बुधवार, 2 मार्च 2022

समकाल,: कविता का स्त्रीकाल-29

भगवती देवी हिमाचल की रहनेवाली स्त्री कविता के वृहद भूगोल की नागरिक हैं,स्त्री कविता का वर्तमान राजधानियों से निकल गाँव कस्बों की सीमा पार कर विभिन्न प्रान्तों की स्थानीय परिस्थितियों का चित्रण अपनी कविता में मुखर रूप से कर रहा है।भगवती चुपचाप हिन्दी स्त्री कविता में प्रवेश करती वह कवयित्री हैं जिनकी कविता स्त्री मुक्ति की छटपटाहट को बयां करती स्त्री विमर्श की धारा को मजबूत करती है।

माँ

मैं देख रही थी 
चुपके से 
खिड़की के झरोखे से
मां के माथे पर 
उभर आ‌‌ईं सिलबट्टे...

वहांनहीं थी वह
जहां दिख रही थी 
वह पढ़ रही थी
खोज रही थी खुद को 
65 की उम्र में...

जो बहुत पहले थी
इस समय हरगिज़ नहीं थी वह
उसके द्वारा बुने गए
तमाम सपने
तमाम उड़ाने और आकांक्षाएं
इस वक्त हवा में थी...

कहां गया उसका समय
जो उसकी मुट्ठी में था
कहीं फिसलता ही चला गया
रेत की भांति
जीवन की पगडंडी पर 
चलते चलते...

माथे की सिलबट्टे बताती
वह भरे पूरे घर में 
अकेलेपन का दंश झेल रही है
सबकी ज़िंदगियां बनाने के बाद 
अब वह कहीं नहीं थी...

उसी दिन निहार रही थी शीशा
तलाश रही थी वह  खुद को
झुर्रियों से भरे चेहरे में...

आज वह थकी हुई
बैठी थी चूल्हे के पास...
बस चूल्हा ही था
जो उसे भीतर तक समझ पाया
भरे पूरे घर में...
वही एक खास साथी निकला
जिससे मां जीवन के गूढ़ रहस्य 
साझा करती
और तृप्त रहती...

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अहसास

जब मुझे आदेश मिला 
घर पर रहो 
मैं घर पर रहने लगा
आबोहवा ही ऐसी थी 
कि खुद के साथ - साथ 
सबको सुरक्षित रखना था 
एक बेहतरीन नागरिक की 
ज़िमेदारी थी मुझ पर 
मैं ज़िमेदारी को निभा रहा था 
घर पर ...
 पहले दिन के बाद 
 मुझसे रहा नहीं गया 
 मैने कुछ  युक्ति  बनाई 
 पत्नी संग हाथ बटाया
 बहुत रीझ से बनाया 
 फास्ट फूड 
 और फोटोशूट के बाद 
  रेसिपी का स्वाद 
  आभासी दुनिया को खूब दिलाया
  मेरा ये कार्य केवल  
  हफ़्ते भर ही चल पाया 
 उसके बाद दिमाग की नसों ने 
 फट्टना प्रारंभ  किया
 बाहर वालों से घर पर बैठने 
 के तरीके पूछे 
 सबने अपनी-अपनी युक्ति बताई ।

 इतना सब होने के बाद 
 घर पर रहने का राज़
 नहीं मिल पाया।

अचानक उसकी नज़र 
धर्मपत्नी पर पड़ी 
सोचने पर मजबूर हुआ 
 कि इस स्त्री ने 
 घर पर ही चुप्पी साध
 जीवन की पगडंडी पर
 कैसे चलती रही 
 उसे मालूम पड़ा 
 कि यह स्त्री बन्द दीवारों में कैसे 
 खुश रह लेती है 
 दिमाग और शरीर में
 नसे क्यों नहीं फूलती 
 वह कैसे घर पर रहकर 
सबका भविष्य संवार देती हैं 
वह कितनी बड़ी कलाकार है
जब उसे कोई चुप करवाता है 
वह चुप हो जाती है 
जब उसे कोई बुलबाता है 
तो वह बोलने लगती है 
वह इतनी सदिया 
आदेशानुसार ही चली 
और चुप रहकर जीती चली गई ...
ऐसे दौर ने
स्त्री के रहस्य से वाकिफ़ करवाया
कि वह बन्द कमरों में कैसे खुश रह लेती है 
पूरा जीवन इन भीतरी दीवारों में 
कैसे जी लेती है।

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 उदास सड़क 

देखा कभी सड़कों को उदास 
गलियों को रोते हुए 
मैने देखा है 
सड़कों को सुबकते हुए 
21वीं सदी में...

21वीं सदी में इंसान के लिए
एक समय बिल्कुल थम गया
घर में कैद 
उसे होना पड़ा 
और छोड़ना पड़ा
सड़कों को सड़कों पर उदास।

ये ऐसा समय था 
जिसमें सड़कों पर से
नहीं थे स्कूल जाते बच्चे
नहीं था ठेले बाला 
नहीं था साईकल बाला 
नहीं था गाड़ी और रेलगाड़ी बाला 
हवाई यात्रा के पहिए भी 
रुक गए
ये ऐसा समय था 
कि पूरी दुनिया के डॉक्टरों
के रोंगटे खड़े थे
योगी गेट की सांसे भी 
फूल चुकी थी 
अन्तिम यात्री को  कंधा नहीं था
सड़कों के साथ 
पूरा संसार उदास था 
ये संदेह से भरा समय था 

ऐसे खौफ़नाक समय में 
डर पहली दफा महसूस किया।

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 डॉ भगवती देवी
 
हिन्दी में एम.ए, एम.फिल , पीएचडी ( जम्मू विश्वविद्यालय, जम्मू)
मैं हिंदी विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय,जम्मू, 
जम्मू - कश्मीर में लेक्चरर (कन्ट्रैक्चुयल) हूं। 
 जम्मू - कश्मीर के सांबा जिला की तहसील घगवाल की वासी हूं। 
लेखन मेरी रूचि है। विभिन्न मंचों से काव्य पाठ । साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहती हूं ।विभिन्न पत्रिकाओं और ब्लॉग पर कविताएं प्रकाशित। विभिन्न जर्नल्स में शोध पत्र प्रकाशित।राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध पत्रों की प्रस्तुति। साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए ' संदर्भ ' नाम की वेबसाइट और '  तवी ' नाम से यू ट्यूब चैनल ।

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