बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल :कविता का स्त्री काल -31



विश्वासी एक्का आदिवासी स्त्री स्वर की प्रमुख कवियत्री हैं जो स्त्री शोषण के प्रश्नों से गुजरते हुए  पितृसत्ता , प्रकृति , संस्कृति और समसामयिक घटनाओं को भी बड़ी शिद्दत से अपनी कविताओं में समेटती हैं। 
 

कविताएं

1. तुम्हें पता न चला 

तुम मगन हो नृत्य करते रहे 
मांदल की थाप पर झूमते रहे
जंगल भी गाने लगा तुम्हारे साथ 
उत्सवधर्मी थे तुम,
कोई अंगार रख गया सूखे पत्तों के बीच
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ …|
तुम खेत जोतते रहे
पथरा गये ढेलों को फोड़ते रहे
धूप और बरसात की परवाह किये बिना
जूझते रहे दिन और रात
श्रमजीवी थे तुम, 
कोई धीरे से खेतों की मेड़ फोड़ गया
बुधुवा ! तुम्हें पता न चला........ |
तुम बनाते रहे भित्तिचित्र 
पेड़-पौधे, कछुवा, बंदर, चिड़िया 
पालते रहे गाय और बकरियाँ 
पशुपालक थे तुम,
कोई सौदागर घूमता रहा वेश बदलकर
बहका कर, हांककर ले गया तुम्हारे पशुओं को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला........ |
तुम्हारी अमराई में कोयल कूकती रही
तुम्हारा मन भीगता रहा
तुम सुनते रहे भुलावे का गीत
विश्वासप्रवण थे तुम,
अमावस की रात 
वो काट कर ले गये पेड़ों को, 
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |
तुम उंगलियों में जोड़ते रहे जीवन के वर्ष 
खाट पर नहीं जमीन पर निश्चिंत सोते रहे 
दुःस्वप्नों से जागते रहे 
भोर होने के पहले ही 
बड़े जीवट थे तुम, 
कोई जहरीले नाग छोड़ गया
तुम्हारे बिछौने के नीचे
बुधुवा! तुम्हें पता न चला...... |





2. तुम और मैं 

तुम मुझे कविता सी गाते
शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से सजाते
मैं भी कभी छंदबद्ध
तो कभी छंदमुक्त हो
जीवन का संगीत रचती
पर देखो तो
मैं तुम्हें गद्य सा पढ़ती रही
गूढ़ कथानक और एकालापों में उलझी रही
यात्रावृत्तांतों की लहरीली सड़कों पर
भटकती रही
और तुम व्यंग्य बन गये, 
मैं स्त्री थी स्त्री ही रही...... 
तुम पुरुष थे, अब महापुरुष बन गये |

3. ये लड़कियां 

तुमने कहा लड़कियों को कितना पढ़ाओगे
आख़िर तो उन्हें चूल्हा-चौका ही करना है 
अब वे हर जगह आगे
पढ़ाई में, नौकरी में, माता-पिता की सेवा में
देश में, विदेश में, धरती में, आसमान पर, 
वे उस प्रत्येक जगह पर
जहां तुमने उन्हें जाने से रोका था |
कितनी नाफरमान और ढीठ हैं न ये लड़कियां
पैदाइश रोक दिये जाने की 
लाख कोशिशों के बाद भी 
उग आई हैं जंगलों की तरह
खिल उठी हैं फूलों की तरह
बरस गईं पानी की तरह
उछल पड़ीं बास्केटबॉल की तरह |
उग आई हैं सूरज और चाँद की तरह
कि छा गईं धरती पर हरियाली की तरह,
तमाम खतरों के बाद भी
उड़ती-फिरती हैं तितलियों की तरह
परवाज़ है उनकी शाहीन की तरह
कि उन्हें पता है मुक्त गगन में भी 
उड़ना है कहां-कहां |
एकतरफा प्रेम में तेज़ाब डाल दिया 
बलात्कार कर जला दिया
चरित्रशंका पर गला घोंटा
एक बार नहीं बार-बार | 
इतना कुछ, इतना सब कुछ
फिर भी स्वाद ने लड़कियों का साथ नहीं छोड़ा
आज भी उनके हाथों बने खाने की बात ही अलग होती है |

4. लंबी यात्राएं

वे चल रहे हैं निरंतर आदम के जमाने से
अदन वाटिका से निकल
यरदन,नील,और फ़रात के किनारे -किनारे
पहले इक्के-दुक्के
फिर जत्थों में
वाचा का संदूक लिये कारवां से लेकर
अकेले ही अपना सलीब उठाये |
लाद कर ऊँट और घोड़ों पर
कबीले का तम्बू, राशन, कपड़े-लत्ते |
इब्राहिम की चौदहवीं पीढ़ी 
अपने मसीहा के आने तक
अब भी और जाने कब तक........ |
बेबीलोन गवाह है
वे स्वर्ग तक पहुंचने की सीढ़ी मुकम्मल न कर सके 
टूट गये भाषा की लड़ाई में |
सदोम और अमोरा में 
आग और गंधक बरसा,
मिश्र पर सात-सात विपत्तियां आईं
मेढ़कों का आक्रमण 
कुटकियों के झुण्ड 
डांसों के झुण्ड 
पशुओं की मौत 
ओलावृष्टि 
टिड्डियों का आक्रमण 
और फिर घना अंधकार |
सिंधुघाटी से छोटा नागपुर 
दक्षिण प्रदेश |
जीविकोपार्जन के लिए महानगर
महामारियों के दौर में घर वापसी
महामारी के बाद संभवतः 
पुनः महानगरों की ओर प्रस्थान, 
यह एक ही जीवन में 
पृथ्वी को माप लेने जैसी अनंत यात्रा तो नहीं 
इनके हौसले कहते हैं 
ये उन तमाम अंधेरी गलियों से 
निकल ही आयेंगे
जैसे इस्राइली आखिरकार निकल आये थे
मिश्र से फिरौन के अत्याचार से |
(यरदन, नील, फ़रात- अरब देश की महानदियां 
इब्राहिम – ईसाइयों के पूर्वज
वाचा का संदूक- ईश्वर और मनुष्य के बीच वाचा का प्रतीक 
फिरौन- मिश्र का हाकिम )




5. हम साथ हैं 

इस साल महुए ने टपकने से मना कर दिया 
फूल कोचों में पंख सिकोड़े सोते रहे, सहमे रहे 
शायद उन्हें पता चल गया था 
उनकी कद्र करने वालों पर 
काला साया मंडरा रहा है |
पलास इस साल दहके नहीं 
गुंचे कडुवा गये, काले पड़ गये
शायद उन्हें पता चल गया था
सड़कें लाल रंग में डूबने को हैं |
अमलतास भी कहां खिले इस साल
उनकी अधखिली लड़ियां
लटकती रहीं अनमनी |
भूखे पेट सड़कों पर हजारों मील चलते
मजदूरों की आँखों और चेहरों पर
पीला रंग पसरा हुआ है |
सरहुल भी कहां मना इस साल
फूल दुबके रहे पत्तों की ओट 
फलों ने हवाओं संग
गोल-गोल घूमते अठखेलियाँ करने की
अभिलाषा ही नहीं पाली,
वे देख रहे थे आढ़े-तिरछे, पथरीले
रास्तों पर मजदूरों के जत्थों को 
लगातार चलते हुए |
इस साल बरस रहे हैं बादल बेमौसम ही
जैसे मजदूरों की आँखें, 
भीग रही है धरती
जैसे मजदूरों के मन
अंकुरित हो रही हैं वनस्पतियां
जैसे मजदूरों के हौसले |
ये क्या हुआ! कैसे हुआ! क्या होगा आगे! 
इन बेमतलब के पचड़ों में 
नहीं पड़ते वे
आस्थावान हैं वे प्रकृति के प्रति 
उस पर अवलंबित जीवन के प्रति |
( कोरोनाकाल में प्रभावित मजदूरों के लिए)


परिचय

विश्वासी एक्का 

पता
महारानी लक्ष्मीबाई, 
वार्ड क्रमांक. -09,न्यू कॉलोनी
, पटेलपारा, अम्बिकापुर, 
सरगुजा(छत्तीसगढ.)
जन्म – ग्राम -बटईकेला-जिला-सरगुजा(छत्तीसगढ )
हिंदी विषय में स्नातकोत्तर और पीएच.डी. | सन् 2017 में नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से कहानी पुस्तिका ‘कजरी ‘ प्रकाशित, 2018 में कविता संग्रह ‘लछमनिया का चूल्हा' प्रकाशित ,इसी वर्ष उत्कृष्ट कविता सृजन के लिए, हिंदी साहित्य सम्मेलन छत्तीसगढ़ प्रदेश द्वारा ‘पुनर्नवा’ पुरस्कार, 2019 में साहित्य अकादमी दिल्ली में काव्यपाठ | आकाशवाणी अम्बिकापुर से समय -समय पर, कविता- कहानी पाठ | अक्षरपर्व,वागर्थ,,इंडिया टुडे, छत्तीसगढ़ मित्र, दक्षिणकोशल, पक्षधर, नया पथ, हाशिये की आवाज में कविता, कहानी एवं आलेख प्रकाशित | वर्तमान में शासकीय राजमोहनी देवी कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बिकापुर में,सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत |


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें