शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल -24

जोशना बैनर्जी आडवानी ने इधर तेजी से अपनी कविताओं के माध्यम से ध्यान खींचा है।कथक नृत्यांगना जोशना थिएटर और शिक्षण कार्य से जुडी होने के नाते अनुभव के व्यापक फलक पर कविता के शब्द चित्र खींचती अपने काव्य भाषा के सम्मोहन से हमें बाँध लेती हैं।उनकी कविताओं का बिंब विधान अनूठा है,एक कविता में वह लिखती हैं-

"
तुम खून सुखाते पाप के लिए ईश्वर
द्वारा रचा गया वरदान हो
मैं पकड़ी गई मछली की जाती
हुई सांस हूँ

तुम ठप्प पड़े कारोबार की आखिरी
आस भरी उम्मीद हो
मैं गलतफहमी मे जीने वाली
असलियत का कलंक हूँ

तुम पहली मिलन की रात का
घबराया हुआ लम्हा हो
मैं उसी रात का मुरझाया हुआ
सुबह का फ़ूल हूँ

तुम इतना जो बंद बंद रहते हो मुझसे
निश्चित ही मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी"

उपरोक्त कविता में मूलतः स्त्री -पुरुष असामानता की बात ही व्यक्त है पर कहन की शैली बिल्कुल टटका बिम्बों पर केन्द्रित कविता को सहज प्रवाह में बाँधती हमें सार तत्व तक ले जाती हैं।इस तरह के प्रयोग और बांग्ला भाषा और संस्कृति के गन्ध से भरी जोशना स्त्री कविता की उस पीढी का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समय और समाज के हर मोर्चे पर अपनी कविता से सवाल-जवाब को तत्पर है।



1

मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी ....

तुम पुराने दिनो के गज़ल से निकला
चुभने वाला दर्द हो
मैं हूँ रियाज़ से पहले की गई
उस्ताद की गरारी

तुम हो उस पवित्र ढाई अक्षर का
सबसे ऊँचा वाला कुलाँच
मैं हूँ सफेद चाँद का सबसे बदसूरत
काला गहरा गड्ढा

तुम कई त्वचाओं के पीछे छिपा
नवसंचार हो
मैं चिथड़े से बनाया गया खुरदरा
बिस्तर हूँ

तुम खून सुखाते पाप के लिए ईश्वर
द्वारा रचा गया वरदान हो
मैं पकड़ी गई मछली की जाती
हुई सांस हूँ

तुम ठप्प पड़े कारोबार की आखिरी
आस भरी उम्मीद हो
मैं गलतफहमी मे जीने वाली
असलियत का कलंक हूँ

तुम पहली मिलन की रात का
घबराया हुआ लम्हा हो
मैं उसी रात का मुरझाया हुआ
सुबह का फ़ूल हूँ

तुम इतना जो बंद बंद रहते हो मुझसे
निश्चित ही मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुली रह जायेंगी


                                           चित्र-अनुप्रिया

2

कविता हलक से ठाँय करती हुई उड़ जायेगी एक दिन ....

उसने अँधेरे से घुप्प लिया
सड़कों से सीख ली भिड़ंत की हड़बड़ी
पानी से ले लिया भाप
बुतों से छीना वधस्थानो़ का इतिहास
गुम्बदों से जाना चिड़ियों का विवेक
बिगुल से सीखती रही अभिनय के नुस्खें
कर्फ्यू से ले ली मूर्खों की उक्तियाँ

इतना कुछ पाने के बावजूद भी
देश जब थर्रा रहा था
उसे अभिनय की सूझी
पिछले दिनों रंगमंच में एक चालाक
लड़की का किरदार करते हुए
वह गच्चा खा गई
न्यायार्थ ही दर्शकों को अपने अभिनय
से दण्डित किया

एकांत में कविता लिखी
वह बंदूक से नहीं मरेगी
कविता हलक से ठाँय करती हुई
एक दिन उड़ जाने का अभिनय करेगी

                                         चित्र-अनुप्रिया


3

मेरे जीवन के रंगमंच के
तुतलाते हुये अभिनेता ....

दर्शक तर्रार हैं, 
बड़े बड़े बल्ब नाटकीय
और रंगमंच की ज़मीन
मेरी आत्मा है
तुम अपने पाँव अच्छे से जमा लेना 
कभी अटको तो 
अपने दायीं तरफ के परदे की 
तरफ देखना
मैने अपने प्रेम की कुछ चित्रलिपियाँ 
चिपकाई है वहाँ

अपने कंठ मे भर लेना अभिनय
तालियों की गड़गड़ाहट रख लेना तुम
और मुझे दे देना उनकी गूँज
ये मेरे कानो को लम्बा जीवन देंगे

स्मरण रहे
रंगमंच पर अभिनय की भूमिका ने लोगों को अमर किया है
रंगमंच के बाहर अभिनय की भूमिका ने सैकड़ो शिशुओं को
झूठ और फूहड़ता नामक दो पिताओं से जना है

हम कभी कोई शिशु संभाल पाये
इतने बड़े कभी हम बन नही पायेंगे

                                         चित्र-अनुप्रिया

4
तुम्हारी कविताएँ अगर कोई 
देश होती तो ....

तुम्हारी कविताएँ अगर कोई देश
होती तो वहाँ यात्रा करते वक्त 
देखी जा सकेगी
बाघो और बकरियों मे सुलह
बाज़ारों मे बिकते शीरमाल
को देख झाड़ देंगे
लोग अपनी थकान
बच्चो की हँसी तय करेगी
नक्षत्रों की गति
फूलों की घाटियाँ अपनी आयु
देंगी  प्रेमियों को

तुम्हारी कविताऐं
अगर कोई देश होती तो
मैं होती वहाँ की पहली नागरिक
परंतु 
कोई आश्चर्य नहींं जो मेरी उचटी 
हुई नींद से छिटक कर दूर जा 
गिरो तुम और रात माँगे मुझसे
मेरे होने का हिसाब
कोई आश्चर्य नहींं जो किसी दिन
मैं सिकुड़कर बन जाऊँ एक
ईल मछली और दुःखो के एवज़ मेंं
झटकोंं का करूँँ इस्तेमाल
कोई आश्चर्य नहींं जो
शास्त्रार्थ की ज्ञाता विद्योतमा को
करना पड़ा था अनपढ़ कालिदास से विवाह
विचेष्ट मन की विचेष्ट स्वप्नों से छिटककर ही मैंने
पाया है जीवन
तुम्हारी कवितिओं की माधवीलता पकड़कर
उठ रही हूँ ऊपर की ओर
तुम्हारी कविताओं ने मुझे विधात्री बनाया

                                     चित्र- अनुप्रिया
5

पच्चीसवें घंटे का टोटका ....

क्या सीखा तुमने
एक लौटे हुये पतझड़ से
एक इंतज़ार मे बैठी लड़की से
इकट्ठी रखी शिकायतों से
ऊँघती हुई सरहदी मिट्टी से

क्या सीख पाओगे तुम
बूढ़े नाविकों से समुद्र के साम्राज्य की बारिकियाँ
उस कविता से जिसे एक असफल प्रेमकथा ने जना
गिरे हुये फ़ूलो से डालियों के पकड़ की प्रक्रिया
उस ऋण से जो अनुत्तरित प्रश्नो से दुगना हो रहा है

क्या सबकुछ सीख कर भी सिखा पाओगे
चिड़ियों को चिड़ीमारो का रहस्यमयी मनोविज्ञान
प्रेमियों को प्रेमगीत लिखवाकर ग्रैमी जीतने का नुस्ख़ा
ईश्वर के प्रैस्क्रिप्शन पर कैसे लिखी जाती है चन्द सांसे
एक बेहद सरफिरी लड़की को पच्चीसवें घंटे का टोटका


             जोशना बैनर्जी आडवानी


परिचय

जोशना बैनर्जी आडवानी
स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत

जन्म- आगरा, उत्तर प्रदेश
जन्म तिथि- 31 दिसम्बर, 1983

शिक्षा- सेंट कॉनरेड्स इंटर कॉलेज से स्कूलिंग की,आगरा कॉलेज से ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन करने के बाद सेंट जॉन्स डिग्री कॉलेज से बी.एड और एम.एड किया,आगरा विश्वविद्यालय से पी.एचडी की तथा पंद्रह साल पी.जी.टी. लेवल पर अंग्रेज़ी पढ़ाने के बाद प्रधानाचार्या का पद संभाला ।
सीबीएसई की किताबों के लिए संपादन कार्य 
सीबीएसई के वर्कशॉप्स और सेमिनार्स संचालित करवाने का कार्य पिछले दस सालों से 
कत्थक में प्रभाकर
लिखने में रूचि बचपन से ही थी
अंग्रेज़ी और हिंदी में कई कविताएँ लिखी
पर पहचान मिली पहली पुस्तक "सुधानपूर्णा" से जो दीपक अरोड़ा स्मृति सम्मान के तहत बोधि प्रकाशन से आई थी
सुधानपूर्णा का अर्थ किसी शब्दकोश में नहीं
पिता का नाम - स्वर्गीय सुधानबाबू बैनर्जी
माँ का नाम- स्वर्गीय अन्नपूर्णा बैनर्जी
पिता के नाम से सुधान और माँ के नाम से पूर्णा लेकर
सुधानपूर्णा नाम रखा किताब का
पूर्व में थियेटर किया कई सालों तक।

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