बाबुषा कोहली की कविताओं के बिंब अनूठे हैं,वह अपनी कविताओं में बिंबों के माध्यम से रहस्यमयी कविता लोक गढ़ती हैं ।मूलतः प्रेम की कवयित्री बाबुषा स्त्री जीवन और सामाजिक विसंगतियों को बड़ी संजीदगी से अपनी कविताओं में दर्शाती समकालीन स्त्री कविता की अपनी शैली की कवयित्री हैं।बाबुषा का शिल्प जितना सुघड़ है कथ्य उतना ही मजबूत है।
बाबुषा कोहली की कविताएँ
१.
सायकिल वाली लड़की
वह क़स्बाई लड़की अपनी मौज में सायकिल चलाती हुई
कहीं चली जा रही थी
क्षण भर का यह दृश्य अपने आकार में इतना विराट था
कि अब तलक मेरी सपनाई आँखों में
सत घट रहा है
यह अक्षुण्ण क्षण झरने लगता है कभी मेरी आँखों से
और कभी अँगुलियों से
इस दिव्य क्षण की उर्वर मिट्टी में
खिल रहे शब्दों के फूल
अँधेरे काग़ज़ पर असंख्य सूरजमुखी उग रहे हैं
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वह क़स्बाई लड़की अपनी मौज में सायकिल चलाती हुई
कहीं चली जा रही थी
क्या सायकिल इस ढंग से चलाई जा सकती है
जैसे कोई कहीं न जा रहा हो
सिवाय अपनी ताल में नृत्य करने के ?
वह लड़की ठीक इसी तरह सायकिल चला रही थी
मानो रास्ते पहले से ही उसके वश में हों
जब चाहे तब वह दुनिया की सबसे मायावी सड़क को
अपनी सायकिल के पहिये तले बिछा सकती हो
न ही वह किसी से बतिया रही थी फ़ोन पर,
न ही कोई उसके साथ था
मगर वह मुस्कुरा रही थी सायकिल के पैडल पर
बेफ़िक्री से पाँव मारते हुए
इस कोलाहल भरे समय में ऐसी एकाकी मुस्कुराहट
दुनिया की बड़ी घटना है
घृणा को तोते की तरह पाल कर रखने वाले
इस दौर में मैं नहीं जानती
उसकी गौरैया-सी उन्मुक्त मुस्कुराहट का रहस्य
पर यह तय है कि इस रुत के घने मेघ
लडकी की मोहिनी मुस्कुराहट से बने हैं
मेरे हृदय को तर करते हुए--
(मैं कुछ अनुमान करने लगती हूँ
अम्म्म...
हो न हो, लड़की प्रेम में है
उसकी चुस्त काली कुर्ती
किसी प्रतिरोध का प्रतीक नहीं,
वरन इसका पसंदीदा पहनावा है )
दरअसल उसे प्रतिरोध की आवश्यकता ही नहीं !
उसकी बेपरवाह मुस्कुराहट
दुनिया भर के फ़ासिस्ट अट्टाहास को ठेंगा है
उसकी अस्त-व्यस्त नारंगी चुन्नी भोर की एक किरण है
रात के कालिम को काट कर धरती पर बिखरती हुई
काँधे छूते उसके लटकन हिल रहे हैं
हौले-हौले आगे-पीछे
तमाम घन्टाघरों की घड़ी के काँटों को मात देते
( एकाएक ठहर गया समय
मेरी कलाई पर बँधी घड़ी बंद हो गयी है )
मैं उसे कोई नाम देना चाहती हूँ
मसलन कि उज्ज्वला, मुक्ता, स्वयंप्रभा,
अक्षुण्या या आकाशगंगा
मगर दे नहीं पाती
सायकिल चलाती मंद-मंद मुस्कुराती वह लड़की
किसी नाम में समा सकेगी ?
उसकी सायकिल में वह गति है कि नाम तो क्या
समय और स्थान भी पिछले चौराहे पर छूट सकते हैं
जबकि उसकी बलखाती देह यह संकेत देती है
कि उसे कहीं नहीं पहुँचना
( मानो उसे जहाँ पहुँचना था वह पहले ही पहुँच चुकी है )
उस लड़की को किसी पार्टी का
चुनाव चिह्न होना चाहिए
( क्या नहीं ? )
क्या इस भरपूर मुस्कुराहट को पाने के लिए ही नहीं रहा है
मनुष्यों का सारा संघर्ष ?
वह लड़की धरती पर घटा एक ऐतिहासिक दृश्य है
एक सच्ची क्रान्ति
और मैं-
कृतज्ञता से भरी हुई उसकी मूक दर्शक।
(कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्ड्सवर्थ की भटकती हुई रूह अपनी 'सॉलिटरी रीपर' को ढूँढ़ते हुए मुझ में प्रवेश कर गयी हो और असीम सुख के इस क्षण में समय एक बार फिर से घूम कर चल पड़ा हो। )
वह क़स्बाई लड़की मंद-मंद मुस्कुराते हुए
पैडल पर दे रही पाँव के हल्के थाप
पृथ्वी घूम रही मगन
अपनी लय में
दुनिया के दोनों हिस्सों पर बारी-बारी से
सुबह हो रही है
२.
रियाज़
तुम्हारी उजली चितवन में जितना भी कालिम है
कष्ट है वह, प्रीत में तुमने जो पाया
उस सियाह के निःसीम आलोक में
सीखते हो तुम संसार को देखना
इस नाते मैं-
तुम्हारी आँखों की पुतली हूँ
आँखें प्रायः दो कारणों से मूँदी जाती हैं
पहला,
सत्य से बचने के लिए
और दूसरा, सत्य को देखने के लिए
मेरे कंठ में थिरकती-फिरतीं सुरीली परियाँ जिन रागों की
सुख है वह, प्रेम में मैंने जो गाया
वह राग हो तुम,
हर गवैये से जो सधता नहीं
कष्ट हूँ मैं ऐसा-
हर प्रेमी से उठता नहीं
चित्त की ऊँची शिला पर ध्यानस्थ हो तुम-
हवा का इकतारा लिए बैठी मैं
नरम दूब की चटाई पर
चन्द्रमा की लौ में अपने अधसिंके सुरों का रियाज़ करती हूँ
३.
प्रेम की गालियाँ
तुम्हें औषध मिले, पीर न मिले
दृष्टि मिले, दृश्य न मिले
नींदें मिलें, स्वप्न न मिले
गीत मिलें, धुन न मिले
नाव मिले, नदी न मिले
प्रिय !
तुम पर प्रेम के हज़ार कोड़े बरसें
तुम्हारी पीठ पर एक नीला निशान तक न मिले
४.
पानी से बँधती है नाव
पिता हँस कर पूछते कि कैसा वर खोजा जाए
मैं कहा करती वर स्वयं मुझे खोज लेगा
पिता निश्चिंत रहे आए
महँगे उपहार नहीं चाहिए थे मुझे
न ही सुंदरतम उपमाओं से सज्जित कविताएँ
न ही जीवन बीमा सरीखे लम्बे व जड़ वचन
मेरे साथ रहने की न्यूनतम अर्हता इतनी सी थी
कि उसके शहर में एक नदी हो
जो पुरुष मेरे प्रेम में पड़े उनके शहरों में नदियाँ थीं
जो पुरुष मेरे द्वार की चौखट छू कर लौट गए
वे नदियों के प्रेम में पड़े
जो पुरुष नदी किनारे मेरे संग बैठे
वे जान गए
कि तट से नहीं -
पानी से बँधती है नाव
५.
मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं
जिन तितलियों को मैंने आँखों से छू कर छोड़ दिया
वे फूल-फूल बैठ कर
लौट आईं मेरी कविताओं में महफ़ूज़ रहने
जिस प्रेम को छोड़ दिया मैंने एक कोमल धड़क से अस्त-व्यस्त कर
वह छूटते ही उड़ गया परिन्दा बन
आकाश छू लेने
मेरे केश की कामना ने बाँध लिया है छूटा हुआ एक पंख उस फीते से
जो चन्द्रमा के दो उजले रेशों से बना है
आकाश के आँगन में सम्पन्न होने वाली उड़ानें
धरती पर किसी लड़की की चोटी से बंधी हैं
लड़की की " उँहू !" पर हिलती हुई चोटी से जूझती है रात
कोई जान नहीं पाता कि रात क्यों इस तरह लहकती है
अपने केश में उलझे इस पंख को एक दिन मैं नदी में सिरा दूँगी
नदी उसे तट के हवाले करेगी
तट पर खेलती मल्लाह की नन्ही बेटी उसे अपनी स्कूल की कविता वाली किताब में रखेगी
किताब में बंद अधमरी चिड़िया उसे सहलाएगी
नन्ही जान नहीं पाती
कि किताबों के पन्ने वायु की मति से नहीं फड़फड़ाते
पन्नों में हलचल दरअसल छूटे हुए पंख की फड़फड़ाहट है
सम्भव है कि नदी और उसका तट
मल्लाह की बेटी और उसकी किताब
चिड़िया और पन्नों की हलचल
एकदम कोरी गप्प निकले
और सचमुच ! ऐसा होने में बहुत परेशानी नहीं है
कि गप्प कई बार जीवन की इस तरह से देखभाल करती है
जैसे तो कभी-कभी कविता भी नहीं कर पाती
कविता आख़िर करती ही क्या है ?
वह तो महज़ तितलियों की सम्भाल में खर्च कर देती है अपना सारा कौशल
वह नहीं तोड़ती फूलों का भरोसा
वह रचती है रंग इन्द्रधनुष को उधार देने
वह बताती है दुनिया को कि ये आवारा चाँद किसके आसरे पे लटका है
वह सुनाती है नदी के तट पर मल्लाह की बेटी को किसी परिन्दे की कथा
उधर एक परिन्दा उड़ता ही जाता है आजीवन
इन्द्रधनुष का स्वप्न लिए आँखों में
बादलों की टहनियों पर बैठता है
भीगता है
चोंच में दबाता है नमी के कुछ कण
फिर उड़ता है
इन्द्रधनुष के पीले आँचल में अटकता है
छूटता है भटकता है
इधर मल्लाह की वह नन्ही बेटी किताब से निकालती है पंख
मेरी कविता में डुबो देती है
मैं तितलियों को शुक्रिया कह आगे निकल जाती हूँ
कोई लुभावनी-सी गप्प ढूँढने
मुझे अपनी नदी को कुछ जवाब देने हैं
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बाबुषा कोहली का जन्म 6 फ़रवरी, 1979 को मध्यप्रदेश के कटनी में हुआ। वह बेहद कम उम्र से ही कविताएँ लिखने लगी थीं और पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगीं। सोशल मीडिया पर आरंभिक लोकप्रियता के बाद भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित होने पर उनकी चर्चा और बढ़ी। इसी पुरस्कार के साथ फिर उनका पहला कविता-संग्रह 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट' भी प्रकाशित हुआ।
‘बावन चिट्ठियाँ’ नाम से प्रकाशित हुआ है जिसे ‘कवि के गद्य’ अथवा ‘गद्य-कविता’ के रूप में प्रकाशित
सभी कविताएं एक से बढ़कर एक ।
जवाब देंहटाएंआपकी कविताएं बहुत ही अलग और दिलचस्प रहती हैं ।
सादर - विवेक झारिया संस्कारधानी का संस्कारी लड़का ����
सभी कविताएं एक से बढ़कर एक ।
जवाब देंहटाएंआपकी कविताएं बहुत ही अलग और दिलचस्प रहती हैं ।
सादर - विवेक झारिया संस्कारधानी का संस्कारी लड़का 😊🙏
गहन अर्थबोध से संपन्न शानदार कविताएं।ये कविताएं आश्वस्त करती हैं कि समकालीन हिन्दी कविता का कैनवास बहुत बड़ा है। हमारी अशेष शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंजय चक्रवर्ती
रायबरेली