बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल: कविता का स्त्रीकाल-30

आसिया नकवी की कविताएँ

1

 दो  कलाकार 

पहला नाम से फिदा 
दूसरे पर  कुछ लोग फिदा 

पहले ने दुनिया रंगों से भर दी 
दूसरे ने नज़रयाती जंगों  से भर दी 

पहला सैकड़ों अल्फाज़ एक तस्वीर में भर देता 
दूसरा सैकड़ों जुमले  एक तकरीर  में भर देता 

पहले ने इज़हार को फरोग दिया 
दूसरे ने इज़हार को रोक दिया 

था पहला भी कलाकार 
है दूसरा भी कलाकार


2

रंग 

(एक )

बदल दिए जाते हैं रोज कविताओं के कपडे, 
कभी लाल, कभी भगवा और कभी सफ़ेद.
हरा माना जाने  लगा है ज़हरीला रंग. 

रोज़ खाने में परोसे जाते हैं 
अलग अलग रंग रूप के शब्द
और हद तो यह है, कि खाने में हरा हरा ना हो 
तो सब लाल हो जाता है

(दो)

लोग चाहते हैं 
कविताएँ भी बदलें कपड़ों की तरह 
बासी खाना और बासी कविताएँ 
अक्सर लोगों को रुला देती हैं. 
लगता है कल ही स्टॉक आउट हुआ है 
थ्रिल का बाज़ार 

(तीन )

हत्या हत्या होती है 
ब्रेकिंग न्यूज़ की हत्या तक
सब कुछ कितना रेपेटिटिव है. 
लोग चाहते हैं 
रोज़ बदलना चाहिए 
ख़ून का रंग. धर्म का रंग. 
खाने का रंग. रंगों का रंग
.......

इंसानों से जब मन जायेगा भर
ढूंढ लूंगी कोई  ऐसा  घर

बस्ती होगी  जहां ख़ामोशी  सूखी  घास 
और  संवेदनाओ की बेहोशी

वहाँ न  होगा  आदमी  जैसा  कुछ 
सब सम्बन्धों के परिमाण होगें 
शुन्य  एवं तुच्छ  



3
आइनों से डरने वाला आदमी.

उसकी उंगलियाँ उससे पहले उठती हैं
छोड़ कर पीछे उसकी मुट्ठी
पूर्णता एक ऐसी चीज़ जो वो खोजता है दूसरों में
और परछाईं से डरता है.
दिन शुरू करता है पोतते हुए आइनों पर कालिख,
दांत चमकाते हुए और
दुनिया का मखौल उड़ाते हुए.
अपने अन्दर की उपेक्षा कर देता है वो.

२.
उसकी कमाई हैं आँसू और अपशब्द.
जो सोख लिए जाते हैं उसकी अंतरात्मा के साथ.

३.
लेकिन आँसू कैसे काले करता वो?
उन्होंने हमेशा वही किया जिनसे वो डरता था.

दबी हुई अंतरात्मा....वापस मुखर...
आईने में उसकी परछाई.,,

४.
कोई मखौल नहीं
कोई चमकाना नहीं दांतों का.
बस दर्द पैदा होता है उसके अन्दर,
दर्द
 जिससे कवि पैदा होता है.

4
 कुछ  कैदी   हैं  जो  रिहा  किए जा   रहे  हैं 
कुछ  रिहायी  है  जो  कैद  की  जा  रही है 

नसलों  को  भी  मस्लों  को  समझना  होगा  
फसलों  को  भी  खेतों  को  समझना  होगा 

औरत  हूँ  तो  आवाज़  तो  हो  सकती  नही
सच्ची  हूँ  तो  बेगुनाह  तो  हो  सकती  नहीं 

इस  दौर  ए  जाहालत  का  है  अंदाज  यही 
जो  तख्ता  ए  हाकीम  है  ऐजाज़  वही 

की  हामला  भी  हमलावार  हो  गयी  आज 
की  खामोशियां  भी  जुमला  वर  बन  गयी आज 

उठो  की  शोर  थम   गया  अब  तो 
उठो  की  नब्ज़  जम  गयी  अब  तो 
उठो  की  उड  ना  जाए  रंग  ए  बाहार 
उठो  की  मिट  ना  जाए  दौर  ए ज़रग

.......
5
 एक कमरे के आगे 

वर्जिन्या वुल्फ़ कहती हैं कि हर स्त्री के पास लिखने के लिए अपना एक कमरा होना चाहिए. भारत में सिर्फ़ यही दबाव नहीं है जो स्त्री पर काम करता है. शायद एक कमरा देकर क़ैद करने की कोशिश के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लिखना बहुत पीछे रह जाता है. कई कई दिन बाद लिखना और फिर रोज़ दुनिया के और कविता के चलते पैदा हुए डिसिलूज़न से जूझना थका देता है . 

मैने बरसों बाद 
अकेले ख़ामोश बेदम  बक्से को खोला 
उसके ऊपर  जमी धूल  के कण झूम उठे -
अपने जी   उठने के  जश्न  में इस बात से बेख़बर 
कि  इतने  लम्बे अरसे से  अपने  अंदर क्या दबा  रखा था . 

सबसे ऊपर पड़ी जज़्बात  की पोशाक बोसिदा हो चुकी है 
एहसासात भी कुछ बेहतर नहीं हैं - उनके    चिथडों  पर  खिलखिलाते दीमक रेंग  रहे हैं. 
हक़ीक़त के रंग फींके हो  गए हैं . 
ख़ुदपसंदी का क़द छोटा हो गया है, 
नज़र तो  मजमे में नज़रअन्दाज़ हो जाएगी 

कोई तो है जो चमक रहा है 
शायद बिरादरी स्टोर  से  ख़रीदा दिखावा  है . 


आसिय


परिचय : 
आसिया नकवी  
कवि एवं ऐक्टिविस्ट. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित. अंग्रेज़ी,हिंदी में समान रूप से लेखन. 
संप्रति : अध्यापन. जन्म : 30.06.1988. 
मोब: 7543028451 ईमेल: aaasiya.naqvi@gmail.com

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