सोमवार, 31 जनवरी 2022

रंजना जयसवाल की कहानी

                                     ऑन लाइन रिश्ते





नवम्बर की गुलाबी ठंड...आजकल अंधेरा जल्दी होने लगा था।ठंड बढ़ने के साथ निर्मला का विवेक की पैदाइश के समय लगाया गया बेहोशी का इंजेक्शन रह-रह कर दर्द कर ने लगता। एक अजीब सी लहर एक अजीब सी गिनगिनाहट पूरे शरीर में दौड़ जाती। दर्द की लकीरें आँखों में उभर आती पर दूसरे ही पल चेहरे पर मातृत्व के सुख की संतुष्टि का सुख भी न जाने क्यों साथ ही उभर आता। तभी गेट खुलने की आवाज से निर्मला जी के कान खड़े हो गये,


"अजी सुनते हो,लगता है कोई गेट पर है।"


गुप्ता जी हाथ में रिमोट लिए वैसे ही बैठे रहे। जब से धीरज ने ये टी. वी.भेजा है, गुप्ता जी अपनी बूढ़ी आँखों और झुर्रीदार हाथों की उंगलियों से चैनल बदल-बदल कर उसके फीचर समझने की कोशिश में लगे रहते। धीरज बता रहा था बाजार में एकदम नया मॉडल है, इंटरनेट,ब्लूटूथ सबकी सुविधा है। गुप्ता जी ने कई बार धीरज से उसके फीचर समझने की कोशिश,धीरज ने कम्पनी वाले को फोन कर गुप्ता जी को सीखाने की भी कोशिश की पर…


"देखना समाचार ही है फिर काहे की इतनी टिटमेबाजी धीरज इतना बड़ा हो गया पर पैसे की उसे आज तक वैल्यू समझ नहीं आयी।"


निर्मला की बात को अनसुना कर गुप्ता जी टी. वी. में ही जूझते रहे।निर्मला समझ गई थी,गुप्ता जी का उठने का मन नहीं है ये पुरुष भी न..वैसे भी एक बार वो कंबल में पैर डाल कर बैठ गए तो दुनिया इधर की उधर हो जाये पर हिलते नहीं थे।


"अरे यार ! समझती नहीं हो तुम एक तो मुझे इतनी ठंड लगती है ऊपर से कितनी मुश्किल से कम्बल गर्म किया है।"



                                                                   चित्र- आरती वर्मा

निर्मला हँस पड़ती कम्बल को गर्म करने के लिए इन्होंने कौन सी मेहनत की है। निर्मला ने दरवाजा खोला,दरवाजे पर सिन्हा साहब और भाभी जी थे। पहले एक ही मुहल्ले में रहते थे वे दोनों, सिन्हा साहब से बहुत पुराना रिश्ता था,लगभग हर हफ्ते का ही आना-जाना था पर जब से सिन्हा साहब का बेटा अमेरिका गया उन्होंने अपना घर बेच दिया और फ्लैट में रहने लगे। "हम दोनों बुड्ढे-बुढ़िया ही अब रह गए हैं, आजकल शहर में कितनी वारदातें हो रही हैं।कल हमारे साथ कुछ हो जाए तो पड़ोसियों को पता भी नहीं चलेगा वैसे भी अब इस बूढ़े शरीर से भाग-दौड़ नहीं होती।फ्लैट में रहेंगे तो सुरक्षा और घर की और जरूरतों के लिए सोचना और दौड़ना नहीं पड़ेगा।" आज भी याद है शांति भाभी जी अपने मकान को बेचते वक्त कितना रोई थी। कितने अरमानों से बनाया था उन्होंने वह घर... तिनका-तिनका जोड़ कर न जाने कितने सपनों का गला घोट कर उन्होंने वह घर बनाया था। बच्चों की किलकारियों से गूँजता था वह घर पर वक्त के साथ बच्चे अपने सपनों की तलाश में अपने घोसलों को छोड़कर दूर बस गए।सिन्हा दम्पति को देखकर गुप्ता जी उठकर बैठ गए,


"आइए-आइए भाभी जी!बहुत दिनों बाद आना हुआ।"


"अरे भाई हम तो भूले-भटके आ भी जाते हैं पर आप तो हमारे घर का रास्ता ही भूल गए हैं।"


सिन्हा साहब कहते हुए सोफे में धंस गये,


"अरे नहीं यार...तुम तो जानते हो मुझे ठंड बहुत लगती है, रोज सोचता हूँ कि तुमसे मिल आऊं पर.."


"पर इतनी मेहनत से गर्म किए कम्बल को छोड़कर निकलना कोई आसान बात थोड़े है।"


निर्मला ने हँसते कहा...निर्मला की बात सुन सभी ठठा मारकर हँस पड़े।कितने दिनों बाद ये घर इन्सानों की हँसी से गुलज़ार था।कहने को तो गुप्ता जी और निर्मला जी एक छत के नीचे ही रहते थे पर वक्त के साथ मानो उनकी बातें भी कहीं न कहीं चुक चुकी थी। हँसना तो वो कब का भूल चुके थे, निर्मला सबको बैठक में छोड़कर रसोईघर की तरफ बढ़ गई। गुप्ता जी बड़े उत्साह से सिन्हा दम्पति को अपने नए टी वी के बारे में बता रहे थे।निर्मला जी को रसोईघर में गये काफी समय हो गया था, दोनों दोस्त यादों का पुलिंदा खोल कर बैठ गये।वो अपनी बातों में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें ये भी याद नहीं रहा कि कमरे में शांति भी बैठी हैं।शांति जी निर्मला जी को तलाश करते-करते रसोईघर तक पहुँच गई। अभी पिछले साल ही तो विवेक ने पूरा घर का नवीनीकरण कराया था।डबल डोर वाला फ्रिज,चिमनी,चार मुँह वाला चूल्हा,आ रो मशीन ,एकदम टी वी धारावाहिकों वाला रसोईघर…


" आइए भाभी!..."


निर्मला ने रसोईघर के दरवाजे पर खड़ी शांति को देखकर कहा...दोनो में काफी अच्छी समझ और तालमेल था। मन जब कभी बहुत अधिक व्याकुल होता तो वो दोनों एक-दूसरे के सामने अपने दर्द की गिरह खोल कर बैठ जाती।


"आपका रसोईघर कितना अच्छा हो गया है, चार चूल्हे में काम करने में कितनी सहूलियत रहती होगी न..?"


"दो प्राणी है कितना बनाना ही रहता है।इनका कोलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ है,डॉक्टर ने इनको तेल-घी खाने को मना किया है। अपने लिए अकेले क्या बनाऊ, जो ये खाते हैं मैं भी वही खा लेती हूँ।"


"विवेक और धीरज के बिना ये घर कितना सूना हो गया है,अकेली पड़ गई है आप…!"


"अकेली कहाँ…?"


 निर्मला ने एक भरपूर नजर घर पर डाली…


"है न सब मेरे पास... बच्चों की बातें,उनके होने का अहसास और कभी न खत्म होने वाला इंतज़ार।"


निर्मला न जाने किस सोच में डूब गई थी। कल रात ही तो बेटों को याद कर तकिए में मुँह दबाये वो घण्टों रोई थी।निर्मला अक्सर सोचती थी बच्चे पिता से एक बार और माँ से दो बार अलग होते हैं। एक बार गर्भनाल से और एक बार अपने सपनों की तलाश में ...देखा जाये तो माँ का दर्द पिता के दर्द से ज्यादा ही होता है। निर्मला की सूजी हुई आँखें उसके दिल का हाल बयान कर रही थी।उसके मन के गीले आकाश पर अभी तक छाई थी कल रात की यादें..


                                                                 चित्र- आरती वर्मा


"भाभी! हर साल लगता है विवेक अब तो आयेगा।उम्मीदों के साल दर साल बीतते जा रहे हैं पर मेरे जीवन में आया पतझर तो मानो बस ही गया है जाने का नाम ही नहीं लेता।

बच्चों को लगता है उम्र के साथ माँ-बाप बूढ़े हो गए पर वह यह नहीं जान पाते कि माँ-बाप को उम्र नहीं बच्चों की जिम्मेदारियां बूढ़ी कर देती हैं पर हमें तो उनका इंतज़ार बूढ़ा कर रहा है।एक ऐसा इंतज़ार जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।"


"इतना क्यों सोचती हैं भाभी,भाईसाहब को देखिए कितना मस्त रहते हैं अपनी दुनिया में...एक-एक सामान कितने उत्साह से दिखाते हैं।धीरज और विवेक की तारीफ करते नहीं थकते,अभी इनको नया वाला टी. वी. दिखा रहे थे। पिछली बार कितने उत्साह से बता रहे थे,"भाभी इस घर में हम दोनों बूढ़े-बुढ़िया को छोड़कर सब कुछ नया है।" इतने लायक बच्चे मिले हैं, कितना ध्यान रखते हैं आपका… और क्या चाहिए।"


लाल-लाल सूजी हुई आँखों को अपने आँचल से पोछती निर्मला ने शांति जी को देखा,


"भाभी क्या हमें अपनी संतानों से बस यही चाहिए था,आपके भाईसाहब और मैं इस शहर में एक अटैची लेकर ही आये थे। सोचा था पैसा नहीं है तो क्या हुआ हम सब में प्यार तो है पर देखिये न आज इस घर में पैसा तो है पर प्यार न जाने कहाँ खो गया।घोसला बनाने की फिक्र में हम इतने मशगूल हो गए कि हमारे पास भी उड़ने को पंख है ये भी भूल गये।सुना था कि जिंदगी की हर सुबह कुछ शर्तें लेकर आती है और ज़िंदगी की हर शाम कुछ तजुर्बे देकर जाती है पर हमारी ज़िंदगी ऐसे तजुर्बे देकर जायेगी ये सोचा न था…"


निर्मला की बात सुन शांति जी गहन सोच में डूब गई, सच ही तो कह रही थी वो..पाँच साल हो गए बेटे को अमेरिका गये हुए पर उसने कभी पलटकर भी नहीं देखा कि हम मर रहे या जी रहे।जब भी उससे भारत आने की बात पूछो तो वो उखड़ जाता।वो तो नहीं आता पर जन्मदिन, तीज -त्योहार पर उसके भेजे ऑन लाइन उपहार जरूर आ जाते हैं। पिछले महीने ही तो उसने फ़ूड प्रोसेसर भेजा था, क्या कहती वो... उसके जाने के बाद ज़बान तो क्या ज़िंदगी का स्वाद भी जाता रहा।क्या बनाती और किसके लिए बनाती…


"भाभी!यही घर बच्चों के रहने पर कितना छोटा लगता था।चैन के एक पल के लिए तरस कर रह जाती थी अब यही घर उनके बिना भाय-भाय करता है। बच्चों के रहने पर इस घर की दीवारें भी खिलखिलाती थी पर आज...आप अकेले बोल तो सकते हैं पर बातचीत नहीं कर सकते। आप अकेले आनन्दित तो हो सकते हैं पर उत्सव, तीज-त्योहार नहीं मना सकते। आप अकेले अपने एकांत के साथ मुस्कुरा तो सकते हैं पर ख़ुशियाँ नहीं मना सकते हैं। सच पूछिए तो हम रिश्तों के बिना कुछ भी नहीं है।आपने सही कहा ये मुँह से तो कुछ नहीं कहते पर दिन पर दिन एक अजीब सा चिड़चिड़ापन इनके व्यवहार में आता जा रहा।ये पुरूष बहुत चालक होते हैं, सच कहूँ तो बेचारे होते हैं। ज़िंदगी एक पर्दे की तरह ही तो है, जिसके इस पार वो और उस पर स्त्री रहती है।स्त्रियाँ तो एक बार अपनी दिल की गिरहों को सबके सामने खोल भी देती है पर पुरूष कभी नहीं खोलता अपने मन के किवाड़ों को ...कस कर बन्द कर देता है उन दरवाजों को और लगा देता है पुरुषत्व की साकल...क्योंकि वो नहीं चाहता कि कोई ये जाने वो बन्द दरवाजों के पीछे फैले अंधेरे कमरों में कैसे घुट-घुटकर जीता है।"


"निर्मला भाभी सच कह रही है आप...बच्चे कहने को तो हमसे बहुत दूर चले गए पर उनकी यादें गाहे-बगाहे माँ-बाप के दिल पर सेंध मारती ही रहती हैं।बच्चे ज़िंदगी की दौड़ में इतने आगे निकल चुके हैं कि अपने नीड़ को भी भूल गए पर वो ये नहीं समझते कि रिश्तों की उष्णता बनाये रखना चाहिए कहीं ऐसा न हो कि उनकी छोटी सी अनदेखी रिश्तों के साथ इंसान को भी ठंडा कर दें।बच्चों के घर के पते बदल गए और ऐसे बदले कि उन पतों के पते भी ढूंढना किसी तकनीक के बस की बात नहीं रही…"


शांति जी की आँखें भी न जाने क्या सोचकर भर आईं,


"भाभी जी सब हमारा इंतज़ार कर रहे होंगे,आइए चले…"


निर्मला और शांति हाथ में चाय और नाश्ते की ट्रे लेकर बैठक की ओर चल पड़ी। नया फीचर वाला टी वी पर ऑन लाइन खरीदारी करने वाली कंपनी गला-फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही था "इन डिब्बों में क्या है सामान ही तो है अपनों से जुड़े रहने का अरमान ही तो है।" काश अबकी बार ये डिब्बा अपने साथ इस घर की खुशियाँ भी ले आये।निर्मला भाभी की आँखें जिन्हें हमेशा ढूंढती है काश वो भी ये ऑन लाइन वाले घर तक पहुँचा पाते।

परिचय

डॉ. रंजना जायसवाल

एम.ए., पी.एच. डी.(हिंदी साहित्य)

लाल बाग कॉलोनी

छोटी बसही

मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश

पिन कोड 231001

मोबाइल न-9415479796

Email address- ranjana1mzp@gmail.com



विधायें - लेख,लघु कथा,कहानी,बाल कहानी,कविता,संस्मरण और व्यंग्य


पुरस्कार- अरुणोदय साहित्य मंच से प्रेमचंद पुरुस्कार

भारत उत्थान न्यास मंच से विशिष्ट वक्ता पुरुस्कार

गृहस्वामिनी अंतराष्ट्रीय और वर्ल्ड राइटर्स फोरम द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार

श्री हिन्द पब्लिकेशन द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में तृतीय स्थान




दिल्ली एफ एम गोल्ड ,आकाशवाणी वाराणसी,रेडियो जक्शन और आकाशवाणी मुंबई संवादिता से लेख और कहानियों का नियमित प्रकाशन, 


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कथरी

चदरिया झीनी रे झीनी



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