सोमवार, 13 दिसंबर 2021

वन्दना वाजपेयी की कहानी

                 तारीफ



मटर-पनीर , मलाई कोफ्ता, बथुए का रायता , इमली की चटनी ,मेवों से तर-बतर गाज़र का हलवा  और रुमाली रोटी, डाइनिंग टेबल पर सुन्दर डोंगों में ये सारा कुछ सजा कर ज्योति अपने पति राहुल का इंतजार करने लगी | माहौल को थोडा रोमांटिक करने के लिए उसने बगीचे से दो गुलाब के फूल तोड़ कर एक काँच की प्लेट में थोड़ा पानी भर कर उनकी पंखुरियां बखेर दी | भीनी –भीनी खुशबु से पूरा कमरा महक उठा |

  इस उत्साह  की खास वजह ये थी कि आज ज्योति ने पहली बार  राहुल के लिए खाना बनाया था | विवाह के बाद ससुराल में यूँ तो सासू माँ ने एक कड़ाही में पांच गुलगुले चुआ कर रसोई छूने का शगुन करवा लिया था , पर पूरा खाना बनाने को उन्होंने ये कहकर मना कर दिया था कि अभी नयी आई हो , दो चार दिन आराम कर लो , चकला-बेलन तो एक बार पकड़ा तो मरते दम तक औरत के हाथ से छूटता नहीं है |

 

अब सासू माँ को ये तो पता नहीं था कि खाना बनाना ज्योति का शौक था | बचपन से ही जब माँ रसोई में खाना बना रही होतीं वो भी पास बैठ कर बनाने की जिद करती | माँ ने बच्चों का खेल समझ कर उसको छोटा सा चकला बेलन ला कर दे दिया था | यहीं से शुरू हुआ खाना बनाने के प्रति उसका अगाध प्रेम , जो उम्र के साथ बढ़ता ही गया | पढाई लिखाई में वो सामान्य थी पर रसोई शास्त्र में हमेशा अव्वल नंबर लाती |

 रसोई उसकी संगीतशाला  थी , चकला, बेलन , कड़ाही और चमचा , उसके वाध्ययंत्र , जिनसे वो तरह –तरह के भोजन रागों का आविष्कार करती थी | तभी तो खाने वाले भी अंगुलियाँ चाट-चाट कर खाते थे | पिताजी तो तारीफ़ करते नहीं थकते थे, मेरी बेटी का बनाया जाफरानी पुलाव कभी खाया है? , कभी आइयेगा हमारे घर कलाकंद खाने पूरे भारत में ऐसा कलाकंद कहीं नहीं मिलेगा, अरे नहीं भाई साहब , बाज़ार के नहीं हैं ये मोतीचूर के लड्डू तो मेरी बेटी ने घर में बनाये हैं , नाम जरूर ज्योति है पर है अन्नपूर्णा |  

किशोरावस्था से उसके यहाँ सहेलियों का जमघट लगा रहता | सबकी माँ की हिदायत जो होती ,  जाओ ज्योति से दो चार ढंग की चीजें सीख कर आओ , कितना भी पढ़ लिख जाओ, रसोई तो औरत को ही संभालनी पड़ती है | और सहेलियाँ उसे घेर लेतीं | ज्योति जरा रुमाली रोटी बनाने की विधि बताना , अच्छा ज्योति बताना खीर में शक्कर का अंदाज कैसे करते हैं, खिचड़ी में पानी कितना डालें?  वो किसी शिक्षक की भांति सबके सवालों को सुलझाती रहती |

जब विवाह की बात चली तब अनुप्रिया ने उसका हाथ पकड़  कर कहा , “ बड़े नसीब वाले हैं  राहुल जीजाजी जो उन्हें इन हाथों से बना खाना खाने को मिलेगा | “देखना अंगुलियाँ चाट –चाट कर तारीफ़ करेंगे , इतना हुनर है हमारी ज्योति के पास” , राधिका ने समर्थन किया | मृणालिनी भी कहाँ चुप बैठने  वाली थी झट से बोल पड़ी,  “देखना इनका लव सॉंग होगा , ‘तुम खिलाती रहो , मैं खाता रहूँ , इतना बढ़िया खाने से और प्यार आता है “ उसकी इस बात पर सब खिलखिला पड़ीं |

 

 ज्योति लजाते हुए अपने भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगती  , जब वो अपने राहुल के लिए खाना बनाएगी और वो अपनी बाहों में भींच कर कहेगा , मेरी ज्योति से अच्छा खाना कोई नहीं बना सकता, सारी  जिन्दगी खाता रहूँगा तब भी कभी मन तृप्त नहीं होगा | मैं बहुत खुशनसीब हूँ ज्योति जो मुझे तुम्हारे जैसे पत्नी मिली |” वो उसके होंठों पर हाथ रखकर कहेगी , “ इतनी तारीफ़ ना करिए , आप जैसे ज्ञानी पति  को अपने हाथों से बना कर खिलाना मेरा भी तो सौभाग्य हैं |” राहुल उसका हाथ हटा कर उसे अपने सीने से लगा लेगा और जिन्दगी रसगुल्लों की चाशनी की तरह मिठास से तर –बतर हो जायेगी |

 

वो अपने ख्यालों में खोयी ही थी कि राहुल आ गया | वो जल्दी –जल्दी डोंगों से खाना उसकी प्लेट में परोसने लगी | राहुल ने उसे रोकते हुए कहा , “ मैं कर लूँगा इतना , तुम अपनी प्लेट भी लगा लो |” वो अपनी प्लेट लगाने लगी | राहुल ने प्लेट लगाने के बाद अखबार खोल लिया | सुबह घंटा भर पढ़ा हुआ अखबार वो दोबारा पढने लगा | ज्योति उसके चेहरे के बनते –बिगड़ते भावों से खाने के पसंद –नापसंद का अनुमान लगाने लगी | तभी राहुल की उडती से नज़र ज्योति पर पड़ी , वो उसे ही एकटक देख रही थीं | “ क्या हुआ ?” राहुल ने पूछा | कु ... कु... कुछ नहीं , खाना कैसा लगा ?” उसने सकपकाते हुए पूंछा | “ हूँ , ठीक है |” राहुल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया |

 

थोड़ी देर अखबार में सर घुसाए रखने के बाद उसने फिर सर उठाया | ज्योति को आशा जगी | राहुल ने कहना शुरू किया , “ ये शेयर मार्किट इस समय बहुत गड़बड़ कर रही है | मेरे ख्याल से इस समय बुल की जगह बीयर मार्केट   में पैसा लगाना सेफ रहेगा | “ उसके बाद उसने फिर से अखबार में डुबकी  लगा ली | उसे शेयर मार्किट तो समझ में नहीं आती थीं पर इतना तो समझ ही गयी कि उसके मलाई-कोफ्ते , मटर पनीर .... राहुल ने नहीं , बुल और बीयर ने खा लिए | मन में निराशा तो थी पर उसने अपनी उम्मीद की थाली  शाम के खाने की तरफ सरका दी |

 

शाम से सुबह हुई , सुबह से फिर शाम की यात्रा करते –करते चार  महीने बीत गए पर ज्योति के हिस्से में तारीफ़ नहीं आई | राहुल खाने की मेज पर कभी देश की उठती गिरती समस्यों में उलझा होता, तो केक कितनी मुलायम  बनी है इस बात का ध्यान कहाँ जाता   , कभी कोई अंतर्राष्ट्रीय घटना के आगे इडली-सांभर  की बात करना भी अल्पज्ञता की निशानी होती , कभी ऑफिस की समस्याओं में जलेबी उलझ कर रह जाती तो कभी घर परिवार की समस्याएं जाफरानी पुलाव को चट कर जातीं | कारण कुछ भी हो उसको इतने महीने बाद भी तारीफ नहीं मिली तो नहीं मिली |

धीरे –धीरे उसका सब्र जवाब देने लगा | सलीके से रसमलाई की गार्निश करती अँगुलियाँ शब्दों का सलीका भूल गयीं | “ कभी तो मुंह से खाने की तारीफ में कुछ बोल दिया करो, क्या सर  अखबार में घुसाए –घुसाए खाते रहते हो , ये जो मुँह  में बिना ठीक से देखे  ठूस रहे हो ना उसको बनाने में भी मेहनत  लगती है |” वो गुस्से में फूट पड़ी |

“ तो क्या , तुम्हारी प्रशंसा के लिए गीत –काव्य लिखूं , खाना ही तो बनाया है , ऐसा कौन सा मंगल गृह का नया रास्ता खोज लिया है , दुनिया भर की औरतें बनाती हैं, इसमें नया क्या है ? जरा सा कुछ हल्दी मसाले इधर –उधर कर दिए और लगीं तारीफ की उम्मीद करने | देखो मैं तुम्हारा पिता की तरह भोजन भट्ट नहीं हूँ ,  जो हर रोज अँगुलियाँ चाट –चाट कर तुम्हारे खाने की तारीफ़ करता फिरूँ |  बहुत सारे काम हैं मेरे पास करने को, बैठे –बैठे तारीफ़ करने के अलावा  |”  धडाम से कुर्सी फेंकते  हुए राहुल ने कहा और खाना अधूरा छोड़ कर ही चला गया | शायद पुरुष का अहंकार ज्योति का कहने का तरीका बर्दाश्त नहीं कर पाया था |

 

उसकी आँखें पछतावे से भीग गयीं | बेकार ही कहा , खाना भी नहीं खाया | कम से कम पूरा खा तो लेते थे | सारा दिन ऑफिस में मेहनत करते हैं , मैं भी किस बात पर उलझ पड़ी | तुरंत राहुल को मनाने चली गयी |  “ सॉरी राहुल , मुझे ऐसे नहीं कहना चाहिए था , तुम प्लीज खाना खा लो |” राहुल अपनी फ़ाइल में सर गड़ाए बैठा रहा | दो –दिन बात भी नहीं की | धीरे –धीरे सीज फायर हो गया | राहुल सामान्य तौर से खाना खाने लगा और वो सामान्य तौर से तारीफ की उम्मीद करने लगी |

 

एक दिन राहुल अपने दोस्त के घर  उसको लेकर गया | वहां  खाना खाते समय ना अखबार था ना  शेयर मार्किट  ना राष्ट्रीय , अंतर्राष्ट्रीय समस्याएं , राहुल खाना खाते हुए बार –बार तारीफ कर रहा था | भाभी जी , आपके हाथों का जवाब नहीं , ये मटर पनीर  कितना स्वादिष्ट बना है | वाह –वाह जाफरानी पुलाव के तो कहने ही क्या | वो विस्फारित नेत्रों से राहुल को देखने  लगी | उसने नोटिस किया कि जब भी अपने दोस्तों के यहां जाता है, स्वाद को गैरमामूली चीज समझने वाला राहुल  उनकी पत्नियों के बनाये खाने की तारीफ़ करता है | ये वजह एक बार फिर उसको नाराज करने के लिए काफी थी |

 

घर आ कर साड़ी बदलते हुए उसने राहुल को टोंका , “ क्या बात है राहुल , अपने दोस्तों की पत्नियों के खाने की तो इतनी तारीफ़ करते हो , कभी मेरी भी कर दिया करों |

“ हाँ , तो ?, खाना पसंद आया तो कर दी , कभी तुम भी अच्छा बनाओगी  तो तुम्हारी भी कर दूँगा | अभी तो तुम्हारी फिगर की तारीफ करने का दिल कर रहा है “,कहते हुए राहुल ने उसे अपनी और खींच लिया | सुबह भारी  मन से उठने के बाद वो सोचने लगी  कि शरीर की संतुष्टि हमेशा मन की संतुष्टि नहीं होती | अपने स्नेह और हुनर के पारिश्रमिक के रूप में तारीफ के दो बोल ही चाहती थी वो | उसकी ये छोटी से इच्छा भी राहुल पूरी नहीं कर सकता | सोचते –सोचते उसे तेज उबकाई आने लगी |







 

अब उनकी जिंदगी में नन्हा गौरव भी शामिल हो गया था | मातृत्व के शुरू के वर्षों में ज्योति का राहुल की तारीफ़ के प्रति इतना ध्यान ही नहीं गया | उन दोनों के बीच बातें भी मुख्यत : गौरव की ही होती | अरे देखो , ‘पापा कहा , अरे ये तो चलने लगा , कौन से स्कूल में एडमिशन कराना है | ऐसा नहीं था कि जिन्दगी थम गयी थी , अभी भी दोस्तों के यहाँ जाना –खाना पीना यूँ ही चल रहा था पर जिन्दगी की प्राथमिकता ‘गौरव के इर्द –गिर्द ही घूमती | सेरेलेक और बेबी फ़ूड की बातों में अपने व् राहुल के लिए क्या पका रही है इसका ख्याल भी कम ही  रहता |

 

इसी बीच अनुप्रिया का ट्रांसफर उसी शहर में हो गया | उसने राहुल और ज्योति को खाने पर बुलाया |  उसने सरसों का साग और मक्के की रोटी, हरी धनिया की चटनी , दाल मखनी और साथ में थोडा सा नैनू (ताज़ा निकाला हुआ मक्खन) परोसा | जाड़े के दिन थे  गर्म –गर्म खाने का स्वाद कुछ और ही बढ़ गया था | राहुल ने खाते –खाते कहा , अनु , आपके हाथों का जवाब नहीं क्या खाना बनती हैं आप , बड़े भाग्यशाली हैं आप के पति जो आप जैसे पत्नी मिली है | कौर मुँह में ले जाते हुए ज्योति के हाथ जैसे रुक गए |

तभी अनु बोल पड़ी , “ जीजाजी आप तो झूठी तारीफ़ रहने ही दीजिये , गुरु तो आपके घर की रसोई में बैठा हैं , ये सब बनाना मैंने ज्योति से ही तो सीखा है |”

“गुरु गुड ही रह गया और चेला चीनी हो गया , ये सारे हुनर तो बेगम साहिबा मायके में ही छोड़ आयीं “ राहुल ने हँसते हुए कहा और सब उसकी बात पर हँस पड़े |

उसकी वर्षों दबी इच्छा कुरिद गयीं , आँखें डबडबा  गयीं , वो खाना छोड़ कर अंदर दूसरे कमरे  में चली गयी | अनु बात को भांप कर उसके पीछे –पीछे आई और उसके पास बैठ कर बड़े प्यार से बोली , “ ज्योति तू  भी ना ,किस बात पर दुखी होने बैठ  गयी ,  दुनिया के सारे मर्द ऐसे ही होते हैं , उन्हें अपनी बीबी में कोई हुनर नज़र नहीं आता , और दूसरों की बीबी में कोई दोष नहीं , ऐसी बातों को दिल पर नहीं लेते | फिर जीजाजी ने तो मजाक में कहा था |

“मजाक” ज्योति ने अनु का हाथ हटाते हुए कहा , “ शायद मजाक ही होगा, पर मेरी तो हसरत रही ही गयीं अपने बनाये खाने की तारीफ़ सुनने की |”

“ हाँ तुझे लग सकता है तू इतना स्वादिष्ट खाना जो बनाती आई है , मैं तो रोज बनाती भी नहीं पर जिस दिन बनाती हूँ , मन तो तारीफ़ के लिए मचलता है , पर मेरे पति को भी देखो , जल्दी से आवाज़ फूटेगी ही नहीं तारीफ की , जैसे भगवान् ने स्वादेन्द्रियाँ बनायीं ही ना हो , अगर कभी कुछ कहेंगे भी तो नमक कम है , आज हल्दी कुछ ज्यादा हो गयी, इसलिए तो  मैं रोज बनाने का सिरदर्द लेती ही नहीं , पार्टी वगैरह में ही रसोई में हाथ लगाती हूँ , अपना मियाँ नहीं तो दूसरों के मियाँ तो तारीफ़ करते हैं ना” कहते हुए अनुप्रिया ने शरात में बायीं आंख दबा दी | उसको भी हंसी आ गयी |   

 

लौटते समय कार में सन्नाटा पसरा रहा ,वो सोचती रही अनुप्रिया कह सकती है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता , ऑफिसर है ,महीने के आखिर में नोटों की गड्डी  लाती है, उसके पति भी उसके ऑफिस और घर संचालन की कितनी तारीफ़ कर रहे थे, पर उसका तो एक यही हुनर है , जिसका गर्व वो अपने पति की आंखो में देखना चाहती है ....पर वो बस खाना ही तो बनाती हो , कहकर उसका स्वाभिमान ही कुचल देते हैं | उस रात   पति –पत्नी अलग –अलग कमरे में सोये | इस बार वो भी हथियार डालने के मूड में नहीं थी | दो दिन बाद राहुल ही आया उसे मनाने , “ क्या  यार जरा सी बात पर मुँह फुलाए बैठी हो , देखो मुझे खाने का ज्यादा शौक  नहीं है , तुम भी अच्छा खाना बनाती  हो , पर अपनी ही बीबी की रोज –रोज क्या तारीफ करूँ | वैसे अनु ने खाना वाकई अच्छा बनाया था | मतलब मुझे अच्छा लगा , कह दिया | तुम चाहो तो उससे सीख लो |” ज्योति कुछ कहना चाहती थी कि गौरव आ गया| मेरी मम्मी दुनिया की बेस्ट कुक हैं कहते हुए वो उससे लिपट गया |  ज्योति अपने आंसू ना रोक सकी | उम्मीदों  की सुई गौरव की और घूम गयी |

 

वो दिन उसकी जिंदगी के थोड़े अच्छे दिन थे | जो भी बनाती गौरव व् उसके दोस्त प्रशंसा कर देते | वो दुगने जोश से कुछ नया , बेहतर बनाने की कोशिश करती | हमेशा अखबार में सर घुसा कर खाने वाला राहुल भी अब बेटे की देखा देखी खाने पर टिप्पडी करने लगा , पर ज्यादातर टिप्पड़ियाँ नकारात्मक ही होतीं |

“मेरी माँ , साग को सरसों के तेल में बनाती थीं | ये आँवले रात में में पानी में भिगो दो तभी मुरब्बा अच्छा बनेगा , तुम हल्दी –नमक  तेजस्वनी की तरह थोडा कम डाला करो |  मुलायम सा नैनू कैसे बनाते हैं जरा अनु से पूँछ लो ना प्लीज |कभी –कभी उसका दिल दुखता पर गौरव की तारीफ़ उस पर लेप लगा देती | मन में सोचती , शायद अनुप्रिया सही ही कहती है , पुरुष दुनिया भर की औरतों क तारीफ़ करेगा पर अपनी पत्नी में उसे नुक्स ही नज़र आयेंगे | चलो बेटे के बहाने ही सही उसकी प्रयोगशाला चल तो रही है , वाद्य यंत्र बज तो रहे हैं |

 

किशोरावस्था में कदम रखते ही गौरव ने भी रंग बदलना शुरू कर दिया | अब उसे माँ के हाथ का खाना नहीं बाज़ार का खाना पसंद आने लगा | स्थिति ये हो गयी  की आज क्या खाओगे बेटा ? , पूंछने पर भी वो नाराज़ हो जाता , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है ? जीवन में और कोई काम नहीं है क्या , जो हर समय खाने की बात करती रहती हो ? वो जो भी बनाती कभी कॉपी , कभी लैपटॉप , कभी मोबाइल करते हुए गटक लेता | कभी –कभी उसकी प्रश्न वाचक निगाहों को देखकर झुन्झुला जाता , “ मम्मी आप भी , खा तो लिया ना बस इतना काफी नहीं , आपको इतनी तारीफ की जरूरत क्यों महसूस होती है |” वो महसूस कर रही थी कि गौरव तेजी से अपने पिता में बदलता जा रहा है , जिनके मन में औरतों की मेहनत और घरेलु काम के प्रति कोई सम्मान नहीं  होता | वो ऑफिस या स्कूल –कॉलेज में किये गए अपने काम को तो काम मानते हैं , उसकी तारीफ़ भी चाहते हैं , पर उनकी निगाह में घरेलू औरतें  “ दिन भर करना ही क्या होता है “ के दायरे में आती हैं | माँ की ममता पर पिता का खून भारी पड़ने लगा |

 

बारहवीं के बाद गौरव इंजीनयरिंग करने हॉस्टल चला गया | ज्योति को अब खाना बनाने से अरुचि होने लगी | गठिया के कारण शरीर भी साथ नहीं देता , उच्च रक्त चाप और अन्जाइना भी शरीर में घर बना चुके थे | घी –तेल , मिर्च –मसाला , शक्कर , स्वाद के ज्यादातर नुमाइनदे  स्वास्थ्य ने छीन लिए  थे | सादा और उबला ही बनना था | अब तो बस खाना बनाने के लिए बनाती , मन भी नहीं लगता , बस पेट भरना है यही ख्याल रहता |धीरे –धीरे रसोई में घुसने की भी इच्छा साथ छोड़ने लगी |  कभी –कभी कोई पुरानी  सहेली याद दिला देती तो आश्चर्य होता क्या वही थी वो ज्योति जो इतना अच्छा खाना बनाती थी |

 

जिन्दगी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी | समय ने उसकी थाली से एक स्वाद और छीन लिया | दो दिन के बुखार में राहुल उससे हमेशा के लिए दूर चले गए | जब तक डेंगू पॉजिटिव की रिपोर्ट आती मरीज ही जा चुका  था | उस समय गौरव की पोस्टिंग मुंबई में थी जहाँ वह अपनी पत्नी परिधि और दो जुडवाँ बच्चों के साथ रह रहा था | पिता के ना रहने पर कुछ दिन के लिए आया था , फिर वापस चला गया | वो अकेली घर की दीवारों पर सर मारती | एक टाइम खाना बना लेती वही दोनों टाइम खाती | कई बार तो फ्रिज में रख देती और  गर्म कर –कर के दो तीन दिन में खा कर खत्म कर पाती | टी . वी पर आस्था चैनल देखकर मन बंटाती  और शाम को अपनी लाठी के सहारे पास के मंदिर में चली जाती | जीवन और थाली दोनों ही बेस्वाद हो चले थे |

 

धीरे –धीरे शरीर अशक्त हो चला था | अब तो चला –फिर भी ना जाता , काम किये ना होता |  ७२ की उम्र से कहीं ज्यादा रोगों ने उसे तोड़ दिया था | अकेली बीमार अशक्त माँ की आंखे  गौरव और उसके बच्चों के आने  की बात जोहती रहतीं| बच्चे आ जाते तो कुछ रौनक हो जाती | खाना बनाने के लिए उन दिनों कांता को बुलवा लेती | कांता दूसरों के घर में खाना बनाया करती थीं | कितनी बार कह चुकी थी , अम्माँ हमें हमेशा के लिए लगवा लो , गर्म –गर्म रोटियाँ देंगे , पर वो ही ना कर देती |  “अरे अकेले प्राणी को खाना ही कितना है, बच्चे आते हैं तो जी करता है कुछ खा लें, उबला सादा खाना पसंद ही नहीं करते | अब उम्र हो गयी है , रसोई में ज्यादा देर खड़े होने का ही मन नहीं करता , घबराहट होने लगती है , इसलिए तुम्ह्को बुला लेती हूँ |” कांता जानती थी कि बुढ़िया अपने लिए ज्यादा कुछ बनाती नहीं है , तो उसे क्या लगवायेगी , फिर भी चुहल में हर बार आग्रह करती और हर बार वही उत्तर सुन मुस्कुरा देती |    उधर परिधि की नौकरी लग गयी | उस साल गर्मी की छुट्टियों में गौरव अकेले ही आया | आते ही ऐलान कर दिया , “मम्मी , अब तुम अकेली नहीं रहोगी , हमारे साथ चलो |”

“क्या बहु भी ऐसा ही चाहती है |” उसने बेटे से अपनी शंका का समाधान चाहा |

“ हां माँ , उसी ने ही तो मुझे भेजा है , तुम्हे लाने के लिए , कहा है अब मम्मी अकेले नहीं रहेंगी , अब उनकी बैठ कर खाने की उम्र है |”  गौरव ने कहा तो ख़ुशी से उसकी रुलाई फूट गयी | कहीं  तो उसकी कदर है सोच कर वो अपना सामन बांधने  लगी |

 

मुंबई में हफ्ता – पंद्रह दिन बहुत अच्छे बीते | बहु पूछ –पूछ कर खाना बनाती | बच्चे दादी –दादी कर के पास घूमते | यहां  बुढ़ापा ठीक से कटेगा ये सोच कर वो आश्वस्त हो चली थीं |

 हर रात की तरह उस रात भी घुटनों की अलसी के तेल से मालिश कर वो सो गयी , इस बात से बेखबर की बगल के कमरे में बहु –बेटा उसी के कारण झगड़ रहे हैं |  

परिधि – “देखो तुम्हारी माँ को रोज –रोज पका –पका कर मैं नहीं खिला सकती | बुढ़िया तो किचन में घुसती भी नहीं |”

गौरव – “ठीक से बात करो , माँ का गठिया का दर्द जोरो पर है , आजकल , ठीक से चला नहीं जा रहा |”

परिधि – लो जी , कर लो बात ,ठीक से क्यों बोलूं , मैंने तो इसी लिए बुलाया था कि खाना और बच्चे वो संभाल लेंगी तो मैं आराम से नौकरी कर पाऊँगी | मुंबई के खर्चे कितने हैं , खाना पकाने वाली भी कितनी महंगी  है , ऊपर से छुट्टियां भी बहुत करती हैं , दो का चार खर्च करती हैं , सामान मारती  हैं सो अलग  |

गौरव –“पर मैं तो तुम्हारे नाम से ही माँ को लाया था , अब तुम हीं ... अपनी मंशा पहले बताना चाहिए  थीं ना |” 

परिधि –“कितनी बार कहा था , मम्मी आ जायेंगी तो बच्चों और उनकी फरमाइशों को वही देखेंगी , मूल से सूद प्यारा जो होता है | सुनते कहाँ हो मेरी बात , पर देखो ये मुझसे नहीं होगा , दिन भर ऑफिस में काम करूँ और सुबह शाम रसोई में पूरी ड्यूटी  दूँ और बुढिया आराम से गठिया का बहाना बना कर पलंग तोड़े |मैंने तो बुलाया ही रसोई के काम में मदद के लिए था | सोच लो , नौकरी छोड़ दूंगी तो लोन की क़िस्त कैसे भरोगे ?”

गौरव – “लेकिन... लेकिन अब माँ को वापस कैसे भेजूँ ?”

परिधि – “देखिये मैं कुछ नहीं जानती | मैं एक दिन साफ़ –साफ़ कह दूंगी , यहां  रहना है तो खाना बनाना पड़ेगा , जब सारा दिन घर में ही रहती हो तो ऐसी आरामतलबी नहीं चलेगी |”

गौरव  – “रुको , रुको , मैं ही कोई तरकीब निकालता हूँ | “

परिधि – “ठीक है , पर जल्दी करना | “

                       गौरव चुपचाप उठ कर माँ के कमरे की तरफ गया  | इन बातों से बेखबर वो निश्चिन्त सो रही थी | उसे इत्मीनान हुआ की माँ ने उसके व् परिधि के बीच की कोई बात नहीं सुनी है | सारी  रात अपने बिस्तर पर लेते-लेते योजनायें बनता रहा | आँखों में नींद का नाम नहीं था |

दूसरे दिन सुबह गौरव जल्दी उठ कर माँ के कमरे में गया | वो घुटनों में अलसी के तेल की मालिश कर रही थी | गौरव ने माँ के हाथ से तेल की शीशी ले ली और घुटनों में लगाने लगा | ज्योति ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा , ‘ चल हट , तुझे ऑफिस को देर हो रही है |

गौरव ने मालिश जारी रखते हुए ,” माँ अपनी सेवा का हक़ तो ना छीनो मुझसे , सही ही कहा गया है , माँ के क़दमों में तो जन्नत होती है |”

ज्योति : “अरे , आज तो बड़ी –बड़ी बातें कर रहा है , किसने सिखाया तुझे ये सब ?”

गौरव : “ उम्र के साथ ये ज्ञान आ ही जाता है कि माता –पिता अनमोल होते हैं , फिर  परिधि भी आपकी बहुत तारीफ़ करती है |”

“अच्छा “अपनी आंखो में उठ आये बवंडर को पल्लू से पोछने लगी |

 

 “ हाँ माँ , एक बात कहने का दिल और कर रहा है ...... वर्षों हो गए तुम्हारे हाथों के आलू के पराठे नहीं खाए | कितने स्वादिष्ट बनाती  थी तुम, मेरे पूरे क्लास में हिट  थे , पराग तो अक्सर कहता , अपनी माँ से आलू के पराठे बनवा कर लाओ |” गौरव माँ की और स्नेह से देखता हुआ बोला |

 “ माँ , कभी तबियत ठीक महसूस हो तो फिर बनाना” थोडा रुक कर गौरव ने फिर कहा |

ज्योति ने हाथ झिटकते  हुए कहा , हट पगले , पहले क्यों नहीं बताया | अभी बना देती हूँ | कहते हुए अपने घुटनों के दर्द को भूल वो झटके से उठी , दर्द के जोर से एक हल्की चीख निकली , पर वो रुकी नहीं , उसके कदम लाठी लेकर रसोई की ओर बढ़ने लगे |

 

सुबह नाश्ते की टेबल पर पूरा परिवार यानि परिधि बच्चे और गौरव, अपने स्कूल और ऑफिस के लिए तैयार होकर  नाश्ता करने लगे |

माँ , तुम्हारे हाथों के आलू के पराठों का जवाब नहीं , गौरव ने  परिधि को देखकर आँख मारते हुए जोर से कहा |

“ हाँ माँ , मैं तो कभी भी आप के जैसा खाना नहीं बना सकती “ आँख मारते हुए परिधि ने भी जवाबी तान मिलाई |  

“अरे बेटा, उठना नहीं ,  ये वाला और खाना , ये और भी ज्यादा कुरकुरा है”, दर्द से बेजार टांगों की परवाह ना करते हुए माँ का ममत्व रसोई से उड़ता हुआ डाइनिंग टेबल पर छितर  गया |

अब वो रोज खाना बनाती है और सब जी भर –भर के उसकी  तारीफ़ करते हैं ।





परिचय


वंदना बाजपेयी 
शिक्षा : M.Sc , B.Ed (कानपुर विश्वविद्ध्यालय ) 
सम्प्रति : संस्थापक व् प्रधान संपादक atootbandhann.com
 दैनिक समाचारपत्र “सच का हौसला “में फीचर  एडिटर,त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका गाथान्तर  के कुछ अंकों में सह सम्पादन, मासिक पत्रिका “अटूट बंधन”में एक्सिक्यूटिव एडिटर का सफ़र तय करने के बाद अभी ऑनलाइन साहित्यिक वेब पत्रिका www.atootbandhann.com का संचालन 
कलम की यात्रा : देश के अनेकों प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओ, वेब पत्रिकाओं में कहानी, कवितायें, लेख, व्यंग, समीक्षा  आदि प्रकाशित | कुछ कहानियों, कविताओं, समीक्षाओं  का नेपाली, पंजाबी, उर्दू और मराठी, अंग्रेजी  में अनुवाद ,महिला स्वास्थ्य पर कविता का मंडी  हाउस में नाट्य मंचन | 
 प्रकाशित पुस्तकें
 
कहानी संग्रह –विसर्जन, वो फोन कॉल 
कविता संग्रह -मायके आई हुई बेटियाँ (शीघ्र प्रकाश्य)
साझा काव्य संग्रह .... गूँज , सारांश समय का ,अनवरत -१ , काव्य शाला 
साझा कहानी संग्रह ... सिर्फ तुम, मृग तृष्णा 
साझा इ  उपन्यास -देह की दहलीज पर (मातृभारती.कॉम ) 
वेब सीरीज -रेडी गेट सेट गो (प्रतिलिपि पर )
सम्पादित –दूसरी पारी( आत्मकथात्मक लेख संग्रह )
संपर्क – vandanabajpai5@gmail.com

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