सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल-26


जयश्री सिंह की कविताएँ  जीवन की सघन अनुभूतियों से उपजी मानवीय संवेदनाओं की उपज हैं।यहाँ स्त्री जीवन के साथ -साथ समय और समाज के बदलते जीवन मूल्य एवं मानवीय करुणा की बानगी देखी -परखी जा सकती है।दुनिया में कितना दुख है इसे स्त्री अपनी दृष्टि से देख रही है,उसके लिए इस दुनिया को देखने के लिए कुछ रास्ते इसी कविता की भूमि ने उपलब्ध कराए हैं।जयश्री सिंह मुम्बई की भागमभाग में मानव का संघर्ष देखती हैं,लॉक डाउन में मजदूरों की पीड़ा हो या स्त्रियों के हिस्से की त्रासदी हो ,वह इन बातों के अन्दरखानों में उतरने का जोखिम लेती हैं और कविता में अपने रंग-ढंग से पिरोती हैं-

जयश्री सिंह की कविताएँ


1) खौफ़

एक भयानक कोलाहल

चारों ओर 

सैकड़ों लोग दौड़ते - भागते हाँफते

पीछे चले आ रहे हैं

पलट कर देखती हूँ तो सन्नाटा है

इस कोने से उस कोने तक 

कहीं कोई नहीं

एम्बुलेंस की एक उड़ती हुई आवाज 

चीखते हुए गुजर जाती है

किनारे बैठे लोग

काली चादर ओढ़े सो चुके हैं

हजारों कदमों की धमक को एक बार में सह लेने वाला शहर का पुराना पुल 

शवों के बोझ से थर्रा रहा है

अस्पतालों के गलियारे

पुल में बदल रहे हैं

मौत किनारे - किनारे काली चादर ओढ़े सो रही है

कुछ देखा - अनदेखा किये

सैकड़ों लोग 

दौड़ते - भागते - हाँफते

एक दूसरे को धकियाते

गलियारे से गुजरते जा रहे लोग

चीखते पुकारते

हटो..., हटो.., 

थोड़ी सी जगह दो

जल्दी करो, जाने दो मुझे

साँस उखड़ रही है

एक तीसरी निगाह भीड़ पर से उड़ कर गुजर जाती है

शहर बेचैन हो उठता है

टीवी खुली है

खिड़कियाँ बंद हो चुकी हैं

जगह - जगह धब्बे

गहरे काले धब्बे

दृश्यों के साथ उतरते जा रहे धब्बे

आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा

धब्बे घुप्प अँधेरे में बदल रहे हैं

चारों ओर निराशा 

मायूसी अकेलापन 

बेचैनी घबराहट घुटन संक्रामक हो कर 

ज़ेहन में फैल रही है

लोग भाग रहे हैं

अपनों के छू जाने के डर से 

बेतहाशा भाग रहे हैं

सारे रास्ते बंद हैं

सारे दरवाजे बंद

महीनों से घरों में बंद लोग

अपने - अपने में बंद हैं।




2) अस्तित्व


खोद कर जमीन 

मिट्टी से पूछा

क्या तुम इसी ज़मीन का हिस्सा हो?

पहाड़ों को ढ़हा कर

मलवों से

भू - कम्प ने 

माँगा अस्तित्व।


पाट दिया गया प्रशांत भी

हिंद की 

पहली बूँद की ख़ातिर

जला दिए गए जंगल

वाज़िब सबूत की तलाश में

शक में घिरी घटाएँ

जो दे न पायीं 

अपने आसमानों की गवाही।


धरती इतनी बौखलायी

पहले कभी न थी

आसमानों ने

कभी न बरसायी थीं चिंगारियाँ

कभी राख न हुए थे

इससे पहले 

करोड़ों की संख्या में

निर्दोष बेजुबाँ।


यह एक दुःसह

दुःस्वप्न था 

जड़ - चेतन के

अस्तित्व का प्रश्न था

माँग लिया था किसी ने

पृथ्वी से

उसके होने का सबूत।


3 ) भागी हुई लड़कियाँ


घर की दीवारों से

भीतर तक उतर आयी दरारों में

रिस रही हैं धीरे - धीरे

मुक्ति की कामनाएँ

दुनिया भर की तोहमतों से अधिक 

चार दीवारी के भीतर की

जहरीली हवा में

घुटने लगा दम

घिस चुके शब्दों की चोट से रक्तिम

उस एक भूल के लिए

लगातार कचोटता 

अल्हड़ सा मन

अवचेतन में

पुरानी रील सा 

जब - तब

घूम जाता

वो बीता बचपन।


रिहा होने की चाहत में

पार कर दी थी

उन्होंने सारी सीमाएँ

नये स्पर्श में बहक कर

डाल से टूटीं

और फिर 

टूट कर रह गयीं

हर बार किसी तीसरे के साथ 

भागे जाने के

नये शक में घिरीं।


रिक्त हो जाने की सारी हदें

पार कर देने के बाद भी

नहीं बुझा पायीं शक की प्यास

कटीली उलाहना 

क्रूर प्रताड़ना से

रगड़ दी गयी 

उनकी अंतर्आत्माएँ भी।


घर से भागी हुई लड़कियाँ

जितनी देर के लिए चुहल बनी

उतनी ही देर आजाद रह पायीं

फिर जीवन भर के लिए

किसी बद्दिमाग की निगरानी में

कैद हो गयीं।


4) मैं रहूँगी


यदि डर है तुम्हें

कि बचा नहीं रहेगा कुछ भी 

अंत तक

मैं तब भी 

बची रहूँगी।


मैं हवा हूँ

मिट्टी हूँ

आग हूँ

नमी हूँ

तुम्हारी अनुकृति हूँ

मैं स्वीकृति हूँ

बचे रहने के हर रूप में

स्त्री हूँ।


मुझे बेचाल चले

चलन से डर लगता है

जबरन हो रहे 

हनन से डर लगता है


यदि बचाना चाहो 

सब कुछ

तो बचा लो मुझे।


मैं सामूहिक पतन के

अपराध से डरी हुई हूँ।


5 ) चाँदनी


दिन ढ़लते ही

ये चौराहों पर चाँदनी सी उतरती हैं

लोगों की निगाहों से बच कर

खुद को 

काले शीशे की गाड़ियों के सुपुर्द कर

निकल जाती हैं 

रात की उन यात्राओं की ओर

जो इनके जीवन से भी लंबी हैं


ये सुबह अँधेरे

उन्हीं गाड़ियों से लौट आती हैं

दुपट्टों से मुँह ढँके

टूटते तारों सी 

गाड़ियों से उतरकर 

उन अँधेरी गलियों में खो जाती हैं

जहाँ से सज-धज कर

शाम इन्हें फिर से निकलना है।


ये आधी रात की 

बदनाम गलियों को

अपनी अदाओं से गुलजार करती हैं

लचकती कमर

और चमके गालों के पीछे

छोड़ जाती हैं एक भरा-पूरा परिवार 

लाचार माँ, बीमार बाप

और छोटे भाई - बहन।

ये उनके सुरक्षित भविष्य की खातिर 

अपने लिए चुनती हैं

आधी रात की असुरक्षित दुनिया

और मेडिक्लेम पॉलिसी से परे का एक असाध्य रोग

जो जल्द ही इन्हें 

जीवन से मुक्ति दे देता है।


इनकी यात्राएँ बहुत छोटी हैं

और रातें बहुत लंबी

ये अपने पीछे एक दूसरी चाँदनी छोड़ जाती हैं।


6) धुंध

शहर की सबसे ऊँची इमारत से

दूर की उस दुनिया को 

कुछ पल के लिए

आँखों में उतार कर

अपने अकेलेपन को

भूल जाना चाहती हूँ


सहसा

बुझे बादलों के बीच खुद को घिरा पा कर

घबरा जाती हूँ 

और उतर आती हूँ 

एक ही साँस में

नीचे 

उस बालकनी की ओर

जहाँ से देखती हूँ रोज

अपने हिस्से की एक सीमित दुनिया।


अचानक अपने चश्मे का नंबर बढ़ा पाती हूँ

आँखों को बार-बार रगड़ कर

देखती हूँ 

एक चिड़िया 

चोंच में चुग्गा लिए

बालकनी में

बिलकुल पास बैठी

मुझसे अपने घर का पता पूछ रही है

मैं दूर तक नजर दौड़ाकर

उसके घोंसले को ढूँढती हूँ

चूजों की जानी पहचानी आवाज

लोगों की आवाजाही

और मोटरों की चिल्लाहट के

सम्मिलित स्वर को

अपने आस - पास बिखरा पाती हूँ

एक धुंध सी है चारों ओर

जैसे गहरी नींद में, स्वप्नलोक में हूँ

सब कुछ सुन पाने

और कुछ न देख पाने की अकुलाहट में 

जागने का विफल प्रयास करती हुई

किसी तरह अपने को

भीतर कमरे में बंद कर लेती हूँ

धुंधलापन 

घबराहट और घुटन में बदल जाती है

जैसे किसी ने रोक रखी हो मेरे हिस्से की ताजी हवा

और मैं उन्हें पाने के लिए बेचैन हूँ।

एक लंबी शांति के बाद

अपने को फर्श पर पड़ा पाती हूँ।

कुछ ही देर में 

इस उथल - पुथल को भूल 

अपने रोजमर्रा के कामों में 

उलझ जाती हूँ।


दरवाजे की घन्टियों

फोन कॉलों

और दो सौ पचहत्तर वाट्सऐप मैसेज से गुजर लेने के बाद

अचानक याद आये

उस खोये हुए घरौंदे को खोजने के लिए

झटपट बालकनी का दरवाजा खोल देती हूँ।


सूरज अब भी कहीं नहीं है

उधार की हल्की रोशनी लिये

धुंध वैसी ही जमी हुई है

चोंच में चुग्गा लिये चिड़िया

फर्श पर मृत पड़ी है

पेड़ पर मरघट सी शांति है

नीचे तक उतर आये 

बुझे बादलों ने

चूजों से 

उनके हिस्से का आकाश 

छीन लिया।








परिचय : 

जयश्री सिंह 

एम. ए. (स्वर्ण पदक), पीएच. डी., नेट

सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक (मुंबई विश्वविद्यालय)

जन्म : 13 जुलाई, मुंबई


पुरस्कार एवं उपलब्धियाँ -

१) मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा एम. ए. में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने हेतु 'स्वर्ण पदक' से सम्मानित।

२) मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा (एम. ए. के लिए ही) ‘पंडित नरेंद्र शर्मा हिन्दी एकेडेमिक पुरस्कार' से सम्मानित।

३) मुंबई बोर्ड द्वारा 1999 में 'सरस्वती सुत सम्मान' से सम्मानित।

४) रज़ा फाउंडेशन, नई दिल्ली द्वारा 11- 12 अक्टूबर को आयोजित 'युवा 2019' में गाँधी जी के 'प्रार्थना प्रवचन' में विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित।


प्रकाशन - 

१) सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों का अनुशीलन, २०१३ (समीक्षा)

२) पूर्वोत्तर भारत का आदिवासी समाज : लोकसाहित्य एवं संस्कृति, २०१८ (समीक्षा)

३) Hingher Education in India : Retrospect & Prospect, 2020 (संपादित)

४) विविध विषयों पर 35 से अधिक शोधालेख प्रकाशित।

५) मुंबई आकाशवाणी से 3 रेडियो वार्ता का प्रसारण।

६) विविध भारती मुंबई से ‘हरसिंगार के फूल’ कहानी का प्रसारण। 

७) एम. ए. हिन्दी में मुंबई विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ अंक प्राप्त करने पर महाराष्ट्र टाइम्स द्वारा साक्षात्कार प्रकाशित।

८) मुंबई आकाशवाणी द्वारा भी उसी समय साक्षात्कार का प्रसारण।  

९) शहर की संवेदनाओं पर निरंतर लेखन।

१०) 'शहर बोलता है' (पहला काव्य संग्रह) प्रकाशाधीन।

११) कला, साहित्य, संस्कृति का शहर मुंबई' पर श्रृंखला  लेखन।

१२) देश की प्रमुख पत्र - पत्रिकाओं में कई कविताएँ, कहानी और संस्मरण प्रकाशित।



पता - B /601, श्री एयर इंडिया सोसाइटी, प्लॉट क्र. - 24, सावरकर नगर, ठाणे - पश्चिम, मुंबई - 400606

फोन - 09757277735

ई मेल : jayshreesingh13@gmail.com

संप्रति : सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक, जोशी - बेडेकर ठाणे कॉलेज, मुंबई - 400601








शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल- 25


रूपम मिश्र खांटी भारतीय स्त्री का अपनी कविताओं में प्रतिनिधित्व करती हैं,हाशिये की अन्तिम औरत जो अपनी समस्त प्रतिभा चूल्हे में झोंक पितासत्ता को पोषित कर रही थी ,रूपम उसी अन्दरखानों का मुखर विद्रोह हैं।रूपम कहती हैं-

मुझे गुस्सा आया उन कवियों पर
जिन्होंने नारी को नदी 
और पुरुष को सागर कहा

मैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयी
तुम वही सदियों के पुरूष थे
मैं वही सदियों की स्त्री 

मैं ,आज ठीक माँ ,चाची और भाभी के बगल में खड़ी थी
और जान गई थी कि
 क्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...

कवयित्री उन कवियों को भी कटघरे में खड़ा कर समझाती हैं कि औरत मात्र त्याग और भोग की वस्तु भर नहीं है,वह स्वतंत्र चेता स्त्री है जो तुम्हारी चालाकियों को भलीभांति समझती है और अब उनसे मुक्त हो अपना नया संसार अपने मानकों पर गढ़ना जानती है।


रूपम मिश्र की कविताएँ

(1)


मेरा जन्म वहाँ हुआ 
जहाँ पुरूष गुस्से में बोलते तो
स्त्रियाँ डर जाती 

मैंने माँ ,चाची और भाभी को
हँसकर पुरुषों से डरते देखा 

 वो  पहला पुरूष  , पिता को
किसी से भी तेज बोलते देख मैं डर जाती

वो दूसरा पुरूष  भाई 
जिसे मुझसे स्नेह तो बड़ा था
मेरी किताबी बातों को ध्यानस्थ सुनता
पर दुनियादारी में मुझे शून्य समझता

वो कहता दी ! यहाँ नहीं जाना है
मैं कहती अरे ! जरूरी है क्यों नहीं जाना !
तुम नहीं समझोगी!
उसके चेहरे पर थोड़ा सा गुस्सा आ जाता
मेरा मन  डर कर खुद को समझा देता था कि
बाहरी दुनिया तो उसी ने देखी है
मैंने घर और किताबों के सिवा क्या देखा है

फिर तुम....
जीवन में तुम आये तो मुझे लगा 
ये पुरूष मेरे जीवन के उन पुरुषों से अलग है
ये वो पुरूष थोड़ी न है 
ये तो बस प्रेमी है

मिथक था वो मेरा 
पुरूष बस प्रणय के क्षणों में प्रेमी होते हैं
स्थायी रूप से वो पुरूष ही होता है

क्यों कि जब तुम पहली बार गुस्से से बोले तो
वही डर झट से मेरे सीने में उतर आया
जो पिता और भाई के गुस्से से आता था

मैं ढूँढने लगी उस पुरूष को 
 जो झुक कर महावर भरे पैरों को चूम लेता था
कहाँ गया वो पुरुष जो कहता था कि
तुमसे कभी नाराज नहीं हो सकता

मुझे गुस्सा आया उन कवियों पर
जिन्होंने नारी को नदी 
और पुरुष को सागर कहा

मैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयी
तुम वही सदियों के पुरूष थे
मैं वही सदियों की स्त्री 

मैं ,आज ठीक माँ चाची और भाभी के बगल में खड़ी थी
और जान गई थी कि
 क्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...

                             चित्र- अनुप्रिया
(2)


सात रानियों वाले राजा की सबसे छोटी रानी मैं थी!

पुकार का वो घण्टा राजा ने मेरे ही महल में बंधवाया था!

पर पूर्व की कोई रानियाँ मुझसे जलती नहीं थीं
क्यों कि इस नई कहानी में बेचारी मैं नहीं  वो लोग थीं!
इस बार राजा ने मुझे चालाकी से अदृश्य कर दिया था !

हालांकि घंटा अबकी अनायास  मैंने खुद ही बजाया था
अंधेरे में तीर चलाना सीख रही थी
पर तीर आकर किस्से की तरह ही  ठीक मेरे  सीने पर लगा था!

राजा इस बार इतना क्रूर नहीं था कि देश निकाला दे देता!

उसने सिर मूंडवा कर मुँह पर कालिख़ भी नहीं पोती!

बस आत्मा के रेशे-रेशे को उघाड़ कर उसी पे खालिक पोत दी !
क्यों कि ये आधुनिक युग का सभ्य राजा था और इसकी सिर्फ़ सात रानियां नहीं थीं।

                            चित्र-अनुप्रिया
(3)

 हैरान और निहाल हूँ तुम्हें देखकर !
जीवन में मैंने तुमसे बड़ा अचरज नहीं देखा !

तुम नदी से बातें कर सकते हो
चिड़िया के साथ गा सकते हो 
तुम्हारा बस चले तो किसी स्त्री की प्रसव पीड़ा समझने के लिए गर्भ धारण कर सकते हो!

तुम किसी किन्नर की मौत पर  फूट- फूट कर रो सकते हो!
तुम किसी समलैंगिक की शादी में बधाई गा सकते हो!

तुम अपनी सारी डिग्रियां जला कर मेर साथ गाँव के  भगवती देवी विद्या मंदिर में पढ़ सकते हो !

तुम अपनी उदास छोटी बहन की गुड़िया की साड़ी भाभी की ब्रांडेड लिपिस्टिक चुराकर रंग सकते हो!

तुम अपनी प्रेमिका के नये प्रेम के किस्से हँसकर सुन सकते हो !

दरवेश ! तहज़ीबें चकित तुम्हें  देखकर !
तुमने सारे मठों और मान्यताओं को तोड़कर
 अनलहक को आत्मा का दस्तार बनाया!

तुम संसार के सारे युद्धस्तम्भों पर इश्क़ की इबारत लिख सकते हो!
और युद्धरत सारे हाथों में उनकी प्रेमिकाओं के पत्र थमा सकते हो!

रंगीले फ़कीर !  अभिजात विद्रूपता को मुँह चिढ़ाकर
तुम मेरे डिहवा पर के  मुसहर टोली में बैठकर महुआ की शराब पीकर रात भर नाच सकते हो!

मैं तुम्हारे मांथे पर चुम्बन का नजर टीका लगाती हूँ मेरे अजब प्रेमी !
मेरे  साथ मेरी चिर लजाधुर संस्कृति भी अवाक है तुम्हें देखकर कि
तुम अपनी माँ को नवीन प्रेम में देख सकते हो।

                               चित्र-अनुप्रिया
(4)

 मैं यहाँ भी नहीं ठहरूँगी!

मैंने जन्म से देह की घृणा पी थी
सबसे आदिम सम्बन्ध बहुत घिनौना है ये मिथ मुझे माँ के दूध में पिलाया गया है 
व्यर्थ श्रेष्ठता बोध मैं सिर पर लाद कर चल रही थी 

पर मैं वहाँ भी नहीं ठहरी ,कई रोते  चेहरे मुझे पुकारने लगे थे
मैं उठकर वहाँ पहुँची थी
बहुत दिन तक वहीं रही 

मैं सबसे अंत में तुमसे मिली
फिर खो गयी तुममें
पर मुझे आशंका है घृणा फिर से जन्म ले सकती है

मैने ढेरों हाथ हटाकर तुम्हरा हाथ पकड़ा था
पर मुझे डर है तुम जब कभी प्रगाढ़ आलिंगन के लिए अपने हाथ बढ़ाओगे तो हो सकता है मुझमें रोपी गयी वो देह घृणा फिर  जाग जाये

और मैं झटक दूँ तुम्हारा हाथ ! 
 तब तुम कहाँ जाओगे! 

मुझे निसत्व लगेगीं तुम्हारी बेहद खूबसूरत आँखें
भ्रम लगेगें तुम्हारे तुम्हारे वो होंठ जिसपर एक चिर प्रणय निवेदन रखा है
जिन्हें जी भर देखने की मुझमें कभी क़ूवत न हो पायी
मुझे गलीज़ लगेगी वो पवित्र रातें जब दो जोड़ी जागती आँखें बार- बार छलक पड़ती थी 

पर धीरज रखना मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी
तुमसे छूटकर मैं प्रायश्चित के लिए किसी मंदिर के द्वार पर खड़ी हो जाऊँगी !

तुम आर्त होकर मुझे पुकारोगे
मंदिर के घंटे- घड़ियाल में तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनुगी
मैं संसार की सारी पवित्रता को देह में स्थापित कर दूँगी

इसतरह मैं एक प्राकृतिक प्रेम की शीत हत्या कर दूँगी
मैं किसी रोती हुई सीता या अग्नि कुंड में जली सती से सतीत्व की भीख माँगूंगी 
या किसी सूर्य या इंद्र के पैर पकड़ूँगी मुझे याद नहीं रहेगा कुन्ती व अहल्या का दुःख

मैं वहाँ भी बहुत दिन नहीं ठहरूँगी फिर किसी  गर्भ गृह में  कोई बच्ची चीखेगी,
प्रसाद और सिक्के उठाने के जुर्म में  पुजारी किसी बच्चे को पीट देगा

तब मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी!
खूब भटकूगीं ,ठोकर भी लगेगी 
अंधेरे से रास्ता दिखायी नहीं देगा ,
तुम भी नहीं लौटोगे!
मैं कटी पतंग की तरह घूमूंगी!

तभी कही दूर कोई भूखा बच्चा रोयेगा , वो मुझे पुकार  सकता है अगर न भी पुकारे तो भी मैं वही जाकर ठहरूँगी!

मैं आसपास बिखरी सारी किताबों को पढ़ डालूँगी
फिर उसी रास्ते से मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगी

मैं तुम्हारे आँसुओं से तुम्हारा पता ढूढ लूँगी
क्योंकि तुम जब - जब रोये हो 
मुझे लगा कि कहीं औचक कोई दुलरुवा बच्चा घृणा की कड़ी निगाह से सहम कर रोया है

तुम्हारी बहुत याद आने पर मैं उस बच्ची को जाकर गले लगा लेती हूँ जो एकदिन शहतूत के पेड़ को तेल ,काजर लगाने की जिद कर रही थी !

किसी अभिमंत्रित यंत्र की तरह मुझे तुम्हारा नाम रटने की लत लग गयी है
मैं तुम्हारे नाम के रंग से अपने कमरे की दीवारें रंगवा दूँगी
चादरें और पर्दे भी उसी रंग के होंगे
और इस तरह तुम्हारे नाम के आग़ोश में रहूँगी!

तुम निश्चित मेरे प्रेमी हो ! तुम्हारे अंकपाश में पहरों बेसुध रही हूँ!
पर जो डर की यातना तुम्हें रात को सोने नहीं देती
उससे  द्रवित होकर मेरे सीने में दूध सा उतर आया था!

मुझे अफ़सोस  है मेरी जान ! मैं इस मनुष्यहन्ता युग की आँखों में झांककर करुणा न भर सकी!

                          चित्र-अनुप्रिया

(5)

 मुझे नहीं बनना था मुझे कभी भी 
तुम्हारी पहली और आखिरी प्रेमिका!

मैंने तुमसे प्रेम करते हुए
तुम्हारी सारी पूर्व प्रेमिकाओं से भी प्रेम किया !

जिसने भी तुम्हें प्यार से देखा
 मैंने उससे भी प्रेम किया !

प्रतिदान की कभी मुझमें चाह ही नहीं हुई
बस एक साध रही कि
एक बार ! तुम एक बार कहते कि
हाँ सच है !उसपल मैं तुम्हारे प्रेम में था !

और वही पल मेरे लिए निर्वाण का पल होता !

क्यों कि मैंने तुम्हें खालिश प्रेम किया!
सारे मिलावटी भावों से बचा कर उसे विशुद्ध रखा 

इसलिए तुमसे प्रेम करती सारी स्त्रियाँ मुझे प्रिय रहीं

संसार में वो सारे लोग जो तुम्हें प्यार करते हैं
उनके लिए मैं मन से आभारी हो जाती हूँ!

मैं तुम्हारी पहली दूसरी ,चौथी 
सारी प्रेमिकाओं के 
को छूकर देखना चाहती हूँ
जिनके हाथों को तुमने कभी छुआ होगा!

जाने क्यों तुमसे जुड़ा जो भी मुझे मिला 
वो तुम्हारी तरह ही ज़हीन मिला

मैं कुछ देर के लिए वहीं रुक जाती हूँ
जहाँ तुम्हारा कोई नाम ले लेता है !

सोचती हूँ कोई ऐसा मिलता !
जो बस तुम्हारी ही बात करता!
और मैं आँखें बंद करके उम्र भर सुनती!
_______________________



                               रूपम मिश्र



कवयित्री रूपम मिश्र, पूर्वांचल विश्वविद्यालय से परस्नातक हैं  और प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गाँव की रहने वाली हैं. कुछ  पत्र पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ  प्रकाशित  हैं। 


समकाल : कविता का स्त्रीकाल -24

जोशना बैनर्जी आडवानी ने इधर तेजी से अपनी कविताओं के माध्यम से ध्यान खींचा है।कथक नृत्यांगना जोशना थिएटर और शिक्षण कार्य से जुडी होने के नाते अनुभव के व्यापक फलक पर कविता के शब्द चित्र खींचती अपने काव्य भाषा के सम्मोहन से हमें बाँध लेती हैं।उनकी कविताओं का बिंब विधान अनूठा है,एक कविता में वह लिखती हैं-

"
तुम खून सुखाते पाप के लिए ईश्वर
द्वारा रचा गया वरदान हो
मैं पकड़ी गई मछली की जाती
हुई सांस हूँ

तुम ठप्प पड़े कारोबार की आखिरी
आस भरी उम्मीद हो
मैं गलतफहमी मे जीने वाली
असलियत का कलंक हूँ

तुम पहली मिलन की रात का
घबराया हुआ लम्हा हो
मैं उसी रात का मुरझाया हुआ
सुबह का फ़ूल हूँ

तुम इतना जो बंद बंद रहते हो मुझसे
निश्चित ही मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी"

उपरोक्त कविता में मूलतः स्त्री -पुरुष असामानता की बात ही व्यक्त है पर कहन की शैली बिल्कुल टटका बिम्बों पर केन्द्रित कविता को सहज प्रवाह में बाँधती हमें सार तत्व तक ले जाती हैं।इस तरह के प्रयोग और बांग्ला भाषा और संस्कृति के गन्ध से भरी जोशना स्त्री कविता की उस पीढी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समय और समाज के हर मोर्चे पर अपनी कविता से सवाल-जवाब को तत्पर है।



1

मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी ....

तुम पुराने दिनो के गज़ल से निकला
चुभने वाला दर्द हो
मैं हूँ रियाज़ से पहले की गई
उस्ताद की गरारी

तुम हो उस पवित्र ढाई अक्षर का
सबसे ऊँचा वाला कुलाँच
मैं हूँ सफेद चाँद का सबसे बदसूरत
काला गहरा गड्ढा

तुम कई त्वचाओं के पीछे छिपा
नवसंचार हो
मैं चिथड़े से बनाया गया खुरदरा
बिस्तर हूँ

तुम खून सुखाते पाप के लिए ईश्वर
द्वारा रचा गया वरदान हो
मैं पकड़ी गई मछली की जाती
हुई सांस हूँ

तुम ठप्प पड़े कारोबार की आखिरी
आस भरी उम्मीद हो
मैं गलतफहमी मे जीने वाली
असलियत का कलंक हूँ

तुम पहली मिलन की रात का
घबराया हुआ लम्हा हो
मैं उसी रात का मुरझाया हुआ
सुबह का फ़ूल हूँ

तुम इतना जो बंद बंद रहते हो मुझसे
निश्चित ही मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी


                                           चित्र-अनुप्रिया

2

कविता हलक से ठाँय करती हुई उड़ जायेगी एक दिन ....

उसने अँधेरे से घुप्प लिया
सड़कों से सीख ली भिड़ंत की हड़बड़ी
पानी से ले लिया भाप
बुतों से छीना वधस्थानो़ का इतिहास
गुम्बदों से जाना चिड़ियों का विवेक
बिगुल से सीखती रही अभिनय के नुस्खें
कर्फ्यू से ले ली मूर्खों की उक्तियाँ

इतना कुछ पाने के बावजूद भी
देश जब थर्रा रहा था
उसे अभिनय की सूझी
पिछले दिनों रंगमंच में एक चालाक
लड़की का किरदार करते हुए
वह गच्चा खा गई
न्यायार्थ ही दर्शकों को अपने अभिनय
से दण्डित किया

एकांत में कविता लिखी
वह बंदूक से नहीं मरेगी
कविता हलक से ठाँय करती हुई
एक दिन उड़ जाने का अभिनय करेगी

                                         चित्र-अनुप्रिया


3

मेरे जीवन के रंगमंच के
तुतलाते हुये अभिनेता ....

दर्शक तर्रार हैं, 
बड़े बड़े बल्ब नाटकीय
और रंगमंच की ज़मीन
मेरी आत्मा है
तुम अपने पाँव अच्छे से जमा लेना 
कभी अटको तो 
अपने दायीं तरफ के परदे की 
तरफ देखना
मैने अपने प्रेम की कुछ चित्रलिपियाँ 
चिपकाई है वहाँ

अपने कंठ मे भर लेना अभिनय
तालियों की गड़गड़ाहट रख लेना तुम
और मुझे दे देना उनकी गूँज
ये मेरे कानो को लम्बा जीवन देंगे

स्मरण रहे
रंगमंच पर अभिनय की भूमिका ने लोगों को अमर किया है
रंगमंच के बाहर अभिनय की भूमिका ने सैकड़ो शिशुओं को
झूठ और फूहड़ता नामक दो पिताओं से जना है

हम कभी कोई शिशु संभाल पाये
इतने बड़े कभी हम बन नही पायेंगे

                                         चित्र-अनुप्रिया

4
तुम्हारी कविताएँ अगर कोई 
देश होती तो ....

तुम्हारी कविताएँ अगर कोई देश
होती तो वहाँ यात्रा करते वक्त 
देखी जा सकेगी
बाघो और बकरियों मे सुलह
बाज़ारों मे बिकते शीरमाल
को देख झाड़ देंगे
लोग अपनी थकान
बच्चो की हँसी तय करेगी
नक्षत्रों की गति
फूलों की घाटियाँ अपनी आयु
देंगी  प्रेमियों को

तुम्हारी कविताऐं
अगर कोई देश होती तो
मैं होती वहाँ की पहली नागरिक
परंतु 
कोई आश्चर्य नहींं जो मेरी उचटी 
हुई नींद से छिटक कर दूर जा 
गिरो तुम और रात माँगे मुझसे
मेरे होने का हिसाब
कोई आश्चर्य नहींं जो किसी दिन
मैं सिकुड़कर बन जाऊँ एक
ईल मछली और दुःखो के एवज़ मेंं
झटकोंं का करूँँ इस्तेमाल
कोई आश्चर्य नहींं जो
शास्त्रार्थ की ज्ञाता विद्योतमा को
करना पड़ा था अनपढ़ कालिदास से विवाह
विचेष्ट मन की विचेष्ट स्वप्नों से छिटककर ही मैंने
पाया है जीवन
तुम्हारी कवितिओं की माधवीलता पकड़कर
उठ रही हूँ ऊपर की ओर
तुम्हारी कविताओं ने मुझे विधात्री बनाया

                                     चित्र- अनुप्रिया
5

पच्चीसवें घंटे का टोटका ....

क्या सीखा तुमने
एक लौटे हुये पतझड़ से
एक इंतज़ार मे बैठी लड़की से
इकट्ठी रखी शिकायतों से
ऊँघती हुई सरहदी मिट्टी से

क्या सीख पाओगे तुम
बूढ़े नाविकों से समुद्र के साम्राज्य की बारिकियाँ
उस कविता से जिसे एक असफल प्रेमकथा ने जना
गिरे हुये फ़ूलो से डालियों के पकड़ की प्रक्रिया
उस ऋण से जो अनुत्तरित प्रश्नो से दुगना हो रहा है

क्या सबकुछ सीख कर भी सिखा पाओगे
चिड़ियों को चिड़ीमारो का रहस्यमयी मनोविज्ञान
प्रेमियों को प्रेमगीत लिखवाकर ग्रैमी जीतने का नुस्ख़ा
ईश्वर के प्रैस्क्रिप्शन पर कैसे लिखी जाती है चन्द सांसे
एक बेहद सरफिरी लड़की को पच्चीसवें घंटे का टोटका


             जोशना बैनर्जी आडवानी


परिचय

जोशना बैनर्जी आडवानी
स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत

जन्म- आगरा, उत्तर प्रदेश
जन्म तिथि- 31 दिसम्बर, 1983

शिक्षा- सेंट कॉनरेड्स इंटर कॉलेज से स्कूलिंग की,आगरा कॉलेज से ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन करने के बाद सेंट जॉन्स डिग्री कॉलेज से बी.एड और एम.एड किया,आगरा विश्वविद्यालय से पी.एचडी की तथा पंद्रह साल पी.जी.टी. लेवल पर अंग्रेज़ी पढ़ाने के बाद प्रधानाचार्या का पद संभाला ।
सीबीएसई की किताबों के लिए संपादन कार्य 
सीबीएसई के वर्कशॉप्स और सेमिनार्स संचालित करवाने का कार्य पिछले दस सालों से 
कत्थक में प्रभाकर
लिखने में रूचि बचपन से ही थी
अंग्रेज़ी और हिंदी में कई कविताएँ लिखी
पर पहचान मिली पहली पुस्तक "सुधानपूर्णा" से जो दीपक अरोड़ा स्मृति सम्मान के तहत बोधि प्रकाशन से आई थी
सुधानपूर्णा का अर्थ किसी शब्दकोश में नहीं
पिता का नाम - स्वर्गीय सुधानबाबू बैनर्जी
माँ का नाम- स्वर्गीय अन्नपूर्णा बैनर्जी
पिता के नाम से सुधान और माँ के नाम से पूर्णा लेकर
सुधानपूर्णा नाम रखा किताब का
पूर्व में थियेटर किया कई सालों तक।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल 23

भारत भूषण युवा कविता पुरस्कार से पुरस्कृत अनामिका अनु समकालीन युवा स्त्री कविता में मजबूत दखल रखती हैं।स्त्री सार्वाधिक रुप से प्रेम में छली गयी। भारतीय स्त्री की ममतामयी त्याग की मूर्ति छवि को हमारी इन कवयित्रियों ने न केवल पहचाना बलकि उन बारीक तन्तुओं के रेशे खोले और उधेड़े जिसके ताने-बाने पर पितासत्ता स्त्री को स्थापित कर महिमामंडित करती रही है। अनामिका अनु केरल में रहते हुए स्त्री जीवन के विविध रंगों को क्षेत्रीय फलक पर देखती हैं और अपनी कविताओं में उन बिम्बों को समाहित करती हैं जिनसे गुजरते एक टीस मन को बेचैन कर जाती है।


अनामिका अनु की कविताएँ

1.

नौ नवम्बर


प्रेम की स्मृतियाँ 

कहानी होती हैं ,

पर जब वे आँखों से टपकती हैं 

तो छंद हो जाती हैं। 


कल जब पालयम जंक्शन

पर रुकी थी मेरी कार

तो कहानियों  से भरी एक बस रुकी थी

उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं


उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी

वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता

जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थीं

पूरा तन प्रशांत था। 

उसके जूड़े में  कई छंद थें

जो उसके मुड़ने भर से

झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थें

मानो हरश्रृंगार गिर रहे हों ब्रह्ममुहुर्त में। 


ठीक उसी वक्त 

बस स्टैंड के पीले छप्पर

को नज़र ने चखा भर था

तुम याद आ गये


"क्यों? 

मैं पीला कहाँ पहनता हूँ? "


बस इसलिए ही तो याद आ गये!


उस रंगीन चेक वाली सर्ट पहनी

लड़की को देखते ही तुम मन में 

शहद सा घूलने लगे थे


"वह क्यों?

तुम तो कभी नहीं पहनती सात रंग?"


तुम पहनते हो न इंद्रधनुषी मुस्कान

जिसमें सात मंजिली खुशियों के असंख्य

वर्गाकार द्वार खुले होते हैं

बिल्कुल चेक की तरह

और मेरी आँखें हर द्वार से भीतर झाँक कर

मंत्रमुग्ध हुआ करती हैं। 


आज सुग्गे खेल रहे थें

लटकी बेलों की सूखी रस्सी पर

स्मृतियों की सूखी लता पर तुम्हारी यादें के हरे सुग्गे

मैंने रिक्त आंगन में खड़े होकर भरी आँखों से देखा था

वह दृश्य


तुम्हारी मुस्कान की नाव पर जो किस्से थें

मैं  उन्हें सुनना चाहती हूँ 

ढाई आखर की छत पर दिन की लम्बी चादर को

बिछा कर

आओगे न? 


तुम मेरे लिए  पासवर्ड थे

आजकल न ईमेल खोल पाती हूँ

न फेसबुक

न बैंक अकाउंट

बस बंद आँखों से

पासवर्ड को याद करती हूँ

क्या वह महीना था?

 नाम?

या फिर तारीख



2.मैं ज्यां पाॅल सार्त्र


मैं ज्यां पॉल सा‌र्त्र

एक अस्तित्ववादी 

फर्डीनेण्ड के  साथ

आँखों से पी रहा हूँ स्वेज़ नहर को

मेरे लिखे स्वतंत्रता पत्र 

नहर पर तैर रहे हैं हंस बनकर


 पोत बन गया हैं  इंक़लाबी चौक

जहाँ खड़े होकर मैं दे रहा हूँ भाषण

और बता रहा हूँ 

यूरोप का लोकतंत्र विश्व को बाँट रहा है ग़ुलामी

मेरा वतन नहीं हड़प सकता

अल्जीरिया की आज़ादी

मैं  चीख रहा हूँ 

और भीड़ मेरी चीख को बता रही है

एक अनीश्वरवादी की दहाड़


लोग कहते हैं 

मैं  स्वनियन्ता नहीं भाग्यनियन्ता शिशु था

अट्ठारह महीने में पिता

और बारह वर्ष में  माँ ने ले ली विदाई

दो विश्वयुद्ध एक आँख से देख चुका आदमी

 एक दिन दार्शनिक हो गया

मैं डंके की चोट पर नकार रहा हूँ उसी भाग्य को


सोरेन कीर्केगार्ड कहते रहे

मनुष्य से दूर ईश्वर को गहन विश्वास से  

किया जा सकता है महसूस

मैं  सार्त्र ईश्वर की उस सत्ता से भी

करता हूँ इंकार


कई काँच की गिलासों में पीकर जाम

मैं  सो जाता हूँ 

स्वप्न में बजाता हूँ वायलिन

ताकि माँ के गीत से कर सकूँ संगत

नौ महीने गर्भ में, बारह वर्ष गोद में 

बिठाकर 

माँ ने क़ब्र में समेट लिया है मेरा बचपन


क्या मैं रूसो, काण्ट, हीगेल और मार्क्स 

की अगली कड़ी हूँ ?

या मार्क्सवाद के महल का एक सुंदर झरोखा

जिससे आती है रौशनी स्वतंत्रता की

जिसने कभी नहीं की प्रतीक्षा

किसी प्रभु की

वह झरोखा जो रसोई तक जाता था

और वायलिन के बगल

में  किताबों की मेज के पास खुलता था

 जिससे दिखती थी  सड़क की चौपाटी

जिस पर वाच  

और बाँट रहा था मैं अखबार 

इंक़लाब वाले


ये दुनिया की रीत है

इंक़लाबियों के घरों पर गिरते हैं बम

माथे पर तानी जाती हैं बंदूकें 

फिर भी  मन पर उनके कोई बोझ नहीं होता है

सच बोलने के बाद आदमी निडर

और भीतर से हल्का महसूस करता है


मैंने लिखा

लुमुम्बा के भाषणों का प्राक्कथन 

हाँ मैंने ही लिखा

फ्रांज़ फ़ैनन की पुस्तक का पूर्वकथन

अल्जीरिया के 121घोषणापत्र पर 

करवाता रहा हस्ताक्षर 


मुझे नहीं चाहिए था नोबेल या लेनिन पुरस्कार 

नंगे यथार्थ को वस्त्र पहनाने की

हर गंभीर साज़िश 

पर नज़र थी मेरी

मैं हर नाटक की पटकथा

और सच से वाक़िफ़ था

मैं  एक आँखों वाला दूरदृष्टा


मैं  जानता था

विचार और स्थिति हैं दो बहनें

एक ही रोग से ग्रसित

जिसका नाम है अस्थिरता 

इस व्याधि के तीन स्पष्ट लक्षण हैं 

विकास, गति और परिवर्तन 


मैं  दिमाग़ से ऊब जाता हूँ 

गंभीर वैचारिक यात्राओं से थककर

खोजता हूँ परिवर्तन 

शारीरिक तत्वों में लीन

मैं प्रशांत सरोवर में फेंकता हूँ

पत्थरों सा कई देहों को

 संकेंद्रित तरंगों से भर जाता है ताल

 माटी की प्रसन्न मूर्ति के भंग अंग

टूटे सिर में उच्च ज्वर

मैं  खोजता हूँ 

कोरीड्रेन की गोलियाँ

और एक नीम बेहोशी


मुझे आत्मा के परिणय का

सम्मान करना चाहिए था

वैसे ही जैसे

कैथोलिक चर्च में मरियम का होता है सम्मान

मैं  मिला था सिमोन से

किसी देव को साक्षी मानकर

नहीं  किया कोई भी वादा

जैसे दो देह करते आए थें 

विवाह मंडपों में 

स्थापित से द्वन्द 

और टूटती प्रतिमाओं 

का  विसर्जन तब आवश्यक था


दो लोग जो एक थें

जिन्हें  तोड़नी थी सामाजिक  मान्यताएँ

जो अपेक्षाओं से भय खाते थें

और भाग रहे थें 

उस संस्कृति से जो समानता के समक्ष 

एक कलात्मक दुर्ग सी खड़ी थी

पूरे रंग रोगन और रुआब के साथ


ईर्ष्या स्वतंत्रता की शत्रु है

यह व्यक्ति को नियंत्रित करती है

इस तरह से यह वैयक्तिक स्वतंत्रता पर 

लगाती है लगाम


परिस्थितियो में होती है 

रिश्तों के निर्माण की विलक्षण शक्ति 


इकावन वर्षों का साथ

जिसमें कई लोग आए और गए

प्रेम, जलन, देह, घृणा, विरह और मिलन की कई

परतों ने बना दिया था 

रिश्ते को डोलोमाइट चट्टान

यह संबंध जो 

किसी ढाँचे में समायोजित न होकर भी

चिरकालिक और विशिष्ट रहा

कई तूफानों के बाद भी

जिससे सतत ऊत्सर्जित स्नेह

ने इसे बचाए रखा

एक दूसरे में  रूचि बनी रही मृत्यु तक 

दर्शन बचा लेता है प्रेम को


मैं  सार्त्र 

मेरे पास कई रंग हैं

सिमोन के पास हैं कई धागें

सिमोन रंगों से नहीं करती है ईर्ष्या 

मैं नहीं गिनता हूँ सिमोन के धागे

हम जानते हैं 

कई स्थूल रिश्तों ने ठीक-ठीक है समझाया

बस एक सूक्ष्म रिश्ता बनता है

पूरे जीवन में 


 मैं सार्त्र रिक्त हो रहा हूँ 

बगल में सिमोन खड़ी है दवा की बोतल सी

वह दवा जो मेरी पीड़ा

को न्यूनतम कर देगी

केस्टर(सिमोन) कह रही है

चिकित्सक के कानों में 

 वह नहीं बताए मुझे

कि मैं मर रहा हूँ 


 जीवन को जीने की मैं कर रहा हूँ 

अंतिम अनाधिकारिक चेष्टा

मौत को आता देख जैतून के फूल-

सा खिल उठा है मेरा चेहरा

मैं जानता हूँ 

जीवन एक हास्यास्पद नाटक है

जिसे गंभीरता से जी रहे हैं हम सब


मैं जानता हूँ 

नाटक से विदाई का अवश्यंभावी सच

 और मेरी उँगलियाँ थिरक उठती हैं 

कुछ नया लिखने को




3.

करमा आदमी नहीं पूरा स्टेशन है (फणीश्वर नाथ रेणु की आदिम रात्रि की महक) 


करमा आदमी नहीं पूरा स्टेशन है।

स्टेशन है 

तो स्टेशन वाली गंध भी होगी

करमा  उसी गंध के समुद्र में डूबा रहता है।


उसकी गंध को सूँघता कुत्ता 

उसके सामने खड़ा हो जाता है

और एक फटकार पर दुम दबाकर भाग जाता है

करमा खिखियाकर कर हँस देता है।


छोटी-छोटी ज़रूरतों वाले आदमी की खुशी हमेशा बड़ी होती है 

उसे तलाशनी नहीं पड़ती खुशियाँ


गरीब के हज़ार नाम होते हैं 

करमा,कोरमा, कुरमा, कामा,करमचंद  या करम कह लो

फ़र्क़ नहीं पड़ता आएगा दौड़ कर करमा ही


पर जिसे आदमी एक बार

 अपने से छोटा मान लेता है,

उसके नाम को 

फिर कभी महत्व नहीं देता है। 

मान लेना शायद इसलिए भी

इतना बुरा है


बोली की खटास ऐसी

कि दूध फट जाए

फिर आदमी का कलेजा 

क्या चीज़ है?


लखपतिया के चिरई-चुरमुन

की मीठी आवाज़

खींचकर पास बुलाती है


हतिया नक्षत्र में खेत में

  चमकती मछलियाँ 

हँसकर बातें करती हैं 


काली,झिलमिलाती और 

डंक मारती माँगुर मछली 

बोलती नहीं 

बस काटती है


वह जैसे ही याद करता है

मनिहारीघाट को

मस्ताना बाबा का चेहरा बरगद 

और उनकी हँसी आकाश हो जाती है।

धरती, गाछ-वृक्ष सब बोलने लगते हैं 

फ़सल नाचती गाती है

और रोने लगती है 

 अमावस्या की रात

 

कदम की चटनी खाए एक युग हो गया!

उसके लिए सुख का मतलब है

वैशाख के महीने में आईना के तरह झिलमिलाते पानी

में घंटों नहाना

लखपतिया स्टेशन के पूरब में हैं दो पोखरें

और वहीं गड़ा है उसका वह सुख


सुख से बहुत ज़्यादा है

मिल जाना

सोनबरसा के आम 

कालूचक की मछलियाँ

भटोतर की दही 

कुसियारगाँव की ईख



उसके जीवन में  हैं

गोभी के खेत की बाड़े

घी जैसा बैंगन

मेंड़ पर फों-फों करता ढोढि़या साँप

और एक अव्यक्त खालीपन। 



एक आँख सौ कारतूस के बराबर

ठांय- ठांय चलती गोलियाँ

हाय! उस डोमिन को याद करते ही 

करमा की

चवन्नी सी आँख 

एक रूपया का सिक्का हो जाती है।

वह चाहता है

चलती रेल से स्टेशन हो जाना। 


               


4

वे लिखते थें


मैं  क्या देख लूंगी सपनों में 

जो यथार्थ से भिन्न होगा

आँखें देख लेंगी वे यथार्थ

जो सपनों से भिन्न बहुत था


वर्जीनिया उल्फ की रातों में 

स्वप्न थें, नींद नहीं 

उसके जीवन में प्रेम था

कविता के लिए समय

और आने वाले समय के लिए कविता थी

वह नहीं करती आत्महत्या 

अगर कविता बचा सकती

कविता मरते कवि का हाथ नहीं पकड़ती

वह मौन रहती है

क्योंकि कविता के लिए मौन का अर्थ मृत्यु का आमंत्रण 


हेमिंग्वे के भीतर युद्घ मचा रहता था

उसके पात्र इसलिये पुरुषार्थी थें

पर उसके  गुणसूत्रों में 

बंदूक की गोलियों का थरथराता डर रोप दिया गया था

इसी डर ने एक दिन 

 धराशायी कर दिया उनकी कहानियों के सभी 

योद्घाओं को

एक बार वह चूका और 

अपनी कलात्मक ऊँचाई से फिसलता हुआ

गिर गया मौत की खाई में 

एक बूढ़ा मछुआरा  और विशाल समुद्र 

यह सब देख रहे थें 


अमृता प्रीतम स्वप्न, प्रेम और शब्द

की दुनिया से इतर

एक जागता बिखरा देश समेटी थी

खुद के भीतर

जो चाय की चुस्कियों, कलम ,किताबों 

में  चहलदमियाँ करता रहता था 

वह चली गयी

पर आज भी उनका वह देश  जाग रहा है

और 

उनकी किताबों के पन्नों में  बिखरा पड़ा है


प्रेमचंद गरीब नहीं  थे

गोदान करने और लिखने वाला आदमी गरीब नहीं होता

दोनों के पास धन होता है

धन की प्रकृति भिन्न हो सकती है


ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई बार झाड़ू

बनाकर विद्यालय प्रांगण को बुहारा था

वे जानते थे

यहाँ कचरा बहुत है

और बीमारियाँ कई

ये बीमारियाँ घर-घर न फैले

इसलिए स्वच्छता बहुत जरूरी है



 5

श्यामा और शाम्भ


शाम्भ तुम लौट जाओ 

अब वृंदावन 

मिथिला के जुते खेत में 

कैसी प्रतीक्षा ?

सड़क किनारे खड़े वृक्ष सब शापित बहनें

आज कटे या कल

शाम्भ तुम लौट जाओ अब वृंदावन 


 कार्तिक पूर्णिमा 

जुते खेत की खड़ी प्रतीक्षा

नव धान बालियाँ 

कटने-कूटने को आतुर

सींके पर जमी दही अब डोल रही

गमछे में अशरफ़ी सा 

मुरही और बताशों को अब करने दो शोर

अरपन सज्जित यह चंदन का पीढ़ा

 ले जाओ वापस

शाम्भ तुम लौट जाओ 

मिथिला से अब वृंदावन


कृष्ण पिता

चुरक मंत्री

चुगलों की गवाहियों पर

लिखा जा रहा युग का विधान

चाटुकारों से सभा सजी है

प्रपंच की अखंड रीत से ग्रसित देश यह

बाँट रहा अब शाप

देह से निष्कासन

देश से निर्वासन

राजा और पिता का जब न्याय यही है

फिर ऐसे देश की चाह किसे है? 

अफवाह की आग लगी

दह-दह जलता वृंदावन 

शाम्भ तुम लौट जाओ अब घर


पुत्री की झोली दंडपात्र

युग शापित बहनें

चिड़ियाँ  बन उड़ जाएंगी

शरद शीत में  ठिठुर मरेंगी 

गोद हिमालय

पर लौटेंगी नहीं देश तुम्हारे 

सारे वरदानकोष रिक्त

 स्त्री अंजुली के सम्मुख

देव और देश विरक्त मैं 

शाम्भ तुम लौट जाओ 

अब देश द्वारका


केले के थम की पालकी

दिखे हरी

पर चिन्ह अमिट विदाई का 

उसी थम की मैंने नाव बनाकर रखी है

कार्तिक चन्द्र कोसी की लहरों

पर करे किलोल

सोचा था

बैठ करेंगे सैर उसी पर

देखेंगे छठ का डाला

 गाँव से आते दूध बगिया की खुशबू में 

खूब नहाएंगे हम-तुम

वन विचरण  पुरुषों के लिए तपस्या,

ज्ञानार्जन और जिज्ञासा 

स्त्री के लिए फिर आँवारापन क्यों?

बोलो शाम्भ कैसे लौट जाऊं मैं देश द्वारका?  


सतभईया, खड़रीच, चुगिला और

झाझीकुकुर डाल में नहीं रूचते मुझको

कब कोसी से मिली है जमुना? 

मिथिला से वृंदावन 

शाम्भ लौट जाओ तुम अब


गंगा के तलछट की चिकनी मिट्टी 

खरोंच गढ़ लेना श्यामा तुम

शरद पूर्णिमा की अमृत वर्षा

शाम्भ तुम खाना खीर मखान

चारू संग मैं बैठ आमौर की फुनगी पर

देखूँगी  

चाँदनी में तेरा मुख

शाम्भ हुई देर अब

लौट जाओ तुम वृंदावन 


पहले क्षिति को करो मुक्त

व्यभिचारियों की भीड़ से

तब देना मुझे आमंत्रण

वन से बेहतर

खग से सुंदर 

जीवन का

हो विकल्प प्रिय

तो बतलाना

शाम्भ तुम लौट जाओ अब वृंदावन 


6


मैं  भूल जाता हूँ 


जब घोंघे आते हैं

घर का नमक चुराने

मैं  बतलाना भूल जाता हूँ

नमक जो बंद है शीशियों में

उनका उनसे कौन सा रिश्ता पुराना है


कृष्ण की मजार पर चादर हरी सजी है

मरियम के बुर्के में सलमा सितारा है

अल्लाह के मुकुट में मोर बँधे हैं

नानक के सिर पर नमाज़ी निशान है

लोग कहते हैं —

मैं भूल जाता हूँ

कौन सी रेखाएं कहाँ खींचनी है!


मैं आजकल बाजार से दृश्य लाता हूँ

समेट कर आँखों में

भूल जाता हूँ खर्च कितना किया समय?

झोली टटोलती उँगलियों को

आँखों के सौदे याद नहीं रहते


मैं पढ़ता जाता हूँ

वह अनपढ़ी रह जाती है

मैं लिखता जाता हूँ

वह
मिटती जाती है


खिड़की के पास महबूब की छत है

मैं झाँकना भूल जाता हूँ

वह रूठ जाती है

       

मैं भूल जाता हूँ

चार तहों के भीतर इश्क़ की चिट्ठियाँ छिपाना

आज जब पढ़ रहे थे बच्चे वे कलाम

तो कल की वह आँधी

और मेरी खुली खिड़कियाँ याद आयी

अब तलक कलम की निभ तर है


कागज भीगा है

मैं भूल गया

कल बारिश के साथ नमी आयी थी !

                             


                                                    अनामिका अनु

परिचय-

अनामिका अनु 

परिचय:-

एम एस सी (वनस्पति  विज्ञान, श्वविद्यालय स्वर्ण पदक) 

पी एच डी (लिमनोलाॅजी,   इंस्पायर अवार्ड, DST) 

प्रकाशन:-

हंस, कादम्बिनी, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, कथादेश, पाखी, आजकल, परिकथा, बया, वागार्थ, दोआब, जानकीपुल, समालोचन, पोषम पा, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, चौथी दुनिया, कविताकोश आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। 


 नोट- पोस्ट में प्रयुक्त सभी रेखाचित्र अनुप्रिया जी द्वारा बनाए गये है। 

समकाल : कविता का स्त्रीकाल 22

सुनीता डागा महाराष्ट्र से हैं और मूलतः अनुवादक के तौर पर जानी जाती हैं किन्तु आपकी कविताओं में अनुभूति की गहराई और ऊँचाई का मापन कविता के वितान में देखा जा सकता है।वह उस आधुनिक स्त्री का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने अस्तित्व और अस्मिता के संकट को जानती और पहचानती है तथा निरन्तर खुद को अनचाही बेड़ियों से मुक्त कर रही है।
सुनीता डागा हिन्दी कविता में एक आस्वस्ति की तरह प्रवेश करती हैं कि हिन्दी का आयातन बढ़ा है और स्त्री कविता न केवल दिलों की दूरी कम कर रही है बलकि भाषिक भूगोल को भी पास ला रही है।

१ 

फिर भी 


कितने जन्मों से रुके हुए

मेरे सवाल 

और

सवालों से पीठ फेरकर

तुम्हारा चले जाना

जन्मों से ही चला आ रहा...


तुम्हारी पीठ पर आँखें गड़ाए

जवाब की प्रतीक्षा

यह तो जैसे तय ही है

और तुम्हारी उपेक्षा भी

कितनी जरुरी

बिना उसके

कैसे सम्भव हो 

अलग-अलग दिशाओं का प्रवास ?


पास आने के सभी जोड़-घट

सिफ़र पर ही आकर रुके हुए

और मेरे सवालों का पर्चा

अंततः कोरा-का-कोरा


कितनी धूप-छाँव को सहा

तूफानों को झेला

फिर भी भीगने नहीं दिया पर्चा कि

सवालों के जरुरी सन्दर्भ

कहीं मिट न जाएँ

लेकिन आँखों से टपकती कुछ बूँदे 

लाख मना करने के बावजूद

ढूल गई कागज पर

और फिर पोंछने की हड़बड़ी में

धुँधले पड़ ही गए कुछ सन्दर्भ


अब बिना संदर्भो के

इन सवालों को

कितना भी गड़ा लूँ मैं 

तुम्हारी पीठ पर

तुम मुड़कर देख लोगे

यह भरोसा नहीं है


वैसे भी इन सवालों में शायद 

तुम्हारी कोई सहभागिता न हो

मेरे ही भ्रम हो पाले हुए 

ऊपर से

बिना सन्दर्भों के ये ऐसे सवाल

और भी बेजा हो सकते हैं

तुम्हारी दृष्टि में


और फिर जब

नए ढेर सारे सवाल

मुंह बाएं खड़े दिख रहे है मुझे यहाँ से

तब क्या जूझना न होगा उनसे ?

भले ही वे भी हो सकते हैं

अनुत्तरित होने के दर्प से भरे हुए 


फिर भी

फिर भी...?


2   

ये बातूनी स्त्रियाँ


कितना बतियाती रहती हैं स्त्रियाँ

जब आपस में मिलती हैं तब

हाथ में पकड़े थैले को

इधर-से-उधर करती हुई  

उकताई-सी खड़ी रहती हैं देर तक

खत्म ही नहीं होती है कभी

स्त्रियों की बातें


चौका-चूल्हा, घर-परिवार

घरवालों के उलाहने, बच्चों की चिंताएं,

शिकायतें, तीज-त्यौहार,

बढ़ती हुई महंगाई,

मायके की यादें

बातों का अथक प्रवाह

जैसे लबालब भरी बहती है नदियाँ


खाली-खाली-सी महसूस करती है

तब भान पर आती है अकस्मात

और मुड़ जाती है अपने-अपने घरों की तरफ

किसी अदृश्य समान धागे से बँधी

चुपचाप-सी 

बातूनी स्त्रियाँ


घर में कदम रखते ही

फिर से घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं

स्त्रियों के इर्दगिर्द

कई-कई सर्ग

एक-एक सर्ग से

काल की परिधि से परे

किसी इतिहास में दर्ज न होता

रचता जाता है एक अद्भुत महाकाव्य 

और 

सृजन के आनंद से वंचित 

केवल खाली होने के लिए 

बस बतियाती ही रहती है 

ये बातूनी स्त्रियाँ ! 



जैसे-तैसे उग आने के लिए 


मोह की फिसलन भरी राहों को

ठुकराया था निग्रह से भरकर

तब

निर्लिप्त भाव से सब कुछ देखने की

समझदारी थी वह या

एक जिद थी अटूट

कुछ भी न पनप पाए इसकी ?


नकारते हुए हर कदम पर

जीवन की हरियाली को

नहीं उग आएगी अब कोई

खरपतवार भी

मन की जमीन पर

इसे भी बड़ी आसानी से

भूला दिया गया था


तुम्हारी विरक्त आँखों की

भीगी आसक्ति

नहीं तोड़ पाई यह भ्रम कि

ऐसी एकाध झड़ी ही होती है

सराबोर कर देनेवाली

शेष तो सूख जाना

यही

यही होता है अंतिम...


अब जब कि

खुला कर दिया है मैंने

तुम्हारा मार्ग

तब

उस निमिष भर की

हरियाली को रौंदकर

धुँधले होते जाते

तुम्हारे पदचिन्हों तले

उग आये हैं

कई हारे हुए रिश्ते

घास-पात की तरह

जिन्होंने माँगा था कभी

मेरी बंजर जमीन का

छोटा-सा टुकड़ा

जैसे-तैसे

उग आने के लिए 

  

4

अंतर 


यथार्थ की अपरिहार्यता कहें या

उब-उचट

स्वीकारना होगा अब

हमारे बीच बढ़ते जाते अंतर को

सच कहो तो खादपानी डालकर

सहेजना होगा इस अंतर को

मनबहलाव समझकर 


पास आने के सभी रास्तें

एक-एक करते हुए मिट चले हो तब

किसलिए यह जद्दोजहद  

और जो हुआ हमारे बीच

वह इतना भी नहीं था कि

यूँही मसोसकर

नाराजगी से फिरा ले हम पीठ अपनी

या आंसुओं से भिगो दिया जाए

व्यर्थ ही सही चुपचाप गुजरते जाते

इन दिन-रात्रियों को


बहुत कुछ हुआ तो

एकाध कविता लिख लूंगी मैं

या दिन भर में

मेरी स्मृति का कोई टुकड़ा

चमक उठे तुम्हारे

विशाल आसमान में

बस इतना ही...


बहुत कुछ बिगड़ने से रहा

यह जानते हो तुम भी

हालाँकि तुम अच्छे से कर ही लोगे

तुम्हारी व्यस्तता से भरी दिनचर्या में

मेरी कमी का विचार करने का

क्षणिक अवकाश भी

नहीं फटकेगा तुम्हारे आसपास 


केवल इतना हो

तुम्हारे अडिग निग्रह का

कुछ अंश पहुँचे मेरे तक 

सारा बल संजोकर

तुम्हारी विरक्ति की छाँव का

एकाध टुकड़ा लपेटकर 

चल पडूँ मैं भी 

इस चिलचिलाती धूप में 


फिर भी डरती हूँ कि

मेरे कदम होगे तुम्हारे मार्ग पर

तब पीछे मुड़कर मत देखना तुम

हिकारत से 

या सचेत होकर

बदल मत देना अपना मार्ग

मैं धीमे-धीमे रखूंगी अपने कदम

तुम्हारे पदचिन्हों पर

तुम्हारे-मेरे बीच के अंतर को

पूरी तरह से सहेजकर... 


5

अपनी ही राह देखते हुए


अपनी ही राह देखते हुए

खूब लगाए गोते

खंगाला खुद को गहरे-गहरे

फिर भी नहीं हाथ लगा

लुप्त हो चुका अपना होना


मजबूत होती जाती दीवारों से

रिसने लगते हैं

दुखों के सोते

तब विस्मय-चकित होकर केवल 

देखना रह जाता है शेष


माथे पर व्याप्त अथाह आसमान का

अंदाजा लेते हुए

दहलीज पर ही ठिठकते हैं कदम

और अस्तित्व की परतों को

छिलने बैठो तो

समझ में ही नहीं आता है

किस सिरे से करे शुरुआत


असमंजस से भरकर

छटपटाते हुए

अगर करना चाहो

जड़ों पर प्रहार

तब किस तरह से बेईमान जड़ें

करने लगती हैं आपस में कानाफूसी

और खोपती हैं पीठ में छूरा


लहूलुहान होकर गिरने से पहले

अपनी चपेट में लेना चाहती है

ढीठ बेखौफ दीवारें

और

आवाज देकर पुकारता आसमान

होता जाता है

अपनी पहुँच से दूर-दूर

और भी

धुँधला-काला...


 परिचय

सुनीता डागा


कवयित्री और अनुवादक   

शिक्षा – एम.ए. ( हिंदी साहित्य )

प्रकाशित साहित्य : 

दाह – मराठी दलित आत्मचरित्र ‘होरपळ’ ( ल.सि.जाधव )का हिंदी अनुवाद : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद |

सुलझे सपनें राही के – मराठी उपन्यास ( भारत सासणे ) का हिंदी अनुवाद : साखी प्रकाशन, भोपाल | 

समकालीन मराठी स्त्री कविता (सदानीरा- ग्रीष्मकालीन अंक – २०१९ )

कई महत्वपूर्ण मराठी-हिंदी पत्रिकाओं के लिए निरंतर अनुवाद में संलग्न | 

मराठी तथा हिंदी कविताएँ प्रकाशित |

‘दाह’ के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित |

संपर्क-

मो.- ८७६६५८९४३५

समकाल : कविता का स्तीकाल 21

स्त्री कविता में इन दिनों अहिन्दी भाषी क्षेत्र से निरन्तर हिन्दी कविता की अनुगूंज सुनाई दे रही है,मराठी से सुनीता डागा,बांग्ला से मीता दास,ज्योत्सना बेनर्जी आडवाणी, ज्योति शोभा,केरल से अनामिका अनु,पूर्वोत्तर से जमुना बीनी आदि कवयित्रियों ने अपनी कविताओं से हिन्दी कविता को समृद्ध किया है।मेरी पहुँच की एक सीमा है और यह मेरे स्त्री कविता के अध्ययन का मात्र एक पड़ाव है जिसमें निरन्तर मेरी कोशिश है कि अधिक से अधिक दूरी तय कर सकूँ।
मूलतः राजस्थान की अनुपमा तिवाड़ी की कविताओं में समय,समाज और परिस्थितियों को महसूसने की पीड़ा साफ दिखाई देती है।वह अपनी कविताओं में स्त्री जीवन की विडम्बनाओं, समाज में व्याप्त असमानता तथा मानवीय करुणा का पक्ष बड़ी मार्मिकता से उकेरती हैं।


अनुपमा तिवाड़ी की कविताएँ

1
सुरक्षित – असुरक्षित

सुरक्षित - असुरक्षित शब्दों की सियासत के बीच

जब नन्हीं लड़कियों से ले कर बुढ़ियाओं तक नहीं पहुँच पाते उनके पैने नाखून और खूनी दांत

तो वे माँ - बहन की गालियों से चलाते हैं काम.

उनकी आँखें करती रहती हैं बलात्कार

और मौका पाते ही नोच डालती हैं

किसी फूल से खिली लड़की को.

हर दिन रंगे होते हैं खून से अखबार

और पहुंचा रहे होते हैं चैनल हम तक,

किसी मसली देह की चीत्कार को.

फिर भी देखो,  

सियासत में, बेशर्मी से ‘सुरक्षित’ शब्द अपनी जगह बनाने की जद्दोजहद कर रहा है

जबकि हकीकत में, ‘असुरक्षित’ शब्द अपनी जगह बना चुका है.


 2

सबके मौसम एक से नहीं होते

वो, बारिश में यज्ञ कर रहे थे

इन्द्रदेव को बुलाने का,

नाप रहे थे पानी मावठे का.

सूखा अच्छा नहीं लगता

सूखे में,

सूख जाते हैं, आँसू भी !

और वो इन्द्र की मेहरबानी पर सो नहीं पाए रात भर

घर की टीन के छेदों से टपकते पानी ने भर दिए थे

बोतल, डिब्बे, गिलास और परात.

ओ, मौसम तुम आना

झूम कर आना

पर, थोड़ा रहम के साथ आना.

सबके लिए सर्दी, गर्मी और बारिश अच्छी नहीं होती.


साल और साल

वर्ष के अंत में
मैं देखती हूँ पीछे मुड़कर
अपनी पीठ थोड़ी थपथपाती हूँ
थोड़े गँवाए समय पर भुनभुनाती हूँ.
बेहद डर जाती हूँ
जब मार्च तक नहीं लिख पाती
कोई कविता,
कोई कहानी,
कोई लेख,
नहीं कर पाती कोई साहित्यिक मंच साझा
नहीं कर पाती किसी ज़रुरतमंद की मदद
बीते महीनों को फूँक मारकर उड़ा देती हूँ
और फिर साल को मुट्ठी में कस कर कभी चलती हूँ बुदबुदाती
तो कभी दौड़ती हूँ महीनों को पकड़ती.
दौड़ते – दौड़ते फिसल ही जाता हैसाल मुट्ठी से.
फिर अगले साल के स्वागत में खड़ी हो जाती हूँ
कहते हुए कि
साल,
मुझे अपने साथ – साथ रखना
मेरे पास वक्त बहुत कम है.



दिसंबर में कोट

पिछले कुछ वर्षों से

दिसम्बर की खरीददारी की सूची में मेरा कोट भी होता है.

लेकिन सूची में कोट लिखे जाने से खरीदने तक की यात्रा में आते हैं,

अनगिनत पड़ाव.

और मैं याद करने लगती हूँ उन दृश्यों को जो इस यात्रा को और लम्बा बनाते हैं.

मैं कुछ स्कूलों में कड़कती ठण्ड में

बच्चों से पूछती हूँ गलत सवाल कि

“तुम्हें ठण्ड नहीं लग रही...” ?

मुझे अपने सवाल का उत्तर पहले से पता होता है कि

वे सिर झुकाकर उत्तर देंगेनहीं !

मैं उनके इस जवाब से डरती हूँ कि,

वे ये न कह दें कि उनके पास स्वेटर नहीं है !

इसलिए मैं उनसे गलत सवाल करती हूँ.

मैं गाँव में देखती हूँ कि जवानी में बुढ़ाते किसान,

एक चादर को बिछा भी लेते हैं और उसे ओढ़कर खेत में फसल से घुल भी रहे होते हैं.

वो देर रात तक सर्दी को अलाव से डराते रहते हैं.

परसर्दी कहाँ डरती है ?

मैं देखती हूँ

फुटपाथ पर

कि खिलौने बेचती औरत,

फटे पुराने एक कपड़े में बच्चे समेत खुद को लपेटे है.

तो मैं फिर गिनने लगती हूँ अपने स्वेटरशॉल.

अरे ! मेरे पास तो बहुत हैंऔर फिर सर्दी होती ही कितने दिन की है ?

मैं बुदबुदाने लगती हूँ अपने उस पैंतीस साल पुराने स्वेटर के गुण 

जिसकी एक बार सीवन उधड़ने पर मैंने मिलते – जुलते रंग की ऊन से उसमें खोपे भर लिए थे.

इतने पड़ाव और इतनी समझाइश के बाद

मैं डिपोजिट कर देती हूँ

अपने कोट खरीदने का विचार अगले दिसम्बर तक.


.

भूख 

बिना हथियार के भी

मर सकता है

गरीब और मजबूर आदमी.

उसका रोज़गार छीन लो,

धकिया दो उसे,

छोड़ दो सड़कों पर बेसहारा उसे,

आखिर,

कहाँ जाएगा ?

कैसे जीएगा ?

खुद ही आत्महत्या कर लेगा.

साफ़ – सुथरी तमाम तफ्तीशें और 

पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहेंगी

कुछ नहीं निकला.

चलो,

हम सब मुक्त हुए !

आखिर,

बहुत काम का भी क्या ?



                                                   अनुपमा तिवाड़ी

        परिचय                                     

जन्म :  30 जुलाई 1966, राजस्थान के दौसा जिले के बाँदीकुई कस्बे में.                               

आत्मजा : श्री विजय कुमार तिवाड़ी एवं श्रीमती मायारानी तिवाड़ी. 

शिक्षा : एम. ए ( हिंदी व समाजशास्त्र ) 

पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर.

राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की 75 से अधिक पत्र – पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ व लघुकथाएँ               प्रकाशित.

कविताओं का मराठी और नेपाली भाषाओँ में अनुवाद.

पहला कविता संग्रह ‘आईना भीगता है’ 2011 में बोधि प्रकाशन  जयपुर द्वारा प्रकाशित.

दूसरा कविता संग्रह ‘भरोसा अभी बचा है’ 2018 में ‘राजस्थान साहित्य अकादमी’ के सहयोग से बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित. 

पहला कहानी संग्रह ‘भूरी आँखें घुंघराले बाल’ 2020 शिवना प्रकाशन सीहोर, भोपाल से प्रकाशित.

साझा संग्रह ‘आधी आबादी की यात्रा’ में कविताएँ ( धाद प्रकाशन 2015 ).

साझा संग्रह ‘अँधेरे में उजास’ में कहानी ( वनिका प्रकाशन 2019 ).

शिक्षा, पर्यावरण व सामाजिक मुद्दों पर 60 से अधिक लेख प्रकाशित.

वर्षों से विभिन्न मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कविता, कहानी पठन, वार्ताओं में भागीदारी. 

विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षा के क्षेत्र में आयोजित सेमिनारों में शैक्षिक परिप्रेक्ष्य, विज्ञान, गणित और हिंदी विषय पर चार पेपर प्रस्तुत. 

वर्ष 2016 में ‘पर्यावरण पुरूस्कार’.

वर्ष 2017 में ‘बेटी सृष्टि रत्न एवार्ड’.. 

वर्ष 2018 में ‘वुमन ऑफ़ द फ्यूचर एवार्ड’.

वर्ष 2018 में ‘प्रतिलिपि कथा सम्मान’.

पिछले 32 वर्षों से शिक्षा और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं में सक्रिय. वर्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन जयपुर में बतौर सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में कार्यरत तथा राजस्थान में ट्री – वुमन नाम से विख्यात.

दो काव्य संग्रहों के बाद यह पहला कहानी संग्रह ‘भूरी आँखें, घुंघराले बाल’.

संपर्क : 

 ए - 108, रामनगरिया जे डी ए स्कीम, 

एस के आई टी कॉलेज के पास, जगतपुरा, जयपुर 302017

फोन : 7742191212, 9413337759 Mail – anupamatiwari91@gmail.com


नोट- पोस्ट में प्रयुक्त रेखाचित्र चित्रकार अनुप्रिया के हैं।