मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

कहानी

       संभावनाशील लेखिका चित्रा पवार की कहानी टाइपराइटर मानव जीवन संघर्ष को बेबाकी से रेखांकित करती है।कथादेश पत्रिका में प्रकाशित यह कहानी इन दिनों चर्चा में है।आइए पढ़ते हैं चित्रा की कहानी....



                                                                टाइपराइटर


शहर की कचहरी को आप संकट मोचन हनुमान का मंदिर ही समझिए ।
जहाँ दिन निकलते ही फरियादी लम्बी लम्बी कतारों में अपने दुःख दर्द का पिटारा लिए दौड़े चले आते हैं।
जो फरियादी अभी पहली या दूसरी बार ही यहाँ आए हैं उनका पिटारा कुछेक कागज या एक दो गिनती की फाइल वाला दुबला पतला सा रहता है और फरियादी हट्टा कट्टा। परंतु जो फरियादी इस दरबार में वर्षों से अर्जी लगा रहे हैं उनके गाल पिचक कर जबड़े में धंस गए हैं और कमर धनुषाकार हो गई है। उनके जूते चप्पल अपने वजूद से मोटी सिलाई और गठाई के बलबूते हाँफते हुए बस जैसे तैसे दौड़ रहे हैं।
इन लोगों को देखकर मालूम होता है कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते–लगाते सिर्फ चप्पल जूते ही नहीं घिसते आदमी भी घिस जाते हैं। बड़े बुजुर्ग ऐसे ही नसीहत नहीं देते थे कि ‘कोर्ट कचहरी की सीढ़ियां जो आदमी एक बार चढ़ गया फिर नहीं उतरता भले ही उसके तन से कपड़े उतर जाएं, खेत बिके, घर बिके, आदमी राजा से रंक हो जाए पर मुकदमा पीछा नहीं छोड़ता, इसलिए जितना संभव हो इनसे बचने में ही भलाई है’।
  कुछ ऐसे भी महानुभाव हैं जिन्होंने कचहरी की आजीवन सदस्यता ग्रहण कर ली है कचहरी के दरवाजे पर हर रोज सांझ सवेरे हाजिरी लगाना अपना धर्म समझते हैं। इनका झोला देखकर देखने वाले के मन में एक बारगी यह संदेह जरूर उत्पन्न होता है कि यह कोई कबाड़ी वाला तो नहीं है कुछ लोग दया दिखाते हैं, “हाय !!! बेचारा कितना गरीब है ! रद्दी रखने को रेहड़ा तक नहीं खरीद सकता, इतना बोझ सिर पर ही ढो रहा है” ।
कुछ सीधी साधी घरेलू स्त्रियां तो रद्दी का भाव तक पूछ डालती है, हद है क्या कहा जाए ! ( माफ कीजिएगा, कचहरी की संगत में मुझे बड़बोलेपन की लत पड़ गई है ।)
अब वो बेचारी भी क्या जाने समझे कोर्ट कचहरी के चक्कर ...!
सुबह कचहरी शुरू होते ही वकील और उनके चेले देवी देवताओं को मन ही मन मनाते, काला परिधान धारण किए अपनी अपनी गद्दियों पर आकर जम जाते हैं ।
देखिए तो जरा इन कानून के जानकर भाई साहब को,; कैसे नजर का तोर चीते जैसा होने पर भी बड़ा सा चश्मा आँखों पर चढ़ा कर यूँ फाइलों में गर्दन गाड़े बैठें हैं गोया किसी बहुत गंभीर और पेचीदा मसले में उलझे हो।
क्लाइंट की उन्हें कोई चिंता ही नहीं रहती क्योंकि गेट के बाहर घूमते उनके गुर्गो का काम ही मुर्गे फसाने का है।
इनकी विशेषज्ञता इस बात में है कि इन्हें फेस रीडिंग में महारत हासिल है।
आने वालों का मुँह देखते ही एक पल में झट से ताड़ लेते हैं कि परेशानी और जेब का आकार प्रकार कितना है। पोशाक और गाडी देखते ही दिमाग में सेट बही खाता तुरंत लाभ हानि का जोड़ घटाव करने लगता है।
चेले कान में आ कर फुसफुसाते हैं,” साहब कोट वाला आदमी चार चक्का से आया है ,वो भी सियाज में बैठकर....अरे साहब मारुति सियाज एस है इस मोटे के पास ... बारह लाख की गाड़ी रखता है तब तो जरूर कोई मोटी चिड़िया होगी...!
“अबे साले बकबकाता ही रहेगा या पकड़ कर भी लाएगा...जा जल्दी दौड़कर जा, नहीं तो चौधरी जी के संतरी,मंत्री, प्रधानमंत्री बिनोदवा ने देख लिया तो खिसकने नहीं देगा”
हा हा हा हा..... दोस्तों सुबह से लेकर साँझ तक दिन में न जाने ऐसे कितने ही रोचक सीन देखता हूं मैं ...
धत्त तेरे की...!
मैं कौन ...
यह बताना तो मैं भूल ही गया
अच्छा ठहरिये... ठहरिये बताता हूं...
सुनिए दोस्तों मैं वही जिसकी आवाज कचहरी से सौ कदम दूर से ही सुनाई देने लगती है, मेरी.. टक टक टक टक की आवाज सुनकर निपट अंधा आदमी भी कचहरी का पता बडी आसानी से बता सकता है।
कुछ समझे ...अरे भई टाइपराइटर…मैं हूं टाइपराइटर,, जिसके बिना कचहरी वैसी ही है जैसे जल बिन मछली!!
मैं यहाँ अपने उस्ताद गनपत नरायन के साथ बरामदे के ठीक सामने गोलाई में फैले घनी मीठी छांव वाले नीम के नीचे पैंतीस बरस से बैठता आ रहा हूं। उस्ताद इलाहाबाद के बासी ठहरे, बाप हरदेव पासी की बाबा वकीलों से किसी बात पर लंबी ठन गई, इलाहाबाद जैसे शहर में पंडितों से एक पासी का आँख में आँख डालकर बात करना शहर बदर कर गया। मजबूरन बाप बेटे कुछ जरूरी समान और मुझे लेकर सपरिवार पछाई के इलाहाबाद यानी मेरठ शहर में आ बसे। मेरठ में हाईकोर्ट भले ही ना हो लेकिन रुतबा और केस दोनों हाईकोर्ट से छटाक भर भी कम न थे, फिर यहां का बार एसोसिएशन हाईकोर्ट बेंच के लिए दिन रात सरकार की नाक में नकेल डाले हुए हैं एक ना एक दिन बेंच मंजूर होते ही इलाहाबाद से कम थोड़े ही रहेगा अपना मेरठ।



बाप–बेटे मेहनती थे ही, पत्थर से पानी निकालना बखूबी जानते थे। कुछ ही दिनों में धंधा चल निकला।
कचहरी के गेट में घुसते ही दिखाई पड़ता है नीम का विशालकाय पेड़, उसकी मोटी डाली पर लटका बोर्ड आपको हमारे तक आसानी से पहुँचा देगा, बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा है “अपनी चौकी नीम तले वाले गनपत जी टाइपिस्ट ”
उसके नीचे बारीक अक्षरों में लिखा है।
‘हमारे यहाँ टाइपिंग उचित दाम पर होती है’। तो फिर देर किस बात की हमसे मिलने घूमते टहलते चले आइए किसी दिन मेरठ कचहरी में!
गनपत नरायन सिर्फ मेरे ही उस्ताद नहीं हैं बल्कि अगल बगल बैठे टोटल बयालीस टाइपिस्टों के भी उस्ताद हैं।
उनकी उंगलियाँ चलती नहीं हैं नाचती हैं मियाँ ... यूँ थिरकती हैं जैसे कोई खूबसूरत नर्तकी बिजली की गति से नृत्य कर रही हो।
एक माँ जैसे अपने बच्चे की एक –एक रग जानती है ठीक वैसे ही उस्ताद भी मेरे सत्ताईस सौ से ज्यादा कल पुर्जों से भली भांति परिचित हैं। मेरे अंगों को यूँ नर्म कपड़े से पोंछते हैं जैसे में धातु से बना कोई मशीनी उपकरण ना होकर हाड मांस का नाजुक सा बदन वाला उनका अपना बच्चा होऊं।
अगर कोई गलती से भी कह देता, “अरे गनपत स्वामी कब तक चलाओगे इस पुराने औजार को अब तो नया खरीद लो, खटारा हो गया है... अब बेच भी डालो इसे किसी कबाड़ी वाले को”।
उस्ताद तिलमिला जाते हैं बर्दाश्त नहीं है उन्हें की कोई मेरी शान के खिलाफ़ एक शब्द भी कहे ।
मेरा और मेरे उस्ताद का रिश्ता बिलकुल सुल्तान और बाबा भारती जैसा है। बाबा भारती जब सुल्तान की गर्दन सहलाते तो सुल्तान ख़ुशी से हिनहिना उठता, ठीक वैसे ही जब मेरे उस्ताद की उंगलियां मेरे बदन को छूती हैं तो मैं प्रफुल्लित होकर टका टक दौड़ने लगता हूँ ।
मैं पैंतीस बरस से लिख रहा हूं उस्ताद का दिमाग ,वो सोचते जाते हैं और मैं लिखता जाता हूँ ऐसी बारीक समझ है हमारे बीच की कहीं एक ही शरीर के अंगों के बीच भी ऐसा तालमेल ढूँढे से न मिलेगा। उनकी उंगलियों के पोरों को छूकर बता सकता हूँ कि आज उस्ताद का मिजाज कैसा है।
जब उस्ताद खुश होते हैं उनकी उंगलियाँ मुझे यूँ छूती हैं मानो पियानो बजा रही हो मेरी कानफौडू टक टक की आवाज में न जाने कहाँ से इतनी मधुरता आ जाती है संगीतमय हो जाता है मेरा स्वर...
वैसे तो तीन दशक के साथ में ऐसी मधुरता लिए पल न जाने कितनी बार आये होंगे, ठीक से याद भी नहीं पड़ता। लेकिन कुछ पल आज तक मेरे जेहन में ज्यों के त्यों छपे हैं जैसे कल की ही बात हो, जब उस्ताद की शादी हुई थी उस समय कई माह तक मैं पियानो सा बजता रहा था, सिलाई कढ़ाई में निपुण हमारी नई नवेली भाभी जी ने मेरे लिए भी दो पोशाक बनाई थीं, एक मोरनी रंग की जिस पर सफेद और जामुनी रंग के रेशमी धागों से भरमा कढ़ाई से चमेली के फूल बने थे।
और दूसरी पोशाक पीले रंग की, जिस पर हरी जंजीर की कढ़ाई से गेहूं की बालियां बनी थी
जिन्हें पहन कर में उबड़ खाबड़ मशीन से एक दम किसी संग्रहालय में रखा कीमती सजावटी सामान सा लगने लगता। शाम के समय जब उस्ताद दुकान बढ़ाते मुझे बक्से में रखकर कपड़े से ढक देते या फिर दिन में थोड़ी बहुत देर के लिए कमर सीधी करनी होती तब कपड़ा ओढ़ा देते, मैं अपने दूसरे साथियों को मुँह चिढ़ाने लगता। उन सबके बीच में मैं अपने आप को राजा समझने लगता और उन सभी को अपनी प्रजा…
हाँ तो हम बात कर रहे थे उस्ताद के खुश होने की !
उस्ताद की पहली संतान के जन्म के समय भी हम दोनों साथ–साथ खुशी से झूमे थे, लयबद्ध होकर गुनगुनाए थे।
 मुझे आज भी याद है उस दिन उस्ताद ने पूरी कचहरी में पेड़े बांटे थे और मेरा रिबन, जो अभी दो महीने पहले ही बदला था उसे भी उस्ताद ने ख़ुशी में पहले ही बदल दिया था, और लगे हाथ सर्विस भी करा दी थी रिबन बदलते हुए कह रहे थे, “बिटिया हुई है ख़ुशी का दिन है तू भी खूब चमकीला लिख और खूब चमक”..
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है उस्ताद की उँगलियों की बेचैनी से मुझे यह भांपने में देर न लगी कि आज उस्ताद की मनोदशा कुछ ठीक नहीं है ।
मैं बेचैन हो उठा सुबह से दोपहर होने को आयी मगर अभी तक उस्ताद की उदासी रहस्य बनी हुई थी। वही उंगलियाँ जो कभी एक हिज्जा तक गलत न करती आज पूरी की पूरी लाइन गड़बड़ कर रही थीं।
न जाने आज क्या हुआ है उस्ताद को !कैसे मालूम पड़े!
भगवान का शुक्र है कि ढलती दुपहरी तक बगल वाली कुर्सी पर बैठे रामजी काका की नजर अनमने से बैठे उस्ताद के चेहरे पर पड़ गयी ।
रामजी काका ने मशीन रोक दी कुर्सी से उठकर उस्ताद के सामने आ खड़े हुए।
गनपत कोई बात है क्या?
नहीं कुछ नहीं!
“अरे भाई अब बताओगे भी की क्या हुआ, सुबह से गुमसुम बैठे हो, न दुआ सलाम, न हाल चाल, कोई बात ही नहीं कर रहे हो, बस जब से आये हो जुबान पर ताला मारे बैठे हो”।
“कोई बात नहीं है काका, मुझे काम करने दो और आप भी काम करो”।
“काम होता रहेगा, उठो अभी”,
रामजी काका ने उस्ताद का हाथ पकड़ लिया।
रामजी काका का इतने हक और अपने पन से पूछना उस्ताद के सब्र के बाँध को तोड़ गया।
फफक कर रो पड़े
“बेटी की सगाई और गोद भराई में चार लाख से अधिक रुपया खर्च हो गया, दहेज का जो भी समान था सब सगाई में ही लड़के वालों के यहाँ पहुंचा दिया था”।
“अरे तो क्या हुआ पुरखों के बनाए रीति रिवाज हैं बेटी का बाप अपनी बित से बाहर जाकर खर्च करता ही है, तुम पैसे के लिए रो रहे हो ...” रामजी काका उस्ताद के सर पर हल्की सी चपत लगाकर ठहाका मार कर हँसने लगे ।
“अब लड़का शादी के लिए मना कर रहा है”, उस्ताद ने धीरे से कहा और आँखें गहरी मूँद कर आँसुओं की एक लंबी लड़ी टपका दी ।
यह सुनकर रोया तो मैं भी था पर मेरे आंसू मेरी पथरीली कटी फ़टी दरारों वाली काया में जाकर समा गए।
रामजी काका का मुँह खुला का खुला रह गया।
इस घटना के बाद उस्ताद महीनों उदास रहे।
चेहरे की चमक उस दिन लौटी जब एक बीडीओ साहब ने उनके समक्ष उनकी लड़की की काबिलीयत पर मोहित हो कर बिना दहेज की शादी का प्रस्ताव रखा दिया, दरअसल बीडीओ साहब हमारे उस्ताद की बेटी को जेएनयू में पढ़ाई के दिनों से ही जानते थे वे वहाँ उस्ताद की बेटी से दो साल सीनियर थे। लड़की का बढ़ चढ़ कर आंदोलनों में भाग लेना, सही गलत बातों पर बेबाकी से अपना पक्ष रखना और यूनिवर्सिटी में अव्वल आना उस पर मोहित हो जाने के लिए पर्याप्त था लेकिन बीडीओ साहब अपने दिल की बात तब तक न कहना चाहते थे तब तक की एक बेटी के बाप को उसकी बेटी का अच्छे से ख्याल रखने का भरोसा न दे सकें।
लग गए सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में।
जैसे ही पी सी एस का फाइनल रिजल्ट आया अगले ही दिन उस्ताद के दरवाजे पर आ जमे और दिल का सारा हाल कह सुनाया। उस्ताद ने रसोई की चौखट पर खड़ी अपनी बेटी की तरफ देखा, पिता से नजरे मिलते ही उसने मुस्कुरा कर गर्दन झुका ली।
बस देर किस बात की थी उस्ताद ने रिश्ते के लिए हाँ कर दी।
पढ़े लिखे संस्कारी दामाद ने ज्यादा चटक मटक को तवज्जोह न देकर सादगी से गिनती के बारातियों के साथ आ कर विवाह कर लिया।
बिदाई के समय उस्ताद रामजी काका के गले लगकर खूब रोये ...
होने को तो विवाह में पूरा घर खानदान इकट्ठा था।
परंतु रिश्तेदारों से ज्यादा आत्मीयता मित्रों के साथ बन जाती है।
उस्ताद जानते थे कि इस समय उनकी मनोस्थिति रामजी काका से बेहतर और कोई नहीं समझेगा।
समझने को तो मैं सबसे बेहतर समझता हूं लेकिन उस्ताद के घर नहीं जाता हूँ न, उस्ताद रोज शाम को मुझे यही कचहरी के एक कमरे में बक्से के भीतर बन्द करके रख जाते हैं।
अगर उस समय उस्ताद के सामने मैं होता तो बिला शक रामजी काका की जगह उस्ताद मुझसे लिपटकर रोए होते।
कचहरी में इतने बरसो के साथ में हमने खूब सुख दुःख का समय देखा, तिल के ताड़ बनते देखे, भावनाओं की सौदेबाजी देखी (कभी कभी लगता कि यह कचहरी न्याय की चौखट न होकर कोई अंधी सुरंग है जिसमें आदमी एक बार अगर भूले से भी कदम रख दे तो फिर यह सुरंग उसे निकलने का रास्ता ही नहीं देती आदमी अंदर गया नहीं की सुरंग का दरवाजा बन्द)
नौजवान लड़के देखे जो नौकरी के लिए एफिडेविट बनवाते, शपथ पत्र बनवाते, परेशान हो इधर उधर दौड़ते रहते।
वारिस प्रमाण पत्र, वसीयतनामा, प्रार्थना पत्र, जमीनी हेर फेर के कागज, सरकारी अमले से पीड़ितों की अंतहीन व्यथा, दाखिल खारिज के दस्तावेज, तजबिशानी, बड़े नेताओं, बिजनैसमेनो का रिवाल्वर पिस्टल के आवेदन–पत्र, राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी, आईजीआरएस, न्यायालय का काउंटर या रिट आती तो अधिकारियों के अर्दली सीधे उस्ताद के सामने आ खड़े होते उस्ताद ऐसा जवाब लिखते की कोई बड़े से बड़े कानूनची भी उसमें लिखे को कहीं से कहीं तक काट न सकता था और भी न जाने क्या–क्या और किस–किस की व्यथा लिखते पढ़ते हम दोनों इन बरसों में न जाने कितनी बार साथ–साथ रोये, साथ–साथ हँसे थे।
हम दोनों सुबह काम में लगते तो फिर पूरे दिन कतार न टूटती, एक तो उस्ताद का काम फुर्तीला और साफ़ सफाई का ...दूसरा किसी को लूटते न थे, जो जायज था वही लेते।
कभी एक कहावत सुनी थी की “कमेरे कु काम दिक्खै अर आलसी कू खाट”।
यह कहावत हम दोनों पर चरितार्थ होती, छुट्टी वाला दिन बक्से में बंद पड़े–पड़े काटे नहीं कटता, एक–एक क्षण पहाड़ जैसा लगता, वही स्थिति उस्ताद की होती छुट्टी के अगले दिन और दिनों से एक घण्टा पहले ही हाजिर हो जाते।
ऊपर से वकीलों की आये दिन की हड़ताल।
वकीलों की हड़ताल मतलब वकालत बन्द, वकालत बन्द तो जिरह कौन करें इस चक्कर में कोर्ट बन्द, कोर्ट बन्द तो फरियादियों का आना बंद, फरियादियों का आना बंद तो दोस्तों हमारी टक टक भी बंद ...।
उस्ताद आग बबूला हुए खूब बरसते वकीलों की बात बेबात की हड़ताल पर।
रामजी काका ठहरे ठन्डे दिमाग के आदमी, मुस्कुरा कर कहते, “अरे भाई बार का तो काम ही बहिष्कार करना है, ठीक है इसी बहाने दो चार दिन हमारे हाथ भी सुस्ता लेते है”।
वैसे भी मुझे चलाने वाले व्यक्ति मेडिटेशन के भी मास्टर हो जाते है, उनके दिमाग में जो चलता है हाथ साथ के साथ कागज पर उतारते रहते है, ध्यान हटा नहीं की लो हो गयी लाइन गड़बड़ ...
मुझे चलाने वाला बस अपने में मग्न हुआ पूरी दुनिया से बेफिक्र बस सोचता और लिखता रहता है।
उसकी इस योग साधना में मेरा भी कम योगदान नहीं है।
मेरी आवाज किसी बाहरी शोर शराबे को उनके आस पास फटकने तक नहीं देती, जिससे उनकी एकाग्रता भंग हो।
शायद मेरी यही खूबियां हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी भाप गये होंगे तभी तो उन्होंने गोदरेज से देश में ही मेरा निर्माण करा लिया था। वैसे भी कुछ व्यक्तियों का कहना है कि मैं बहुत बेसुरा हूं किसी को मेरी आवाज से माइग्रेन की समस्या होती है तो किसी को नींद नहीं आती।



इन पैंतीस सालो में मैंने भी कचहरी की धूल ऐसे ही नहीं फांकी है कुछ कानून मैं भी जानता हूं।
मैं इन सभी आरोपों को शिरे से खारिज करता हूं उसके पक्ष में मेरे पास मजबूत तर्क है, पूछिये मार्क ट्वेन से की अगर मेरी आवाज से व्यवधान होता तो क्या वह टॉम स्वायर जैसी कालजयी रचना मेरी बटनों पर लिख पाते ?
या फिर दुनिया के दूसरे महान लेखक जैसे मण्टो, रस्किन बांड या फिर कुंवर नरायन मेरी खटर पटर के साथ क्यों लिखना पसन्द करते, लेखकों का उदाहरण यहाँ मैंने इसलिए दिया क्योंकि लेखन चिंतन मनन का विषय है जिसके लिए एकाग्रता नितांत आवश्यक है।
सो दोस्तों इस बेबुनियाद आरोप से तो हम टाइपराइटर बा इज्जत बरी होते हैं।
अब लौटते हैं अपनी कहानी पर, यानी की उस्ताद गनपत नरायन और उनके टाइप राइटर यानी की मेरी कहानी पर।
उस्ताद की उम्र अब साठ पार हो चली है। ऊपर से काम का इतना दबाव, कभी–कभी तो बीपी भी अचानक ऊपर नीचे चला जाता है।
कई बार संगी साथी टोक देते हैं अरे भाई अब वह उम्र नहीं रही जब चौबीसों घण्टे काम करके भी गात की फुर्ती ज्यो की त्यों बनी रहती थी, क्या हाल बना रखा है अपना, कम काम किया करो अब सुस्ताने की उम्र है इतना काम का बोझ लेना ठीक नहीं ...
चाहते तो उस्ताद भी थे कम काम करना, मगर घर के हालात, ऊपर से जवान लड़के का बेफिक्र घूमना फिरना।
घर की पूरी जिम्मेवारी बूढ़े कंधों पर ही थी।
 लड़के को कई बार कचहरी साथ लेकर आये, डाँट डपट कर बैठाया भी, खूब कोशिश कि किंतु सब अखारत ,, जिस काम में इंसान अपनी तौहीन समझता हो उसे भला क्यों करने लगा, आखिर जोर जबरदस्ती से कितने दिन साथ बैठाते।
नौकरी भी बंधी बधाई तनख्वाह वाली न थी दिन भर टक टक करते तब जाकर कही सांझ तक चार सौ, पांच सौ कमा पाते, फिर साल में मेरी जरूरत भी दो सर्विस की हो गयी थी मैं तो जैसे तैसे एक सर्विस से ही गुजारा कर लेता लेकिन उस्ताद न मानते, “कहते तेरा सहयोग है तो दो रोटी में कमी नहीं, तुझे कुछ हो गया तो समझो मेरे हाथ ही टूट जाएंगे, इस उम्र में माँ बाप को बेटा कमा कर खिलाता है, हमारा तो तू ही बेटा है घर तेरी कमाई से ही चलता है”।
इसी तरह दिन कट रहे थे उसी कचहरी के माहौल में, नरमी–गर्मी, धूप–छाव वाले दिन।
अपने प्रति बेपरवाही और काम की अधिकता के कारण दिन ब दिन उस्ताद की तबीयत गिरती जा रही थी।
पूरा दिन खांसते रहते, हल्का बुखार भी चौबीसों घण्टे बना रहता।
मुझसे उनका यह हाल देखा न जाता, पिंजरे में बंद पक्षी सा फड़फड़ा कर रह जाता हूं।
अपने आप से चिढ़ होती, काश यह मशीनी काया बोल सकती तो उस्ताद को खूब खरी खोटी सुनाता जबरदस्ती अस्पताल भेजकर जांच कराता, उनसे कहता चलो ,,घर ले चलो मुझे जो भी थोड़ा बहुत काम मिले वही बिस्तर में बैठकर करना। अगर काम नहीं भी मिलेगा तब भी कोई बडी बात नहीं, भले ही यह कंप्यूटर का जमाना हो मगर आज भी बहुत से ऐसे युवा है जो नौकरी की मांग या शौक के लिए ही सही टाइपराइटर चलाना सीखना चाहते हैं और फिर आप तो उस्ताद है आप से बेहतर कौन सीखा सकता है देखना कुछ ही दिनों में दूर दूर तक के बच्चे आने लगेंगे। तुम्हारे पास सिखाने का समय भी न होगा, और जब स्वस्थ हो जाना फिर आ जमेंगे यही ‘अपनी चौकी नीम तले कचहरी वाले गनपत जी’ वाले अपने पुराने ठिकाने पर ..”।
साल दो साल के भीतर ही बीमारी अपने परिणाम साक्षात् दिखाने लगी। लगभग बासठ, तिरसठ की उम्र में ही उस्ताद अस्सी पार के बुड्ढे दिखने लगे।
कहां बिना नागा किए नित नेम से अपनी चौकी पर हम दोनों जमे रहते, आंधी, बारिश, सर्दी, गर्मी किसी भी मौसम में उस्ताद काम से छुट्टी न करते, कुछ वकील ठिठोली करते, लो भैया भले ही मेघ ऊक जाए पर क्या मजाल की गनपत की चौकी खाली दिख जाए।
शरीर की दुर्बलता बढ़ती ही जा रही थी, कई–कई दिन तक बिस्तर में मुंह दिए पड़े रहते, यहाँ में बक्से की दीवार से कान लगाए पूरा दिन राह ताकता रहता कि शायद उस्ताद की कुछ खबर मिले, या फिर उस्ताद ही चले आएं किसी दिन।
थोड़ा भी आराम मिलता तो दो चार दिन में उस्ताद कचहरी दौड़े आते ,, मुझे बक्से से निकलवा कर घण्टों साफ़ सफाई के बहाने दुलारते रहते, भरे भरे गले से न जाने अंदर ही अंदर क्या बड़बड़ाते फिर गर्दन नीची कर गमछे की किनोर से आँखें पोंछ लेते।
हम दोनों गले तक भर जाते, इतना लंबा सफर एक साथ तय किया था हमने, मुझे ऐसा कोई दिन याद नहीं आता जिस दिन उस्ताद ने कभी मेरी देख रेख में कोई कोताही की हो, कभी तेजी से उठाया पटका नहीं, हमेशा झाड़ पोंछ कर साफ़ सुथरा रखा...
मैंने भी कहां कमी की थी दौड़ते दौड़ते हाँफ जाता था पर कभी हार नहीं मानी, हमेशा इसी कोशिश में लगा रहता की थोड़ा और तेज चलूँ, आज दो चार रुपये की ओर अधिक कमाई हो जाए।
कदम से कदम मिला कर चले साथी का पीछे छूटना, मुझ हृदयहीन के न जाने किस भावनात्मक पुर्जे में हुक सी उठा देता।
धिक्कारता खुद को आखिर क्या मिला उस्ताद को इतने बरस तक मेरे साथ रहकर !! वही अभाव की पैबन्द लगी जिंदगी…!!
मात्र अभाव अथक परिश्रम के उपरान्त भी विपन्नता, करोड़ों शब्द लिखने वाला, लाखों लोगों का जीवन बदलने वाला एक टाइपिस्ट जिंदगी भर दो वक्त की रोटी में उलझा रहा ।
वही साधारण खान पान, पोशाक।
मुझे तो याद नहीं पड़ता की उस्ताद कभी डब्बे में चार रोटी और आधी कटोरी सब्जी से अलग कोई पकवान, मेवा मिष्ठान ले कर कचहरी आये हो।
अब फरियादी खाली चौकी देखकर लौट जाते किसी दूसरे टाइपिस्ट के पास। सप्ताह दस दिन में उस्ताद बैठते भी तो पूरा दिन मक्खी मारते, पहले जिस आदमी के पास दम भरने तक की फुर्सत न थी अब वह ठाली बैठे दूसरों का मुंह देखता रहता। ग्राहक नियमित होता है किसी से बंध गया तो फिर जल्दी नहीं टूटता। उस्ताद के बंधे हुए ग्राहक टूट कर दूसरे टाइपिस्टों से जुड़ चुके थे।
जो दूसरों से बच जाता वह एक आध काम ही अब उस्ताद के पल्ले पड़ता।
इसी उदासी में गर्मी ,बरसात और शरद् बीत गए। शुरूआती सर्दी तेवर लेकर आई।
जाता अगहन बारिश ओला बरसा कर हड्डियों में जाड़ा भर गया।
उस्ताद पूरे पूस माह कचहरी नहीं आये।
तरह तरह की आशंकाएं मुझे भयभीत कर जाती, लाख जतन करने के बाद भी उस्ताद की कहीं से कोई खोज खबर न मिलती।
रामजी काका भी कुछ दिनों से तहसील छोड़ दीवानी में अपने लड़के के साथ बैठने लगे थे।
और कोई ऐसा न था जो उस्ताद से हमदर्दी रखता हो सब मुंह देखी पर भलमन साहत दिखाने वालों में से थे।
होली के आस पास एक दिन रामजी काका की आवाज सुनाई दी।
मैंने तुरंत बक्से की दीवार से कान सटा दिए। हर्ष विषाद, अनजान भय से मिश्रित भाव मेरे भीतर हिलोरे मारने लगे।
मैं उस्ताद की आवाज सुनने को बेचैन हो उठा, बदन उनकी उँगलियों की छुअन पाने को कुलबुलाने लगा।
रामजी काका ने कमरे में किसी से बात करते हुए प्रवेश किया ,...“लो भाई, यह रहा तुम्हारे पापा का बक्सा”, यह कहकर काका ने साथ आए व्यक्ति के हाथ में बक्से की चाबी थमा दी।
...उनके साथ में उस्ताद का बेटा आया था
मैं पूछना चाहता था ! उस्ताद कहां हैं...!!और ...!!और ...यह क्यों आया है यहाँ, उस्ताद क्यों नहीं आए, क्या अब उनका जी नहीं चाहता मुझसे मिलने को, क्या भूल गए उस्ताद अपने इस मशीनी बेटे को”..???
लड़के ने बक्सा खौला, उस में से मुझे उठाकर फर्श पर लगभग फेंकते हुए पटक दिया।
बक्सा टटोला कुछ बुदबुदाया, “स्टेपलर, खाली स्टाम्प पेपर, इंक पैड, पेन, सिक्के, कॉपी सब काम का समान है...”।
कहते हुए बक्सा बन्द कर हाथ में उठा लिया।
“अरे बेटा यह भी रख लो, देखो छूट गया”, रामजी काका ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा।
इसका क्या करूँगा काका, कबाड़ है ,, कबाड़.. आप ही कबाड़ी में बेच देना, अब पापा तो रहे नहीं ...।
यह मेरे किस काम का..कम्प्यूटर का जमाना है काका ,कम्प्यूटर का,कौन इसमें अपना माथा फोड़े..”।
कहते–कहते लड़का सरर्रर से कमरे के बाहर निकल गया।
मैं जमीन पर पड़ा गनपत नरायन का अनाथ पुत्र उनके जाते की कबाड़ हो गया...जीवन भर न जाने कितनों का दुःख दर्द, कितनों की व्यथा में उनकी जबान बना रहने वाला यह टाइप राइटर आज समझ पाया कि मैं तो बेजबान हूं। महज एक मशीन यह भी पुरानी ,आउटडेटेड ,एक्सपायरी...!!!
आदमियों से खचाखच भरी इस कचहरी में जिस चौकी की मैं और मेरे उस्ताद कभी शान हुआ करते थे।
 वह चौकी वीरान पड़ी है पतझड़ में नीम के सूखे पत्ते उस के ऊपर उदास और निढाल पड़े हैं।
वह दफ्ती हवा में फड़फड़ा कर करुण स्वर में कुछ विलाप करती प्रतीत हो रही है जिस पर लिखा है,“अपनी चौकी नीम तले वाले गनपत जी टाइपिस्ट, हमारे यहां टाइपिंग उचित दामों पर होती है”।

                                                                                                                                                  चित्रा पंवार




संक्षिप्त परिचय
नाम– चित्रा पंवार ।
पता– गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश।
संप्रति– अध्यापन ।
साहित्यिक यात्रा –प्रेरणा अंशु, ककसाड,  दैनिक जागरण, कथादेश, वागर्थ, सोच विचार, रचना उत्सव, गाथांतर, अरण्यवाणी आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं, तथा कई साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ।

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रकाशन योजना के अंतर्गत ‘दो औरतें ’ नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।

संपर्क सूत्र – chitra.panwar20892@gmail.com

1 टिप्पणी: