मंगलवार, 4 जनवरी 2022

कहानी - उँचे खाले की गिरहें

                                                उँचे खाले की गिरहें


                                                                                                                   चन्द्रकला त्रिपाठी

नारायन के द्वार पर रोज़ की तरह ही बैठकी लगी हुई थी। ज़्यादातर गांव के पुरनियों का ठीहा बनता गया था यह स्थान।नारायन के समोरिया लोगों के सुख दुःख कहने की इस जगह पर किसी के जुटने की मनाही नहीं थी।चाय पानी का जुगाड़ तो था ही इससे ऊपर भी कुछ न कुछ जुट जाता।घरनी को सत्कार अच्छा लगता था।चार प्राणी के इस तरह मिलने जुलने से हुई मनसायन से दरवाज़ा अजोर हुआ लगता।शहर में काफी दिन रहने के कारण शहरी आवभगत भी जानती थीं।साफ सफाई से दरवाज़े को सजाए रहतीं तो आए गए का यहां मन लगता था। कोई कोई तो बेना से मुंह ढंक कर वहीं पौढ़ भी जाता। उसके अपने घर से दूसरी तीसरी बुलाहट आ चुकी होती तब कहीं टलता था।

दो तीन घंटे की बैठकी तो मामूली बात थी कभी कभार दुपहरिया हो जाती।
नारायन खेत बगीचा की ओर निकल भी जाते तो पत्तन आ कर बैठ जाते और बतकही जमी रहती।

गांव की ज़िंदगी में इतवार सोमवार वगैरह का कोई हिसाब तो होता नहीं और दिनचर्या भी घड़ी की सुइयों पर नहीं टिकी होती मगर इस गांव से पढ़वइया और नौकरिहा निकलने लगे थे। रास्तों पर स्कूल जाते लड़के लड़कियां आम हो चले थे। नौकरी वाले तो सबेरे ही स्कूटर या मोटरसाइकिल पर निकल जाते।पतली सी सड़क पर एक हलचल मच जाती।आज संयोग से इतवार था। तो आज की बैठकी में और रौनक थी। बतकहियों का कोई हिसाब नहीं था।गांव भर की कुंडली का जखीरा खुल रहा था।नारायन इसे मन लगा कर सुने या न सुने इससे किसी को फ़र्क नहीं पड़ना था।

सुरारी इस महफिल के सबसे जागतिक समाजी थे। उनके एक दिन के भी नागा करने से इस समाज की रौनक घट जाती।बुढ़वे जम्हाने लगते तो जवान लोग यहां वहां  ताकते उठ कर चले जाते।कह सकते हैं कि महफ़िल का रोचक तत्व ख़त्म लगा करता था।सब जानते थे कि सुरारी गुरु एक नंबर के अड़भंगी हैं,बात फैलाने में उनके जोड़ का कोई दूसरा नहीं और न गहरे से गहरे पेट से बात निकाल लेने में उनका कोई सानी था मगर उनके कहने सुनने में ऐसी सरसता थी और ऐसा जादू था कि बड़े बड़े चुहलबाज फेल थे।
ऐसी बातें वे जिस गंभीरता से बताना शुरु करते कि सारी टकटकी उन पर लगी होती।लोग उस चमत्कारी प्रसंग तक पहुंचने के लिए बेताब हुए रहते।असल जगह पर पहुंच कर वे अपनी खैनी भरी गदोरी में ऐसा झुक जाते कि अब वहीं से कुछ नायाब निकलने वाला है , फिर इधर उधर देखते , कुछ फुसफुसाते और फिर असली फुलझड़ी छोड़ देते।
मंडली में हंसी का दौरा फूट पड़ता। लड़के बच्चे नाच नाच कर हंसते और उनकी ओर देखते कहते कि गुरु ई ठीक नहीं है ! ठीक नहीं है गुरु !

सुरारी प्रकृतस्थ होते। कहते - जाओ तब देख लो , नहीं पतिया रहे हो तो देख लो जाकर 
आस पास से गुजरती घर या पड़ोस की औरतें इस टोली की तरफ आधा घूंघट कर लेतीं और लड़कियां फटफट गुजर जाना चाहतीं।
सुरारी की निगाह से वे नहीं बचतीं।
किसी को पहचान कर कह उठते वो - मुरलिया बो थी न
 नारायन टोकते - का महराज ! 
 गुरु कहते  - अरे हम कुछ कह नहीं रहे हैं और सुर्ती फांकते हुए उधर ही देखते हुए कोई किस्सा उचारते। 
 बैठकी जागृत हो जाती।
 सुरारी हर उम्र के लोगों की पसंद थे। एक से एक किस्सा उचारते मगर खुद गंभीर बने रहते।लोग उनके हाव भाव पर लहालोट होते।
मगर उस दिन  सुरारी जैसे किसी टोह में थे।
बातचीत में हमेशा की तरह  बढ़ चढ़ कर हिस्सा नहीं ले रहे थे।मदन सिधनाथ यहां तक कि हमेशा का मुहचोर तिरगुन तक बाजी मार रहा था।नारायन गुरु हमेशा की तरह रस ले रहे थे।उनका ध्यान सुरारी के उचटेपन पर जा रहा था मगर कारण समझ में नहीं आ रहा था।सुरारी भी बार बार उन्हें देख रहे थे।उसक रहे थे। एक दो बार फारिग होने भी चले गए।
उसी समय मदना पूछ बैठा - गुरु काहें चुप्पा हुए हैं 
 सब सोच उठे।
 नारायन के लिए तब पूछना ज़रुरी हो उठा - सब ठीक है न सुरारी

सुरारी नारायन से छोटे थे उम्र में। उनके सबसे छोटे भाई पंचानन की उमर के थे वे। मां बाप की एकमात्र संतान होने के कारण गांव के विद्यालय से पढ़ कर बगल के गांव के प्राइमरी स्कूल में मास्टर लग गए। जन्मतिथि बढ़ा कर लिखा दी गई थी सो नारायन से पहले रिटायर हो गए और गांव लौट कर सूद पर रुपया उठाने के धंधे में लग गए। खेती बारी भी बढ़ा लिए।हरवाह चरवाह तो थे ही उनके पास एक लठैत भी था।सूद पताई के काम में जोखिम के चलते जहां जाते वह लठैत भी साथ जाता।  पत्नी कभी किसी तो कभी किसी बेटे का घर संभालने बाल बच्चा पोसने शहर चली जाती मगर सुरारी का जी कभी वहां नहीं लगा। एक बार बेटी उन दोनों पति पत्नी को विदेश ले गई। लंबी हवाई यात्रा से वे इतना डर गए कि लौटने के लिए बवाल फान दिए।लौट कर इसी बैठकी में विदेश का ऐसा ऐसा चित्र खींचा कि लोगों का मुंह खुला का खुला रह गया। ख़ासकर अपनी अंग्रेज़ी से प्रभावित एयरहोस्टेस की परेशानी  बताने का उनका प्रसंग फरमाइशी प्रोग्राम में शामिल हो चुका था।
सबसे बढ़ कर तो वे मानने को तैयार नहीं थे कि लंदनियों को हिंदी नहीं आती। डंके की चोट पर कहते कि सब नहीं जानने का बहाना करते हैं।
इस तरह अपनी बेटी दामाद को ही नहीं नातिन को भी सांसत में डालने का प्रसंग वे  बड़े गर्व से सुनाते थे।
आज उनकी चुप्पी से सब शंकित हो चले थे।लग रहा था कि गुरु के मन में कुछ भारी पक रहा है।

किसी फिकिर में हैं क्या गुरु ! सिधनाथ पूछ बैठा।

सुरारी गमखाए से सबको देख उठे।सब उनका अझुरायापन समझ रहे हैं यह आभास उनको हुआ। यह उनके परिहासमय स्वभाव के विरुद्ध बात थी। बहुत कम होता था कि सुरारी गुरु ऐसे मद्धिम भाव में रहें। घर बाहर सब जगह इसकी उसकी चुटकी लेते बीत रही थी उनकी।जब कभी टोटा पड़ता तो अपनी ही हंसी उड़ाने पर आमादा हो जाते। यह बूता उनका ग़ज़ब था।
आज की बैठकी में यह धज नहीं थी।
नारायन को भी ऐसे गढ़ुआए सुरारी समझ में नहीं आ रहे थे।

सहसा सुरारी चलने को उठ खड़े हुए। 
नारायन की घरनी ने
 यह देख लिया। समझ गईं कि
अब दरवाजे का यह मेला अपनी राह लेगा ।

इस समय वह  चितिया के साथ चारा कटवा रही थीं।  वहीं से सबको रोक उठीं।ठमक गए सुरारी।
 थोड़ी ही देर में तश्तरी में सज कर आया पाहुर सबके सामने था।चितिया पानी लेकर आई थी। बड़े बड़े लड्डुओं की आब से बैठकी में जान क्या आई कि सुरारी नारायन से पूछ बैठे - बिना लिखा-पढ़ी के मजनुआ को रुपया क्यों दे रहे हो। एकबार भी हमसे चर्चा नहीं किए।एतना धोखा मिला है ,अबहिन पेट नहीं भरा ...
 दरअसल नारायन से यही पूछने का मौक़ा खोज रहे थे सुरारी मगर सबके सामने नहीं पूछना चाहते थे। नारायन की सिधाई के कारण कहीं न कहीं  वे खुद को नारायन का अभिभावक मान बैठे थे। यहां अफसरी मियां के हाते में उनकी रिहाइश का इंतजाम उन्होंने ही किया था और बढ़ चढ़ कर नारायन के स्वार्थी बड़े भाई और उनके वकील बेटे की दबंगई का निबटारा किया था।तब भी तो वे यह चाहते थे कि नारायन जमीन जायदाद के बटवारे के मामले में अपना ज़ोर दिखाएं मगर नारायन सधुआ उठे थे।
भरभराई आंखों से देखते हुए  बोल उठे थे कि अपनों से लड़ कर सब मिल भी गया तो क्या मिला।

नारायन तो सब भूल भाल गए मगर सुरारी के कलेजे में फांस अटकी थी।
जब से निरंजन का लड़का वकील हुआ है आधा गांव दीवानी फौजदारी के मुकदमें में फंस गया है। जब उस बाप बेटे ने नारायन के लिए बेहयाई दिखाई तो पूरा गांव समझ गया कि उनके मुंह में खून लग चुका है। गांव भी नारायन के प्रति हुए अन्याय से आहत था। मगर मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त वाला हिसाब था। नारायन तो सब छोड़ छाड़कर वहीं कलकत्ता के अपने संकरी गली वाले किराए के मकान में लौट जाने वाले थे ।उस मकान में जिसमें दिन बिताते हुए वे हमेशा गांव लौट कर बसने के बारे में सोचते थे। जो कलकत्ता परदेस था।पचास से ज़्यादा साल बीतने के बाद भी परदेस था।साल छ: महीने पर शादी ब्याह काज परोजन में जब गांव आते तब कलकत्ता के पड़ोसियों से कहते देस जा रहे हैं।सल्किया की उस बजबजाती गली में सबसे तीखी गंध गोबर की ही थी।पुरबिए ही अधिक थे वहां मगर सब जड़ों से टूटे हुए से।सबकी कमाई धमाई गांव घर खेत बारी में लग रही थी।सब अपने बाक़ी दिन गांव में हीत नात , टोले पड़ोसी से हेलमेल में बिताना चाहते थे।
सबकी याद में खुले आसमान के नीचे पनपता उनका धूसर गांव था।खेत बगीचा था और बोली बानी थी। सबसे ऊपर यह बोली बानी ही थी जिसकी कशिश अपरंपार थी।
बाहर चाहे बांग्ला झर झर फूट उठती रही हो मगर घर लौटते ही अपनी गंवई बोली का रंग लपेट लेता।तब जैसे सांस आती थी।
परायापन थोड़ा ढ़ीला पड़ता।

नारायन के चित्त में सबसे प्रगाढ़ यही था।अपनों के बीच में लौटना।
तेरहवां लगा था जब पिता ने पढ़ने के लिए कलकत्ता भेज दिया था। पढ़ाई में बहुत मन लगता था नारायन का। निरंजन को पहलवानी रास आ गई थी और वे उसी में ताल ठोकते बड़े हो रहे थे।
पिता ने अनुभव किया था कि धीरे धीरे निरंजन के व्यवहार में भी पहलवानी उतर रही थी।हाथी की तरह झूमते हुए वे बेहाथ होने लगे तो उनके पिता सरजू झटपट उनका गवना ले आए। खेती बारी संभालने लायक जांगर था ही उनका। खेती ठीक-ठाक थी। बिगहा भर में बगीचा भी था। घर में तीन तीन बखरी थी। गाय गोरु थे ही और एक खाते पीते किसान का अन्न धन से भरा पूरा घर दुआर था।सरजू , निरंजन नरायन और पंचानन के पिता स्वभाव से बड़े संतुष्ट किस्म के थे। पत्नी भी वैसी ही थी। उसने ही नारायन की पढ़ाई पर ज़ोर दिया था। गांव के स्कूल में डिप्टी साहब के सवालों का जवाब देकर नारायन हीरो बन गए थे।लोग कहने लगे थे कि पढ़ाई लिखाई से मिली नौकरी में ज़्यादा बरकत है।हर घर से पढ़वइया निकल कर अगल बगल के शहरों में जा रहे थे।

सुरजू ने नारायन को कलकत्ता भेजना तय किया। उनके लंगोटिया दोस्त मेराज का बेटा नइम वहीं पढ़ता था।मेराज भी पढ़ लिख कर अफसर बन गए थे और कलकत्ता में बैंक में मैनेजर थे। अपनी कमाई धमाई से गांव में खेत बारी बढ़ा रहे थे।नइम बड़ी क्लास में था। बड़े हियाव से छोटे भाई की तरह संभालता हुआ नारायन को अपने साथ ले गया था और दोनों के बीच भाई जैसा भाव हमेशा बना रहा था।
कलकत्ता शहर में अफसर च्चा की वजह से ही नारायन बस पाए थे।
एक दुर्घटना में नइम के गुजर जाने पर मेराज उनके भीतर ही नइम को देखने लगे थे।
गलते चले गए थे वे और एक दिन अफसराइन चच्ची और एकमात्र बिटिया मुन्नी  को छोड़कर वे भी गुज़र गए।

नारायन के पिता सरजू का कलेजा भी टूट गया था।
तब अपने जिगरी दोस्त की गृहस्थी बचाने में लग गए थे।उसकी पत्नी जिसे गांव अफसराइन कहता था उसका मनोबल और खेत जमीन बचाने में लग गए थे वे।
मजनू मुन्नी का बेटा था।खाला के बेटे से ब्याही गई मुन्नी का नसीब अच्छा नहीं था। पढ़ी लिखी थी मुन्नी मगर पति की ज़ाहिलियत का ठिकाना नहीं था। घर की माली हालत कमज़ोर हुई तो उसने ज़मीन जायदाद बेचने के लिए कलह फान दिया था।अफसराइन टूट गईं।सुरजू ने बीच बचाव किया। काफी कुछ बिक भी गया। घरेलू झगड़ों में गुंजाइश तो होती नहीं। बुरा यह हुआ कि उसने मुन्नी को तलाक़ दे दिया।
अफसराइन भी इसी ग़म में चल बसीं। मुन्नी बेसहारा ही हो जाती अगर नारायन ने संभाला न होता।

वही नारायन जब कलकत्ता छोड़ कर यहां बसने चले आए तो फिर लाग डांट वाली वही कहानी उभर आई।
नारायन को बसने के लिए जो चगह मिली वह अफसर च्चा की ही पुरानी रिहाइश थी ।अब वे लोग गांव के पास के कस्बे में रहने लगे थे। मजनू दूध के व्यापार में लग गया था। खेती बारी भी देखता था।
उसने निरंजन और उसके बेटे के व्यवहार के बारे में सुना तो दौड़ा चला आया था।सुरारी साथ में थे।तैश में थे सुरारी। मगर नारायन का निश्चय नहीं बदल पाए। यह ज़रुर हुआ कि नारायन ने अफसरी हाता के उस तीन कमरों वाले घर में रहना मान लिया मगर उसका किराया देकर। मुन्नी बहुत मर्माहत हुई। बहुत दबाव डाला उसने ,भाई बहन के रिश्ते का हवाला भी दिया मगर नारायन नहीं माने।

बोले कि पैसा फ़र्क पैदा करने लगा है बहिनी!
उसी मुन्नी की हालत बहुत गंभीर हो गई है। मजनू बौरा सा गया है।इलाज बहुत महंगा है। प्राइवेट अस्पताल में भर्ती है मुन्नी। पानी की तरह रुपया बह रहा है।
बहुत लाचार होकर वह नारायन के पास कल रात आया था - मम्मा ! अम्मी चाहती हैं कि आप यह अहाता खरीद लें। इलाज के लिए बहुत पैसा चाहिए ,कौनों और रास्ता दिख नहीं रहा है 

सुबक उठा था मजनू।
दुखी हो गए नारायन।
यह बात केवल उन दोनों के बीच हुई थी। नारायन कैसे अफसर च्चा के परिवार की ऐसी बेबसी का फ़ायदा उठा सकते थे।
रुपया उन्होंने मजनू के हाथ में पकड़ाया था। उसे और देने का भरोसा भी दिया। विश्वास दिलाते रहे कि अब रुपए पैसे की तंगी वाले दिन नहीं हैं उनके।लल्लू , उनके बेटे कमा रहे हैं और अपने बाप का ख्याल रखने वाली संतान हैं वे। कुछ बाकी नहीं लगाएंगे सो निश्चिंत होकर यह रुपया लो और बहिन का इलाज करो '
मजनू गिनने में लग गए तो नारायन उसे बरज उठे , कहने लगे कि तुम्हारे नाना ने अगर मेरे लिए ऐसे गिन कर मदद की होती तो मैं भी कहीं बिल्लला घूम रहा होता बेटा ! जाओ,  वक्त बर्बाद मत करो

नारायन को अचरज था कि यह सब कैसे  राई रत्ती से सुरारी को मालूम हो गया था।
वे नारायन के सबक न सीखने की आदत से परेशान हो गए थे। उन्हें पता था कि जमाना अब पहले जैसा नहीं है।अब कोई अफसर च्चा नहीं बचे हैं।जब सगा भाई अपनी संतान को पिता जैसे चाचा को बेइज्जत करने से नहीं रोक रहा है तब इस मजनू के ईमान पर ऐसे भरोसा करना ? 
यह ठीक है क्या
क्या लल्लू ने पानी में फेंकने के लिए बाप को रुपया दिया है।

नारायन चुप हैं।
समय का बदलना जानते हैं वे। समय तो मद्रास में भी बदल ही रहा था। पैसे का रुतबा बढ़ता जा रहा था।शहर कस्बा गांव सर्वत्र हर चीज़ पैसे से बदल कर देखी जा रही थी।सुरारी लंदन गए तब हर चीज़ पौंड में बदल कर सकते में पड़ जाते।  गांव आकर पहला काम यही किए कि सब खर्चा  पौंड में बदल कर देखे। चिल्ला कर कह उठे थे कि उतने में तो चार बिगहा खेत लिखवा उठा होता। 
पैसे की प्रधानता संबंधों का रस सोख रही थी मगर लल्लू  के लिए पिता का सपना  उनका अपना भी सपना था। उन्हें भी लगने लगा था कि उनके सपनों की दुनिया गांव में ही है।
पिता की कतरब्यौत में बीती ग़रीब ज़िंदगी का एक एक लम्हा उन्हें याद था। कलकत्ता में खाने पहरने का दिखावा न मां ने किया और न पिता ने।सब कुछ बचा कर वे भाइयों के बच्चों की पढ़ाई लिखाई शादी ब्याह के काम आते रहे। उसके अपने ऊपर कुछ खर्चे करने की उन्हें कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी और पढ़ाई पूरी कर रिसर्च में आते ही वह भी कमाई में लग गए और फिर नौकरी भी मिल गई। घर में पैसा आने लगा तब भी पिता ने कम में गुजारे वाली अपनी आदत नहीं छोड़ी। उन्हीं रुपयों से गांव में तेरह बीघा खेत लिखवाया जिस पर निरंजन के वकील सपूत ने सब पर दावा पेश कर दिया था।कहा कि बंटवारे के पहले घर का जो कुछ भी है उसमें सबका हिस्सा है। बहुत मर्माहत हुए नारायन।सिर झुक गया उनका।
लल्लू को पिता के दु:ख का बोध था।वे तो यह भी चाहते थे कि पिता वहां का सब कुछ उन लोगों के लिए छोड़ कर मद्रास चले आएं।वे यह चाहते तो थे मगर जानते थे कि पिता आएंगे नहीं।

इंटर पास करते न करते लल्लू ने अपनी पढ़ाई के लिए पैसा कमाना शुरु कर दिया था।
पिता की मितव्ययता  और संघर्ष देखा था उन्होंने। 
 उन्हें गांव के अपने परिवार की चिंता करते देखा था । पिता अपने भाइयों के बाल बच्चों की पढ़ाई लिखाई  शादी ब्याह के लिए पैसा भेजते रहते और खुद कड़ी मेहनत में जुते रहते।
सल्किया के जिस जर्जर मकान के निचले तल पर वे रहते थे वह बहुत सस्ता था किराए के हिसाब से मगर बहुत अंधेरा था वहां।सूरज की रोशनी तक की  वहां गुंजाइश नहीं थी।खाने पीने के सामान के हिसाब से कलकत्ता बहुत सस्ता था हमेशा। वहां चीजों का दाम बढ़ते ही बवाल कटने लगता सो यह बात इतनी अच्छी थी कि चार पैसे बचने की ब्यौत बन गई थी।उस बचत से ही सब कुछ निभाते हुए नारायन ने  गुजारा किया था। कलकत्ता के अपने संकरे दिनों को बिताते हुए वे हमेशा गांव घर के खुले और फैले दिनों के बारे में सोचते थे। फसलों की गंध सोच कर उमगते थे। एक तरह से वे बंदी जीवन जीते हुए आज़ादी से भरे भविष्य की कल्पना करते थे। उन्हें भरोसा था कि उनके जीवन का कर्मठता से भरा हिस्सा वहीं  मिलने वाला है। शहरी उपभोग और सुविधा का जीवन चारो ओर बहता रहा और उनके भीतर मिट्टी में बस कर जीने की लौ उमगती रही।अपने पिता की तरह ही खेती करने की उमंग उनमें बड़ी गहरी थी। मां और पिता की तरह ही सहने लहने की आदत भी थी तभी तो जब हमेशा आदर में बिछे रहने वाले भतीजे ने गुर्रा कर कहा कि बिना बंटवारे के जितना कुछ खेत है सबमें तीन हिस्सा लगेगा।

फक हुए चेहरे से वे बड़े भाई को देख उठे थे। कुछ कहने के लिए शब्द नहीं बचे थे उनके पास।
वैसे भी वे मौरुसी जायदाद में हिस्सा कहां चाहते थे। जानते थे कि
बड़े भइया का परिवार बड़ा था, खर्चे बड़े थे सो वे वहां कोई बंटवारा नहीं चाहते थे।अब तक वे उनकी जिम्मेदारियों में सहयोग ही करते आए थे।उनकी लड़कियों का एक से बढ़कर एक घर में विवाह करवाया। तीनों लड़कों की पढ़ाई में मदद की।छोटे भाई पंचानन का हिसाब दूसरा था। उसने बाज़ार में घर बनवा लिया था और पुश्तैनी घर के कई कमरे अपने परिवार के लिए ताला लगा कर बंद कर दिए थे।जब तब आकर अनाज पानी पर हक जमा देता।उस पर किसी का कोई ज़ोर नहीं था मगर नारायन के लिए बड़े भाई का आदर हमेशा पहली चीज़ था। पिता के बाद उनको ही अपनी छत्रछाया मानते रहे वे।उनकी जिम्मेदारी को अपनी जिम्मेदारी समझा। यही भतीजा इतना मीठा बोलता था , कि उसे वे मिट्ठू कहते थे। ऐसे बिछा रहता था कि देखने वाले दंग हो जाते।

 वही इतना कुरस हो कर बोल रहा था। ऐसा लग रहा जैसे नारायन के कुछ बोलते ही अनर्थ हो जाएगा।

नारायन बस इतना ही बोल पाए कि ठीक है ।लग जाएगा उसमें भी तीन हिस्सा। कोई बात नहीं है।
कहते हुए वे सिर झुकाए बाहर आ गए। पत्नी भी पीछे पीछे आ गईं।
पीछे पीछे आती हुई बड़ी भौजाई पूछ रही थीं - कहां जा रहे हैं बबुआ , अरे एक बखरी तो आपकी है ही।का कहेंगे गोती दयाद ! रुकिए न। अच्छा जाना ही है तो खा कर जाइएगा 

नहीं भाभी ! नारायन ने उन्हें बिना देखे यह कहा।


भरभराई आंखों से सब धुंधला दिख रहा था। बरामदा आंगन ओसारा और सब कुछ जैसे अदृश्य हो रहा था।वो दिन याद आने लगा जब उनकी मां ने चुपके से हथेली में चांदी का सिक्का पकड़ा दिया था और कहा था - परदेस में कोई अपना नहीं है बचवा ! गम खा कर रहना ।नारायन वही गम निगलते हुए जैसे विलुप्त हो जाना चाहते थे।

नारायन अपनी हथेली देख उठे। वह खाली थी।
पत्नी उनके बुझे हुए चेहरे को देख रही थीं।

कोई और बाहर नहीं आया।
चुपचाप दोनों प्राणी ने बस अड्डे की राह पकड़ी थी।
 
वहीं दौड़ा आया था मजनू। साथ साथ सुरारी भी थे।
उस दिन भी सुरारी को सारी खबर मिल गई थी।

"ऐसे कैसे सब छोड़ दिए भाय ! अरे कानून है कायदा है । मनमानी थोड़े चलेगी। चलिए पूरा गांव आपका तप जानता है।ऐसा नहीं होने देंगे हम। चूड़ी थोड़े पहिने हैं । "
बड़बड़ाते रहे सुरारी और नारायन उन्हें बरजते रहे।


लड़ाई भिड़ाई की सलाह रमंती को भी अच्छी नहीं लग रही थी। पहली बार वही बोल उठीं कि  - अब अपनी अर्जी हम ऊंहां लगाएंगे बबुआ जी , झगड़ा रगड़ा नहीं करेंगे। बच्चों के लिए रार छोड़ कर नहीं जाएंगे। मर्माहत हुई वह ऊपर की ओर इशारा कर रही थीं।

सुरारी तब भी अपनी ही रट में लगे रहे। उन्हें यह नारायन की कायरता लग रही थी।

मजनू सब सुनता चुप खड़ा था।अंत में वही बोला - अम्मी कह रही हैं कि अफसरी हाता मम्मा के लिए साफ करा दो।

नारायन भींग उठे थे। मजनू को अकवार में भर लिया था उन्होंने।
अब गांव में नारायन के हक़ की बात ज़ोर पकड़ गई थी। उनके सीधे मन मिजाज़ के प्रति सबकी करुणा उमड़ पड़ी थी। निरंजन को इसका अनुमान नहीं था। गांव पहले भी उनसे छत्तीस हो गया था।उनका गुमान पचता नहीं था किसी को।अब तो पानी सर के ऊपर से बह उठा था।

निरंजन अब लोगों को जुटा कर तरह तरह से अपनी सच्ची झूठी सफाई दे रहे थे।
गांव था कि उनको सुनने बरतने का तरीका खूब जानता था।

अफसरी हाता गांव से कटकर एक तरह से बीराने में था।
बीच में कई बीघा का ऊसर बंजर था। एक छिछला होता जाता पोखर था।
उसी में देखते देखते नारायन की गृहस्थी गुलजार हो उठी।
चारो तरफ से मददगार उठ आए।
सबेरे संझा कुछ न कुछ रजगज जुटी रहती। अखबार पढ़ा जाता।देस दुनिया की बात होती। सबसे ऊपर थी सुरारी की बैठकी।

उसी में आज मजनू को लिखा पढ़ी के बिना रकम दे दिए जाने की बात खुल गई। नारायन एकदम असहज हो उठे।सुरारी का ढ़ंग उन्हें अनखा गया था। अफसर चच्चा के परिवार के प्रति उनका शक उन्हें बहुत बुरा लगा।उनका जी पूरा उखड़ गया और वे गंभीर हो कर उठ खड़े हुए ।बोल पड़े -" सबके मन में जहर मत देखो भाई ! मजनू रकम डकार भी जाएंगे तो भैने हैं हमारे।खून सफेद करके कैसे जिएंगे मर्दे ? "
सुरारी अवाक हो गए।
महफ़िल भी भरुआ गई जैसे।



                चित्र- सोनी पाण्डेय







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दो पहर रात बीत चुकी होगी ।
गांव से अलग थलग पड़े इस हाते के आसपास का इलाका रात की अनेकानेक आवाज़ों से भर गया था। झिंगुर की सीटियां सबसे अधिक मुखर थीं। बीच-बीच में किसी भारी पक्षी के पंखों की आवाज़ भी थी।
पोखर के ऊंचे नीचे हिस्सों में बसे हुए सियार भी इधर उधर चल पड़ते थे। इस वीराने तक उनकी भी खूंद खांद सुनाई देती थी।
रमंती थोड़ा डर जातीं।
नारायन भी इस उजाड़ में रहने के अभ्यास में कहां थे।सल्किया की मकानों से घिरी हुई उस अंधेरी रिहाइश से बहुत अलग ज़मीन थी यह।
रमंती खाना पीना निबटने के बाद चितिया के साथ सब धरने ओसारने में लगी थीं। बाहर छान छप्पर में बंधे मवेशियों में हल्की फुल्की आवाज़ें थीं।चितिया का आदमी गोरख भी दो दिन से मजनू के साथ शहर में था सो वह भी बच्चों को लेकर मलकिन के हिस्से में ही सोने वाली थी।उसकी अपनी रिहाइश अहाते से ज़रा सा हट कर थी मगर यह पूरा इलाका इतना सुनसान था और थोड़ी ही दूर पर सड़क निकल रही थी जिसके चलते असुरक्षा भी थी सो उसे अपने बच्चों सहित यहीं रहना था। रमंती बहुत मिलनसार और दयालु थीं। नारायन तो थे ही। गोरख और चितिया अफसर चच्चा के मुरीद थे।नारायन गांव में रहने आए तो मजनू ने ही उन्हें उनके सुपुर्द कर दिया कि बहुत कर्मठ और ईमानदार हैं साथ ही उन्हें भी अच्छे घर में आसरा मिल जाएगा।

चितिया को ज़मीन पर ठक ठक लाठी ठकठकाने की आवाज़ सुनाई दी।
गांव में रात बिरात लोग ऐसे ही चलते हैं कि को सांप गोजर हो तो अपना रास्ता ले ले।
चारो तरफ छाए सन्नाटे को तोड़ती इस आवाज़ को नारायन ने भी सुन लिया। थोड़ा शंकित हुए वे तब तक देखा चिति उनकी गोजी लिए चली आ रही है। धीरे से बोली वह - बब्बा ! कोई है दुआर पर ।

तब तक सर मुंह ढ़के दो जने आकर ओसारे में खड़े हो गए। मद्धिम पीली रोशनी वाला बल्ब उनकी परछाई को लंबा फैला रहा था। नारायन शंकित हुए। कुछ कहते कि सहसा पहचान उठे। अपने लठैत के साथ सुरारी थे ये। थोड़ी ही देर बाद एक और लहीम शहीम व्यक्ति वहां लाठी ठकठकाता हुआ आ खड़ा हुआ।

"नींद नहीं आ रही थी भाई हमको ।आज बैठकी में मुंह से न जाने क्या क्या निकल गया।डर गए हम। तुम्हारे पास नकद रकम की खबर चोर चाईं को लग गई होगी।अब गांव पहले की तरह नहीं है। मदकची बढ़ गए हैं यहां भी।कुएं से लोटा डोरी तक उठा ले जा रहे हैं सब। मेरी ही बेवकूफी से सब मामला खुल गया तो मैं ही सब ठीक करुंगा।समझे " 
नारायन सुन रहे थे सुरारी को।सिर हिलाया उन्होंने। जिसका मतलब था कि " नहीं समझे "


सुरारी हाता पर लठैत तैनात करने के लिए आए थे। नारायन को बेफिक्र करने के जतन में लगे थे वे। यह भी बताया उन्होंने कि इसके लिए उन्हें कुछ खर्चा पानी नहीं करना पड़ेगा बल्कि  बोधू अपने लिए खुद रसोई बना लेगा।उन पर कोई भार नहीं पड़ेगा।
सुरारी जब तक बैठे ,यही रटते रहे कि अपनी बेवकूफी में उन्होंने मामला बिगाड़ दिया है।

नारायन भी थोड़ा परेशान हो गए। गांव के बदले हुए हालात उनके फैसले को हिला रहे थे।जाते जाते सुरारी यह भी चेताते गए कि गांव के मियां लोग भी बहुत बदल गए हैं।सब अरब जाकर कमाई कर रहे हैं। अयोध्या के बाद सबका मिजाज़ बदल गया है।मजनुआ के अड़ार पर जब देखो तब उनकी जुटान होती है।मिले हुए हैं सब। पहिले की तरह नाते रिश्ते का लिहाज नहीं है अब।
सुन सुन कर नारायन का कलेजा बैठा जा रहा था। यह तो भारी निस्सहायता थी।

रमंती समझ रही थी सब।
 बोल पड़ी कि उसे नहीं लगता कि मजनू बेइमान है।
 गांव बहुत बदल चुका था।  
 मुफ्तखोरी धोखा ठगी और अब  तो डकैती भी यहां आम हो गई थी। गांव के संपन्न घरों से निकले पढ़वइया तो शहर में रोज़ी रोटी के लिए बस चुके थे। खेती किसानी से मरहूम लोग भी तरह तरह की आजीविका पकड़ अब दूर पास के शहरों में बस गए थे मगर यह ज़रुर था कि उनका रिश्ता गांव से बना हुआ था।
 हुआ यही था कि गांव में अब लखैरे  बहुतायत रह गए थे। वे ही चोरी चकारी उचक्कागिरी में मुब्तिला थे।
 वे एक आतंक थे अब।
 सुरारी को यही चिंता थी कि नारायन को गांव की इन सच्चाइयों का पूरा पता नहीं था।
 उन्हें बार बार लग रहा था कि नारायन को गांव के ऊंचे खाले का अनुभव नहीं है। 
 वे गांव घर के लिए प्रेम और भरोसे से लबालब भरे हुए  आए थे।
  हालांकि यहां उन्हें एक बाहरी व्यक्ति की तरह ही समझा जा रहा था।ऐसा बाहरी व्यक्ति जिसकी गांठ में इफरात पैसा है। पैसे रुपए की चर्चा गांव में बहुत ज़ोर पकड़ती है और गुड़ पर चूंटा लगने की तरह  चोर बेइमान लोग घेरने लगते हैं।

रात के इस पहर गढ़ुआए हुए आए सुरारी नारायन और रमंती को चिंता से ज़्यादा अफ़सोस में डाल गए थे। मजनू के लिए शक का कोई कीड़ा नारायन के कलेजे में नहीं उतार पाए वे। 



                        चित्र- सोनी पाण्डेय







एक दो दिन का रिश्ता नहीं था वह।वह जो भी था उनके रक्त में घुल चुका था।जिन संबंधों में बसने के लिए वे यहां लौटे थे उनमें से एक का खूंटा भले उखड़ गया मगर अफसर चच्चा से , उनकी बेटी और नाती से ऐसे वक़्त में वे तिजारती कैसे हो सकते थे।सुरारी क्या इस रिश्ते के बारे में जानते नहीं। पूरा गांव जानता है यह।नारायन की पढ़ाई लिखाई पर जो लगा वह अफसर चच्चा का ही था। सरजू ने जब इसरार किया था तब हो हो करके हंसे थे चच्चा।बोले  थे वे कि देना है तो नईम की फीस भी दो , अकेले नारायन की देकर तो बच्चों में फ़र्क ही डाल रहे हो ।


फिर दोनों दोस्तों ने एक दूसरे पर लानत भेजने का सिलसिला जारी रखा था।
नईम जब नहीं रहा था  तब वे बार बार आकर नारायन को देख जाते थे। स्कूल से लौटने में ज़रा सा देर होने पर सड़क पर आकर खड़े हो जाते।उनका गोरा चेहरा चिंता से तप जाता। नारायन तब कुछ अधिक समझने लायक नहीं थे। मगर उस प्यार को कैसे न समझते जिसमें इतनी परवाह मिली थी। चच्चा रिटायर हो कर गांव लौट आए तब कलकत्ता सचमुच उनका परदेस हो गया था। और फिर दोनों नहीं रहे। 

आज नारायन की स्मृति में यह सब जाग उठा है। बेचैनी है जिसकी थाह तो मिल रही है मगर संभालना मुश्किल है।
ऐसा लग रहा है जैसे लल्लू के सिर से कोई छाया खींच लेने पर आमादा है।
रमंती को उनकी बेकली समझ में आ रही है।उनका अपना मन भी  तो दुनियादारी में गर्क नहीं है।

दोनों प्राणी जैसे एक दूसरे की चुप्पियों में घूम रहे थे।
रात शिथिल सी बीतती रही और बीत गई।


"लल्लू आ रहे हैं " नारायन ने रमंती को बताया।
अभी अभी वे बस अड्डे से लौटे थे। उनके साथ लगा बोधू अपनी खैनी से गर्द उड़ाता हुआ ओसारे में लौट गया।
दो दिन बाद फगुआ था। हवा की तासीर बदल चुकी थी। दृश्य में वसंत और पतझर साथ साथ दिख रहे थे। सालों बाद फगुआ पर नारायन गांव में थे इस बार। लल्लू और उनका परिवार भी त्यौहार पर साथ होने वाला था । उसके बाद सबको साथ साथ चेन्नई चले जाना था।
रमंती ने पूछ लिया -  "मुन्नी बहिन से मिलने नहीं गए ?"

उदास थे नारायन।
" फटे दूध से घी नहीं निकलता मलकिन " - कहते हुए वे भीतर चले गए थे।
बोधू के कान इधर ही लगे थे।
पिछले कुछ दिनों से वह इस घर में बदली हुई फिज़ां महसूस कर रहा था। अधिक कुछ जान सकने का उपाय उसके पास नहीं था मगर यह पता चल गया कि नारायन लौट कर अपने बेटे के पास जा रहे हैं। गांव से उनका जी उचट गया है। गोरख ने बताया कि गाय गोरु सब मजनू की गौशाला में जा रहे हैं।
चितिया और गोरख बहुत उदास थे।
उदास तो रमंती भी बहुत थीं।नारायन का टूटा हुआ जी उनके कलेजे में अटक गया था। अपने ही मोह का चिथड़ा उड़ते देखा था उन्होंने।इतना तो वे सगे भाई भतीजे के स्वार्थ से नहीं टूटे थे।
वैसे ही भग्न मन वे गायों के पास जाकर खड़े हो गए। कजरी ने पलट कर उन्हें देखा। उन्हें लगा जैसे उसकी आंखों में शिकायत है।वे आंखें फेर कर हट गए वहां से। गोरख चारे के गट्ठर सहेज रहा था। नारायन की खामोशी से वह भी भारी हुआ था जैसे।दुआर पर कहीं कोई ध्वनि ही नहीं थी।नीम पर चढ़ती उतरती गिलहरियां भी आज आवाज़ नहीं कर रही थीं। 
दुआरा खाली तो था ही उदास भी बहुत था।
आज बैठकी के लिए भी कोई नहीं आया।

शाम को सुरारी हांक लगाते हुए चले आए।
उनके लठैत के गोजी की धप्प धप्प आकर नारायन की खटिया के पास ठहर गई थी।
धीरे धीरे सब जुट गए। बल्कि अचरज था कि बेनी की माई ,परबोधी फुआ और  गुनी आजी भी दुआर से होती हुई रमंती के पास भीतर चली गईं। शायद अब सबको उन लोगों के लौट जाने की खबर लग गई थी।
दुःखी थे सब।

उधर सुरारी सबसे ज़्यादा ही तैश में थे।उनको लग रहा था कि मजनू ने ही कुछ धोखा कर दिया है जिससे नारायन का जी टूट गया है।
मजमें के बीच हांथ नचाते हुए वे बोल पड़े - " मर्दे मियां मकड़ी के ब्यौहार से उखड़ गए! हम से बताए काहें  नाहीं ?हम उसकी नटई में हाथ डाल कर तुम्हारा पाई पाई वसूल लेते ।समझे का हो। गांव में रहने का कलेजा रखो यार ! एतना सब जुटा लिए।खेत बगइचा का डौल भी बइठ ही गया । ऐसा बड़ा फैसला कर लिए अऊर हमको कुछ पता ही नहीं चला। बेगाना कर दिए यार तुम " 

नारायन उन्हें थिर हुए से देखते रहे ।
सुरारी की बात पर सिर हिलाते समाज को भी देख उठे वे।

" जिसे मियां मकड़ी कह रहे हो उसने सैकड़ा पीछे दो रुपया जोड़ कर सब पैसा लौटा दिया है ,समझे ! उसने मुझे भी तुम्हारी तरह पैसे से पैसा उगाहने वाला समझ लिया । मेरे मुंह पर रुपया मार दिया है "
सुरारी हैरत में आ गए।
नारायन का आवेश बढ़ता चला जा रहा था।आवाज़ में रोष था , दुःख था  - " मैं गांव में सूद पर पैसा उठा कर लठैतों के बल पर रहने के लिए नहीं आया था।पूरी जवानी मैंने इस ज़मीन के लिए तड़पते हुए बिताई। सोचता था इतनी मेहनत इतना पसीना अपनी भूमि पर गिराता तो क्या जीवन नहीं कटता। अफसर चच्चा की बदौलत इतना जुटा सका कि अपने गांव जवार के लिए कुछ कर सकूं। खेती पताई पढ़ाई लिखाई में यहां के लोगों के काम आ सकूं। लल्लू के दिल दिमाग में भी यही सपना भरता रहा। मगर तुमने तो मुझे मेरी ही निगाह में गिरा दिया।हिंदू मुसलमान चलाने लगे।" 
नारायन की आवाज़ भरभरा आई थी। सुनते हुए स्तब्ध थे सभी।
सुरारी की असुविधा का तो कोई हिसाब ही नहीं था।वे बार बार पहलू बदल रहे थे।नारायन का कहना उन्हें भीतर तक छील रहा था। उन्हें उनके ऐसे बेलिहाज हो जाने का अंदाज़ नहीं था। अपनी ओर से तो उन्होंने उनके भले में कुछ उठा कर नहीं रखा था।उनका अनुभव तो यही था। दिनदहाड़े गांव में लूट मची हुई थी।हर तरह की लंपटई का बोलबाला था। उससे बचाना ही तो चाहते थे वे। और हिन्दू मुसलमान में फाड़ तो हो ही गया है। कहां है वहां कोई गुंजाइश।अपना भाई गर्दन पर पैर रखकर नहीं खड़ा हो गया था क्या ?
मगर यह सब कुछ बस सोच रहे थे सुरारी।नारायन ने उनके कुछ भी कहने का स्पेस नहीं छोड़ा था।उनका दुःख और तैश बढ़ता ही जा रहा था।
कह रहे थे वे - जिसे मुसलमान कहते हो उसकी बदौलत ही इस तीन एकड़ के इलाके में बसा हूं। दो दो गाएं खड़ी हैं छप्पर में।दो टहलुए काम यहां करते हैं उजरत मजनू से पाते हैं। मेरे तलवों के नीचे हथेली बिछा देता है वह। मम्मा मम्मा कहते थकता नहीं। उसने मेरे एकाउंट में सूद सहित पैसा लौटाया है। यह है मेरी कमाई। तुम्हारी तरह वाली कमाई ।
अब मैं ऐसे ही कमाने के लिए यहां रहूं, तुम्हारी तरह ? तुम्हारी तरह वसूली करते हुए पैसे पर पैसा चढ़ाते हुए सबका खून चूसते हुए बना रहूं। अरे मैं यह करने नहीं आया था।तुम करते हो यह , क्यों करते हो , क्या सुख है तुम्हें तुम जानो। बेटा बेटी सब अपना कमा खा रहे हैं। कोई कमी नहीं लगी है।तब भी तुम्हें उगाही करना है। गांव में चोरी चकारी बढ़ गई है , यह कहते हो। कभी सोचा कि कुछ बेबस लोगों के लिए करते ? बच्चों के लिए करते , जवानों के लिए करते। उसमें क्या जी नहीं लगता। मास्टरी भी तो ऐसे ही किए तुम !  गायब ही रहे स्कूल से। तुम्हारे जैसों के कारण ही लोगों के मुंह में खून लग गया है। सोचते हो यह कभी ?"

यह सब सुनते हुए लोग भी अब बहुत असुविधा महसूस कर रहे थे।
सुरारी का चेहरा सफ़ेद पड़ता जा रहा था।
ऐसी दुर्दशा के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकते थे।
उन्हें लग रहा था जैसे इस फटकार में वहां बैठे सब लोगों की आंच जाकर मिल गई है।
सब फटक कर उठ खड़े हुए वे।
 "बहुत हो गया भाय अब , बहुत हो गया।भरी मजलिस में खूब इज्जत उतारे तुम। हमसे ही गलती हो गई कि तुम्हारे मामले में कूद पड़े। आजतक किसी के लिए कुछ नहीं किए थे हम , तुम्हारे लिए किए तो मुंह भर पा गए।पूरे गांव में हमारी ताजपोसी फइल जाएगी अब। 
 जाओ , जहां रहो खुस रहो "

 पूरा दुआरा स्तब्ध था।

मजनू की फटफटइया आकर रुकी तब सुरारी से वहां रुकते नहीं बना।

नारायन ने देखा उसे।
मुंह फेर कर खड़े हो गए।
 दुआर पर जमे समाज ने मजनू को नारायन के पैरों पर झुकते देखा  " मम्मा "

" क्या मम्मा यार ! हिंदू मुसलमान में मम्मा भैने नहीं हो सकते।भैने मम्मा के मुंह पर सूद समेत पैसा लौटा कर बेइज्जत करता है। इससे तो अच्छा था कि चौराहे पर खड़ा करके जूता मार देते बेटवा !"

बिलख उठा मजनू - " मारिए मुझे !  जूतों से मारिए मगर ऐसी सज़ा मत दीजिए। अम्मा मुंह में कौर नहीं दे रही है।कह रही मैंने उसके भाई को बेगाना कर दिया।चाहे जो करिए मगर गांव छोड़ कर मत जाइए ।अनाथ हो जाएंगे हम "

 रमंती की आंखों से आंसू झर रहा था।
 सब हिल उठे थे इसे देख कर।

 लोगों ने पस्त क़दमों से लौटते सुरारी के पीछे जाते हुए मजनू को देखा।वह उन्हें कक्का हो ! कह कर पुकार रहा था।

हवा के साथ उड़ती हुई एक ठंडी लहर आ कर सबका माथा सहला गई थी।

चन्द्रकला त्रिपाठी








परिचय

प्रोफेसर चंद्रकला त्रिपाठी सुप्रसिद्ध कवयित्री हैं। उनके दो कविता संग्रह क्रमशः ‘वसंत के चुपचाप गुजर जाने पर’ तथा ‘शायद किसी दिन’ बेहतरीन संग्रहों में से हैं। इससे इतर गद्य की उनकी पुस्तक ‘इस उस मोड़ पर’ पिछले वर्षों में काफी चर्चित रही।
पूर्वग्रह , शब्दयोग ,  चौथी दुनिया , परिकथा ,सुलभ इंडिया आदि पत्र -पत्रिकाओं  में कहानियाँ प्रकाशित।

1 टिप्पणी:

  1. बचे रहते हर गांव मे नारायन मम्मा काश----।बहुत ही सुंदर मर्मस्पर्शी कहानी। सादर प्रणाम मैम।

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