बुधवार, 16 मार्च 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल-35


रीता दास राम   की कविताएँ




1. 
युगीन स्त्री-पुरुष 

व्यवस्था के साथ 
परपराओं की आड़ में 
रीति-रिवाजों पर चलते 
संस्कृति की छांव में 
संस्कारों की जुगाली करते 
पुरुष बसाना चाहते है घर ... 
सपनों की कल्पना में 
प्रेम की डाल पर 
तितलियों से प्रकाश में 
धानी चूड़ियों की आवाज में 
रेशम की नमी और कोमलता थामें 
धमनियों में बहते रक्त की लाली संग 
स्त्री बसाना चाहती है घर ... 
घर बसता है 
व्यवस्था, परंपरा, रीति-रिवाज़, संस्कृति, संस्कारों को 
बदलते हुए 
स्वप्नों, कल्पना, प्रेम, प्रकाश, आवाज, नमी, कोमलता और रक्त को 
रखते हुए ताक पर 
ये हर युग का बदलाव 
वक्त के हस्ताक्षर पर 
यंत्र चालित सा उभरता सत्य है 
बस पृथ्वी को घूमते चले जाना होता है 
होते हुए सूर्य से प्रकाशित 
परिवर्तन की नियति को स्वीकारते हुए 
बसते हुए देखना जीव की नैसर्गिक पराकाष्ठा 
समाज़ पर लगा वेदना का पैबंद  
संतुष्टि की घोषणा का अघोषित सत्य।  
 
2. 
इंसान 

गीला मन 
भीगी भीगी औरतें 
भरी-भरी आँखें 
पसीने से तर-बतर 
संस्कृति की जुगाली पर 
खींच रही जिंदगी 
खोलते हुए बंधन 
एक एक इंच गांठ 
गर्भाशय को मशीन 
शब्द से करते हुए आज़ाद 
इंसानी दर्जा दिलाते हुए खुद को 
विकलांग समाज़ की 
सदियों से करते हुए सेवा 
सहूलियत, सफाई, भूख, जरूरत मुहैया कराती हिस्से की आस 
इंसानी पैदावार के लिए की जाती है इस्तेमाल 
पाठ, उपवास, मान, सम्मान, ऊंच, नीच, सही, गलत, सबमें हिस्सेदारी 
निठल्ले घूमते पुरुषों की बनती जूठन  
संस्कार, बच्चे, रिवाज़, परंपरा सब है इसके जिम्मे 
शरीर, वासना, इच्छा, बहकना बेगानी मिल्कियत  
स्वेच्छा से किया एक संभोग जिंदगी का कलंक 
बलात भोगे दस पुरुष वह भी इसका दोष 
सारे कुकर्मों से रिश्ते इसके 
बेटियाँ बनाई जाती है पराई 
बहू को अपनाता एहसान जताता सामाज  
पुरुष के बाद पाती दुय्यम स्थान 
स्त्री अब बोलने लगी खुलेआम  
बीती जिंदगी के राज़ खोल रही है 
घर से बाहर निकल रही है या निकाली जा रही है  
रीति-रिवाज को मनमाना निभा रही है 
परिवार को किचन का रास्ता दिखा रही है 
अपनी मर्जी जीने को है उत्सुक 
पुरुषों के आदेश करने लगी है ख़ारिज  
लिव-इन में रहना चुनाव कर रही है 
शरीर को समझने लगी है अपना 
क़लक़ मान सम्मान मानती है सब अज्ञानी बातें 
औरत खुद को औरत ही नहीं, अब इंसान कहलाने लगी है।  
3. जरूरतों की ख़ातिर प्यार 
हथेलियाँ भर थी खुशियाँ 
पत्थर तोड़ना चाहती थी
जब जब रीति-रिवाज बदले 
भरना चाहती थी संस्कृति के छेद 
बोल के बता दिए गए नहीं बोलने के कारण 
बड़बड़ाती रही खामोशी में बदहवास 
उपेक्षित छोड़े झड़ते सपने 
उलीचती रही हकीकत की स्याही  
जबकि सपनों को मुट्ठी में बंद कर दिया गया 
नहीं पहचानी दर्द और खुशी की अलग परिभाषा 
फूल को फूल कहा और चाँद को चाँद 
रोशनी वाले अंधेरे भर-भर के दिखाई पड़ते रहे 
बंधन-मुक्त होना चाहा जब 
विशेषण जकड़ते रहे, हड़बड़ाते 
दृश्यों में चाहती थी तैरना 
ख़्वाहिशों में डुबोते रहे तुम 
 
पूरे पंख फैलाकर उड़ने से पहले देखा 
चमगादड़ की तरह अंजान शिकायती मूक दृष्टि तुम्हारी  
खत्म कर दी थी आजादी गृहप्रवेश के बाद 
पूरे घर की चाहत के लिए 
उसने तलाश ली मुट्ठी भर श्वास 
आज गठरी सी जिंदगी आदत है 
निहारते हुए अपलक कहा जाता है प्यार 
प्यार की खोज में बीती जिंदगी ढोती देखती रही 
जरूरतों की खातिर प्यार होता रहा। 
 
4. पटरी 
कैसे कैसे लम्हों से मिलती हुई 
पटरी सी पड़ी पड़ी छिलती हुई 
मैं देखती गाड़ी धड़धड़ाती गुजरती हुई 
और आवाज़ आवाज़ में धुल जाती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
जाने कितने डिब्बे चले जाते 
शब्दों के विस्फोट से कांप जाती 
छाती पर पटरियों की चिंगारी बसती 
घुटती साँसे पत्थरों-सी मार सहती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
देह पटरी-सी गर्द, धक्कड़, धूप में भी 
वितृष्णा दबाए पड़ी पड़ी तड़कती 
उजाले में भी रोशनी का इंतजार करती 
हर बार नई ठेस रोशनी की ओर तोड़ा और सरका जाती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
गोल पहियों से वक्त घूमते जाते 
छूते पास आकर दूर चले जाते 
घूमते पहियों के छेदों को घूरती 
गिनने की असंख्य कोशिश करती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती 
अक्सर पटरी की ये कल्पना मेरी 
मेरे और कल्पना के बीच होती 
और वह चिकनी, सपाट समानांतर पटरी 
मुझे हमेशा जिंदगी के रूबरू लगती 
जब जब आँखें मुँदें मैं खुद से गुजरती। 
 



5. 
पुरुष (आजकल में छपी) 


फैल जाती है 
भीतर इक नदी 
जब जब तुम 
सिंदूर लगाती हो 
तितर-बितर हो जाता है चाँद  
जब माथे पर 
बिंदी सजाती हो 
बौखला हो जाती है चाह 
चूड़ियों सी मिल जाती है 
दिशाएँ जब छोरों पर 
मैं पूरा औंधा लेटा होता हूँ तुम पर 
जब-जब सूर्य चमकता है 
तेज़ देता पृथ्वी को 
तुम हौले से उतरती हो देह में 
बन तरल चाँदनी 
तुमसे तुम्हारे सारे राज़ 
जान लेने को उत्सुक मैं 
पल-पल हारता हूँ 
तुम्हारी आगोश में 
कोशिश पर की गई अनन्य कोशिश 
मुझे नुक्कड़ पर 
खड़े होने का आभास कराती है 
जब भी तुम 
बंद हो जाती हो खुद में 
मैं मौन तोड़ना चाहता हूँ 
एक आल्हाद भरी चीख़ 
में तब्दील देखना चाहता हूँ 
तुम तृप्ति बनती हो जब 
तेज़ बिखरा जाती हो मुझे 
मुझसे मेरा सत्य जान लेने के बाद 
मेरी ही नज़रों में 
करते हुए मुझे ख़ारिज़ ... ए स्त्री 
जागती हो मेरे भीतर 
अपूर्ण अनंत तक 
हर कदम
जीता हूँ यह सत्य 
जब जब निहारता हूँ तुम्हें।  





परिचय – डॉ. रीता दास राम
नाम :-  डॉ. रीता दास राम  
संप्रति : कवयित्री / लेखिका 
शिक्षा : एम ए., एम फिल, पी.एच.डी.(हिन्दी) 
      मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई.  
जन्म :- 1968 नागपूर. 
वर्तमान आवास : मुंबई                                                  
पता :- 34/603, एच॰ पी॰ नगर पूर्व, वासीनाका, चेंबूर, मुंबई – 400074.  
मो॰ न॰ – 09619209272. 
ई मेल :- reeta.r.ram@gmail.com
कविता संग्रह :- 
    1. “तृष्णा” प्रथम कविता संग्रह 2012.
    2. “गीली मिट्टी के रूपाकार” दूसरा काव्यसंग्रह 2016 में प्रकाशित। 
कहानी :- ‘लमही’(2015), ‘गंभीर समाचार’ (2018) , ‘मनस्वी’ 2018 एवं ‘आजकल’-मार्च 2019, ‘छतीसगढ़ मित्र’ (2020) पत्रिका और प्रतिलिपि (ब्लॉग) में कहानी प्रकाशित। 
यात्रा संस्मरण : ‘इजिप्ट’ पर ‘नया ज्ञानोदय’ एवं ‘भवन्स नवनीत’ में संस्मरण प्रकाशित। 
स्तंभ लेखन :- मुंबई के अखबार “दबंग दुनिया” 2015 में और “दैनिक दक्षिण मुंबई” 2016 में स्तंभ लेखन।  
साक्षात्कार : 
1. ‘हस्तीमल हस्ती जी’ का साक्षात्कार मुंबई की ‘अनभै’ पत्रिका में प्रकाशित। 
2. कवि, आलोचक प्रोफेसर (मुंबई विश्वविद्यालय) ‘डॉ. हूबनाथ पाण्डेय’ का साक्षात्कार ‘बिजूका’ ब्लॉग में।  
3. साहित्यकार डॉ. असग़र वजाहत से फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशती पर संवाद वीडियो यूट्यूब पर।              
सम्मान :- 
   1. ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, तृतीय स्थान ‘तृष्णा’ को उज्जैन।  
   2. ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ – 2016 नागदा में ‘अभिव्यक्ति विचार मंच’ नागदा की ओर से 2015-16 का। 
   3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद 7 फरवरी 2017 में ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को ‘हेमंत फाउंडेशन’ की ओर से। 
   4. ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’ मधुकर शोध संस्थान दतिया, मध्यप्रदेश, द्वारा ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को राष्ट्र स्तरीय सम्मान। 
   5. ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019 की घोषणा, मुंगेर, बिहार से। 
कवियों की संग्रहीत कविता संकलन में मेरी कविताओं को स्थान : 
1. गौरैया (मध्यप्रदेश) 
2. शब्द प्रवाह, वार्षिक काव्य विशेषांक (मध्यप्रदेश) 
2. समकालीन हिन्दी कविता भाग 1 (आरा, बिहार)  
3. साहित्यायन (मध्यप्रदेश) 
4. मुंबई की कवयित्रियाँ (मुंबई) 
5. चिंगारियाँ (मध्यप्रदेश)                                   
विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित :- 
‘मृदंग’ (2020), ‘नवनीत’ (2019) ‘चिंतन दिशा’ (2019), ‘आजकल’ जनवरी 2018 (दिल्ली), ‘वागर्थ’ जुलाई 2016, ‘पाखी’ मार्च 2016 (दिल्ली), ‘दुनिया इन दिनों’ (दिल्ली), ‘शुक्रवार’ (लखनऊ), ‘निकट’ (आबूधाबी), ‘लमही’ (लखनऊ), ‘सृजनलोक’ (बिहार), ‘उत्तर प्रदेश’ (लखनऊ), ‘कथा’ (दिल्ली), ‘व्यंजना’ 2019 (कानपुर), ‘आचार्य पथ’ 2018 (रायबरेली), ‘जीवन प्रभात’ 2018 (मुंबई), ‘युग गरीमा’ मार्च 2018 (लखनऊ), ‘अनभै’ (मुंबई), ‘शब्द प्रवाह’ (उज्जैन), ‘आगमन’ (हापुड़), ‘कथाबिंब’ (मुंबई), ‘दूसरी परंपरा’ (लखनऊ), ‘अनवरत’ (झारखंड), ‘विश्वगाथा’ (गुजरात), ‘समीचीन’ (मुंबई), ‘शब्द सरिता’ (अलीगढ़), ‘उत्कर्ष’ (लखनऊ) आदि पत्रिकाओं। 
वेब-पत्रिका/ई-मैगज़ीन/ब्लॉग/पोर्टल :- ‘मृदंग’ अगस्त 2020 ई पत्रिका, ‘मिडियावाला’ पोर्टल ‘बिजूका’ ब्लॉग व वाट्सप, ‘शब्दांकन’ ई मैगजीन, ‘रचनाकार’ व ‘साहित्य रागिनी’ वेब पत्रिका, ‘नव प्रभात टाइम्स.कॉम’ एवं ‘स्टोरी मिरर’ पोर्टल, समूह आदि में कविताएँ प्रकाशित।  
रेडिओ :- वेब रेडिओ ‘रेडिओ सिटी (Radio City)’ के कार्यक्रम ‘ओपेन माइक’ में कई बार काव्यपाठ एवं अमृतलाल नागरजी की व्यंग्य रचना का पाठ।  
प्रपत्र प्रस्तुति : एस.आर.एम. यूनिवर्सिटी चेन्नई, बनारस यूनिवर्सिटी, मुंबई यूनिवर्सिटी एवं कॉलेज में इंटेरनेशनल एवं नेशनल सेमिनार में प्रपत्र प्रस्तुति एवं कई पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। 

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