बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

पुस्तक -चर्चा

---लेखक की अमरता--- स्वप्निल श्रीवास्तव
( स्मृति- लेख  बनाम सचेत मूल्यांकन)
 पुस्तक समीक्षा - श्रीधर मिश्र

       





1954 में जन्मे हिंदी के प्रतिनिधि कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने एक लंबा रचनात्मक संघर्ष किया है व उनका संघर्ष आज भी अनवरत जारी है ।वे कविता के अप्रितम योद्धा हैं तथा कविता की लगभग चार पीढ़ियों के साक्षी ही नहीं रहे हैं वरन उसके सहयात्री रहे हैं, लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि वे कविता की बदलती प्रवृत्तियों, चुनौतियों से तादात्म्य स्थापित करते हुए आज भी उतने ही प्रासंगिक व महत्वपूर्ण बने हुए हैं,  इलियट ने  लिखा था-- बूढ़ा गिध्द पंख क्यों फैलाये- यह उसने अपने समय के वरिष्ठ रचनाकारों के सन्दर्भ में खीज के साथ कहा था,  और यह खीज हिंदी के कवियों के सन्दर्भ में भी उतनी ही प्रासंगिक है, कवि जब वरिष्ठ कवि होकर प्रसिद्धि की उपलब्धि पा लेता है तो फिर उसकी कविता में  तनाव का मुहावरा लगभग खत्म हो जाता है, वह खुद को दुहराने लगता है तथा वह मात्र कलाश्रयी होकर रह जाता है, उसकी कविता की दुनिया भी उसकी निजी दुनिया की तरह तनाव रहित, सुरक्षित व वैभवशाली हो जाती है, प्रयोगवाद के प्रवर्तक अज्ञेय तक अंतिम दिनों में इसके शिकार  होगये, " कितनी नावों में कितनी बार(1967)," पहले मैं सन्नाटा  बुनता हूँ"(1974) तक आते आते अज्ञेय का मुहावरा काफी शिथिल पड़ गया था तथा वे खुद को दुहराने लगे थे, जबकि स्वप्निल श्रीवास्तव के प्रकाशित पांचों कविता संग्रहों क्रमशः, ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथिवी चाहिए, ज़िंदगी का मुकदमा, जबतक जीवन है, में स्वप्निल किसी दुहराव के शिकार नहीं हुए हैं बल्कि निरंतर वे अपनी ही भाषा तोड़ते हुए नज़र आते हैं, इसीलिए स्वप्निल की कविताओं में ताज़गी  तो महसूस होती ही है,  समय -समाज के दबावों की अनुगूंज भी मिलती है,  हिंदी के बहुत कम कवियों ने अपनी भाषा तोड़ने का जोखिम उठाया है, उसमें प्रमुख हैं निराला, एवम श्रीकांत वर्मा भी अपनी मगध सीरीज की कविताओं में अपनी भाषा तोड़कर  भाषा की सर्वथा नई भूमि पर कविताएं चरितार्थ करते हुए दिखते हैं, और इसी क्रम में स्वप्निल भी हिंदी कविता के प्रमुख कवि हैं जिन्होंने बदलते हुए परिवेश से साक्षात्कार करने के क्रम में अपनी भाषा तोड़ने का  लगातार जोखिम उठाया है इसीलिए वे आज भी उतने ही प्रासंगिक बने हुए हैं
    हालांकि उनके दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह " एक पवित्र नगर की दास्तान व स्तूप और महावत के साथ ही एक संस्मरण" जैसा  मैंने जीवन देखा" पहले प्रकाशित हो चुके हैं जो काफी चर्चित हुए, यह उनका नया संस्मरण याकि स्मृति लेख- "लेखक की अमरता"सद्यः प्रकाशित हुआ है  जो जितना रोचक- रोमांचक है उससे अधिक इस लिए महत्वपूर्ण है कि स्वप्निल ने अपने व्यक्तिगत संस्मरणों में  आज के साहित्यिक परिदृश्य की खूब खबर ली है, उनकी निडर व बेबाक टिप्पणियां धरोहर की तरह बहुमूल्य हैं, क्योंकि ये स्वप्निल के निरन्तर रचना-संघर्ष के घर्षण से उपजी अग्निस्फुलिंग सरीखी हैं, एक शांत व सम्वेदना के बड़े गहरे तल से सरोकार रखने वाले, सहज लेकिन विराट भाव बोध के कवि के उद्गार हैं। ये स्मृतिलेख वस्तुतः प्रकारांतर से मूल्यांकन भी हैं,     
    गिरीश कर्नाड, नामवर सिंह,केदरनाथ सिंह,मंगलेश डबराल, सव्यसाची, परमानन्द श्रीवास्तव,नंदकिशोर नवल,दूधनाथ सिंह,देवेंद्र कुमार बंगाली, बादशाह हुसैन रिज़वी जैसे महत्वपूर्ण  साहित्यकारों से साहचर्य के संस्मरण से स्वप्निल  अपने निजी अनुभव के सहारे  हमारे समय के साहित्यिक परिदृश्य की बड़ी गहन पड़ताल करते हैं, वे विमर्श के कई प्रस्थान विंदु नियत करते हैं, अपना अमर्ष व्यक्त करते हैं, उलाहना देते हैं व उनकी सीमाओं का रेखांकन भी करते हैं, अतः यह किताब कई अर्थों में महत्वपूर्ण  है।
   नामवर सिंह के सन्दर्भ में वे " तुमुल कोलाहल में आलोचना की आवाज़ " शीर्षक के लेख में कहते हैं कि "  बनारस में उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा गुरु मिला।यह परम्परा और आधुनिकता का मिलन था, नामवर सिंह ने अपने गुरु की लीक से हट कर अपने लिए एक मार्ग बनाया--- उनकी स्थापनाएं विवाद का विषय बनती रहीं।लेकिन वह आलोचना क्या, जो विवाद का कारण न बने" 
    आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल  अपनी बेबाक व साहसिक टिप्पणीं करते हैं-" आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है लेकिन आलोचक के अपने दम्भ हैं।अपनी अपनी सेनाएं एक दूसरे से लड़ती हैं, जैसे वे एक दूसरे के शत्रु हों।आलोचक सेनापति की भूमिका में हैं"।  स्वप्निल आगे लिखते हैं कि" उन्होंने आलोचना को मार्क्सवादी धारा से जोड़ा और रचना को उसकी कसौटी पर कसने का काम किया।उनके सामने केवल रचना नहीं रचना के समय का समाज था,उनका मार्क्सवाद कट्टर मार्क्सवाद नहीं था, व्यवहारिक मार्क्सवाद था"
  स्वप्निल ने नामवर के बाद के दिनों पर भी खासी उत्तेजक टिप्पणी की  है जो उनके अदम्य साहस का परिचय देती है , स्वप्निल लिखते हैं कि " वह साहित्येतर कारणों से लोगों का उपनयन संस्कार करने लगे, सत्ता के साथ बढ़ती उनकी निकटता और उद्घाटन समारोहों की अतिशयता उन्हें निष्प्रभ करने लगी"
       "लेखक की अमरता" शीर्षक  के लेख में दूधनाथ सिंह से कृतित्व व उनके व्यक्तित्व से सम्वाद करते हुए स्वप्निल हिंदी की कुछ नई परम्पराओ पर बड़ा गहरा व खुला व्यंग्य करते हैं, हालाँकि भाषा की शालीनता अपनी जगह कायम है लेकिन व्यंग की धार इतनी पैनी है कि रक्त पहले निकला या दर्द पहले शुरू हुआ इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल होजाता है वे लिखते हैं " दूधनाथ सिंह ने अपनी अमरता के लिए कोई इंतजाम नहीं किया। उनके पास अंधभक्तो की फौज नहीं थी-- जो उनकी अमरता की कामना करे।हालांकि हिंदी में यह रिवाज बन रहा है कि कुछ लोग अमर होने के लिए मरने का इंतज़ार नहीं करते , वे जीते जी अमरता का अनुष्ठान करते रहते हैं, अपनी ग्रंथावलियाँ छपवाते हैं, किराए के आलोचकों से अपनी यशोगाथा लिखवाते हैं, नगर नगर में अभिनन्दन समारोह आयोजित करवाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें अपने शब्दों पर भरोसा नहीं है" 
     खुद पर व्यंग्य करना सबसे साहसिक कार्य होता है, स्वप्निल अपनी ही साहित्यिक बिरादरी के सच का बड़ी निर्ममता से पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं "लेकिन सबसे ज्यादा आदर्श की मांग लेखक से ही की जाती है।जबकि लेखक देवताओं से कम पतित पतित होता है" 
    वे दूधनाथ सिंह के सन्दर्भ में लिखते हैं" दूधनाथ सिंह ने अपने लेखन में परम्परा की रूढ़ि तोड़ा है, उनकी मूल विधा कहानी है लेकिन उन्होंने अपने लेखन को एक विधा तक सीमित नहीं किया है--- वे एक बेचैन लेखक हैं"  दूधनाथ सिंह की इस रचनात्मक बेचैनी के सन्दर्भ में स्वप्निल बड़ा वाजिब तर्क प्रस्तुत करते हैं " प्रायः विधाओं की आवाजाही को लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन उन्होंने अपनी बेचैनी को प्रकट करने के लिए अनेक विधाओं का चुनाव किया" रचनाकारों के विधागत कायांतरण के सम्बंध में स्वप्निल एक रोचक तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि " वस्तुतः एक विधा में विफल लोग दूसरे विधा का चुनाव करते हैं। कतिपय असफल कवि आलोचना की दुनिया मे प्रवेश करते हैं"  स्वप्निल के इस अभिकथन की जांच की जाय तो हिंदी के दो शीर्ष आलोचकों पर सही साबित होता है और वे हैं रामबिलास शर्मा व नामवर सिंह क्योंकि इन दोनों ने पहले कविताएं लिखीं व बाद में कवि कर्म छोड़ कर स्थायी रूप से आलोचना के क्षेत्र में आगये ।
      " केदारनाथ सिंह की कविता के उद्गम स्थल" लेख में स्वप्निल हिंदी के प्रतिनिधि कवि केदारनाथ सिंह के जीवन संघर्षों व रचनात्मक संघर्षो की चर्चा करते हैं, केदार नाथ सिंह के सन्दर्भ में वे लिखते हैं " उनकी कविताओं में खुद अपना चेहरा देखता हूँ"
  केदार नाथ की काव्यप्रवृत्ति की चर्चा करते हुए स्वप्निल केदारनाथ की कविताओं में गीत तत्व की बड़ी बारीकी से शिनाख्त करते हुए लिखते हैं कि " केदारनाथ जी व देवेंद्र जी गीतों के बाद कविता की दुनिया मे दाखिल हुए और अपने गीत तत्व को सुरक्षित रखा" 
    केदारनाथ की कविताओं व आलोचना के मन्तव्यों को लेकर स्वप्निल  अपना खुला आक्रोश व्यक्त करते हुए केदारनाथ का पक्ष लेते हैं । वे लिखते हैं " हिंदी के वे आलोचक जो कविता को क्रांति का हथियार मानते हैं, उन्हें केदारनाथ की कविता नहीं भाती।कुछ तो इतने कटु होगये हैं कि वे उनकी मृत्यु के बाद उनपर हमलावर होगये हैं, कई तो व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आए हैं"।
   इसके अलावा , छोटा कद लेकिन बड़ा पद लेख में परमानन्द श्रीवास्तव, क्या यह स्मृति का दूसरा समय है लेख में मंगलेश डबराल, आलोचक की सजग दृष्टि लेख में नंद किशोर नवल ,देवेंद्र कुमार की कविताई,धर्मिक नगर में कामरेड की आवाज़, बादशाह हुसैन रिज़वी के अफसाने, आदि लेख अत्यंत रोचक व महत्वपूर्ण हैं
    स्वप्निल   इन रचनाकारों के साथ बिताए पलों को याद करते हुए जहां लेख में खुद को आद्यंत उपस्थित रखते हैं वहीं वे अपनी सजग आलोचनात्मक चेतना के चलते भावुकता के शिकार नहीं होते  यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि अपने परिचित व सुहृत को याद करते हुए प्रायः व्यक्ति भावुकता के वश में आकर अपने भीतर की अराजकता का शिकार हो जाता है, संस्मरण लेखन में इसके कई उदाहरण हैं,   स्वप्निल के ये स्मृति लेख इस लिए महत्वपूर्ण हैं कि इनमें उनकी आलोचनात्मक चेतना ने उनका कभी साथ नहीं छोड़ा है, अतः ये लेख जहाँ संस्मरण के रोचक प्रसंगों से किस्सागोई का आस्वाद देते हैं तो वहीं एक सचेत मूल्यांकन का निष्पक्ष उत्तरदायित्व भी निभाते हैं,  आलोचना का कोई बड़ा सामान्य पाठक वर्ग नही होता, इसके पाठक सीमित होते हैं  - शोधार्थी , शिक्षक, रचनाकार या आलोचक, लेकिन स्वप्निल ने स्मृतिलेखों के सिलसिले से आलोचना की जो नई प्रविधि इस किताब में विकसित की है इसे नए प्रयोग के रूप में लिया जाना समीचीन होगा
    इन लेखों में स्वप्निल ने अपने भाषा कौशल का परिचय दिया है,  संस्मरण के पलों में उनकी भाषा मे सम्वेदना की तरलता, भावुकता, के तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हैं, लेखों में  कहानी की रोचक शैली में कथाविकास है  तो वहीँ मूल्यांकन के सन्दर्भो में भाषा का तेवर, ताप बदल कर गवेषणात्मक  व व्यंजना प्रधान हो जाता है, एक ही लेख में भाषा के इतने प्रस्तर का रचाव स्वप्निल के कलात्मक सौष्ठव का परिचय देता है।
     आज की आलोचना के सन्दर्भ में स्वप्निल ने लिखाहै-"आज आलोचना लगभग समाप्त प्राय है"-- उनकी इस चिंता को स्वीकार करते हुए यह कहा जा सकता है कि - "जब किसी युग मे कोई बड़ा आदमी नहीं होता तो लोग मिलकर उस समय को ही बड़ा कर लेते हैं"
  आलोचना के सन्दर्भ में इन  लेखों को अपने समय की आलोचना को बड़ा करने के सार्थक प्रयास के रूप में  लिया समीचीन होगा
  इतने महत्वपूर्ण लेखों के लिए स्वप्निल श्रीवास्तव को बधाई, आशा है यह किताब सुधी पाठकों में पर्याप्त समादर प्राप्त करेगी
 यह किताब पठनीय भी है व  संग्रहणीय भी।
    किताब के इतने सुरुचिपूर्ण व आकर्षक प्रकाशन  के  लिये प्रकाशक को साधुवाद
                       --  श्रीधर मिश्र, गोरखपुर
                        
  -  कृति-
लेखक की अमरता
 लेखक-  स्वप्निल श्रीवास्तव
 आपस पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
   अयोध्या, उ0 प्र0

                                                                     स्वप्निल श्रीवास्तव

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