रूपम मिश्र खांटी भारतीय स्त्री का अपनी कविताओं में प्रतिनिधित्व करती हैं,हाशिये की अन्तिम औरत जो अपनी समस्त प्रतिभा चूल्हे में झोंक पितासत्ता को पोषित कर रही थी ,रूपम उसी अन्दरखानों का मुखर विद्रोह हैं।रूपम कहती हैं-मुझे गुस्सा आया उन कवियों परजिन्होंने नारी को नदीऔर पुरुष को सागर कहामैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयीतुम वही सदियों के पुरूष थेमैं वही सदियों की स्त्रीमैं ,आज ठीक माँ ,चाची और भाभी के बगल में खड़ी थीऔर जान गई थी किक्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...कवयित्री उन कवियों को भी कटघरे में खड़ा कर समझाती हैं कि औरत मात्र त्याग और भोग की वस्तु भर नहीं है,वह स्वतंत्र चेता स्त्री है जो तुम्हारी चालाकियों को भलीभांति समझती है और अब उनसे मुक्त हो अपना नया संसार अपने मानकों पर गढ़ना जानती है।रूपम मिश्र की कविताएँ(1)मेरा जन्म वहाँ हुआजहाँ पुरूष गुस्से में बोलते तोस्त्रियाँ डर जातीमैंने माँ ,चाची और भाभी कोहँसकर पुरुषों से डरते देखावो पहला पुरूष , पिता कोकिसी से भी तेज बोलते देख मैं डर जातीवो दूसरा पुरूष भाईजिसे मुझसे स्नेह तो बड़ा थामेरी किताबी बातों को ध्यानस्थ सुनतापर दुनियादारी में मुझे शून्य समझतावो कहता दी ! यहाँ नहीं जाना हैमैं कहती अरे ! जरूरी है क्यों नहीं जाना !तुम नहीं समझोगी!उसके चेहरे पर थोड़ा सा गुस्सा आ जातामेरा मन डर कर खुद को समझा देता था किबाहरी दुनिया तो उसी ने देखी हैमैंने घर और किताबों के सिवा क्या देखा हैफिर तुम....जीवन में तुम आये तो मुझे लगाये पुरूष मेरे जीवन के उन पुरुषों से अलग हैये वो पुरूष थोड़ी न हैये तो बस प्रेमी हैमिथक था वो मेरापुरूष बस प्रणय के क्षणों में प्रेमी होते हैंस्थायी रूप से वो पुरूष ही होता हैक्यों कि जब तुम पहली बार गुस्से से बोले तोवही डर झट से मेरे सीने में उतर आयाजो पिता और भाई के गुस्से से आता थामैं ढूँढने लगी उस पुरूष कोजो झुक कर महावर भरे पैरों को चूम लेता थाकहाँ गया वो पुरुष जो कहता था कितुमसे कभी नाराज नहीं हो सकतामुझे गुस्सा आया उन कवियों परजिन्होंने नारी को नदीऔर पुरुष को सागर कहामैं अचरज से तुम्हें देखती रह गयीतुम वही सदियों के पुरूष थेमैं वही सदियों की स्त्रीमैं ,आज ठीक माँ चाची और भाभी के बगल में खड़ी थीऔर जान गई थी किक्षणिक प्रणय आवेग जीवन नहीं है...चित्र- अनुप्रिया(2)सात रानियों वाले राजा की सबसे छोटी रानी मैं थी!पुकार का वो घण्टा राजा ने मेरे ही महल में बंधवाया था!पर पूर्व की कोई रानियाँ मुझसे जलती नहीं थींक्यों कि इस नई कहानी में बेचारी मैं नहीं वो लोग थीं!इस बार राजा ने मुझे चालाकी से अदृश्य कर दिया था !हालांकि घंटा अबकी अनायास मैंने खुद ही बजाया थाअंधेरे में तीर चलाना सीख रही थीपर तीर आकर किस्से की तरह ही ठीक मेरे सीने पर लगा था!राजा इस बार इतना क्रूर नहीं था कि देश निकाला दे देता!उसने सिर मूंडवा कर मुँह पर कालिख़ भी नहीं पोती!बस आत्मा के रेशे-रेशे को उघाड़ कर उसी पे खालिक पोत दी !क्यों कि ये आधुनिक युग का सभ्य राजा था और इसकी सिर्फ़ सात रानियां नहीं थीं।चित्र-अनुप्रिया(3)हैरान और निहाल हूँ तुम्हें देखकर !जीवन में मैंने तुमसे बड़ा अचरज नहीं देखा !तुम नदी से बातें कर सकते होचिड़िया के साथ गा सकते होतुम्हारा बस चले तो किसी स्त्री की प्रसव पीड़ा समझने के लिए गर्भ धारण कर सकते हो!तुम किसी किन्नर की मौत पर फूट- फूट कर रो सकते हो!तुम किसी समलैंगिक की शादी में बधाई गा सकते हो!तुम अपनी सारी डिग्रियां जला कर मेर साथ गाँव के भगवती देवी विद्या मंदिर में पढ़ सकते हो !तुम अपनी उदास छोटी बहन की गुड़िया की साड़ी भाभी की ब्रांडेड लिपिस्टिक चुराकर रंग सकते हो!तुम अपनी प्रेमिका के नये प्रेम के किस्से हँसकर सुन सकते हो !दरवेश ! तहज़ीबें चकित तुम्हें देखकर !तुमने सारे मठों और मान्यताओं को तोड़करअनलहक को आत्मा का दस्तार बनाया!तुम संसार के सारे युद्धस्तम्भों पर इश्क़ की इबारत लिख सकते हो!और युद्धरत सारे हाथों में उनकी प्रेमिकाओं के पत्र थमा सकते हो!रंगीले फ़कीर ! अभिजात विद्रूपता को मुँह चिढ़ाकरतुम मेरे डिहवा पर के मुसहर टोली में बैठकर महुआ की शराब पीकर रात भर नाच सकते हो!मैं तुम्हारे मांथे पर चुम्बन का नजर टीका लगाती हूँ मेरे अजब प्रेमी !मेरे साथ मेरी चिर लजाधुर संस्कृति भी अवाक है तुम्हें देखकर कितुम अपनी माँ को नवीन प्रेम में देख सकते हो।चित्र-अनुप्रिया(4)मैं यहाँ भी नहीं ठहरूँगी!मैंने जन्म से देह की घृणा पी थीसबसे आदिम सम्बन्ध बहुत घिनौना है ये मिथ मुझे माँ के दूध में पिलाया गया हैव्यर्थ श्रेष्ठता बोध मैं सिर पर लाद कर चल रही थीपर मैं वहाँ भी नहीं ठहरी ,कई रोते चेहरे मुझे पुकारने लगे थेमैं उठकर वहाँ पहुँची थीबहुत दिन तक वहीं रहीमैं सबसे अंत में तुमसे मिलीफिर खो गयी तुममेंपर मुझे आशंका है घृणा फिर से जन्म ले सकती हैमैने ढेरों हाथ हटाकर तुम्हरा हाथ पकड़ा थापर मुझे डर है तुम जब कभी प्रगाढ़ आलिंगन के लिए अपने हाथ बढ़ाओगे तो हो सकता है मुझमें रोपी गयी वो देह घृणा फिर जाग जायेऔर मैं झटक दूँ तुम्हारा हाथ !तब तुम कहाँ जाओगे!मुझे निसत्व लगेगीं तुम्हारी बेहद खूबसूरत आँखेंभ्रम लगेगें तुम्हारे तुम्हारे वो होंठ जिसपर एक चिर प्रणय निवेदन रखा हैजिन्हें जी भर देखने की मुझमें कभी क़ूवत न हो पायीमुझे गलीज़ लगेगी वो पवित्र रातें जब दो जोड़ी जागती आँखें बार- बार छलक पड़ती थीपर धीरज रखना मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगीतुमसे छूटकर मैं प्रायश्चित के लिए किसी मंदिर के द्वार पर खड़ी हो जाऊँगी !तुम आर्त होकर मुझे पुकारोगेमंदिर के घंटे- घड़ियाल में तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनुगीमैं संसार की सारी पवित्रता को देह में स्थापित कर दूँगीइसतरह मैं एक प्राकृतिक प्रेम की शीत हत्या कर दूँगीमैं किसी रोती हुई सीता या अग्नि कुंड में जली सती से सतीत्व की भीख माँगूंगीया किसी सूर्य या इंद्र के पैर पकड़ूँगी मुझे याद नहीं रहेगा कुन्ती व अहल्या का दुःखमैं वहाँ भी बहुत दिन नहीं ठहरूँगी फिर किसी गर्भ गृह में कोई बच्ची चीखेगी,प्रसाद और सिक्के उठाने के जुर्म में पुजारी किसी बच्चे को पीट देगातब मैं वहाँ भी नहीं ठहरूँगी!खूब भटकूगीं ,ठोकर भी लगेगीअंधेरे से रास्ता दिखायी नहीं देगा ,तुम भी नहीं लौटोगे!मैं कटी पतंग की तरह घूमूंगी!तभी कही दूर कोई भूखा बच्चा रोयेगा , वो मुझे पुकार सकता है अगर न भी पुकारे तो भी मैं वही जाकर ठहरूँगी!मैं आसपास बिखरी सारी किताबों को पढ़ डालूँगीफिर उसी रास्ते से मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगीमैं तुम्हारे आँसुओं से तुम्हारा पता ढूढ लूँगीक्योंकि तुम जब - जब रोये होमुझे लगा कि कहीं औचक कोई दुलरुवा बच्चा घृणा की कड़ी निगाह से सहम कर रोया हैतुम्हारी बहुत याद आने पर मैं उस बच्ची को जाकर गले लगा लेती हूँ जो एकदिन शहतूत के पेड़ को तेल ,काजर लगाने की जिद कर रही थी !किसी अभिमंत्रित यंत्र की तरह मुझे तुम्हारा नाम रटने की लत लग गयी हैमैं तुम्हारे नाम के रंग से अपने कमरे की दीवारें रंगवा दूँगीचादरें और पर्दे भी उसी रंग के होंगेऔर इस तरह तुम्हारे नाम के आग़ोश में रहूँगी!तुम निश्चित मेरे प्रेमी हो ! तुम्हारे अंकपाश में पहरों बेसुध रही हूँ!पर जो डर की यातना तुम्हें रात को सोने नहीं देतीउससे द्रवित होकर मेरे सीने में दूध सा उतर आया था!मुझे अफ़सोस है मेरी जान ! मैं इस मनुष्यहन्ता युग की आँखों में झांककर करुणा न भर सकी!(5)मुझे नहीं बनना था मुझे कभी भीतुम्हारी पहली और आखिरी प्रेमिका!मैंने तुमसे प्रेम करते हुएतुम्हारी सारी पूर्व प्रेमिकाओं से भी प्रेम किया !जिसने भी तुम्हें प्यार से देखामैंने उससे भी प्रेम किया !प्रतिदान की कभी मुझमें चाह ही नहीं हुईबस एक साध रही किएक बार ! तुम एक बार कहते किहाँ सच है !उसपल मैं तुम्हारे प्रेम में था !और वही पल मेरे लिए निर्वाण का पल होता !क्यों कि मैंने तुम्हें खालिश प्रेम किया!सारे मिलावटी भावों से बचा कर उसे विशुद्ध रखाइसलिए तुमसे प्रेम करती सारी स्त्रियाँ मुझे प्रिय रहींसंसार में वो सारे लोग जो तुम्हें प्यार करते हैंउनके लिए मैं मन से आभारी हो जाती हूँ!मैं तुम्हारी पहली दूसरी ,चौथीसारी प्रेमिकाओं केको छूकर देखना चाहती हूँजिनके हाथों को तुमने कभी छुआ होगा!जाने क्यों तुमसे जुड़ा जो भी मुझे मिलावो तुम्हारी तरह ही ज़हीन मिलामैं कुछ देर के लिए वहीं रुक जाती हूँजहाँ तुम्हारा कोई नाम ले लेता है !सोचती हूँ कोई ऐसा मिलता !जो बस तुम्हारी ही बात करता!और मैं आँखें बंद करके उम्र भर सुनती!_______________________कवयित्री रूपम मिश्र, पूर्वांचल विश्वविद्यालय से परस्नातक हैं और प्रतापगढ़ जिले के बिनैका गाँव की रहने वाली हैं. कुछ पत्र पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं।
शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022
समकाल : कविता का स्त्रीकाल- 25
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अच्छी कविताएॅ, जो एक नई स्त्री गढने का प्रयास करती हुई,रूपम को बधाई
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