शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल- 25


रूपम मिश्र खांटी भारतीय स्त्री का अपनी कविताओं में प्रतिनिधित्व करती हैं,हाशिये की अन्तिम औरत जो अपनी समस्त प्रतिभा चूल्हे में झोंक पितासत्ता को पोषित कर रही थी ,रूपम उसी अन्दरखानों का मुखर विद्रोह हैं।रूपम कहती हैं-

मुझे गुस्सा आया उन कवियों पर
जिन्होंने नारी को नदी 
और पुरुष को सागर कहा

मैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयी
तुम वही सदियों के पुरूष थे
मैं वही सदियों की स्त्री 

मैं ,आज ठीक माँ ,चाची और भाभी के बगल में खड़ी थी
और जान गई थी कि
 क्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...

कवयित्री उन कवियों को भी कटघरे में खड़ा कर समझाती हैं कि औरत मात्र त्याग और भोग की वस्तु भर नहीं है,वह स्वतंत्र चेता स्त्री है जो तुम्हारी चालाकियों को भलीभांति समझती है और अब उनसे मुक्त हो अपना नया संसार अपने मानकों पर गढ़ना जानती है।


रूपम मिश्र की कविताएँ

(1)


मेरा जन्म वहाँ हुआ 
जहाँ पुरूष गुस्से में बोलते तो
स्त्रियाँ डर जाती 

मैंने माँ ,चाची और भाभी को
हँसकर पुरुषों से डरते देखा 

 वो  पहला पुरूष  , पिता को
किसी से भी तेज बोलते देख मैं डर जाती

वो दूसरा पुरूष  भाई 
जिसे मुझसे स्नेह तो बड़ा था
मेरी किताबी बातों को ध्यानस्थ सुनता
पर दुनियादारी में मुझे शून्य समझता

वो कहता दी ! यहाँ नहीं जाना है
मैं कहती अरे ! जरूरी है क्यों नहीं जाना !
तुम नहीं समझोगी!
उसके चेहरे पर थोड़ा सा गुस्सा आ जाता
मेरा मन  डर कर खुद को समझा देता था कि
बाहरी दुनिया तो उसी ने देखी है
मैंने घर और किताबों के सिवा क्या देखा है

फिर तुम....
जीवन में तुम आये तो मुझे लगा 
ये पुरूष मेरे जीवन के उन पुरुषों से अलग है
ये वो पुरूष थोड़ी न है 
ये तो बस प्रेमी है

मिथक था वो मेरा 
पुरूष बस प्रणय के क्षणों में प्रेमी होते हैं
स्थायी रूप से वो पुरूष ही होता है

क्यों कि जब तुम पहली बार गुस्से से बोले तो
वही डर झट से मेरे सीने में उतर आया
जो पिता और भाई के गुस्से से आता था

मैं ढूँढने लगी उस पुरूष को 
 जो झुक कर महावर भरे पैरों को चूम लेता था
कहाँ गया वो पुरुष जो कहता था कि
तुमसे कभी नाराज नहीं हो सकता

मुझे गुस्सा आया उन कवियों पर
जिन्होंने नारी को नदी 
और पुरुष को सागर कहा

मैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयी
तुम वही सदियों के पुरूष थे
मैं वही सदियों की स्त्री 

मैं ,आज ठीक माँ चाची और भाभी के बगल में खड़ी थी
और जान गई थी कि
 क्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...

                             चित्र- अनुप्रिया
(2)


सात रानियों वाले राजा की सबसे छोटी रानी मैं थी!

पुकार का वो घण्टा राजा ने मेरे ही महल में बंधवाया था!

पर पूर्व की कोई रानियाँ मुझसे जलती नहीं थीं
क्यों कि इस नई कहानी में बेचारी मैं नहीं  वो लोग थीं!
इस बार राजा ने मुझे चालाकी से अदृश्य कर दिया था !

हालांकि घंटा अबकी अनायास  मैंने खुद ही बजाया था
अंधेरे में तीर चलाना सीख रही थी
पर तीर आकर किस्से की तरह ही  ठीक मेरे  सीने पर लगा था!

राजा इस बार इतना क्रूर नहीं था कि देश निकाला दे देता!

उसने सिर मूंडवा कर मुँह पर कालिख़ भी नहीं पोती!

बस आत्मा के रेशे-रेशे को उघाड़ कर उसी पे खालिक पोत दी !
क्यों कि ये आधुनिक युग का सभ्य राजा था और इसकी सिर्फ़ सात रानियां नहीं थीं।

                            चित्र-अनुप्रिया
(3)

 हैरान और निहाल हूँ तुम्हें देखकर !
जीवन में मैंने तुमसे बड़ा अचरज नहीं देखा !

तुम नदी से बातें कर सकते हो
चिड़िया के साथ गा सकते हो 
तुम्हारा बस चले तो किसी स्त्री की प्रसव पीड़ा समझने के लिए गर्भ धारण कर सकते हो!

तुम किसी किन्नर की मौत पर  फूट- फूट कर रो सकते हो!
तुम किसी समलैंगिक की शादी में बधाई गा सकते हो!

तुम अपनी सारी डिग्रियां जला कर मेर साथ गाँव के  भगवती देवी विद्या मंदिर में पढ़ सकते हो !

तुम अपनी उदास छोटी बहन की गुड़िया की साड़ी भाभी की ब्रांडेड लिपिस्टिक चुराकर रंग सकते हो!

तुम अपनी प्रेमिका के नये प्रेम के किस्से हँसकर सुन सकते हो !

दरवेश ! तहज़ीबें चकित तुम्हें  देखकर !
तुमने सारे मठों और मान्यताओं को तोड़कर
 अनलहक को आत्मा का दस्तार बनाया!

तुम संसार के सारे युद्धस्तम्भों पर इश्क़ की इबारत लिख सकते हो!
और युद्धरत सारे हाथों में उनकी प्रेमिकाओं के पत्र थमा सकते हो!

रंगीले फ़कीर !  अभिजात विद्रूपता को मुँह चिढ़ाकर
तुम मेरे डिहवा पर के  मुसहर टोली में बैठकर महुआ की शराब पीकर रात भर नाच सकते हो!

मैं तुम्हारे मांथे पर चुम्बन का नजर टीका लगाती हूँ मेरे अजब प्रेमी !
मेरे  साथ मेरी चिर लजाधुर संस्कृति भी अवाक है तुम्हें देखकर कि
तुम अपनी माँ को नवीन प्रेम में देख सकते हो।

                               चित्र-अनुप्रिया
(4)

 मैं यहाँ भी नहीं ठहरूँगी!

मैंने जन्म से देह की घृणा पी थी
सबसे आदिम सम्बन्ध बहुत घिनौना है ये मिथ मुझे माँ के दूध में पिलाया गया है 
व्यर्थ श्रेष्ठता बोध मैं सिर पर लाद कर चल रही थी 

पर मैं वहाँ भी नहीं ठहरी ,कई रोते  चेहरे मुझे पुकारने लगे थे
मैं उठकर वहाँ पहुँची थी
बहुत दिन तक वहीं रही 

मैं सबसे अंत में तुमसे मिली
फिर खो गयी तुममें
पर मुझे आशंका है घृणा फिर से जन्म ले सकती है

मैने ढेरों हाथ हटाकर तुम्हरा हाथ पकड़ा था
पर मुझे डर है तुम जब कभी प्रगाढ़ आलिंगन के लिए अपने हाथ बढ़ाओगे तो हो सकता है मुझमें रोपी गयी वो देह घृणा फिर  जाग जाये

और मैं झटक दूँ तुम्हारा हाथ ! 
 तब तुम कहाँ जाओगे! 

मुझे निसत्व लगेगीं तुम्हारी बेहद खूबसूरत आँखें
भ्रम लगेगें तुम्हारे तुम्हारे वो होंठ जिसपर एक चिर प्रणय निवेदन रखा है
जिन्हें जी भर देखने की मुझमें कभी क़ूवत न हो पायी
मुझे गलीज़ लगेगी वो पवित्र रातें जब दो जोड़ी जागती आँखें बार- बार छलक पड़ती थी 

पर धीरज रखना मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी
तुमसे छूटकर मैं प्रायश्चित के लिए किसी मंदिर के द्वार पर खड़ी हो जाऊँगी !

तुम आर्त होकर मुझे पुकारोगे
मंदिर के घंटे- घड़ियाल में तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनुगी
मैं संसार की सारी पवित्रता को देह में स्थापित कर दूँगी

इसतरह मैं एक प्राकृतिक प्रेम की शीत हत्या कर दूँगी
मैं किसी रोती हुई सीता या अग्नि कुंड में जली सती से सतीत्व की भीख माँगूंगी 
या किसी सूर्य या इंद्र के पैर पकड़ूँगी मुझे याद नहीं रहेगा कुन्ती व अहल्या का दुःख

मैं वहाँ भी बहुत दिन नहीं ठहरूँगी फिर किसी  गर्भ गृह में  कोई बच्ची चीखेगी,
प्रसाद और सिक्के उठाने के जुर्म में  पुजारी किसी बच्चे को पीट देगा

तब मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी!
खूब भटकूगीं ,ठोकर भी लगेगी 
अंधेरे से रास्ता दिखायी नहीं देगा ,
तुम भी नहीं लौटोगे!
मैं कटी पतंग की तरह घूमूंगी!

तभी कही दूर कोई भूखा बच्चा रोयेगा , वो मुझे पुकार  सकता है अगर न भी पुकारे तो भी मैं वही जाकर ठहरूँगी!

मैं आसपास बिखरी सारी किताबों को पढ़ डालूँगी
फिर उसी रास्ते से मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगी

मैं तुम्हारे आँसुओं से तुम्हारा पता ढूढ लूँगी
क्योंकि तुम जब - जब रोये हो 
मुझे लगा कि कहीं औचक कोई दुलरुवा बच्चा घृणा की कड़ी निगाह से सहम कर रोया है

तुम्हारी बहुत याद आने पर मैं उस बच्ची को जाकर गले लगा लेती हूँ जो एकदिन शहतूत के पेड़ को तेल ,काजर लगाने की जिद कर रही थी !

किसी अभिमंत्रित यंत्र की तरह मुझे तुम्हारा नाम रटने की लत लग गयी है
मैं तुम्हारे नाम के रंग से अपने कमरे की दीवारें रंगवा दूँगी
चादरें और पर्दे भी उसी रंग के होंगे
और इस तरह तुम्हारे नाम के आग़ोश में रहूँगी!

तुम निश्चित मेरे प्रेमी हो ! तुम्हारे अंकपाश में पहरों बेसुध रही हूँ!
पर जो डर की यातना तुम्हें रात को सोने नहीं देती
उससे  द्रवित होकर मेरे सीने में दूध सा उतर आया था!

मुझे अफ़सोस  है मेरी जान ! मैं इस मनुष्यहन्ता युग की आँखों में झांककर करुणा न भर सकी!

                          चित्र-अनुप्रिया

(5)

 मुझे नहीं बनना था मुझे कभी भी 
तुम्हारी पहली और आखिरी प्रेमिका!

मैंने तुमसे प्रेम करते हुए
तुम्हारी सारी पूर्व प्रेमिकाओं से भी प्रेम किया !

जिसने भी तुम्हें प्यार से देखा
 मैंने उससे भी प्रेम किया !

प्रतिदान की कभी मुझमें चाह ही नहीं हुई
बस एक साध रही कि
एक बार ! तुम एक बार कहते कि
हाँ सच है !उसपल मैं तुम्हारे प्रेम में था !

और वही पल मेरे लिए निर्वाण का पल होता !

क्यों कि मैंने तुम्हें खालिश प्रेम किया!
सारे मिलावटी भावों से बचा कर उसे विशुद्ध रखा 

इसलिए तुमसे प्रेम करती सारी स्त्रियाँ मुझे प्रिय रहीं

संसार में वो सारे लोग जो तुम्हें प्यार करते हैं
उनके लिए मैं मन से आभारी हो जाती हूँ!

मैं तुम्हारी पहली दूसरी ,चौथी 
सारी प्रेमिकाओं के 
को छूकर देखना चाहती हूँ
जिनके हाथों को तुमने कभी छुआ होगा!

जाने क्यों तुमसे जुड़ा जो भी मुझे मिला 
वो तुम्हारी तरह ही ज़हीन मिला

मैं कुछ देर के लिए वहीं रुक जाती हूँ
जहाँ तुम्हारा कोई नाम ले लेता है !

सोचती हूँ कोई ऐसा मिलता !
जो बस तुम्हारी ही बात करता!
और मैं आँखें बंद करके उम्र भर सुनती!
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                               रूपम मिश्र



कवयित्री रूपम मिश्र, पूर्वांचल विश्वविद्यालय से परस्नातक हैं  और प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गाँव की रहने वाली हैं. कुछ  पत्र पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ  प्रकाशित  हैं। 


1 टिप्पणी:

  1. अच्छी कविताएॅ, जो एक नई स्त्री गढने का प्रयास करती हुई,रूपम को बधाई

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