दशक से भारतीय जनता के लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे बड़ा हथियार है और वस्तुतः इस संघर्ष का रक्षक भी। यह हर फासीवाद, धर्मांधता और भेदभाव के गले में हड्डी की तरह है।
अंबेडकर ने कहा था, ‘संविधान पर अमल करना पूरी तरह संविधान पर ही निर्भर नहीं करता।’(वही, खंड-40, 1949)। उन्होंने आशंका व्यक्त की थी, ‘मेरे मन में खयाल आता है कि इस जनतांत्रिक संविधान का क्या होगा? इसे महफूज रखने के लिए मेरा यह देश समर्थ रहेगा या एकबार फिर वह अपनी आजादी गवां बैठेगा?’ (वही)। यह संविधान लागू होने के पहले का कथन है, जिसमें उनकी चिंता साफ झलकती है। उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीतिक दल स्वयं को देश से बड़ा मानने लगें तो आजादी खतरे में पड़ जाएगी। आजादी बार-बार खतरे में पड़ी भी। यह भी उल्लेखनीय है कि बंबई ही अंबेडकर के आंदोलन का केंद्र था। यह आधुनिक महानगर आगे चलकर अंध-राष्ट्रवाद और धार्मिक पुनरुत्थान का भी एक बड़ा केंद्र बन गया।

हमारा देश कहां है?

यह एक वास्तविकता है कि देश में आज जातिवाद से काफी लोग मुक्त हैं, तथाकथित ऊँची जातियों, पिछड़ी-निम्न सभी जातियों में। कुछ के भीतर चोर दरवाजा हो सकता है, लेकिन बड़ी संख्या में नौजवानों के अलावा बुजुर्गों में भी जातिवाद के अब अनगिनत सच्चे विरोधी हैं। लड़कियों ने जाति तोड़कर विवाह किए हैं। उनकी निगाह में कोई ऊँच-नीच नहीं है। साफ हो चुका है कि दहेज के राक्षस की जान जातिवाद के मटकों में है। इन मटकों को नौजवानों ने तोड़ना शुरू कर दिया है!
आज जो किसी के अंध समर्थक नहीं हैं, उनकी खैर नहीं है। आज जो उदारवादी हैं, जाति-आश्रय नहीं चुनते और चापलूसी नहीं करते उन्हें इन सबका खामियाजा भुगतना पड़ता है, पर ऐसे व्यक्तियों में अटूट साहस होता है। आज बहुतों का जातिवाद-विरोध सहभोजन तक सीमित न होकर सामाजिक अंतरंगता और सम्मिश्रण का मामला है।

यह भी एक यथार्थ है कि जाति चीता की तरह पीछे से हमला करती है। ऊंची जातियों के क्षमतावान लोगों के बीच एक मौन गठबंधन रहता है। दुर्भाग्यजनक है कि शिक्षा, आधुनिकीकरण और प्रगतिशील आंदोलनों के बावजूद भारत में जातिवाद पहले से बड़े शातिर रूप में मौजूद है और फिलहाल धर्म उसकी इम्युनिटी बढ़ा रहा है।

अंबेडकर का जीवन और संघर्ष भारत में 1980 के बाद नए सिरे से दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष, विमर्श और मुक्ति की प्रेरणा बना। यह ऊंची जातियों के लिए भी प्रेरणा रहा है। यह आवाज की ताकत है कि वे राजनीतिक आत्मसातीकरण के शिकार हो रहे हैं। यह भी देखने की जरूरत है कि उनके विचारों में ‘पृथकता’ और ‘सहयोग’ का द्वैध रहा है, चाहे वह उपनिवेशवाद के संदर्भ में हो, संविधान निर्माण के संदर्भ में हो या राष्ट्रीय भावना के संदर्भ में। यह तथ्य भी सामने है कि नई स्थितियों में पृथकता की पुरानी लक्ष्मण रेखाओं की तुलना में नई लक्ष्मण रेखाएं ज्यादा गहरी हुई हैं। आज की समस्याएं निशाने को व्यापक बनाने की मांग करती हैं, क्योंकि पुराने निशाने अपना स्थान बदल चुके हैं और पुराने हथियार भोथड़े हो चुके हैं!
1990 के बाद दलितों की सामाजिक स्थिति कुछ उन्नत हुई हो, संपन्नता में कुछ फर्क आया हो और वे मध्यवर्ग में पहले से ज्यादा शामिल हुए हों, लेकिन  दलितों पर अत्याचार और उनकी उपेक्षा के कई नए रूप भी सामने हैं। किसी दलित लड़के का ऊँची जाति की लड़की से विवाह आज के जमाने में भी उत्तेजना पैदा करता है। कहा जा सकता है, दलित अपने क्रूर अतीत और विडंबनापूर्ण वर्तमान के बीच बहुत संकटपूर्ण दशाओं से गुजर रहे हैं। यह भी अब काफी साफ है कि वैश्वीकरण के जमाने में अकेले में किसी की मुक्ति संभव नहीं है!
देखा जा सकता है कि देशभक्ति के दौर में ही ‘भारतीय राष्ट्र’ सबसे ज्यादा खतरे में है। निर्बुद्धिपरक विचारों और छवियों ने हमारे राष्ट्र पर, राष्ट्रीय भावना पर कब्जा कर लिया है।  एक बड़ी सचाई यह है कि ‘राष्ट्र’ से ज्यादा ताकत ‘कार्पोरेट जगत’ के पास है। ऐसे कठिन दौर में चुनौती ‘राष्ट्र’ को पृथकतावाद के बल पर तोड़ने की नहीं, उसे भारतीय महाजाति के सामाजिक और संवैधानिक सपनों के साथ वापस पाने की है। इसलिए सिर्फ दलित ही नहीं हर सच्चे भारतवासी की जुबान पर अंबेडकर का सवाल नए संदर्भ में मौजूद है-‘मेरा देश कहां है?’
सभार... वागर्थ
vagarth.hindi@gmail.com

शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

रतनारे नयन उपन्यास पर आशीष कुमार की पड़ताल

सृजन की प्रक्रिया स्वयं का प्रस्थान है : रतनारे नयन
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                                               आशीष कुमार 

हर शहर का अपना एक इतिहास होता है और इतिहास अपने गर्भ में अनगिनत सच छिपाए रहता है।इतिहास में जितना कुछ लिखा है,उससे कहीं अधिक अनलिखा भी होता है।इसी ' अनलिखे सच ' को खंगालने की कोशिश इतिहासकार और लेखक करते रहे हैं।किसी भी शहर का इतिहास लिखना बेहद जोखिम भरा काम है। रतनारे नयन के माध्यम से उषा किरण खान ने  पटना शहर के इतिहास को लिखकर इसी जोखिम भरे सच से हमारा साक्षात्कार कराया है।इस उपन्यास की मूल कथावस्तु पटना शहर के इर्द गिर्द बुनी गई है। पटना शहर की सामाजिक - राजनीतिक गतिविधि एवं बहुसंस्कृति का चित्रांकन रतनारे नयन में जीवंतता के साथ हुआ है। इस शहर की विशेषता यहां के निवासियों की जीवटता एवं जिजीविषा में निहित है।यह शहर ऐतिहासिक, पारम्परिक और आधुनिक भी है।यहां विकास की प्रक्रिया धीमी रही,पर रही जरूर। अंग्रेजो से लेकर गौतम बुद्ध की कर्मभूमि रही पटना की धरती को लेखिका ' रतनारे नयन ' के माध्यम से देखती हैं और इक्कीसवीं सदी की आधुनिकता को व्याख्यायित करती हैं।जिस प्रतीक का प्रयोग लेखिका ने रतनारे नयन के द्वारा किया है,वह पटना की आदि देवी 'पटन देवी ' हैं - " इस विस्तृत फलक को लगातार देखती रहती हैं निस्पृह खड़ी पटना की आदि देवी पटन देवी उन्हीं के रतनारे नयन हैं।" ( फ्लैप से )
इस उपन्यास का प्रारंभ मारवाड़ियों और सुनारों के आगमन से होता है।राजपूताने से रोजी - रोटी की तलाश में मारवाड़ियों का यहां आना,इस शहर के विकास में उनकी भूमिका और अमीरी - गरीबी को एक साथ साधने वाले एक नए किस्म के शहर का उदय इसकी पृष्ठभूमि में समाहित है।इस उपन्यास का कैनवास व्यापक है।इसमें एक के समानांतर छह कथाएं एक साथ चलती है। इस उपन्यास में बबलू गोप एवं रूपा का प्रसंग,ज्योति और शांतनु बजाज, रमन जी - श्यामा, राखाल - प्रमिला, रीना एवं सी एल झा , उमेंदर कौर और यश ठाकुर की कथा प्रमुख है।उपन्यास में एक और प्रमुख किरदार शाहनी ( बूढ़ी स्त्री ) का है, जो स्त्री चेतना की प्रतीक है। प्रगतिशील सोच की इस स्त्री ने स्त्री - चेतना को न केवल प्रतिबिंबित किया है, बल्कि यह बताने का प्रयत्न भी किया है कि अब स्त्री उपेक्षिता नहीं रही। इस कृति को कई अर्थों में भी पढ़ा जा सकता है।यह उपन्यास वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और सफेदपोश कारगुज़ारियों पर विमर्श का पाठ भी प्रस्तावित करता है। राजनीति में युवाओं का आगमन, चुनावी हथकंडे, अपहरण, बलात्कार आदि पर चिंतन की नई जमीन तैयार करता है।
लेखिका स्त्री चेतना को नया आयाम देती है।स्त्री शिक्षा की प्रबल समर्थक उपन्यास की एक स्त्री पात्र श्यामारमण स्त्री - शिक्षा के प्रति विचार व्यक्त करते हुए कहती है - " स्त्रियों की दुनिया बसने लगी है।एक नई दुनिया,एक नया विस्तार,एक नया क्षितिज।उस क्षितिज पर अक्षम, अशिक्षित,दलित, पीड़ित स्त्री का संसार और सक्षम, शिक्षित संघर्ष सम्पन्न स्त्री का मिलन होने का समय है।यह समय है उषा की लालिमा इठलाती हुई गंगा,सोनभद्र पुनपुन के तरल जल में उतर रही है।आधी आबादी निर्भय होकर सेमिनारों, कांफ्रेंसों और समारोहों में चांद की कलाओं की तरह चिंतनपरक रहा।" ( पृष्ठ : 179)
मूल कथा बलातकृता रुपा और बबलू गोप की चुनावी राजनीति को लेकर है।क्षेपक रूप में नगर को राजधानी बनाने का औचित्य, फांसीवाद का विस्तार और आधुनिक प्रजातंत्र की स्थापना की पहल इत्यादि आते हैं।
साहित्य और संस्कृति के मुद्दे हर शहर को एक खास रुख़ देते हैं।किस तरह से साहित्य सभाओं पर ठेकेदारों का कब्जा होता गया और शहर की साहित्यिक परम्परा का अवसान हो गया बनारस - इलाहाबाद की तरह पटना भी इससे अछूता नहीं है।एक उदाहरण देखिए - "साहित्य संस्कृति में गहरे धंसे बिहारियों ने तब भी अपना काम नहीं छोड़ा है।हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन के ठकुराई चंगुल में चले जाने,वहां काठ की तलवार की ठकाठक सुनने से बाज आए साहित्यकारों ने अपने - अपने ठिकाने ढूंढ़ लिए।( पृष्ठ:136)
साहित्यिक राजनीति पर यह तल्ख़ टिप्पणी है।पटना शहर के प्रति लेखिका का यह लगाव ही है कि वह हर छोटी बड़ी घटना को उपन्यास में गूथने का प्रयास करती हैं।यह कृति पटना शहर के सुर्ख और स्याह दोनों पक्षों पर रोशनी डालती है। शहर के उदभव और विकास के साथ ही बबलू गोप की राजनीतिक इच्छाएं निरंतर बढ़ती रहती हैं। रतनारे नयन की कथा इक्कीसवीं सदी के आम चुनाव की पूर्व संध्या पर आकर ख़तम होती है।इस घोषणा के साथ कि इक्कीसवीं सदी स्त्रियों की होगी।
उपन्यास को पढ़ते हुए एक सवाल उभरता है कि शहर और राजनीति को केंद्र बनाकर लिखे गए उपन्यास में शिक्षा व्यवस्था और विश्वविद्यालयों की गुटबाजी को लेकर सवाल क्यों नहीं उठाए गए हैं ? जबकि लेखिका खुद अकादमिक दुनिया में एक लंबा समय गुजारा 
 है।क्या इस उपन्यास को आंचलिक की श्रेणी में रखा जा सकता है ? वास्तव में, रतनारे नयन नायक केंद्रित नहीं,पटना शहर केंद्रित कथा है। यहां शहर खुद नायक की भूमिका में है।इसमें पटना शहर का व्यक्तित्वीकरण है।उपन्यास का शीर्षक अमृतलाल नागर के खंजन नयन की याद दिलाता है।कितनी संदर्भवान हैं ये पंक्तियां-"साहित्य में तीन स- समाज,उसका संघर्ष,उसकी संवेदना है तो वह खालिश है वरना बेमानी खलिश।"
इस उपन्यास में साहित्य के तीन 'स' अपने पूरे उठान पर हैं।
( रतनारे नयन, लेखिका- उषाकिरण खान
 प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली )
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*( लेखक युवा आलोचक हैं।)
मो:09415863412/08787228949.

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

योगिता यादव की कहानी

      इधर आधुनिकता की जो हवा बही है उसमें गाँव ,कस्बे भी तेजी से बदले हैं और यहाँ की औरतों का मन मिजाज भी नए कलेवर में ढ़ला है।पंचायत की राजनीति में औरतों को आरक्षण मिलने से प्रधानपतियों,   ब्लॉक प्रमुखपतियों   का हाल यह है कि पत्नी चुनाव लड़ती है और पतिदेव राजनीति करते हैं।इस मुद्दे को बड़ी सजगता से योगिता ने अपनी कहानी "नए घर में अम्मा " में उठाया है।धीरे -धीरे ही सही,जब सत्ता मिलेगी तो निर्णय लेने का अधिकार लेना भी आ ही जाएगा।कहानी एक बेसहारा बूढ़ी औरत के जीवन को बड़ी मार्मिकता से उकेरती है।        





           नए घर में अम्मा




“… ऐ जे सवेरे-सवेरे घुडिया किनकी खुल पड़ी …..” कहते कहते रामेश्‍वर ने एक लंबी छलांग लगाई और कूबड़ से दोहरी हुई अम्‍मा की पीठ पर चढ़ बैठा। पर अम्‍मा की पीठ क्‍या, न उठान, न पठार, बस एक फि‍सलन भरा कूबड़। सैज सैज कदमों से चलने वाली अम्‍मा अचानक आए उस भार को संभाल न सकीं और किसी गठरी की तरह लुढ़क पड़ीं। 
देह का जोड़-जोड़ चोटिल हो गया। अम्‍मा किससे कहें, बस रो पड़ीं। उठने की कोशिश की, उठा न गया। 
आज पता नहीं सवेरे-सवेरे किसका मुंह देखा था, रोती हुई अम्‍मा सोचने लगीं। सोचा था थोड़ा गुड़ रखा है, उसी से रोटी खा लेंगी। पर जब तक रोटी खाने की नौबत आई कुत्‍ता सब की सब लेकर भाग गया। अब कुबड़ी अम्‍मा कितना दौड़ पातीं कुत्‍ते के पीछे। बस चूल्‍हे के पास बैठी दुख मनाती रहीं। दुख से भूख कहां मिटती है। भूख मिटाने की आस में घर से निकल पड़ी थीं कि भतीजों की बहुओं में से कोई तो बुढिया को दो रोटी दे देगी। और रास्‍ते में ही रामेश्‍वर खिलौने सा खेल गया।  
खिलौना ही तो हो गईं हैं अब अम्‍मा, पूरे गांव के लिए। कोई रीति-रिवाज पूछना हो तो बहुएं बहला कर लिवा ले जाती हैं। किसी का बालक रो रहा हो, तो अम्‍मा की गोद में पटक जाती हैं। और जब अम्‍मा अपने दुख में रोने लगें तो गाली देने से भी नहीं चूकतीं। उनके कई नामों में से एक नाम ‘रोवन वारी अम्‍मा’ भी है। कि अम्‍मा कभी भी रो पड़ती हैं, न दिन देखतीं, न दोपहरी। कभी-कभी तो आधी रात को ही सुबक-सु‍बक कर रोने लगती हैं। और फि‍र बड़ी-छोटी, नई-पुरानी कोई भी बहू अम्‍मा को कोसने लगती। 
रोटी से लेकर बोटी तक सब नोंच डालते ये हैं लड़के, जो कभी अम्‍मा ने गोद खिलाए थे। अब क्‍या इस पर अम्‍मा रो भी नहीं सकतीं। ये लड़के जब जवान हो जाते हैं, तो किसी की परवाह नहीं करते। जिसका जहां दांव लगे, उसी पर हाथ साफ करता चलता बनता है। 
अम्‍मा खूब पहचानती है इनकी परछाइयां, पर पहचान कर करें भी तो क्‍या! किसके सामने गुहार लगाएं। यहां कौन सी कचहरी जुड़ रही है, जो अम्‍मा के लिए न्‍याय करे। 
बाबा जब तक थे, तब तक और बात थी। ज्‍यादा लाड़ न था, तो ये नर्क भी तो न था। दोनों जने मिल बैठकर आपस में ही दुख-सुख बांट लेते थे। ये प्‍यार ही था कि बाबा के हुक्‍के से लेकर बीड़ी तक अम्‍मा ही सुलगा कर देतीं। और कभी-कभी जब बहुत प्‍यार आता, बाबा बस देखते रहते और अम्‍मा उनकी बीड़ी निबटा देतीं। अब न बाबा रहे, न सुख और प्‍यार भरे वो दिन। आख-औलाद कोई हुई नहीं। 
बाबा के जाने के बाद उनकी जमीन-जायदाद पर सब कुत्‍तों की तरह टूट पड़े। पर कलह ऐसी मची कि किसी ने न किसी को खेत-खलिहान लेने दिए, न बोने दिए। अम्‍मा ने कुनबे से बाहर वालों को जमीन जोतने-बोने को देनी चाही, तो लठ बज गए। बस तब से ये ऐसी ही खाली पड़ी है। सब की आंखों में चुभती, पर कोख में एक बीज रोपे जाने को तरसती।  
और अम्‍मा…. उनकी खाली देह को तो बंजर जमीन जान कर सबके घोड़े खुल गए। जिस पर गर्मी चढ़ती, अम्‍मा पर चढ़ बैठता। सब जानते हैं, सब के बारे में। तो कोई किसी को कुछ नहीं कहता। पहली बार जब उनका अपना देवर उनकी दीवार फांद आया था, तो अम्‍मा गहरी दहशत में आ गईं थीं। ऐसा सदमा लगा कि कई दिन तक अम्‍मा को चूल्‍हे की ठंडी राख बुहारने का भी होश नहीं रहा। न देहरी से बाहर कदम रखा। ये चढ़ते बुढ़ापे का बचपना ही था कि अम्‍मा को लगता था बूढ़ी विधवा का कौन क्‍या बिगाड़ लेगा।
देवरों के बाद, भतीजों ने और फि‍र तो किसी रिश्‍ते-नाते की पहचान ही नहीं रही। और किसी के ऐसा करने की कोई वजह भी न रही। अब अम्‍मा दहशत में नहीं आती, बस ऐसे रो पड़ती हैं, जैसे चलते-चलते कोई बच्‍चा गिरकर रो पड़ता है। देह तो दुखती ही है, मन भी खूब दुखता है। पर कौन देखे उनके घाव- बस कह देते हैं रोवन वारी अम्‍मा।   
रोवन वारी कुबड़ी अम्‍मा कीचड़ में पड़ी फि‍र रो रहीं थीं। 
“ऐ मैया जे डुकरिया सवेरे-सवेरे फि‍र रोवन लागीं” बिसेसर की बहू ने जिराफ की तरह भीतर से ही दीवार से गर्दन उचका कर देखा। वह खाना पका रही थी और अम्‍मा के रोने की आवाज बिल्‍कुल पास से आई तो उचक कर देखने लगीं। देखा अम्‍मा कीचड़ में लथपथ पड़ी हैं। दौड़ कर बाहर आई, “ऐ अम्‍मा यहां क्‍यों पड़ी हो, उठत चौं नाओ। जे बालकन की तरह डकरा काय को रईयो।”
“ऐ भैना, जने कौन हतो... तू ही उठा, मेरे बस की नाए।”
बिसेसर की बहू हाथ बढ़ाकर उठाती जातीं थी और अम्‍मा को झिड़कती जाती थी। “ऐसी बूढ़ी न हो गईं। हमारी अम्‍मा को देखो, तुमते ठाड़ी है। 
उठो, नेक नेक में रोवन लागतो।” 
“तेरी अम्‍मा खाए हैं दूध-मिठाई। मेरी तो रोटी भी कुत्‍ता ले गओ।” अम्‍मा जब संभलीं तो मन की व्‍यथा कहने लगीं। 
“पहले पैर-हाथ धोए लेओ, फि‍र खा लइयो रोटी। अब हाल बनाई है।” 
अम्‍मा की जान में जान आई। भले ही कीचम कींच हो गईं पर अब रोटी तो खा ही लेंगी। ये बहू अच्‍छी है, भला हुआ जो यहीं गिरी।
अब यही हो गई थी अम्‍मा की नियति। कभी कोई गिरा देता, तो कभी कोई हाथ बढ़ाकर उठा लेता। सुख-दुख, स्‍वर्ग-नरक सब यहीं भोग रहीं थीं अम्‍मा। 
भूख ज्‍यादा नहीं होती थी। बस दो ही रोटी में पेट ऐसा भर गया कि अम्‍मा को अब शाम तक की कोई फि‍क्र नहीं थी। गाय को चारा डाल ही चुकीं थीं, तो अब अम्‍मा दिन भर को निरचू हो गईं। कहीं भी घूमने जा सकतीं थीं, किसी ठौर भी बैठ सकती थीं। सोचा कहीं और जाने से अच्‍छा है, यहीं बैठें बिसेसर के यहां। इसकी बहू भली भी है और थोड़ी समझ वाली भी। 
रोटी खाकर अम्‍मा आंगन में आ बैठीं। पंखा चल रहा था, ठंडी-ठंडी हवा लग रही थी। देख कर अम्‍मा का मन ललचा गया, “ऐ रेखा...काउ से कह के मेरी छान भी छबवा दे। जे डुकरिया भी दो घड़ी शांति से रह लेगी।”
“मैं तो कह दूं, पर तुम्‍हारे घरैया ही लड़ जाएंगे। कहेंगे तू कौन है हमारे घर में लड़ाई लगवावे वाली।” 
“लड़ें सब ऐं, करे कोई न है। सामन-भादौ सिगरौ पानी-पानी हो जात है। सर्दी-गर्मी और बुरी।”  
“अम्‍मा छान-छप्‍पर छोड़ो, अब तुम भी पक्‍का घर बनवा लो। सरकार ने इतनी योजना चला रखीं हैं। प्रधाननी से कहो।” 
“ऐ मुझ अभागिन को घरैया नाय कर रहे, सरकार कहां करेगी।” 
“अरे एक बेर पूछ के तो देखो।” 
“ऐ भैना मोए न समझ काउ की, तू ही करवा दे। जो तोपे होय। मैं तो अपनी सारी धरती तेरे नाम कर जाउंगी।” 
“अम्‍मा तुम अपने पास रखो अपनी धरती, तुम्‍हारी धरती पे तो पहले ही बहुत जने मरे पड़ रहे हैं। तुम जाओ किसी दिन प्रधाननी के पास। धरती छोड़ो, घर बनवा लो। दो-चार दिन सुख के कट जाएंगे।” 
अम्‍मा को बात कुछ-कुछ भली लगी। पंखे की हवा खाकर दिमाग भी कुछ ठंडा सा हो गया। पेट भी भर गया था। आज पूरा दिन अम्‍मा के पास खाली था। सोचा काल करे सो आज कर…. अम्‍मा की गीली धोती भी अब तक सूख चुकी थी। पीठ पर कूबड़ लादे अम्‍मा हौले-हौले कदमों से प्रधाननी के घर की तरफ चल पड़ीं। 
पुलक में भरी अम्‍मा प्रधाननी के घर की तरफ चली जा रहीं थीं कि कुछ शैतान बच्‍चों ने लकड़ी उठाई और अम्‍मा को बैल की तरह हांकना शुरू कर दिया। 
अम्‍मा ने छोटी-मोटी गाली दीं, तो बच्‍चों को और मजा आने लगा। अम्‍मा बीच-बीच में मुड़कर बच्‍चों को मारने की कोशिश करतीं तो बच्‍चे छिटक कर दूर हो जाते और फि‍र वही हांकने का दौर जारी। 
सामने से गांव का ही एक और युवक कपिल आ रहा था। बच्‍चों की ये शरारत देखी तो डपट कर सबको भगाया। फि‍र लगा अम्‍मा का हालचाल पूछने- “कितकू चली जा रहीं अम्‍मा, इतनी घाम में।” 
अम्‍मा मौन रहीं, कुछ न बोलीं कि जैसे किसी खास मिशन पर हों। वे अपना भेद किसी को देना नहीं चाहतीं थीं। कि जब तक काम हो न जाए किसी को नहीं बताना चाहिए। पता नहीं कौन विघ्‍न डाल दे। किसी के मन का नहीं पता चलता आजकल। और जब से बाबा छोड़कर गए हैं, अम्‍मा को किसी पर भरोसा नहीं रहा। कोई नहीं साथ निभाता। सब अपनी अपनी राह हो लेते हैं। 
अम्‍मा भी बस अब अपनी राह चली जा रहीं थीं। राह में विघ्‍न मिले या ठंडी छांव, अम्‍मा किसी कारण रुकने वाली नहीं। 
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ये पहली बार था जब गांव में कोई औरत प्रधान बनी हो। नहीं तो पहले प्रधान जी के घर के लोग ही प्रधान बना करते थे। वो वाला प्रधान का घर बहुत बड़ा है। घर क्‍या है पूरी हवेली है। 
ये तो अभी नई-नई प्रधान बनी हैं, तो रौब दाब अभी वैसा नहीं है। तो ये छोटा वाला घर प्रधाननी का घर है। प्रधान के घर से छोटा। और जहां कोई भी ऐरा-गेरा पहुंच जाता है। आज अम्‍मा भी बड़े अरमान लेकर यहां आ पहुंची थीं। 
घर तो जाना-पहचाना था, पर कभी सोचा नहीं था, उन्‍हें भी कभी प्रधाननी से काम पड़ सकता है। सो नजदीक आकर सहम गईं। लोग बाग यूं ही कहते हैं, प्रधाननी, ये तो पूरा प्रधान का घर लगता था- 
बाहर दालान का नजारा ही बड़ा भव्‍य था। दोपहर में भी बैठक जमी हुई थी, लोग चारपाई, मूढ़े, कुर्सियां डाले बैठे थे। कुछ लोग जमीन पर भी बैठे थे। बीच में प्रधान जी बहुत व्‍यस्‍त से लग रहे थे। प्रधान जी यानी प्रधाननी के पति। 
भई इतना बड़ा आदमी, उसके पास तो सौ काम होते हैं। और प्रधाननी थोड़ी अच्‍छी लगती हैं, आदमियों के बीच यूं कुर्सी डालकर बैठतीं, तो सारा काम उनके पति यानी प्रधान जी ही संभालते हैं। 
अम्‍मा ने सब सुन रखा था ‘प्रधाननी’ के बारे में। तो वे पहले से ही तैयार थीं कि प्रधान जी ही मिलेंगे पहले पहल तो।
प्रधाननी बहुत सुंदर हैं, घूंघट करे रहती हैं। जब‍ बहुत जरूरी काम हो तब ही घर से बाहर निकलती हैं। कहीं जाना हो तो भी प्रधान जी के साथ ही जीप में बैठ कर जाती हैं। पढ़ी-लिखी हैं तभी तो प्रधान बनी हैं, पर ऐसी गर्वीली भी नहीं हैं कि पति को ही कुछ न समझें। घर की मान-मर्यादा भी बहुत अच्‍छे से जानती हैं। ये भव्‍य दरबार, ऐसी मान-मर्यादा वाली प्रधाननी और लोगों का ऐसा जमघट। देखकर अम्‍मा खुद ही में सकुचा गईं। आवाज गुम हो गई। कुछ कहने, बताने की हिम्‍मत ही न हुई। यूं पंखे की ठंडी हवा में और बैठी रहतीं तो उनकी आंख लग जातीं। ये कोई अच्‍छी बात है, बस यही सोचकर अम्‍मा लौट पड़ीं। उन्‍हें कुछ नहीं कहना। बस सिर का पल्‍लू संभाला, और अपना कूबड़ पीठ पर लादे, जिस राह आईं थीं उसी राह वापस हो लीं।  
दूरी तो अब भी उतनी ही थी पर अम्‍मा बहुत धीमे चलतीं थीं। लौटते हुए धूप और कड़ी हो गई। जिस पुलक से चली आईं थीं वो भी अब निराशा में बदल गई। सोचा बिसेसर की बहू रेखा से ही कहेंगी, उनके बस का नहीं है प्रधान जी से सीधे बात करना। 
वो चाहेगी तो बिसेसर के साथ फि‍र चली आएंगी। वो जरा शउूर से बात कर लेगा।  
दुख का समय जब तक है, तब तक तो काटना ही पड़ेगा। जहां इतने दिन काटे कुछ दिन और सही। 
लौटते हुए मन हो रहा था सीधी बिसेसर के घर ही चली जाएं। पर सकुचा गईं, जो आज प्‍यार से बोल रही है, पता नहीं कब डांट कर भगा दे। ऐसा अम्‍मा के साथ बहुत बार हो चुका था। जो लोग उन्‍हें कभी प्‍यार से बुलाकर बिठाते, वही अम्‍मा को कभी भगा भी देते। उन्‍हें अब इसकी समझ भी खोने लगी थी कि कौन भला है, कौन बुरा। कौन कब मान देगा, कब अपमान कर झिड़क देगा।  
बस यही सोच कर अम्‍मा ने अपने घर जाना ही सही समझा। टूटा-फूटा जैसा है, है तो अपना ही। 
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चलते-चलते थक गईं थीं, बस आकर पानी पिया। देखा गाय के लिए रखा पानी भी खत्‍म हो गया है। घड़ा उठाकर बचा हुआ पानी गाय के लिए डाल दिया। उसे भी प्‍यास लग आई होगी। वो भी उन्‍हीं की तरह बूढ़ी हो गई है। बस सार में बंधी रहती है। उसका तो खूंटा है, उसी से बंधी है। दूध भले न दें, पर अम्‍मा से प्‍यार का नाता है उसका। कभी मां लगती है, कभी बेटी। प्‍यार से अपनी गाय की पीठ सहलाई और एक कोन में जाकर बैठ गईं। दिन भर की थकान और हारी हुई हिम्‍मत में दो कदम चलना भी भारी होता है।
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टूटी छान बरसात में ज्‍यादा याद रहती है, बाकी दिन तो कट ही जाते हैं। यूं ही अम्‍मा भी अपना घर पक्‍का करवाने की बात लगभग भूल ही गईं थीं। कि फि‍र एक और हादसा हो गया- अम्‍मा दोपहर में हैंडपंप से पानी भर रहीं थीं कि सामने से हरीश आ गया। नाते में पोता लगता है, पर एकदम बेहया है। कुबड़ी दादी को हैंडपंप चलाते और पानी भरते देखा तो उसका दांव लग गया - “ओ दादी, ओ दादी तू मोए कर लै। मैं तेरो सब काम कर दे करंगो।” 
अम्‍मा झुकी हुई हैंडपंप पर पानी भर रहीं थीं कि उसने दादी के कूल्‍हों को बेहद बेहयाई से छू दिया। और जल्‍दी जल्‍दी हैंडपंप चलाने लगा।  
अम्‍मा चौंक पड़ीं। अब हिम्‍मत इतनी बढ़ गई है। शर्म लिहाज बिल्‍कुल उतार फेंकी। इसकी तो अभी मसें भी नहीं फूलीं। शिखर चबाकर दांत काले कर लिए हैं, सोच रहा है जवान हो गया।  
अम्‍मा जितना चौंकी, उतनी ही दुखी हो गईं। अब तक सबके घरों में नल लग गए हैं। बस उन्‍हें ही बाहर पानी भरने आना पड़ता है। फि‍र ग्‍लानि होने लगी कि इतनी दोपहर में जब कोई घर से बाहर भी नहीं निकलता, उन्‍हें पानी भरने की क्‍या जरूरत थी। अब गांव में वो वाली बात कहां रहीं है। अबकी घर बनवाएंगी तो नल भी घर के अंदर ही लगवाएंगी। गुसलखाना भी पक्‍का बनवाएंगी और पक्‍की चौखट, पक्‍का दरवाजा, उस पर सांकल भी पक्‍की। 

अम्‍मा के मन में फि‍र से पक्‍का घर हिलोर लेने लगा। उन्‍हें खुद पर ग्‍लानि हुई, उस दिन चली तो गईं थीं प्रधाननी के घर। थोड़ी हिम्‍मत करके बोल ही देतीं। 
अब पानी का होश नहीं था। आधा भरा घड़ा ही उठाकर ले चलीं। और घड़ा रखकर सीधे बिसेसर के घर। 
मन ही मन सोच रहीं थीं, बिसेसर की बहू है तो भली पर गुस्‍सा हो गई तो क्‍या पता। पर कैसे न कैसे करके वे उसे मना ही लेंगी, बिसेसर को उनके साथ प्रधाननी के घर भेजने को। 
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कितने तो अरमान लेकर आईं थीं। पर बिसेसर के घर पहुंच कर पता चला कि बहू तो अपने पीहर चली गई है। अब किससे कहें। हिम्‍मत फि‍र कमजोर पड़ गई। पर हरीश के हाथों की पकड़ अब भी उन्‍हें अपने पीछे महसूस हो रही थी। कभी टपकती छत याद आती, तो कभी रेखा के पक्‍के घर में ठंडी हवा देता पंखा। 
अब जब तक घर बन नहीं जाता, अम्‍मा को चैन पड़ने वाला नहीं था।     
जब कोई राह नहीं सूझी तो अकेले ही चल पड़ी प्रधाननी के घर।  
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दालान में पहुंचकर चुपचाप बैठ गईं कि जब तक कोई पूछेगा नहीं, कुछ नहीं कहेंगी। दालान में भी पंखे लगे हुए थे, ठंडी हवा में कुछ सांस आई। पर मन में उथल पुथल जारी रही। 
बहुत देर से बैठीं थीं, किसी ने ध्‍यान नहीं दिया। शर्बतों के गिलास आए तो अम्‍मा ने भी लपक कर एक गिलास उठा लिया। अब सबका ध्‍यान गया कि ये यहां क्‍यों बैठी हैं। प्रधान जी को घेरे बैठी मंडली में से ही एक आदमी पूछ बैठा, “अम्‍मा तुम क्‍यों बैठी हो यहां। क्‍या बात हो गई?” 
“कुछ नहीं बेटा, मैं तो नेक बहू से मिलने आई।” अम्‍मा ने अदृश्‍य प्रधाननी को लक्षित करके दिशाहीन इशारा किया। 
“कहो, क्‍या बात है बेहद शालीन स्‍वर में इस बार प्रधान जी बोले।” 
इस मधुरता ने अम्‍मा की हिम्‍मत कुछ और बढ़ाई। 
“ऐ बेटा तुम्‍हारे बाबा तो रहे नाय, घर-खेत कौन देखे। अब तुम्‍हारो ही आसरा है। नेक मेरी छान छबवा देओ। तो बड़ी कृपा होगी।” अम्‍मा ने पूरी शालीनता और अनुग्रह से कहने की कोशिश की। अम्‍मा चाहती तो पक्‍का घर बनवाना थीं, पर मुंह से बस इतना ही निकल पाया। 
“छान का क्‍या करोगी अम्‍मा, छत डलवा लो पूरी। कौन रोक रहा है।” 
ये सवाल था कि जवाब था, अम्‍मा को समझ न आया और वे बिल्‍कुल चुप हो गईं। चेहरे पर कुछ खिसियाहट उतर आई। फि‍र निराशा और फि‍र दुख। 
बस आंसू ही न निकले... 
गर्दन नीचे किए बैठी ही थीं कि प्रधान जी की मंडली का ही एक और आदमी बोल पड़ा, - “अपना घर बनवाने से कौन रोक सकता है। इस उम्र में आपको धूप-घाम खाने की क्‍या जरूरत है? घर में कोई और नहीं है क्‍या।” 
आदमी पढ़ा-लिखा पर गांव के सामान्‍य ज्ञान से अपरिचित था शायद। मंडली के एक और आदमी ने कान में फुसफुसाकर कुछ कहा, तो उसे ऐसा कुछ समझ आया कि इंटरव्‍यू में गलत जवाब देने जैसा पश्‍चाताप उसके चेहरे पर उतर आया।
अब मंडली की चर्चा का केंद्र अम्‍मा ही थीं- सब अम्‍मा के बारे में तरह-तरह की बातें करके एक-दूसरे का ज्ञानवर्धन कर रहे थे। और अम्‍मा नीचे मुंडी लटकाए दीन हीन भाव से बस अपने बारे में कुछ जानी-कुछ अनजानी सुने जा रहीं थीं। 
बस बात नहीं हो रही थी तो अम्‍मा के घर की, जिसके लिए अम्‍मा इतनी उम्‍मीद लिए यहां चली आईं थीं।   
मंडली में दुखियारी, अपने ही कुनबे और गांव भर की सताई अम्‍मा की कथा समाप्‍त होने में ही न आती थी।  
तभी अंदर से एक बच्‍चा दौड़ता हुआ आया और उसने बताया कि कुबड़ी अम्‍मा को मम्‍मी अंदर बुला रहीं हैं। बच्‍चा प्रधान जी का था। यानी प्रधाननी खुद अम्‍मा को अंदर बुला रहीं हैं।
मंडली थोड़ी चौकन्‍नी हुई और उन्‍हें अहसास हुआ कि वे बहुत देर से एक अनंत कथा में डूबे थे। 
अम्‍मा के लिए तो ये तो बिन मांगी मुराद के पूरे होने जैसा था। अम्‍मा ने तो क्‍या, वहां बैठे किसी आदमी ने भी नहीं सोचा था कि कुबड़ी अम्‍मा के लिए भीतर से बुलावा आ जाएगा। 
प्रधान जी का चेहरा भी थोड़ा सचेत हो गया। प्रधाननी घूंघट में रहती हैं, उनका पूरा मान-सम्‍मान करती हैं पर कभी-कभी ऐसे झटके भी दे जाती हैं। 
अब उन्‍होंने बुलाया है तो अम्‍मा को जाना ही होगा कि जैसे मामला सीधे हाई कोर्ट ने अपने हाथ में ले लिया है। अब निचली अदालतों की जिरह बेकार है। 
अम्‍मा पुलक में भर कर बच्‍चे के पीछे-पीछे चल पड़ीं। 
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                                                              रेखाचित्र-अनुप्रिया


अंदर का नजारा और भी सुंदर था। 
क्रोशिए से बुने हुए बंदनवार दरवाजों पर टंगे थे। चोखटों पर बेल-बूटों की गुलाबी-हरी चित्रकारी की हुई थी। प्रधाननी उसी बच्‍चे को पढ़ा रहीं थीं जो उन्‍हें बुलाने आया था। 
सामने दो चार मूंज के चटौने पड़े हुए थे। उन्‍हीं में से एक चटौना उठा कर बच्‍चे ने अम्‍मा के लिए डाल दिया। 
अम्‍मा को लगा कि जैसे साक्षात लक्ष्‍मी के आदेश पर गणेश जी ने उनके लिए आसन बिछा दिया हो- 
वे भाव विभोर होकर उस पर बैठ गईं। सम्‍मान पूर्वक बैठाए जाने में भी एक अजब सुख होता है, अम्‍मा को बार-बार यह अहसास हो रहा था। 
भीतर से एक लड़की अम्‍मा के लिए गिलास भर कर मठा ले आई। अब तो अम्‍मा के आंसू ही निकल आए। 
“ऐ भैना मो पे नाय पियो जाओ। जे बालकन को ही दे दे। 
तेरे दस्‍सन हे गए, मेरे ताएं तो जोई भोत है।” 
“कहो अम्‍मा क्‍या बात है?” - मिश्री सी मधुर और सुघड़ आवाज में प्रधाननी ने पूछा। 
अम्‍मा के कानों को ठंडक सी मिल गई। दुख में डूबी आवाज कर्कशा हो जाती है। सुखी गृहस्थिन ऐसी ही मधुर आवाज में बोलती होंगी। अम्‍मा ने मन ही मन खुद को समझाया। 
फि‍र हिम्‍मत जुटा कर टूटी छान, फूटी किस्‍मत और सूखी देह को रौंदती सब दास्‍तान धीरे-धीरे कह सुनाई। 
प्रधाननी की आंखों में आंसू आ गए। सुनते-सुनते, गला रुंध गया। बच्‍चों को उन्‍होंने व्‍यथा कथा के बीच ही दादी के पास जाने को कह दिया था। 
माहौल बहुत गमगीन हो गया था। अम्‍मा की बस एक ही आस थी कि उनका घर बन जाए। अब प्रधाननी को भी अहसास हुआ कि जो वो अखबारों में पढ़ती हैं, वो तो उनके अपने गांव में ही हो रहा है। तो उनके प्रधान बनने का क्‍या फायदा। आजादी के इतने सालों बाद भी अगर एक बूढ़ी बेबस विधवा सिर छुपाने को छत नहीं जुटा पा रही तो लानत है ऐसे लोकतंत्र पर। और बेकार है उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनकी प्रधानी, उनके सब संकल्‍प। 
एक बार तो मन में आया कि अम्‍मा को अपने ही घर में रख लें। पर इससे सिर्फ अम्‍मा का भला होगा, उनमें वह आत्‍मसम्‍मान और सुरक्षा का भाव नहीं आ पाएगा, जिसकी वे हकदार हैं। 
प्रधाननी शादी नहीं करना चाहतीं थी, पुलिस में भर्ती होकर देश सेवा करना चाहतीं थीं। पर गांव में परिवार में उनकी एक न चली और शादी होकर यहां आ गईं। एक ही सुख था कि परिवार पढ़ा-लिखा है और उनकी पढ़ाई-लिखाई की इज्‍जत करता है। 
प्रधान जी ने तो यह भी कह दिया था कि कुछ साल रुक कर वे एक स्‍कूल बनवा देंगे, जिसे प्रधाननी ही संभालेंगी। 
इसी दौरान जब उन्‍हें प्रधानी के चुनाव लड़ने का मौका मिला तो देश सेवा का उनका पुराना सपना फि‍र से जाग उठा। 
चुपचाप ब्‍याह दी जाने वाली भोली भाली लड़की से इस गांव की प्रधान बनने तक जो कायापलट हुआ वह उनके पति के प्‍यार और सहयोग के कारण ही संभव हो पाया, नहीं तो वे क्‍या कर सकतीं थीं अगर वे भी पिताजी की तरह उनकी बात न मानते। यही सोचकर प्रधाननी वही सब करती थीं जो प्रधान जी कहते थे। पर कभी-कभी अपनी बुद्धि‍ और कौशल का भी प्रयोग कर ही लेती थीं। जब पुराने संकल्‍प याद आते।  
इस बार भी उनके मन के भीतर वही ज्‍वाला दहक उठी थी, जिसमें हर गरीब को उसका हक दिलवाना उनका संकल्‍प था। उन्‍हें घृणा हुई कि उनके गांव में भी ऐसे लोग हैं जो अपने ही घर की बूढ़ी औरत को इतना दुख दे रहे हैं। 
उन्‍होंने ठान लिया वे जल्‍द से जल्‍द अम्‍मा का घर बनवाने में मदद करेंगी। और कोशिश करेंगी कि अम्‍मा को सरकारी पेंशन भी दिलवा दें। कम से कम कुछ तो सहारा होगा। 
वे अम्‍मा का घर बनवाने में जरूर मदद करेंगी, इस वादे के साथ उन्‍होंने अम्‍मा को विदा किया। साथ ही एक लड़के को उन्‍हें घर तक छोड़ आने को भी साथ कर दिया। 
अब तो अम्‍मा का आत्‍मविश्‍वास न पूछो। अम्‍मा जैसे उड़ती हुई अपने घर को चली जा रहीं थीं- प्रधाननी की दी सुरक्षा उनके साथ थी। सब लौटती हुई अम्‍मा को देख रहे थे, और उनके पीछे-पीछे चले आ रहे रौबदार आदमी को भी। 
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कुछ अम्‍मा ने बताई तो कुछ फैलते-फैलते फैल गई कि अम्‍मा की प्रधाननी के घर में कैसी आवभगत हुई। प्रधाननी अब उनके लिए पक्‍का मकान बनवाकर देगी। 
कुछ लोग हैरान हुए, तो कुछ ने अम्‍मा को मूर्ख साबित करने की कोशिश की, कि अम्‍मा कहां प्रधाननी की बातों में आ गईं। कुछ ने तो दिन भी गिन लिए कि चुनाव आने वाले होंगे, तभी प्रधाननी इतना उपकार दिखा रहीं हैं। पर कई बार गिनने के बाद भी हिसाब कुछ बैठा नहीं कि अभी प्रधाननी को प्रधाननी बने साल डेढ़ साल ही बीता होगा। फि‍र यह कहकर मन को तसल्‍ली दी कि कहीं तो चुनाव होंगे, प्रधाननी अपनी उसी पार्टी को खुश करने के लिए ये कर रहीं होंगी।   

दिन तो जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे, कभी प्रधाननी के घर से अम्‍मा के लिए भोजन आ जाता, तो कभी कोई बुलावा अम्‍मा के लिए आ जाता। अब तो बहुओं में भी अम्‍मा की खूब पूछ होने लगी कि अम्‍मा का उठना बैठना प्रधाननी के संग है। बिसेसर की बहू ने भी मीठा सा ताना दिया कि “अम्‍मा अब क्‍यों आएंगी यहां, अब तो उनका उठना बैठना प्रधाननी के घर है।” 
बाबा के जाने के बाद अम्‍मा को अपने जीवन में पहली बार जीवन का अहसास हो रहा था। 
प्रधाननी कहीं अंगूठा लगाने को भी कह देतीं, तो भी अम्‍मा ऐसी खुश हो जातीं कि जैसे उन्‍हें खजाने की दबी गागर मिल गई हो। 
प्रधाननी से ही उन्‍हें मालूम पड़ा कि उनके खाली पड़े खेत में कटहल के जो पेड़ खड़े हैं, वे भी किसी खजाने से कम नहीं। और यह आश्‍वासन भी दिया कि प्रधाननी खुद किसी से कह कर उनके खेत बटायी पर लगवा देंगी। धरती खाली पड़ी रहने से तो अच्‍छा है आधी ही फसल मिल जाए। 
अम्‍मा ने कहां सोचा था कि बुढ़ापे में आंखों में इतनी रोशनी आ जाएगी। 
और एक दिन तो प्रधाननी ने अम्‍मा को फोटो खिंचवाने के लिए ही बुलवा लिया। 
“ऐ भैना मैं नाय अच्‍छी लागती फोटू खिंचवावती। तू अच्‍छी लागेई, तू खिंचवा ले।” 
अम्‍मा ने शर्माते हुए लाड़ में भरकर प्रधाननी से कहा। 
प्रधाननी मधुर मुस्‍कान में हंस पड़ी और कहा कि फोटो तो आपको ही खिंचवाना होगा, तभी घर बनेगा। 
एक के बाद एक ऐसे खुशियां अम्‍मा के जीवन में दस्‍तक देंगी, अम्‍मा ने सोचा भी नहीं था। अब तो कभी पल्‍ला सीधा करें, कभी माथे पर खींच लाएं।
बस किसी तरह उनकी फोटो खिंच जाए - यौवन की उमंग फि‍र से जाग गई कि उनकी फोटो बिल्‍कुल उतनी ही सुंदर बने जितनी सुंदर वे कभी हुआ करतीं थीं। 
फोटो खिंचा, अंगूठे लगे, कागज पत्‍तर तैयार हुए….
अम्‍मा से खुशी संभाले न संभल रहीं थी, पर राज मन में दबाए रहीं। 
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कभी-कभी अम्‍मा को ख्‍याल आ जाता कि अगर कभी प्रधाननी उनके घर आ गई तो उसे वे कहां बैठाएंगी, सब खटिया झूला हो गईं हैं। बक्‍से में पुरानी कढ़ाईदार चादरें तो पड़ी हैं, पर खटिया भी तो अच्‍छी होनी चाहिए। 
उन्‍हें मूंज के वे चटौने याद आ गए जो प्रधाननी के घर करीने से एक कोने में बिछे रहते हैं। लगा खटिया जब बनेगी, तब बनेगी चटौने तो वे बुन ही सकती हैं। ऐसा भी कहीं बुढ़ापा नहीं आ गया। ये तो दुखों ने दोहरी कर दी, नहीं तो उम्र तो उनकी बिसेसर की अम्‍मा से भी कम है। 
“हां, रंगीन चटौना (आसन) बनाएंगी अम्‍मा, क्‍या पता कब प्रधाननी ही आ जाएं।” 
अम्‍मा खेतों के किनारे से मूंज काट लाईं। रामेश्‍वर की बहू से रंग दार टिक्‍की मांग लाईं और जुट गईं अपने काम में। 
अब खाली दोपहरियों में इधर-उधर घूमने की बजाए अम्‍मा अपना चटौना बुनने में लगी रहतीं। बहुत सालों बाद ये काम फि‍र से करने की ठानी थी, तो पहले जैसी गति तो न रही थी, पर हिम्‍मत बांध ली थी तो करके ही दम लेंगी। 
चटौना बुनते-बुनते पसीना पसीना हो जातीं, तो सोचती दो एक बीजने (पंखे) भी बुन लेने चाहिए। ऐसी गर्मी में कैसे घड़ी भर भी बैठ पाएंगी प्रधाननी। 
तो कभी सोचने लगतीं, आंगन कैसा खोरा हो गया है, लीप ही लेतीं तो अच्‍छा हो जाता। क्‍या हुआ जो पक्‍का नहीं है। लीपकर साफ सुथरा तो रखना ही चाहिए। 
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इधर प्रधाननी के घर में क्‍लेश हो गया कि प्रधाननी उस कुबड़ी अम्‍मा के पीछे मति हार रहीं हैं। 
इतनी योजनाएं हैं, घर बनवाने को कौन मना करता है। खाता भी खुलवा देंगे, पेंशन भी बंधवा देंगे। पर अपना हिस्‍सा तो रखना ही चाहिए। जानती नहीं हर चीज के लिए उपर तक पैसा देना पड़ता है। और आए गए जो इतनी मंडली दिन भर दालान में बैठी रहती है, उसका चाय पानी का खर्चा कौन से सरकारी फंड में आता है। सब इसी तरह निकालना पड़ता है।  
प्रधाननी कोई तर्क सुनने को तैयार नहीं, बस अड़ गईं हैं, “आप को हमारी सौगंध, जो अम्‍मा के एक पैसे पर भी नजर डाली। उनपे पहले ही विपदा की कौन कमी है, जो आप अपना हिस्‍सा निकाल ले रहे हों। ऐसे तो पूरा घर भी नहीं बन पाएगा।”
ज‍बकि प्रधाननी तो चाहतीं थीं कि अम्‍मा को पक्‍के घर के साथ-साथ नल भी लगवा दें, शौचालय भी बनवा दें और पेंशन भी बंधवा दें। 
मामला कुछ भावुक सा हो गया था। 
पढ़ी-लिखी, सुंदर, दृढ़संकल्‍प, युवा प्रधाननी और बूढ़ी, विधवा, कुबड़ी अम्‍मा की दोस्‍ती के किस्‍से गांव भर में कहे-सुने जाने लगे हैं। 
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पूरे कुनबे की छाती पर तब पटेला चल गया, जब ईंटों भरा ट्रक अम्‍मा के आंगन में खाली किया जाने लगा। 
बस भैया अब कुछ नहीं हो सकता। अब तो अम्‍मा नहीं आए किसी के हाथ। घर कुनबे के लड़के थोड़े हैरान हुए, और ज्‍यादा परेशान हो गए। 
अम्‍मा की खुशी का ठिकाना नहीं। अम्‍मा ने हैंडपंप से ताजा पानी भरा, उसमें बताशे घोले और सब मजदूरों को ठंडा पानी पिलाया। दौड़ कर आसपास में जो दिखा सब को बुला लाईं। कि उनका पक्‍का घर बन रहा है, प्रधाननी बनवा रहीं हैं। 
अम्‍मा तो अब किसी प्रधान से कम नहीं। चेहरे पर एक अलग सी रौनक आ गई, चाल में तेजी आ गई। 
दिन बीतते-बीतते दीवारें अम्‍मा से उूंची हो गईं। चौखटें चढ़ गईं। और एक दिन पक्‍की छत भी बन गई। अम्‍मा के लिए ये किसी सपने से कम नहीं था, जो एक-एक ईंट करके उनके सामने पूरा हो रहा था। कहां टूटी छान, कहां लाल-लाल दीवारों पर डली पक्‍की छत। 
ऐसी छत जिस पर पंखे भी टंग सकते हैं। बल्‍ब भी जल सकते हैं। दरवाजे पर कुंडी भी लगाई जा सकती है।
ऐसा सुख जिसे पूरा बताने को अम्‍मा के पास शब्‍द नहीं हैं। हर घड़ी, वे इस सुख को केवल महसूस कर पा रहीं हैं और उसकी चमक पूरी देह में महसूस होने लगी है। 
सबसे पहले प्रधाननी के घर बताशे लेकर पहुंची अम्‍मा कि उनका घर बन गया। नल भी लग गया। और टट्टी ऐसी सुंदर बनी है कि जंगल फि‍रने बाहर जाने की भी जरूरत नहीं। 
प्रधाननी तो साक्षात देवी बनकर उनके जीवन में आईं हैं। सो, एक बार फि‍र से यह कहकर खुश कर दिया कि अब जल्‍दी ही तुम्‍हें गैस वाला चूल्‍हा दिलवा देंगे। लकड़ी फूंकने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। 
ऐसा संपन्‍न बुढ़ापा, उन्‍होंने जवानी में भी नहीं सोचा था। अम्‍मा तो बस प्रधाननी के पैरों में गिर पड़ीं। 
पर प्रधाननी ने तो उन्‍हें अपनी सहेली बना लिया था, पैर छूने भी न पाईं थीं कि पकड़ कर छाती से चिमटा लिया। अम्‍मा की आंख से आंसू बहने लगे - किस मां ने ऐसी देवी जैसी लड़की जनी है। भगवान तुझे बार-बार प्रधाननी बनाए। 
फि‍र गांव भर में इस खुशी को बांटा। नए घर के बताशे बांटती अम्‍मा को अपनी धोती पुरानी लगने लगी और देह नई। 
वे एक नए जीवन में प्रवेश कर रहीं थीं, जहां रोवन वारी अम्‍मा नहीं, घड़ी-घड़ी खुशी के बताशे बांटती अम्‍मा रहने वाली थीं। 
गांव के लड़कों को अम्‍मा की ये खुशी अजीब सा अहसास दे रही थी। खुश तो नहीं थे पर प्रधाननी के डर के मारे कुछ कर नहीं पा रहे थे। हर समय प्रधाननी के भेजे आदमी ईंट, रेती के पास खड़े रहते। एक ईंट उठाने का भी मौका नहीं मिल पाया। सलाह बनी कि मकान बन गया तो उड़ी फि‍र रहीं हैं। किसी दिन दबोच लेंगे तो सब अकड़ निकल जाएगी। प्रधाननी कितने दिन रखवाली कर लेंगी।  
सबसे अनजान अम्‍मा ढलती शाम में अपने नए घर के आंगन में पैर फैलाए बैठी थीं कि हरीश अंदर घुसा चला आया- 
“ओ दादी, ओ दादी अब नए घर में अकेली काह् करेई, अब तो तू मोए कर लै।” 
हरीश ने तंबाकू चबाए दांतों और चेहरे पर घृणित भाव भरकर बस इतना ही कहा था कि अम्‍मा क्रोध में चिल्‍ला पड़ीं – “हट जा, मर जा, कहूं ऐ जाकै, सोग उठाए, तेरी तेरहीं कर दउूं तेरी…” 
अम्‍मा की ये आक्रोश भरी आवाज और ये भारी भरकम गालियां गांव के लिए नई थीं, आसपास की सब औरतें-बच्‍चे अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर देखने लगे। 
अम्‍मा में जानें कहां से इतनी ताकत आ गई कि उनके हाथ में चिमटा, फूंकनी, बेलन, झाड़ू जो आया फेंकती जाएं और गाली देती जाएं। यह ख्‍याल भी न रहा कि जिस लड़के की तेरहवीं करने और शोक मनाने की वे गालियां दे रहीं हैं, वह नाते में उनका पोता लगता है। 
हरीश जिस हौंसले से आया था, उसी रफ्तार से भाग खड़ा हुआ। पर अम्‍मा तो अब शांत ही न होती थीं - 
गुस्‍से से आग बबूला वे तब तक सामान उठा उठाकर फेंकती रहीं, जब तक उन्‍हें यह यकीन नहीं हो गया कि हरीश अब जा चुका है।
थक गईं पर गुस्‍सा शांत न हुआ, न एक भी आंसू निकला आंख से। 
आक्रोश और आवेश में देहरी के बाहर तक निकल आईं कि कोई और तो नहीं! आज सबको बाहर खदेड़ देंगी, ये उनका अपना घर है। अम्‍मा को लगा आज उनकी पीठ पर कूबड़ का भार नहीं है और उनका कद पहले की ही तरह सीधा होने लगा है। 
“ऐ अम्‍मा आज तो कतई जबरजंग है गईं!” ये रेखा की आवाज थी। अम्‍मा के स्‍वाभिमान की जीत में अपनी मुस्‍कान शामिल करती। वह अपने आंगन की दीवार से जिराफ की तरह गर्दन निकाले मुस्‍कुरा रही थी।  
“आ जाओ रोटी खाये लेओ, अब हाल बनाई है।” 
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योगिता यादव
युवा कथाकार एवं पत्रकार
 दिल्ली
  

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

केशव तिवारी की कविताएँ



केशव एकदम अलग ढब के कवि हैं, अपनी तरह के अकेले। वे लोक के निकट होकर भी लोकवादी नहीं हैं। आधुनिक हैं पर आधुनिकतावादी नहीं हैं। कृत्रिम बनाव-श्रृंगार से रहित, लेकिन सुन्दर कविताएँ लिखते हैं। उनकी सादगी सुन्दर है और नितान्त मौलिक भी।
                                         कात्यायनी



(1)

 ये कोई शुभेक्षा नही है ।

कोई अचानक नही चला जाता
बस प्राथमिकताएँ विस्थापित
करती रहतीं हैं

समय की कुठार से घायल होता
बचता बचाता 
चोटें छुपाता दिखाता

दर्द की कई अबूझ लिपियाँ लिखता
 जिसे आगामी मनुष्यता पढ़ेगी

आज नही तो कई कई साल बाद
किसी गले से निकली पीड़ा की पुकार
फिर फिर लौटेगी जरूर 

पूरे अंतरिक्ष मे उसके लिए जगह 
नही है
 सिवा किसी दुखी के गले के

जब पुराने भ्रम नष्ट हो रहे होंगे
और कुछ लोग नए भ्रम रचने में
लगे होंगे

किसी कविता की कोई पंक्ति
कृपाण सी उसे छिन्न भिन्न करती
कंठों से कंठों की यात्रा में निकल लेगी

तब कवि किसान योद्धा और मुक्ति के गायक
सब समय की शिला पर 
पहट रहे होंगे अपने अपने  औजार

ये कोई स्वप्न और शुभेक्षा नहींं है
ये विश्वास है जो बार बार फलित
हुआ है इस धरा पर ।


************






(2)
न चाहते हुए भी 

कुछ मित्र बहुत संघर्ष में थे
साथ साथ संघर्ष की 
कविता लिखते 

धीरे धीरे संवाद में नही रह गए
निर्मल आनंद की आखिरी खबर 
यही थी कहीं चौकीदारी करते थे

चोरों से लड़ते उनके सर पर
लगी थी चोट 

इटारसी से गुजरो तो लगता है
विनय जरूर यहीं के
सहेली गांव में अब भी  होगा

लगता स्टेशन का कर्मचारी
लाल झंडी दिखा हमें ही 
उतर जाने को कह रहा है

कोई जैसे हाँथ पकड़- पकड़
रोक रहा हो

कुछ मित्र उनके शहर से गुजरो तो
स्टेशन पर पूड़ी -सब्जी लिए मिलते थे

असंवाद स्मृतियों को प्राणलेवा 
बना देता है

कभी -कभी किसी के  कहीं होने की 
भनक भी  लगती
मन और उदास हो जाता है

अभी हाल में अचानक उसके गांव के एक व्यक्ति से
पता चला
 
राजकुमार चाक में एक्सीडेंट में नही रहा
पिता थाने में उठाने भी 
नही गए उसकी मोटर सायकिल

सफल मित्र और निकट बने रहे अपनी सफलता की चकाचौंध करते

और असफल मित्र आह किस अंधेरे में कहाँ होंगे ..!

अच्छा लगता है कभी कभी घर गांव
जाओ को कोई पुराना पूछते -पूछते
आ जाता है

मैं उन तमाम घूस खोरों को जानता हूँ 
जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो
गांव आते जाते रहते हैं

इन गांव में छूट गए मित्रो को किसी के खेत से चना उखाड़ने किसी के  आम तोड़ने के जुर्म में

चोर लिहाड़ा और क्या- क्या 
 कहते सुनता हूँ

कहने वालों के मुंह पर थूक
देने का मन होता है

क्योंकि मुझे उनके बारे में 
पता है सब कुछ

ये  अजनबियत हमारे रिश्तों
को और और दूर बढ़ाएगी

न चाहते हुए भी हमे फिर- फिर 
लिखनी पड़ेगी 

ऐसी ही कितनी और 
कविताएं।

**************

     






(3)

वो समझा रहा था बच्चे को
वक्त ख़राब है साये पर भी
भरोसा करने लायक नही है

हालाँँकि उसे यह समझाया गया था
आपसी भरोसे पर टिकी है दुनिया

इसी तरह प्रेम के बारे में कहा
बहुत घातक मर्ज है 

वैसे वो सूर और घनानंद  मीर और ग़ालिब के
स्कूल का विद्यार्थी रहा है 

उसने यह भी कहा ईमानदारी
भीख मंगवा कर ही छोड़ती है

ये बात अपने ईमानदार पिता के स्वाभिमानी
चेहरे को भूल के कही

अंतिम बात उसने कही ये सब उसने
जीवन अनुभव से पाया है
किताबों से नही 

मजबूरी ये थी वो जो समझा रहा था
उसे वो खुद ही नही समझ पा रहा था ।

कितने चेहरे सवाल कर रहे थे
तू ये क्या कह रहा है।

***************
(4)

जाने के कारण थे
न रुक पाने की मजबूरियां थी

कुछ बदले इसका गहरा दबाव था
अब बहुत हो गया वाले अंदाज में
उठ खड़ा होना था

समय की पुकार सुनने के लिए
बहुत सी पुकारों को
अन सुना करना था

बहुत - बहुत कुछ एक झटके में 
भूलना था 

जिसे कई कई बार निहारा था कठिन दिनों में 
उस भरोसे की नदी को
एक सांस में पार करना था।

वक़्त कम था और 
बहुत कुछ करना था।

केशव तिवारी
बाँदा
उत्तर प्रदेश




पुस्तक -चर्चा

---लेखक की अमरता--- स्वप्निल श्रीवास्तव
( स्मृति- लेख  बनाम सचेत मूल्यांकन)
 पुस्तक समीक्षा - श्रीधर मिश्र

       





1954 में जन्मे हिंदी के प्रतिनिधि कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने एक लंबा रचनात्मक संघर्ष किया है व उनका संघर्ष आज भी अनवरत जारी है ।वे कविता के अप्रितम योद्धा हैं तथा कविता की लगभग चार पीढ़ियों के साक्षी ही नहीं रहे हैं वरन उसके सहयात्री रहे हैं, लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि वे कविता की बदलती प्रवृत्तियों, चुनौतियों से तादात्म्य स्थापित करते हुए आज भी उतने ही प्रासंगिक व महत्वपूर्ण बने हुए हैं,  इलियट ने  लिखा था-- बूढ़ा गिध्द पंख क्यों फैलाये- यह उसने अपने समय के वरिष्ठ रचनाकारों के सन्दर्भ में खीज के साथ कहा था,  और यह खीज हिंदी के कवियों के सन्दर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक है, कवि जब वरिष्ठ कवि होकर प्रसिद्धि की उपलब्धि पा लेता है तो फिर उसकी कविता में  तनाव का मुहावरा लगभग खत्म हो जाता है, वह खुद को दुहराने लगता है तथा वह मात्र कलाश्रयी होकर रह जाता है, उसकी कविता की दुनिया भी उसकी निजी दुनिया की तरह तनाव रहित, सुरक्षित व वैभवशाली हो जाती है, प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय तक अंतिम दिनों में इसके शिकार  होगये, " कितनी नावों में कितनी बार(1967)," पहले मैं सन्नाटा  बुनता हूँ"(1974) तक आते आते अज्ञेय का मुहावरा काफी शिथिल पड़ गया था तथा वे खुद को दुहराने लगे थे, जबकि स्वप्निल श्रीवास्तव के प्रकाशित पांचों कविता संग्रहों क्रमशः, ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथिवी चाहिए, ज़िंदगी का मुकदमा, जबतक जीवन है, में स्वप्निल किसी दुहराव के शिकार नहीं हुए हैं बल्कि निरंतर वे अपनी ही भाषा तोड़ते हुए नज़र आते हैं, इसीलिए स्वप्निल की कविताओं में ताज़गी  तो महसूस होती ही है,  समय -समाज के दबावों की अनुगूंज भी मिलती है,  हिंदी के बहुत कम कवियों ने अपनी भाषा तोड़ने का जोखिम उठाया है, उसमें प्रमुख हैं निराला, एवम श्रीकांत वर्मा भी अपनी मगध सीरीज की कविताओं में अपनी भाषा तोड़कर  भाषा की सर्वथा नई भूमि पर कविताएं चरितार्थ करते हुए दिखते हैं, और इसी क्रम में स्वप्निल भी हिंदी कविता के प्रमुख कवि हैं जिन्होंने बदलते हुए परिवेश से साक्षात्कार करने के क्रम में अपनी भाषा तोड़ने का  लगातार जोखिम उठाया है इसीलिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं
    हालांकि उनके दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह " एक पवित्र नगर की दास्तान व स्तूप और महावत के साथ ही एक संस्मरण" जैसा  मैंने जीवन देखा" पहले प्रकाशित हो चुके हैं जो काफी चर्चित हुए, यह उनका नया संस्मरण याकि स्मृति लेख- "लेखक की अमरता"सद्यः प्रकाशित हुआ है  जो जितना रोचक- रोमांचक है उससे अधिक इस लिए महत्वपूर्ण है कि स्वप्निल ने अपने व्यक्तिगत संस्मरणों में  आज के साहित्यिक परिदृश्य की खूब खबर ली है, उनकी निडर व बेबाक टिप्पणियां धरोहर की तरह बहुमूल्य हैं, क्योंकि ये स्वप्निल के निरन्तर रचना-संघर्ष के घर्षण से उपजी अग्निस्फुलिंग सरीखी हैं, एक शांत व सम्वेदना के बड़े गहरे तल से सरोकार रखने वाले, सहज लेकिन विराट भाव बोध के कवि के उद्गार हैं। ये स्मृतिलेख वस्तुतः प्रकारांतर से मूल्यांकन भी हैं,     
    गिरीश कर्नाड, नामवर सिंह,केदरनाथ सिंह,मंगलेश डबराल, सव्यसाची, परमानन्द श्रीवास्तव,नंदकिशोर नवल,दूधनाथ सिंह,देवेंद्र कुमार बंगाली, बादशाह हुसैन रिज़वी जैसे महत्वपूर्ण  साहित्यकारों से साहचर्य के संस्मरण से स्वप्निल  अपने निजी अनुभव के सहारे  हमारे समय के साहित्यिक परिदृश्य की बड़ी गहन पड़ताल करते हैं, वे विमर्श के कई प्रस्थान विंदु नियत करते हैं, अपना अमर्ष व्यक्त करते हैं, उलाहना देते हैं व उनकी सीमाओं का रेखांकन भी करते हैं, अतः यह किताब कई अर्थों में महत्वपूर्ण  है।
   नामवर सिंह के सन्दर्भ में वे " तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज़ " शीर्षक के लेख में कहते हैं कि "  बनारस में उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा गुरु मिला।यह परम्परा और आधुनिकता का मिलन था, नामवर सिंह ने अपने गुरु की लीक से हट कर अपने लिए एक मार्ग बनाया--- उनकी स्थापनाएं विवाद का विषय बनती रहीं।लेकिन वह आलोचना क्या, जो विवाद का कारण न बने" 
    आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल  अपनी बेबाक व साहसिक टिप्पणीं करते हैं-" आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है लेकिन आलोचक के अपने दम्भ हैं।अपनी अपनी सेनाएं एक दूसरे से लड़ती हैं, जैसे वे एक दूसरे के शत्रु हों।आलोचक सेनापति की भूमिका में हैं"।  स्वप्निल आगे लिखते हैं कि" उन्होंने आलोचना को मार्क्सवादी धारा से जोड़ा और रचना को उसकी कसौटी पर कसने का काम किया।उनके सामने केवल रचना नहीं रचना के समय का समाज था,उनका मार्क्सवाद कट्टर मार्क्सवाद नहीं था, व्यवहारिक मार्क्सवाद था"
  स्वप्निल ने नामवर के बाद के दिनों पर भी खासी उत्तेजक टिप्पणी की  है जो उनके अदम्य साहस का परिचय देती है , स्वप्निल लिखते हैं कि " वह साहित्येतर कारणों से लोगों का उपनयन संस्कार करने लगे, सत्ता के साथ बढ़ती उनकी निकटता और उद्घाटन समारोहों की अतिशयता उन्हें निष्प्रभ करने लगी"
       "लेखक की अमरता" शीर्षक  के लेख में दूधनाथ सिंह से कृतित्व व उनके व्यक्तित्व से सम्वाद करते हुए स्वप्निल हिंदी की कुछ नई परम्पराओ पर बड़ा गहरा व खुला व्यंग्य करते हैं, हालाँकि भाषा की शालीनता अपनी जगह कायम है लेकिन व्यंग की धार इतनी पैनी है कि रक्त पहले निकला या दर्द पहले शुरू हुआ इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल होजाता है वे लिखते हैं " दूधनाथ सिंह ने अपनी अमरता के लिए कोई इंतजाम नहीं किया। उनके पास अंधभक्तो की फौज नहीं थी-- जो उनकी अमरता की कामना करे।हालांकि हिंदी में यह रिवाज बन रहा है कि कुछ लोग अमर होने के लिए मरने का इंतज़ार नहीं करते , वे जीते जी अमरता का अनुष्ठान करते रहते हैं, अपनी ग्रंथावलियाँ छपवाते हैं, किराए के आलोचकों से अपनी यशोगाथा लिखवाते हैं, नगर नगर में अभिनन्दन समारोह आयोजित करवाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें अपने शब्दों पर भरोसा नहीं है" 
     खुद पर व्यंग्य करना सबसे साहसिक कार्य होता है, स्वप्निल अपनी ही साहित्यिक बिरादरी के सच का बड़ी निर्ममता से पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं "लेकिन सबसे ज्यादा आदर्श की मांग लेखक से ही की जाती है।जबकि लेखक देवताओं से कम पतित पतित होता है" 
    वे दूधनाथ सिंह के सन्दर्भ में लिखते हैं" दूधनाथ सिंह ने अपने लेखन में परम्परा की रूढ़ि तोड़ा है, उनकी मूल विधा कहानी है लेकिन उन्होंने अपने लेखन को एक विधा तक सीमित नहीं किया है--- वे एक बेचैन लेखक हैं"  दूधनाथ सिंह की इस रचनात्मक बेचैनी के सन्दर्भ में स्वप्निल बड़ा वाजिब तर्क प्रस्तुत करते हैं " प्रायः विधाओं की आवाजाही को लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन उन्होंने अपनी बेचैनी को प्रकट करने के लिए अनेक विधाओं का चुनाव किया" रचनाकारों के विधागत कायांतरण के सम्बंध में स्वप्निल एक रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि " वस्तुतः एक विधा में विफल लोग दूसरे विधा का चुनाव करते हैं। कतिपय असफल कवि आलोचना की दुनिया मे प्रवेश करते हैं"  स्वप्निल के इस अभिकथन की जांच की जाय तो हिंदी के दो शीर्ष आलोचकों पर सही साबित होता है और वे हैं रामबिलास शर्मा व नामवर सिंह क्योंकि इन दोनों ने पहले कविताएं लिखीं व बाद में कवि कर्म छोड़ कर स्थायी रूप से आलोचना के क्षेत्र में आगये ।
      " केदारनाथ सिंह की कविता के उद्गम स्थल" लेख में स्वप्निल हिंदी के प्रतिनिधि कवि केदारनाथ सिंह के जीवन संघर्षों व रचनात्मक संघर्षो की चर्चा करते हैं, केदार नाथ सिंह के सन्दर्भ में वे लिखते हैं " उनकी कविताओं में खुद अपना चेहरा देखता हूँ"
  केदार नाथ की काव्यप्रवृत्ति की चर्चा करते हुए स्वप्निल केदारनाथ की कविताओं में गीत तत्व की बड़ी बारीकी से शिनाख्त करते हुए लिखते हैं कि " केदारनाथ जी व देवेंद्र जी गीतों के बाद कविता की दुनिया मे दाखिल हुए और अपने गीत तत्व को सुरक्षित रखा" 
    केदारनाथ की कविताओं व आलोचना के मन्तव्यों को लेकर स्वप्निल  अपना खुला आक्रोश व्यक्त करते हुए केदारनाथ का पक्ष लेते हैं । वे लिखते हैं " हिंदी के वे आलोचक जो कविता को क्रांति का हथियार मानते हैं, उन्हें केदारनाथ की कविता नहीं भाती।कुछ तो इतने कटु होगये हैं कि वे उनकी मृत्यु के बाद उनपर हमलावर होगये हैं, कई तो व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आए हैं"।
   इसके अलावा , छोटा कद लेकिन बड़ा पद लेख में परमानन्द श्रीवास्तव, क्या यह स्मृति का दूसरा समय है लेख में मंगलेश डबराल, आलोचक की सजग दृष्टि लेख में नंद किशोर नवल ,देवेंद्र कुमार की कविताई,धर्मिक नगर में कामरेड की आवाज़, बादशाह हुसैन रिज़वी के अफसाने, आदि लेख अत्यंत रोचक व महत्वपूर्ण हैं
    स्वप्निल   इन रचनाकारों के साथ बिताए पलों को याद करते हुए जहां लेख में खुद को आद्यंत उपस्थित रखते हैं वहीं वे अपनी सजग आलोचनात्मक चेतना के चलते भावुकता के शिकार नहीं होते  यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अपने परिचित व सुहृत को याद करते हुए प्रायः व्यक्ति भावुकता के वश में आकर अपने भीतर की अराजकता का शिकार हो जाता है, संस्मरण लेखन में इसके कई उदाहरण हैं,   स्वप्निल के ये स्मृति लेख इस लिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें उनकी आलोचनात्मक चेतना ने उनका कभी साथ नहीं छोड़ा है, अतः ये लेख जहाँ संस्मरण के रोचक प्रसंगों से किस्सागोई का आस्वाद देते हैं तो वहीं एक सचेत मूल्यांकन का निष्पक्ष उत्तरदायित्व भी निभाते हैं,  आलोचना का कोई बड़ा सामान्य पाठक वर्ग नही होता, इसके पाठक सीमित होते हैं  - शोधार्थी , शिक्षक, रचनाकार या आलोचक, लेकिन स्वप्निल ने स्मृतिलेखों के सिलसिले से आलोचना की जो नई प्रविधि इस किताब में विकसित की है इसे नए प्रयोग के रूप में लिया जाना समीचीन होगा
    इन लेखों में स्वप्निल ने अपने भाषा कौशल का परिचय दिया है,  संस्मरण के पलों में उनकी भाषा मे सम्वेदना की तरलता, भावुकता, के तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हैं, लेखों में  कहानी की रोचक शैली में कथाविकास है  तो वहीँ मूल्यांकन के सन्दर्भो में भाषा का तेवर, ताप बदल कर गवेषणात्मक  व व्यंजना प्रधान हो जाता है, एक ही लेख में भाषा के इतने प्रस्तर का रचाव स्वप्निल के कलात्मक सौष्ठव का परिचय देता है।
     आज की आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल ने लिखाहै-"आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है"-- उनकी इस चिंता को स्वीकार करते हुए यह कहा जा सकता है कि - "जब किसी युग मे कोई बड़ा आदमी नहीं होता तो लोग मिलकर उस समय को ही बड़ा कर लेते हैं"
  आलोचना के सन्दर्भ में इन  लेखों को अपने समय की आलोचना को बड़ा करने के सार्थक प्रयास के रूप में  लिया समीचीन होगा
  इतने महत्वपूर्ण लेखों के लिए स्वप्निल श्रीवास्तव को बधाई, आशा है यह किताब सुधी पाठकों में पर्याप्त समादर प्राप्त करेगी
 यह किताब पठनीय भी है व  संग्रहणीय भी।
    किताब के इतने सुरुचिपूर्ण व आकर्षक प्रकाशन  के  लिये प्रकाशक को साधुवाद
                       --  श्रीधर मिश्र, गोरखपुर
                        
  -  कृति-
लेखक की अमरता
 लेखक-  स्वप्निल श्रीवास्तव
 आपस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
   अयोध्या, उ0 प्र0

                                                                     स्वप्निल श्रीवास्तव