शनिवार, 24 दिसंबर 2022

कविताएँ

                                              रवि शंकर सिंह की कविताएँ





       (1)
किस्सा बच्चों का
------
तेज धार -सी
हड्डियों को छेदती
इन सर्द हवाओं से बचने के लिए
आओ घेर लो
इस अलाव को

बचपन की बहुत सारी कहानियाँ
जुड़ी हैं इस आग से
कहा था एक बार
एक किस्सागो में
हमारा ईश्वर कैद है
किसी अजाने मुल्क में
जिसे आज तक 
छुड़ा नहीं पाया किसी ने
उनकी शर्तों के मुताबिक

कितना फर्क है आज
जब हम समझते हैं झूठ -सच को
तब कोई किस्सागो
मनगढ़त कहानियाँ नहीं सुनाता
यह कहकर
साफ मना कर देता है
कि तुम एक देशद्रोही हो

छोड़ों बच्चों
बताओ 
क्या सुनाऊँ तुम्हें
उस जंगल की कहानी
जहाँ से विस्थापित हो गये जानवर
पेड़ काट दिये गये
जला दिये गये पत्ते
मोड़ दी गयीं
नदियों की राहें
पहाड़ का सीना चीरकर

कहना भी नहीं
सुनाने को उस राजा की कहानी
जिसने कर के रूप में
लाया था ऐसा कानून
खून देने की घोषणा की गयी थी
जनता को खून से
देश की लचर आर्थिक व्यवस्था को
मजबूत बनाने की
शपत ली गयी थी
उनसे माँगा गया था
प्रत्येक घर से थोड़ा -थोड़ा राष्ट्रवाद
और इंकार करने पर
दुश्मनों के लश्करों में 
जाने का दिया गया तथा आदेश

क्या देख रहे हो बच्चो
बिल्कुल आसमान साफ है
चाँद -सितारे छुपे हैं बादलों में
दादी की कहानियों के देवी -देवता
अब नहीं आते धरती पर
हर एक हत्या का 
गवाह होते हैं देवी-देवता
जो ऊपर से देखते हुए
नहीं उतरते जमीं पर
अदालत में गवाही देने
आखिर किससे डरते हैं
आखिर वह कौन है
जो खत्म कर देगा उनका अस्तित्व

क्या सुनाऊँ
उस जादूगर की कहानी
जो रहता है
एक बड़े से सोने के महल में
महल की सुरक्षा में
बड़े-बड़े आदमखोर हैवान खड़े हैं
खेल दिखता है दिन में
और रात में
गायब कर देता है उनके
गाँव -शहर को

मैं कोई कहानियाँ नहीं सुनाऊँगा
जिसमें राजा-रानी ,जादूगर और कोई जंगल हो
मिटा दो उन कहानियों को
खुद बनो कहानी का हिस्सा
और बन जाओ नायक
खुदमुख्तारी ही बचा सकती है
तुम्हारा बजूद !

(2)

उड़ान
-----
कोशिश करता हूँ समझने की
क्या है
मेरे अंदर जो हलचल पैदा कर रहा

उसके चले रास्ते पर
उगे पावों के निशान को
क्यों तलाश कर
रंग भरता हूँ उनमें
लाल,हरे ,गुलाबी
नापता हूँ अपने पैरों से
उनके रंग -बिरंगे पैरों के आकार

कक्षा में व्यख्यान देते हुए
भूल जाता हूँ विषय-वस्तु 
और ढूंढ़ने लगता हूँ
किताबों में रखी 
फूल की सूखी पंखुड़ियों में
उसकी देह की महक

किसी दिन
पंछी बनकर
उतर जाऊँगा धीरे -धीरे 
उसकी आत्मा के वृक्ष पर
वहीं मैं छोड़ दूँगा
 थोड़ा -सा पंख !
(3)
 शिकार
-----
सांसों को रोकना
कुछ देर जरूरी लगता है
इससे अंदाजा लग सकता है
कितनी देर
अगर नदी में डूबने लगे 
तो जिंदा रह सकते हैं

जटिल समय में
प्रयोग जारी रखना
समय के साथ चलना माना जाता है
इसके कई प्रमाण
विशेषज्ञों की फाइलों से
आजकल झाँक रहे हैं

जो कभी पानी मे उतरे नहीं
उनका विश्वास है
साथ मजबूरी भी
इससे तो कम-से -कम 
नदी में बहते हुए जीवों
के बारे में समझ लेंगे
हुनर सीख लेगे
पानी में हाथ-पैर चलाने की
पत्ते पर तैर रही चींटियों से
बतिया लेंगे कुछ पल
कि उसने कैसे बनाई है पत्ते की नाव

सीखने के दरमियाँ भूल गया
कि मैंने देखा था
नदी को पैरों से नापने वाले का 
अचानक एक पैर
मगरमच्छ का निवाला बनते

हमें बताया गया
ज्ञान फर्जी था
मुझे पता तब चला
जब नदी के तट से
इस वारदात को देखा

गरीबों की चमड़ियों से बनी नाव में
बैठा मलाह
ही कातिल था
ना जाने कितने लोगों को
डूबा दिया बीच में

नदी को पार करने के लिए
भाड़े की बोली लग रही थी वहाँ
उनके दिमाग में उपजा गलत सवाल
मेरे सामने सपना बनकर उभर रहा था
और मैं गलत सपने का शिकार बन बैठा !






(4)

लौट आओ
-----
लौट आओ
सम्हालों अपने साम्राज्य को
जब से तुम गये हो
वे तुमसे धीरे-धीरे रूठ रहे हैं
जिन्हें तुमने बसाया था अपनी हाथों

देखता हूँ
उस नन्हें से पौधे को
जब भी उसके करीब जाता हूँ
मुझे निहारता है टकटकी लगाकर
मेरे आँखों में ढूंढता है
तुम्हारे आने की खबर
मेरी पलके छुपा लेती हैं
सच्चाई जिसे मैं कह नहीं पाता
क्या जवाब दूँ
उस नन्हें से पौधे को

जिसका इंतजार करते थे तुम
देखते थे रोज उसकी राह
वह डाकिया आया था कल
लेकर तुम्हारे लिए चिट्टी
वह चिट्टी तुम्हारे बिछड़े हुए दोस्त की है
जिसका जिक्र रोज करते थे तुम
चाय की चुस्की लेते हुए
कागज के टुकड़े में लिखे शब्द
जवाब माँगते हैं तुमसे
बोलो क्या लिखूँ ?

आकर देखो
खाली लगता है घर का कोना -कोना
अब तो दीवारों पर
दीमक लगने लगी हैं
कमजोर कर रहीं दीवारें

हवा में उड़ रहे धुल के कण
जमीन के फर्श पर
धीरे-धीरे उतर रहे हैं
और उससे बनी डरावनी आकृति
मुझे डरा रही

कैसे रोकूँ
इस फूहड़ अहसास को
जो मेरे हृदय में
रफ्ता-रफ्ता टिसटीसा रहा हैं

इस कंपकपाती ठंड में
मुठ्टी में क़ैद किये 
सीने से लगाये
सबकी राहत के लिए
लौट आओ ,लौट आओ मेरे दोस्त
थोड़ी -सी गर्मी लेकर

(5)

भटकाव
------
आजकल रात भी
जी चुराती मुझे देखकर

आधी रात को 
जब मेरी नींद टूटी 
सूरज सो चुका होता

बलरेज पर आकर देखता हूँ
आसमान की ओर
कि कहीं दिख जायें चांद-तारे

लेकिन आसमान ने
बादलों को चादर बनाकर
ओढ़ लिया है

ऐसी रात को नाम देता हूँ
शांत रात
गली में
आवाज भी नहीं आ रही कुत्तों के भौंकने की
सड़कों पर गुजरने वाली गाड़ियाँ
अपनी मंजिल पर पहुँच गईं जल्दी

अरे !पगली कहाँ गई
जो गंदी मोटरियों के साथ
सोया करती थी सड़क के किनारे
क्या हो गया है मुझे 
जो इन सबों को ढूंढ रहा हूँ मैं

अब जुगनू की चमक फीकी पड़ने लगी
लौटना चाहिए मुझे
काँटों भरे बिस्तर पर
वहीं सुनूंगा
मुर्गों के बोलने की आवाज !



परिचय
------
रवि शंकर सिंह
जन्म-04/01/1992
शिक्षा -स्नातकोत्तर (समाजशास्त्र),यू.जी.सी.नेट,पी-एच.डी.
प्रकाशन- एक कविता संग्रह 'बाकी सवाल'
जनपथ,वागर्थ ,समहुत, छपते -छपते,अमरावती मंडल,अहा! जिन्दगी ,नवलेखन अंक वागर्थ ,परिकथा ,कथा,करुणावती, इरावती ,रेवांत और हिमतरु पत्रिका में कविताएँ प्रकाशित।विभिन्न पत्रिकाओं में रेखाचित्र,रिपोर्ट्स ,लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित।

सम्प्रति -  साहित्यिक पत्रिका जनपथ के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध।

सम्पर्क- द्वारा -नरेन्द्र कुमार सिंह
रुद्रापुरी, मझौआं बाँध         
 आरा-802301(बिहार)
मो.न.-09931495545
8709829351


3 टिप्‍पणियां: