शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल 23

भारत भूषण युवा कविता पुरस्कार से पुरस्कृत अनामिका अनु समकालीन युवा स्त्री कविता में मजबूत दखल रखती हैं।स्त्री सार्वाधिक रुप से प्रेम में छली गयी। भारतीय स्त्री की ममतामयी त्याग की मूर्ति छवि को हमारी इन कवयित्रियों ने न केवल पहचाना बलकि उन बारीक तन्तुओं के रेशे खोले और उधेड़े जिसके ताने-बाने पर पितासत्ता स्त्री को स्थापित कर महिमामंडित करती रही है। अनामिका अनु केरल में रहते हुए स्त्री जीवन के विविध रंगों को क्षेत्रीय फलक पर देखती हैं और अपनी कविताओं में उन बिम्बों को समाहित करती हैं जिनसे गुजरते एक टीस मन को बेचैन कर जाती है।


अनामिका अनु की कविताएँ

1.

नौ नवम्बर


प्रेम की स्मृतियाँ 

कहानी होती हैं ,

पर जब वे आँखों से टपकती हैं 

तो छंद हो जाती हैं। 


कल जब पालयम जंक्शन

पर रुकी थी मेरी कार

तो कहानियों  से भरी एक बस रुकी थी

उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं


उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी

वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता

जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थीं

पूरा तन प्रशांत था। 

उसके जूड़े में  कई छंद थें

जो उसके मुड़ने भर से

झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थें

मानो हरश्रृंगार गिर रहे हों ब्रह्ममुहुर्त में। 


ठीक उसी वक्त 

बस स्टैंड के पीले छप्पर

को नज़र ने चखा भर था

तुम याद आ गये


"क्यों? 

मैं पीला कहाँ पहनता हूँ? "


बस इसलिए ही तो याद आ गये!


उस रंगीन चेक वाली सर्ट पहनी

लड़की को देखते ही तुम मन में 

शहद सा घूलने लगे थे


"वह क्यों?

तुम तो कभी नहीं पहनती सात रंग?"


तुम पहनते हो न इंद्रधनुषी मुस्कान

जिसमें सात मंजिली खुशियों के असंख्य

वर्गाकार द्वार खुले होते हैं

बिल्कुल चेक की तरह

और मेरी आँखें हर द्वार से भीतर झाँक कर

मंत्रमुग्ध हुआ करती हैं। 


आज सुग्गे खेल रहे थें

लटकी बेलों की सूखी रस्सी पर

स्मृतियों की सूखी लता पर तुम्हारी यादें के हरे सुग्गे

मैंने रिक्त आंगन में खड़े होकर भरी आँखों से देखा था

वह दृश्य


तुम्हारी मुस्कान की नाव पर जो किस्से थें

मैं  उन्हें सुनना चाहती हूँ 

ढाई आखर की छत पर दिन की लम्बी चादर को

बिछा कर

आओगे न? 


तुम मेरे लिए  पासवर्ड थे

आजकल न ईमेल खोल पाती हूँ

न फेसबुक

न बैंक अकाउंट

बस बंद आँखों से

पासवर्ड को याद करती हूँ

क्या वह महीना था?

 नाम?

या फिर तारीख



2.मैं ज्यां पाॅल सार्त्र


मैं ज्यां पॉल सा‌र्त्र

एक अस्तित्ववादी 

फर्डीनेण्ड के  साथ

आँखों से पी रहा हूँ स्वेज़ नहर को

मेरे लिखे स्वतंत्रता पत्र 

नहर पर तैर रहे हैं हंस बनकर


 पोत बन गया हैं  इंक़लाबी चौक

जहाँ खड़े होकर मैं दे रहा हूँ भाषण

और बता रहा हूँ 

यूरोप का लोकतंत्र विश्व को बाँट रहा है ग़ुलामी

मेरा वतन नहीं हड़प सकता

अल्जीरिया की आज़ादी

मैं  चीख रहा हूँ 

और भीड़ मेरी चीख को बता रही है

एक अनीश्वरवादी की दहाड़


लोग कहते हैं 

मैं  स्वनियन्ता नहीं भाग्यनियन्ता शिशु था

अट्ठारह महीने में पिता

और बारह वर्ष में  माँ ने ले ली विदाई

दो विश्वयुद्ध एक आँख से देख चुका आदमी

 एक दिन दार्शनिक हो गया

मैं डंके की चोट पर नकार रहा हूँ उसी भाग्य को


सोरेन कीर्केगार्ड कहते रहे

मनुष्य से दूर ईश्वर को गहन विश्वास से  

किया जा सकता है महसूस

मैं  सार्त्र ईश्वर की उस सत्ता से भी

करता हूँ इंकार


कई काँच की गिलासों में पीकर जाम

मैं  सो जाता हूँ 

स्वप्न में बजाता हूँ वायलिन

ताकि माँ के गीत से कर सकूँ संगत

नौ महीने गर्भ में, बारह वर्ष गोद में 

बिठाकर 

माँ ने क़ब्र में समेट लिया है मेरा बचपन


क्या मैं रूसो, काण्ट, हीगेल और मार्क्स 

की अगली कड़ी हूँ ?

या मार्क्सवाद के महल का एक सुंदर झरोखा

जिससे आती है रौशनी स्वतंत्रता की

जिसने कभी नहीं की प्रतीक्षा

किसी प्रभु की

वह झरोखा जो रसोई तक जाता था

और वायलिन के बगल

में  किताबों की मेज के पास खुलता था

 जिससे दिखती थी  सड़क की चौपाटी

जिस पर वाच  

और बाँट रहा था मैं अखबार 

इंक़लाब वाले


ये दुनिया की रीत है

इंक़लाबियों के घरों पर गिरते हैं बम

माथे पर तानी जाती हैं बंदूकें 

फिर भी  मन पर उनके कोई बोझ नहीं होता है

सच बोलने के बाद आदमी निडर

और भीतर से हल्का महसूस करता है


मैंने लिखा

लुमुम्बा के भाषणों का प्राक्कथन 

हाँ मैंने ही लिखा

फ्रांज़ फ़ैनन की पुस्तक का पूर्वकथन

अल्जीरिया के 121घोषणापत्र पर 

करवाता रहा हस्ताक्षर 


मुझे नहीं चाहिए था नोबेल या लेनिन पुरस्कार 

नंगे यथार्थ को वस्त्र पहनाने की

हर गंभीर साज़िश 

पर नज़र थी मेरी

मैं हर नाटक की पटकथा

और सच से वाक़िफ़ था

मैं  एक आँखों वाला दूरदृष्टा


मैं  जानता था

विचार और स्थिति हैं दो बहनें

एक ही रोग से ग्रसित

जिसका नाम है अस्थिरता 

इस व्याधि के तीन स्पष्ट लक्षण हैं 

विकास, गति और परिवर्तन 


मैं  दिमाग़ से ऊब जाता हूँ 

गंभीर वैचारिक यात्राओं से थककर

खोजता हूँ परिवर्तन 

शारीरिक तत्वों में लीन

मैं प्रशांत सरोवर में फेंकता हूँ

पत्थरों सा कई देहों को

 संकेंद्रित तरंगों से भर जाता है ताल

 माटी की प्रसन्न मूर्ति के भंग अंग

टूटे सिर में उच्च ज्वर

मैं  खोजता हूँ 

कोरीड्रेन की गोलियाँ

और एक नीम बेहोशी


मुझे आत्मा के परिणय का

सम्मान करना चाहिए था

वैसे ही जैसे

कैथोलिक चर्च में मरियम का होता है सम्मान

मैं  मिला था सिमोन से

किसी देव को साक्षी मानकर

नहीं  किया कोई भी वादा

जैसे दो देह करते आए थें 

विवाह मंडपों में 

स्थापित से द्वन्द 

और टूटती प्रतिमाओं 

का  विसर्जन तब आवश्यक था


दो लोग जो एक थें

जिन्हें  तोड़नी थी सामाजिक  मान्यताएँ

जो अपेक्षाओं से भय खाते थें

और भाग रहे थें 

उस संस्कृति से जो समानता के समक्ष 

एक कलात्मक दुर्ग सी खड़ी थी

पूरे रंग रोगन और रुआब के साथ


ईर्ष्या स्वतंत्रता की शत्रु है

यह व्यक्ति को नियंत्रित करती है

इस तरह से यह वैयक्तिक स्वतंत्रता पर 

लगाती है लगाम


परिस्थितियो में होती है 

रिश्तों के निर्माण की विलक्षण शक्ति 


इकावन वर्षों का साथ

जिसमें कई लोग आए और गए

प्रेम, जलन, देह, घृणा, विरह और मिलन की कई

परतों ने बना दिया था 

रिश्ते को डोलोमाइट चट्टान

यह संबंध जो 

किसी ढाँचे में समायोजित न होकर भी

चिरकालिक और विशिष्ट रहा

कई तूफानों के बाद भी

जिससे सतत ऊत्सर्जित स्नेह

ने इसे बचाए रखा

एक दूसरे में  रूचि बनी रही मृत्यु तक 

दर्शन बचा लेता है प्रेम को


मैं  सार्त्र 

मेरे पास कई रंग हैं

सिमोन के पास हैं कई धागें

सिमोन रंगों से नहीं करती है ईर्ष्या 

मैं नहीं गिनता हूँ सिमोन के धागे

हम जानते हैं 

कई स्थूल रिश्तों ने ठीक-ठीक है समझाया

बस एक सूक्ष्म रिश्ता बनता है

पूरे जीवन में 


 मैं सार्त्र रिक्त हो रहा हूँ 

बगल में सिमोन खड़ी है दवा की बोतल सी

वह दवा जो मेरी पीड़ा

को न्यूनतम कर देगी

केस्टर(सिमोन) कह रही है

चिकित्सक के कानों में 

 वह नहीं बताए मुझे

कि मैं मर रहा हूँ 


 जीवन को जीने की मैं कर रहा हूँ 

अंतिम अनाधिकारिक चेष्टा

मौत को आता देख जैतून के फूल-

सा खिल उठा है मेरा चेहरा

मैं जानता हूँ 

जीवन एक हास्यास्पद नाटक है

जिसे गंभीरता से जी रहे हैं हम सब


मैं जानता हूँ 

नाटक से विदाई का अवश्यंभावी सच

 और मेरी उँगलियाँ थिरक उठती हैं 

कुछ नया लिखने को




3.

करमा आदमी नहीं पूरा स्टेशन है (फणीश्वर नाथ रेणु की आदिम रात्रि की महक) 


करमा आदमी नहीं पूरा स्टेशन है।

स्टेशन है 

तो स्टेशन वाली गंध भी होगी

करमा  उसी गंध के समुद्र में डूबा रहता है।


उसकी गंध को सूँघता कुत्ता 

उसके सामने खड़ा हो जाता है

और एक फटकार पर दुम दबाकर भाग जाता है

करमा खिखियाकर कर हँस देता है।


छोटी-छोटी ज़रूरतों वाले आदमी की खुशी हमेशा बड़ी होती है 

उसे तलाशनी नहीं पड़ती खुशियाँ


गरीब के हज़ार नाम होते हैं 

करमा,कोरमा, कुरमा, कामा,करमचंद  या करम कह लो

फ़र्क़ नहीं पड़ता आएगा दौड़ कर करमा ही


पर जिसे आदमी एक बार

 अपने से छोटा मान लेता है,

उसके नाम को 

फिर कभी महत्व नहीं देता है। 

मान लेना शायद इसलिए भी

इतना बुरा है


बोली की खटास ऐसी

कि दूध फट जाए

फिर आदमी का कलेजा 

क्या चीज़ है?


लखपतिया के चिरई-चुरमुन

की मीठी आवाज़

खींचकर पास बुलाती है


हतिया नक्षत्र में खेत में

  चमकती मछलियाँ 

हँसकर बातें करती हैं 


काली,झिलमिलाती और 

डंक मारती माँगुर मछली 

बोलती नहीं 

बस काटती है


वह जैसे ही याद करता है

मनिहारीघाट को

मस्ताना बाबा का चेहरा बरगद 

और उनकी हँसी आकाश हो जाती है।

धरती, गाछ-वृक्ष सब बोलने लगते हैं 

फ़सल नाचती गाती है

और रोने लगती है 

 अमावस्या की रात

 

कदम की चटनी खाए एक युग हो गया!

उसके लिए सुख का मतलब है

वैशाख के महीने में आईना के तरह झिलमिलाते पानी

में घंटों नहाना

लखपतिया स्टेशन के पूरब में हैं दो पोखरें

और वहीं गड़ा है उसका वह सुख


सुख से बहुत ज़्यादा है

मिल जाना

सोनबरसा के आम 

कालूचक की मछलियाँ

भटोतर की दही 

कुसियारगाँव की ईख



उसके जीवन में  हैं

गोभी के खेत की बाड़े

घी जैसा बैंगन

मेंड़ पर फों-फों करता ढोढि़या साँप

और एक अव्यक्त खालीपन। 



एक आँख सौ कारतूस के बराबर

ठांय- ठांय चलती गोलियाँ

हाय! उस डोमिन को याद करते ही 

करमा की

चवन्नी सी आँख 

एक रूपया का सिक्का हो जाती है।

वह चाहता है

चलती रेल से स्टेशन हो जाना। 


               


4

वे लिखते थें


मैं  क्या देख लूंगी सपनों में 

जो यथार्थ से भिन्न होगा

आँखें देख लेंगी वे यथार्थ

जो सपनों से भिन्न बहुत था


वर्जीनिया उल्फ की रातों में 

स्वप्न थें, नींद नहीं 

उसके जीवन में प्रेम था

कविता के लिए समय

और आने वाले समय के लिए कविता थी

वह नहीं करती आत्महत्या 

अगर कविता बचा सकती

कविता मरते कवि का हाथ नहीं पकड़ती

वह मौन रहती है

क्योंकि कविता के लिए मौन का अर्थ मृत्यु का आमंत्रण 


हेमिंग्वे के भीतर युद्घ मचा रहता था

उसके पात्र इसलिये पुरुषार्थी थें

पर उसके  गुणसूत्रों में 

बंदूक की गोलियों का थरथराता डर रोप दिया गया था

इसी डर ने एक दिन 

 धराशायी कर दिया उनकी कहानियों के सभी 

योद्घाओं को

एक बार वह चूका और 

अपनी कलात्मक ऊँचाई से फिसलता हुआ

गिर गया मौत की खाई में 

एक बूढ़ा मछुआरा  और विशाल समुद्र 

यह सब देख रहे थें 


अमृता प्रीतम स्वप्न, प्रेम और शब्द

की दुनिया से इतर

एक जागता बिखरा देश समेटी थी

खुद के भीतर

जो चाय की चुस्कियों, कलम ,किताबों 

में  चहलदमियाँ करता रहता था 

वह चली गयी

पर आज भी उनका वह देश  जाग रहा है

और 

उनकी किताबों के पन्नों में  बिखरा पड़ा है


प्रेमचंद गरीब नहीं  थे

गोदान करने और लिखने वाला आदमी गरीब नहीं होता

दोनों के पास धन होता है

धन की प्रकृति भिन्न हो सकती है


ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई बार झाड़ू

बनाकर विद्यालय प्रांगण को बुहारा था

वे जानते थे

यहाँ कचरा बहुत है

और बीमारियाँ कई

ये बीमारियाँ घर-घर न फैले

इसलिए स्वच्छता बहुत जरूरी है



 5

श्यामा और शाम्भ


शाम्भ तुम लौट जाओ 

अब वृंदावन 

मिथिला के जुते खेत में 

कैसी प्रतीक्षा ?

सड़क किनारे खड़े वृक्ष सब शापित बहनें

आज कटे या कल

शाम्भ तुम लौट जाओ अब वृंदावन 


 कार्तिक पूर्णिमा 

जुते खेत की खड़ी प्रतीक्षा

नव धान बालियाँ 

कटने-कूटने को आतुर

सींके पर जमी दही अब डोल रही

गमछे में अशरफ़ी सा 

मुरही और बताशों को अब करने दो शोर

अरपन सज्जित यह चंदन का पीढ़ा

 ले जाओ वापस

शाम्भ तुम लौट जाओ 

मिथिला से अब वृंदावन


कृष्ण पिता

चुरक मंत्री

चुगलों की गवाहियों पर

लिखा जा रहा युग का विधान

चाटुकारों से सभा सजी है

प्रपंच की अखंड रीत से ग्रसित देश यह

बाँट रहा अब शाप

देह से निष्कासन

देश से निर्वासन

राजा और पिता का जब न्याय यही है

फिर ऐसे देश की चाह किसे है? 

अफवाह की आग लगी

दह-दह जलता वृंदावन 

शाम्भ तुम लौट जाओ अब घर


पुत्री की झोली दंडपात्र

युग शापित बहनें

चिड़ियाँ  बन उड़ जाएंगी

शरद शीत में  ठिठुर मरेंगी 

गोद हिमालय

पर लौटेंगी नहीं देश तुम्हारे 

सारे वरदानकोष रिक्त

 स्त्री अंजुली के सम्मुख

देव और देश विरक्त मैं 

शाम्भ तुम लौट जाओ 

अब देश द्वारका


केले के थम की पालकी

दिखे हरी

पर चिन्ह अमिट विदाई का 

उसी थम की मैंने नाव बनाकर रखी है

कार्तिक चन्द्र कोसी की लहरों

पर करे किलोल

सोचा था

बैठ करेंगे सैर उसी पर

देखेंगे छठ का डाला

 गाँव से आते दूध बगिया की खुशबू में 

खूब नहाएंगे हम-तुम

वन विचरण  पुरुषों के लिए तपस्या,

ज्ञानार्जन और जिज्ञासा 

स्त्री के लिए फिर आँवारापन क्यों?

बोलो शाम्भ कैसे लौट जाऊं मैं देश द्वारका?  


सतभईया, खड़रीच, चुगिला और

झाझीकुकुर डाल में नहीं रूचते मुझको

कब कोसी से मिली है जमुना? 

मिथिला से वृंदावन 

शाम्भ लौट जाओ तुम अब


गंगा के तलछट की चिकनी मिट्टी 

खरोंच गढ़ लेना श्यामा तुम

शरद पूर्णिमा की अमृत वर्षा

शाम्भ तुम खाना खीर मखान

चारू संग मैं बैठ आमौर की फुनगी पर

देखूँगी  

चाँदनी में तेरा मुख

शाम्भ हुई देर अब

लौट जाओ तुम वृंदावन 


पहले क्षिति को करो मुक्त

व्यभिचारियों की भीड़ से

तब देना मुझे आमंत्रण

वन से बेहतर

खग से सुंदर 

जीवन का

हो विकल्प प्रिय

तो बतलाना

शाम्भ तुम लौट जाओ अब वृंदावन 


6


मैं  भूल जाता हूँ 


जब घोंघे आते हैं

घर का नमक चुराने

मैं  बतलाना भूल जाता हूँ

नमक जो बंद है शीशियों में

उनका उनसे कौन सा रिश्ता पुराना है


कृष्ण की मजार पर चादर हरी सजी है

मरियम के बुर्के में सलमा सितारा है

अल्लाह के मुकुट में मोर बँधे हैं

नानक के सिर पर नमाज़ी निशान है

लोग कहते हैं —

मैं भूल जाता हूँ

कौन सी रेखाएं कहाँ खींचनी है!


मैं आजकल बाजार से दृश्य लाता हूँ

समेट कर आँखों में

भूल जाता हूँ खर्च कितना किया समय?

झोली टटोलती उँगलियों को

आँखों के सौदे याद नहीं रहते


मैं पढ़ता जाता हूँ

वह अनपढ़ी रह जाती है

मैं लिखता जाता हूँ

वह
मिटती जाती है


खिड़की के पास महबूब की छत है

मैं झाँकना भूल जाता हूँ

वह रूठ जाती है

       

मैं भूल जाता हूँ

चार तहों के भीतर इश्क़ की चिट्ठियाँ छिपाना

आज जब पढ़ रहे थे बच्चे वे कलाम

तो कल की वह आँधी

और मेरी खुली खिड़कियाँ याद आयी

अब तलक कलम की निभ तर है


कागज भीगा है

मैं भूल गया

कल बारिश के साथ नमी आयी थी !

                             


                                                    अनामिका अनु

परिचय-

अनामिका अनु 

परिचय:-

एम एस सी (वनस्पति  विज्ञान, श्वविद्यालय स्वर्ण पदक) 

पी एच डी (लिमनोलाॅजी,   इंस्पायर अवार्ड, DST) 

प्रकाशन:-

हंस, कादम्बिनी, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, कथादेश, पाखी, आजकल, परिकथा, बया, वागार्थ, दोआब, जानकीपुल, समालोचन, पोषम पा, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, चौथी दुनिया, कविताकोश आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। 


 नोट- पोस्ट में प्रयुक्त सभी रेखाचित्र अनुप्रिया जी द्वारा बनाए गये है। 

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