आसिया नकवी की कविताएँ1दो कलाकारपहला नाम से फिदादूसरे पर कुछ लोग फिदापहले ने दुनिया रंगों से भर दीदूसरे ने नज़रयाती जंगों से भर दीपहला सैकड़ों अल्फाज़ एक तस्वीर में भर देतादूसरा सैकड़ों जुमले एक तकरीर में भर देतापहले ने इज़हार को फरोग दियादूसरे ने इज़हार को रोक दियाथा पहला भी कलाकारहै दूसरा भी कलाकार2रंग(एक )बदल दिए जाते हैं रोज कविताओं के कपडे,कभी लाल, कभी भगवा और कभी सफ़ेद.हरा माना जाने लगा है ज़हरीला रंग.रोज़ खाने में परोसे जाते हैंअलग अलग रंग रूप के शब्दऔर हद तो यह है, कि खाने में हरा हरा ना होतो सब लाल हो जाता है(दो)लोग चाहते हैंकविताएँ भी बदलें कपड़ों की तरहबासी खाना और बासी कविताएँअक्सर लोगों को रुला देती हैं.लगता है कल ही स्टॉक आउट हुआ हैथ्रिल का बाज़ार(तीन )हत्या हत्या होती हैब्रेकिंग न्यूज़ की हत्या तकसब कुछ कितना रेपेटिटिव है.लोग चाहते हैंरोज़ बदलना चाहिएख़ून का रंग. धर्म का रंग.खाने का रंग. रंगों का रंग.......इंसानों से जब मन जायेगा भरढूंढ लूंगी कोई ऐसा घरबस्ती होगी जहां ख़ामोशी सूखी घासऔर संवेदनाओ की बेहोशीवहाँ न होगा आदमी जैसा कुछसब सम्बन्धों के परिमाण होगेंशुन्य एवं तुच्छ3आइनों से डरने वाला आदमी.१उसकी उंगलियाँ उससे पहले उठती हैंछोड़ कर पीछे उसकी मुट्ठीपूर्णता एक ऐसी चीज़ जो वो खोजता है दूसरों मेंऔर परछाईं से डरता है.दिन शुरू करता है पोतते हुए आइनों पर कालिख,दांत चमकाते हुए औरदुनिया का मखौल उड़ाते हुए.अपने अन्दर की उपेक्षा कर देता है वो.२.उसकी कमाई हैं आँसू और अपशब्द.जो सोख लिए जाते हैं उसकी अंतरात्मा के साथ.३.लेकिन आँसू कैसे काले करता वो?उन्होंने हमेशा वही किया जिनसे वो डरता था.दबी हुई अंतरात्मा....वापस मुखर...आईने में उसकी परछाई.,,४.कोई मखौल नहींकोई चमकाना नहीं दांतों का.बस दर्द पैदा होता है उसके अन्दर,दर्दजिससे कवि पैदा होता है.4कुछ कैदी हैं जो रिहा किए जा रहे हैंकुछ रिहायी है जो कैद की जा रही हैनसलों को भी मस्लों को समझना होगाफसलों को भी खेतों को समझना होगाऔरत हूँ तो आवाज़ तो हो सकती नहीसच्ची हूँ तो बेगुनाह तो हो सकती नहींइस दौर ए जाहालत का है अंदाज यहीजो तख्ता ए हाकीम है ऐजाज़ वहीकी हामला भी हमलावार हो गयी आजकी खामोशियां भी जुमला वर बन गयी आजउठो की शोर थम गया अब तोउठो की नब्ज़ जम गयी अब तोउठो की उड ना जाए रंग ए बाहारउठो की मिट ना जाए दौर ए ज़रग.......5एक कमरे के आगेवर्जिन्या वुल्फ़ कहती हैं कि हर स्त्री के पास लिखने के लिए अपना एक कमरा होना चाहिए. भारत में सिर्फ़ यही दबाव नहीं है जो स्त्री पर काम करता है. शायद एक कमरा देकर क़ैद करने की कोशिश के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लिखना बहुत पीछे रह जाता है. कई कई दिन बाद लिखना और फिर रोज़ दुनिया के और कविता के चलते पैदा हुए डिसिलूज़न से जूझना थका देता है .मैने बरसों बादअकेले ख़ामोश बेदम बक्से को खोलाउसके ऊपर जमी धूल के कण झूम उठे -अपने जी उठने के जश्न में इस बात से बेख़बरकि इतने लम्बे अरसे से अपने अंदर क्या दबा रखा था .सबसे ऊपर पड़ी जज़्बात की पोशाक बोसिदा हो चुकी हैएहसासात भी कुछ बेहतर नहीं हैं - उनके चिथडों पर खिलखिलाते दीमक रेंग रहे हैं.हक़ीक़त के रंग फींके हो गए हैं .ख़ुदपसंदी का क़द छोटा हो गया है,नज़र तो मजमे में नज़रअन्दाज़ हो जाएगीकोई तो है जो चमक रहा हैशायद बिरादरी स्टोर से ख़रीदा दिखावा है .आसियपरिचय :आसिया नकवीकवि एवं ऐक्टिविस्ट. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित. अंग्रेज़ी,हिंदी में समान रूप से लेखन.संप्रति : अध्यापन. जन्म : 30.06.1988.मोब: 7543028451 ईमेल: aaasiya.naqvi@gmail.com
बुधवार, 16 मार्च 2022
समकाल: कविता का स्त्रीकाल-30
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