बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल :, कविता का स्त्रीकाल -33



पँखुरी सिन्हा की कविताएँ


खड़े होने की बराबर जगह
 
वह खड़ा हुआ तो मुझे लगा 
उसका कद कितना ऊँचा था 
मुझसे तो ऊँचा था ही 
काफी ऊँचा था 
वह पुरुष था 
और मेरी औरतना दृष्टि 
पुरुषों को बक्श कर 
अतिरिक्त ऊँचाई 
तृप्त होती तो थी 
पर तभी
जब व्यवहार पुरुषोचित हो 
अगर वो बक्शें 
औरत को भी कुछ ज़्यादा कद 
कंधे से कन्धा मिलाकर 
खड़े होने की बराबर जगह..................
 
 
 
 
विद्या पीठ

न बताना भी एक अदा है 
न कहने की तरह 
यानी मना करना 
पर एकदम साफ़ मना करना नहीं 
कर पाना नहीं 
सवाल भी साफ़ नहीं 
जवाब की भरसक गुंजाइश नहीं 
कुछ भी दो टूक सच नहीं 
पांच टूक पोशाक नहीं 
जूता, छाता, टोपी, गमछा 
जनेऊ, लोटा 
संस्कारों की मर्दानी ठसक गयी
विद्यापीठों में स्त्री मुक्ति 
अब भी एक लड़ाई है 
पर न बताना 
वहां भी उम्र 
फॉर्म से बाहर
स्त्रियों के साथ भी
बिल्कुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम
मन की बातें 
कुछ मन में रख लेना भी एक अदा है 
और जैसे उम्र भी हो 
मन ही की बात
फॉर्म की लिखाई से बाहर
इसलिए वह इतालवी लड़की 
पूछती रह गयी 
पर मैंने केवल अपनी 
वह उम्र बताई 
जब ब्याही गयी थी 
वह भी दो साल घटा कर 
उनसे ताल मिलाने को 
जिनकी मैं जानती थी 
दो से ज़्यादा साल 
घटाई होती थी उम्र..................


मुद्रा 

उल्टे लटके होते हैं चमगादड़ घंटो 
यही होती है उनकी निद्रा की मुद्रा 
और दिखाई नहीं देती 
गुफाओं के अँधेरे में 
लेकिन इस कारण नहीं खुदवाये 
राजाओं ने गुफाओं में 
तंत्र सिद्धि के चित्र 
न मंत्र लिखे गए
सूर्य प्रकाश के स्वागत में 
वो समूचा चँदोवा 
जिसे आज भी हम 
सभ्यता कह 
सिंहासन पर बिठाते हैं 
हाथी की पीठ पर 
आहिस्ता चलता 
दर्शन का 
एक के बाद दूसरा 
सिद्धांत नहीं 
जिस की ज़मीन 
दरअसल फतह कर रहे थे 
घोड़े पर आये 
मुसलमान योद्धा..............


जल में स्थिर है मछली

घंटों बे टेक स्थिर होती है 
मछली जल में 
बुलबुले छोड़ती 
तलाशती नहीं थककर 
पानी की ज़मीन पर पाँव
एकदम कल खिलेगी 
कह देती है
फूल की कली 
पर असह्य लगता है इंतज़ार 
और सबकुछ 
जब वो कहता है 
झूठा है 
मेरा आलिंगन 
मुझे दरअसल प्यार नहीं उससे 
वह आश्वासन है 
सारी आरामदेह बातों का 
और प्रबंधकर्ता भी...............

(रेडियो पर प्रसारित, आकाशवाणी दिल्ली, इंद्रप्रस्थ चैनल, २०१४)


हज़ार सूर्योदय वाली आवाज़
हज़ार सूर्योदय थे उसकी आवाज़ में 
आसमान के सब तारों की चमक 
दुनिया के सब चन्द्रमाओं की ठंढक थी उसमें 
दिक्कत ये थी कि इतनी कम करता था बातें वो मुझसे 
उन सब लोगों की बनिस्पत 
जिनसे प्यार नहीं करता था 
या कि कहता था कि प्यार नहीं करता था 
करता था केवल मुझसे प्यार 
या कि कहता था 
समुद्र लरजता था उसकी इस बात में
या साथ साथ कई समुद्र लरजते थे 
जैसे एक साथ 
उसकी मेरी आँखों में 
ये जलकुम्भी से भरे तालाब कैसे बन गए 
उसके मेरे समुद्र 
कहाँ गयीं वो नदियाँ 
जो ताज़ा कर जाती थीं हमें 
लिए जीवन का सहज प्रवाह 
सतत प्रवाह?
कहाँ गयीं नदिओं सी हमारी भी बातें?
जबकि उसकी बातों में थे हज़ार सूर्योदय.......

                             पंखुरी सिन्हा





 
 
 
 
 
 
 
 
 

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