सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल-26


जयश्री सिंह की कविताएँ  जीवन की सघन अनुभूतियों से उपजी मानवीय संवेदनाओं की उपज हैं।यहाँ स्त्री जीवन के साथ -साथ समय और समाज के बदलते जीवन मूल्य एवं मानवीय करुणा की बानगी देखी -परखी जा सकती है।दुनिया में कितना दुख है इसे स्त्री अपनी दृष्टि से देख रही है,उसके लिए इस दुनिया को देखने के लिए कुछ रास्ते इसी कविता की भूमि ने उपलब्ध कराए हैं।जयश्री सिंह मुम्बई की भागमभाग में मानव का संघर्ष देखती हैं,लॉक डाउन में मजदूरों की पीड़ा हो या स्त्रियों के हिस्से की त्रासदी हो ,वह इन बातों के अन्दरखानों में उतरने का जोखिम लेती हैं और कविता में अपने रंग-ढंग से पिरोती हैं-

जयश्री सिंह की कविताएँ


1) खौफ़

एक भयानक कोलाहल

चारों ओर 

सैकड़ों लोग दौड़ते - भागते हाँफते

पीछे चले आ रहे हैं

पलट कर देखती हूँ तो सन्नाटा है

इस कोने से उस कोने तक 

कहीं कोई नहीं

एम्बुलेंस की एक उड़ती हुई आवाज 

चीखते हुए गुजर जाती है

किनारे बैठे लोग

काली चादर ओढ़े सो चुके हैं

हजारों कदमों की धमक को एक बार में सह लेने वाला शहर का पुराना पुल 

शवों के बोझ से थर्रा रहा है

अस्पतालों के गलियारे

पुल में बदल रहे हैं

मौत किनारे - किनारे काली चादर ओढ़े सो रही है

कुछ देखा - अनदेखा किये

सैकड़ों लोग 

दौड़ते - भागते - हाँफते

एक दूसरे को धकियाते

गलियारे से गुजरते जा रहे लोग

चीखते पुकारते

हटो..., हटो.., 

थोड़ी सी जगह दो

जल्दी करो, जाने दो मुझे

साँस उखड़ रही है

एक तीसरी निगाह भीड़ पर से उड़ कर गुजर जाती है

शहर बेचैन हो उठता है

टीवी खुली है

खिड़कियाँ बंद हो चुकी हैं

जगह - जगह धब्बे

गहरे काले धब्बे

दृश्यों के साथ उतरते जा रहे धब्बे

आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा

धब्बे घुप्प अँधेरे में बदल रहे हैं

चारों ओर निराशा 

मायूसी अकेलापन 

बेचैनी घबराहट घुटन संक्रामक हो कर 

ज़ेहन में फैल रही है

लोग भाग रहे हैं

अपनों के छू जाने के डर से 

बेतहाशा भाग रहे हैं

सारे रास्ते बंद हैं

सारे दरवाजे बंद

महीनों से घरों में बंद लोग

अपने - अपने में बंद हैं।




2) अस्तित्व


खोद कर जमीन 

मिट्टी से पूछा

क्या तुम इसी ज़मीन का हिस्सा हो?

पहाड़ों को ढ़हा कर

मलवों से

भू - कम्प ने 

माँगा अस्तित्व।


पाट दिया गया प्रशांत भी

हिंद की 

पहली बूँद की ख़ातिर

जला दिए गए जंगल

वाज़िब सबूत की तलाश में

शक में घिरी घटाएँ

जो दे न पायीं 

अपने आसमानों की गवाही।


धरती इतनी बौखलायी

पहले कभी न थी

आसमानों ने

कभी न बरसायी थीं चिंगारियाँ

कभी राख न हुए थे

इससे पहले 

करोड़ों की संख्या में

निर्दोष बेजुबाँ।


यह एक दुःसह

दुःस्वप्न था 

जड़ - चेतन के

अस्तित्व का प्रश्न था

माँग लिया था किसी ने

पृथ्वी से

उसके होने का सबूत।


3 ) भागी हुई लड़कियाँ


घर की दीवारों से

भीतर तक उतर आयी दरारों में

रिस रही हैं धीरे - धीरे

मुक्ति की कामनाएँ

दुनिया भर की तोहमतों से अधिक 

चार दीवारी के भीतर की

जहरीली हवा में

घुटने लगा दम

घिस चुके शब्दों की चोट से रक्तिम

उस एक भूल के लिए

लगातार कचोटता 

अल्हड़ सा मन

अवचेतन में

पुरानी रील सा 

जब - तब

घूम जाता

वो बीता बचपन।


रिहा होने की चाहत में

पार कर दी थी

उन्होंने सारी सीमाएँ

नये स्पर्श में बहक कर

डाल से टूटीं

और फिर 

टूट कर रह गयीं

हर बार किसी तीसरे के साथ 

भागे जाने के

नये शक में घिरीं।


रिक्त हो जाने की सारी हदें

पार कर देने के बाद भी

नहीं बुझा पायीं शक की प्यास

कटीली उलाहना 

क्रूर प्रताड़ना से

रगड़ दी गयी 

उनकी अंतर्आत्माएँ भी।


घर से भागी हुई लड़कियाँ

जितनी देर के लिए चुहल बनी

उतनी ही देर आजाद रह पायीं

फिर जीवन भर के लिए

किसी बद्दिमाग की निगरानी में

कैद हो गयीं।


4) मैं रहूँगी


यदि डर है तुम्हें

कि बचा नहीं रहेगा कुछ भी 

अंत तक

मैं तब भी 

बची रहूँगी।


मैं हवा हूँ

मिट्टी हूँ

आग हूँ

नमी हूँ

तुम्हारी अनुकृति हूँ

मैं स्वीकृति हूँ

बचे रहने के हर रूप में

स्त्री हूँ।


मुझे बेचाल चले

चलन से डर लगता है

जबरन हो रहे 

हनन से डर लगता है


यदि बचाना चाहो 

सब कुछ

तो बचा लो मुझे।


मैं सामूहिक पतन के

अपराध से डरी हुई हूँ।


5 ) चाँदनी


दिन ढ़लते ही

ये चौराहों पर चाँदनी सी उतरती हैं

लोगों की निगाहों से बच कर

खुद को 

काले शीशे की गाड़ियों के सुपुर्द कर

निकल जाती हैं 

रात की उन यात्राओं की ओर

जो इनके जीवन से भी लंबी हैं


ये सुबह अँधेरे

उन्हीं गाड़ियों से लौट आती हैं

दुपट्टों से मुँह ढँके

टूटते तारों सी 

गाड़ियों से उतरकर 

उन अँधेरी गलियों में खो जाती हैं

जहाँ से सज-धज कर

शाम इन्हें फिर से निकलना है।


ये आधी रात की 

बदनाम गलियों को

अपनी अदाओं से गुलजार करती हैं

लचकती कमर

और चमके गालों के पीछे

छोड़ जाती हैं एक भरा-पूरा परिवार 

लाचार माँ, बीमार बाप

और छोटे भाई - बहन।

ये उनके सुरक्षित भविष्य की खातिर 

अपने लिए चुनती हैं

आधी रात की असुरक्षित दुनिया

और मेडिक्लेम पॉलिसी से परे का एक असाध्य रोग

जो जल्द ही इन्हें 

जीवन से मुक्ति दे देता है।


इनकी यात्राएँ बहुत छोटी हैं

और रातें बहुत लंबी

ये अपने पीछे एक दूसरी चाँदनी छोड़ जाती हैं।


6) धुंध

शहर की सबसे ऊँची इमारत से

दूर की उस दुनिया को 

कुछ पल के लिए

आँखों में उतार कर

अपने अकेलेपन को

भूल जाना चाहती हूँ


सहसा

बुझे बादलों के बीच खुद को घिरा पा कर

घबरा जाती हूँ 

और उतर आती हूँ 

एक ही साँस में

नीचे 

उस बालकनी की ओर

जहाँ से देखती हूँ रोज

अपने हिस्से की एक सीमित दुनिया।


अचानक अपने चश्मे का नंबर बढ़ा पाती हूँ

आँखों को बार-बार रगड़ कर

देखती हूँ 

एक चिड़िया 

चोंच में चुग्गा लिए

बालकनी में

बिलकुल पास बैठी

मुझसे अपने घर का पता पूछ रही है

मैं दूर तक नजर दौड़ाकर

उसके घोंसले को ढूँढती हूँ

चूजों की जानी पहचानी आवाज

लोगों की आवाजाही

और मोटरों की चिल्लाहट के

सम्मिलित स्वर को

अपने आस - पास बिखरा पाती हूँ

एक धुंध सी है चारों ओर

जैसे गहरी नींद में, स्वप्नलोक में हूँ

सब कुछ सुन पाने

और कुछ न देख पाने की अकुलाहट में 

जागने का विफल प्रयास करती हुई

किसी तरह अपने को

भीतर कमरे में बंद कर लेती हूँ

धुंधलापन 

घबराहट और घुटन में बदल जाती है

जैसे किसी ने रोक रखी हो मेरे हिस्से की ताजी हवा

और मैं उन्हें पाने के लिए बेचैन हूँ।

एक लंबी शांति के बाद

अपने को फर्श पर पड़ा पाती हूँ।

कुछ ही देर में 

इस उथल - पुथल को भूल 

अपने रोजमर्रा के कामों में 

उलझ जाती हूँ।


दरवाजे की घन्टियों

फोन कॉलों

और दो सौ पचहत्तर वाट्सऐप मैसेज से गुजर लेने के बाद

अचानक याद आये

उस खोये हुए घरौंदे को खोजने के लिए

झटपट बालकनी का दरवाजा खोल देती हूँ।


सूरज अब भी कहीं नहीं है

उधार की हल्की रोशनी लिये

धुंध वैसी ही जमी हुई है

चोंच में चुग्गा लिये चिड़िया

फर्श पर मृत पड़ी है

पेड़ पर मरघट सी शांति है

नीचे तक उतर आये 

बुझे बादलों ने

चूजों से 

उनके हिस्से का आकाश 

छीन लिया।








परिचय : 

जयश्री सिंह 

एम. ए. (स्वर्ण पदक), पीएच. डी., नेट

सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक (मुंबई विश्वविद्यालय)

जन्म : 13 जुलाई, मुंबई


पुरस्कार एवं उपलब्धियाँ -

१) मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा एम. ए. में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने हेतु 'स्वर्ण पदक' से सम्मानित।

२) मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा (एम. ए. के लिए ही) ‘पंडित नरेंद्र शर्मा हिन्दी एकेडेमिक पुरस्कार' से सम्मानित।

३) मुंबई बोर्ड द्वारा 1999 में 'सरस्वती सुत सम्मान' से सम्मानित।

४) रज़ा फाउंडेशन, नई दिल्ली द्वारा 11- 12 अक्टूबर को आयोजित 'युवा 2019' में गाँधी जी के 'प्रार्थना प्रवचन' में विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित।


प्रकाशन - 

१) सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों का अनुशीलन, २०१३ (समीक्षा)

२) पूर्वोत्तर भारत का आदिवासी समाज : लोकसाहित्य एवं संस्कृति, २०१८ (समीक्षा)

३) Hingher Education in India : Retrospect & Prospect, 2020 (संपादित)

४) विविध विषयों पर 35 से अधिक शोधालेख प्रकाशित।

५) मुंबई आकाशवाणी से 3 रेडियो वार्ता का प्रसारण।

६) विविध भारती मुंबई से ‘हरसिंगार के फूल’ कहानी का प्रसारण। 

७) एम. ए. हिन्दी में मुंबई विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ अंक प्राप्त करने पर महाराष्ट्र टाइम्स द्वारा साक्षात्कार प्रकाशित।

८) मुंबई आकाशवाणी द्वारा भी उसी समय साक्षात्कार का प्रसारण।  

९) शहर की संवेदनाओं पर निरंतर लेखन।

१०) 'शहर बोलता है' (पहला काव्य संग्रह) प्रकाशाधीन।

११) कला, साहित्य, संस्कृति का शहर मुंबई' पर श्रृंखला  लेखन।

१२) देश की प्रमुख पत्र - पत्रिकाओं में कई कविताएँ, कहानी और संस्मरण प्रकाशित।



पता - B /601, श्री एयर इंडिया सोसाइटी, प्लॉट क्र. - 24, सावरकर नगर, ठाणे - पश्चिम, मुंबई - 400606

फोन - 09757277735

ई मेल : jayshreesingh13@gmail.com

संप्रति : सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक, जोशी - बेडेकर ठाणे कॉलेज, मुंबई - 400601








कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें