मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल 17

अनुपम सिंह समकालीन कविता की दृष्टि सम्पन्न ,चेतनाशील कवि हैं। आपकी कविताओं में युवा मन की छटपटाहट, दुनिया बदलने की तीव्र इच्छा शक्ति और औरतों के मन- मिजाज़ को समझने की समझ साफ देखी जा सकती है।गाँव,कस्बों से होते हुए महानगर तक की यात्रा में अर्जित किए गये अनुभवों से कविता का कोलाज गढ़ती अनुपम की राजनैतिक दृष्टि कविताओं में प्रतिरोधी चेतना को आक्रोश के साथ दर्ज करती हैं।

अनुपम केवल कविता नहीं लिख रही हैं,बलकि उस धर्म सत्ता, पितासत्ता और समाज सत्ता से सवाल पूछती हैं कि आखिर क्यों औरतों के हिस्से इतना दोहरापन है ,क्यों उन्हें देह भर स्त्री की परिधि में घेरकर बार -बार घर की ढ्योढ़ी तक सीमित रखने की साजिशें होती हैं।अनुपम ,सीमा आजाद,आरती,सविता पाठक,उपासना झा,नताशा,सीमा संगसार, रूपम मिश्र आदि समकालीन कविता में जिस प्रतिरोधी चेतना को तीव्र आक्रोश के साथ दर्ज करती हैं वह पीछले पन्नों में कात्यायनी, सविता सिंह,निर्मला पुतुल आदि वरिष्ठों की परम्परा का वाहक हैं।

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1-आसान है हमें मनोरोगी कहना 


सपने रात के कालाजार हैं 

परजीवियों की तरह कचर-कचर कर खा रहें हैं  

मेरे माथे में खोद रहे हैं गहरा कुआं  

वे मारकर रटाए गये पाठ की तरह    

मन वितृष्णा से भर देते हैं 

 

उनकी सिरायें भले उलझी हों 

उनकी आदिम जड़ें उस पेड़ में हैं 

जिसने दूसरे पेड़ों को कमतर बनाया 


पूछ रही हूँ तुमसे 

और सबसे  

आखिर! क्या मतलब है

पश्चिम दिशा में उगे साँप का

जो फन फैलाये हर वक्त डसने को 

लपलपाता है अपनी जीभ


सपने जो गाँव की पगडंडी धर आते थे 

शहर की अनिद्रा में दुहराते हैं खुद को 

इससे मेरी नहीं 

उनकी जीवटता पता चलती है 

फलवती नहीं हुईं मान्यताएँ 

सात ब्रह्मण ,सात फ़कीर को जिमाना

उस गुसाईं की सेवा 

जो रात की पीठ पर 

चाकुओं से स्वास्तिक बनाता था  

अँधेरे में डूबी बेदियों पर

देर तक अभुआना 

पत्तो को कांटे से बींधकर 

सिवान के कुंए में फेंक आना 

औरत की देह पर सवार देवता कहते हैं 

तू उनकी सवारी है 

तेरे मुड़ते ही लौट आए थे वे


एक आदमकाय, सींगवाला 

आधा जानवर ,आधा मानुस 

जाड़े की धुंधभरी रातों में दौड़ाता है 

मेरे पैरों में बड़े-बड़े पत्थर बांध देता है कोई 

पैरों को घसीटते घुस गयी हूँ 

अडूस और ढाख के जंगलों में 


वह जंगल अब जंगल नहीं

एक सूनी सड़क है 

जिसके दोनों ओर हड्डियों का ढेर लगा है

तराजुओं पर धरे हैं बड़े-बड़े बटखरे

मैंने चिल्लाकर कहना चाहा

फिर से लौट आये हैं डायनासोर

मेरे जबड़ों को जकड़ लिए उनके हाथ

उनकी बदबू घोंटने लगी गला मेरा 

सांसे उफनने लगीं मेरी आँखों में 

 

मैं साँय-साँय करती सड़क पर भागने लगी 


रात सोने से पहले धुल लेती हूँ पाँव 

फिर भी दिन चक्र की तरह घूम जाता है 


आज फिर दूर वाले फूफा जी आए हुये हैं 

चमकीली पन्नियों से झांकती हैं टाफियां 

बच्चे टाफियों पर आँखे गड़ाये घोंट रहे है 

मुंह में तैर आयीं इच्छाएं  

बच्चे टाफियों को तारे या फिर 

जादू की पुड़िया समझते हैं 


आँगन में खड़ी तारों को निहारती हूँ मैं  

वेस्वाद टाफियां घुलती जाती हैं मुंह में  

भुनभुनाती हूँ 

उनकी पुड़िया का जादू  

उनकी इच्छाओं का विसखोपड़ा है 

उनकी शुभेक्षा एक शातिर अभिनय 

पाँव छूती बहनों के पीठ पर 

ताउम्र धरा रह गया है उनका हाथ  

 

वह डॉक्टरनुमा व्यक्ति फिर आया हुआ है

जो मेरे गाँव की सभी औरतों का इलाज करता है 

पूछता है-पेशाब में जलन तो नहीं होती 

एक प्रश्न उन सभी की तरफ उछालकर

जाड़े की रात में भी ग्लूकोज चढ़ाता है 

और रात भर उन औरतों का हाथ 

रखे रहता है अपने शिश्न पर 


फिर सपने में आते हैं मुंहनोचवे 

वे स्कूल जाती लड़कियों को अपनी बसों में लादते हैं 

चारपाई के पावे से बधी हुई हूँ मैं 

छटपटाहट में खुल जाती है नींद 

मेरा चिपचिपाया हुआ बिस्तर!

घिन्न आती है मुझे 


रात  गिड़गिड़ाती हूँ देवताओं से 

तुम्हारे सपने गड़ते हैं मेरी पीठ में 

कोई और सपना मत दों मेरी नींद में 


उस रात पता नहीं

कब !कहाँ ! कैसे! 

निर्वस्त्र ही चली गयी हूँ 

सर्चलाइटों से चुधिआयी मेरी आँखें  


टेबल पर पड़ी मेरी देह पर वे 

धारदार हथियारों से वार करते हैं 

मुझे सबसे गहरी खाई में फेक देते हैं वे 

मेरी सांस फूल रही है 

मेरे सांसों की डोर पकड़े चल रही हैं लाल चीटियाँ 

चालते हुए मेरे फेफड़े 

डर से रेघती है मेरी आवाज़ 

मैं अपने कपड़े खोजती हूँ 


करवट बदलने से बदलता नहीं  दृश्य 

मद में झूमते 

और खुंखार हो लौटे हैं वे 

बगल में सोयी माँ पूछ रही है -

फिर कोई सपना देखा तुमने 

मैं कहती – नहीं अम्मा ! 

सो जाओ तुम 

मैं सोच रही हूँ    

कितना आसान है कहना 

कि यह मनोरोगी है



                                                                          चित्र- आरती वर्मा




2-रंग जहां अपराधी होते हैं 


आइने के सामने खड़े होते ही 

झगड़ालू स्मृतियाँ परावर्तित होकर

फैलाती हैं गहन अंधकार 

असभ्य स्मृतियाँ याद करातीं हैं 

पहली अज़ान-सी दादी की अस्फुट ध्वनि 

गहरी रेखाओं से भरा पिता का पहला दर्शन 

बेसन के घोल-सा गाढ़ा अम्मा का मौन 


दादी रंगों को लेकर मुखर थीं 

कितनों की बेटियों को मार चुकीं थीं ताना 

बिन ब्याही मर जाने का 

जैसे मैं उन्हीं में से एक हूँ 

जो मर गईं थीं हिस्टीरिया में 

लौट आयी हूँ सब कुछ वापस करने 


पिता का ही रंग मिला था विरासत में 

मेरी नज़र में पिता ही अपराधी थे 

लोंगों के बीच अपना बचाव करती

हाँ पिता पर ही गयी हूँ मैं

 

याद आती है वह लड़की 

जो दिन-दिन मेरे साथ खेलती 

खेल-खेल में बस जाता एक घर  

दुनियावी सम्बंधों की सहज ही 

अदला-बदली हो जाती   

उन दिनों जूठा खाकर 

सखी बनने का विश्वास था    

उसके पास मुझे पराजित करने का 

अचूक हथियार था मेरा कालापन 

काला रंग नहीं गाली की तरह लगता 

खिसिआहट में काली बिल्ली बन 

मैं गिरा देती वह घरौना 

उन दिनों हर खेल का अंत

और अंजाम यही होता था   


वे औरतें जिनके पास बैठते ही 

मेरे सांस की तकलीफ़ बढ़ जाती 

जिनकी बात अक्सर बदल जाती 

फूहड़ फुसफुसाहटों में 

उनके लिए काली सौंदर्य की नहीं 

संहार की देवी थीं 

जिसकी शक्ल मुझसे मिलती  

जबकि संहार वे मेरा करती थीं 


मेरे मस्तिष्क में ख़ून बड़ी मुश्किल से चढ़ता

और उतरता किसी तूफ़ान की शक्ल में   

वे औरतें नहीं पढ़ पातीं थीं 

मेरे चेहरे की बेचैनी  

जब मैं उन्हीं के बीच बैठकर मुस्कुराती

वे हर समय व्यस्त दिखतीं

जैसे किसी ख़रीद-फ़रोख्त में 

वे गोरी लड़कियों के रिश्ते जोड़तीं 

भाई- भतीजे या किसी रिश्तेदार से 

वे भद्दा मजाक़ करतीं और बनावटी हँसी हँसतीं  

सुंदरता की व्यापारी वे औरतें 

ठीक मेरे पीछे खड़ी दिखाई दे रहीं हैं आइने में

 

आइने के सामने उड़ रहीं हैं

नयी पुरानी कई तस्वीरें 

मानों तस्वीरों में चिढ़ाते हैं दोस्त 

मैं कितनी ईर्ष्यालू हो रही हूँ 

मेरा अपना प्रेमी चिढ़ाता है 

मैं कितनी हिंसक हो रही हूँ 

मेरी उपस्थिति के बाहर भी

तस्वीरें गवाही देंगी कालेपन की 

इसलिए मैं कुतर रही हूँ 

सभी तस्वीरों से अपना चेहरा 


कम उम्र में अधिक पराजय दर्ज़ है मेरे नाम

जाने कब से भर रहा है मुझमें 

पराजय का यह भाव 


एक दूसरा चेहरा उभरता है 

बहुत पास से कहता है- 

लंबी सांस लो 

ये लो पानी पिओ 

क्या देखती रहती हो आइने  में 

मैंने कहा-

शुक्रिया दीदी ।



                                                               चित्र-आरती वर्मा


3-हमारा इतिहास 


एक औरत की पीठ पर नील पड़ा है 

वह अभी-अभी सूरज को अर्घ्य देकर लौटी है  

देवताओं और राजाओं के कपड़े धोते-पछीटते 

एक दूसरी औरत की झुकी हुई पीठ 

एक पीठ की विसात पर फेंकी गयीं पासे की गोटियाँ 

एक शापित शिलाखंड 

जिसके लिए औरतें 

अनादिकाल से एड़ियाँ रगड़ रही हैं 


इतिहास का एक पन्ना 

जिसके कोने में दर्ज़ हैं विषकन्याएँ

हाँ ,वही विषकन्याएँ 

जिनके नाम दर्ज़ हैं राजकुमारों 

की हत्याओं के षड्यंत्र 


वे चीख रही हैं भरी अदालतों में 

झूठ...झूठ ...झूठ 

स र ss स s र  झूठ 

जन्मना विषकन्याएँ नहीं थीं हम  

विष को धीरे-धीरे उतारा गया 

धमनियों,नसों और सिराओं में 


एक सच ,कि झूठे स्वाभिमान और 

स्वार्थों के लिए औरतें 

युद्ध में कभी शामिल नहीं रहीं 

न तो औरतों के लिए कोई युद्ध

लड़ा गया इतिहास में 

वे एक स्वर में कहती हैं 

झूठ के ताले में बंद है हमारा इतिहास 


हम औरतें  

चुड़ैल बन भटक रही हैं इधर-उधर 

पीपल के पुराने पेड़ों 

वीरान खंडहरों में हमारा ही निवास है 

हाँ, हमीं थीं 

जो जंगलों से निकलकर 

उनके ख़ूनी बावड़ी का पानी पीतीं 

और अपनी काली छाया से डरा करतीं 

अपनी आँख पर गीली रेत की ठंढई लेपतीं

बावड़ी के किनारे या ऐन चूल्हे के नीचे 

जहाँ धधकती है आग 

चुड़ैलों के ही अवशेष मिले हैं

खुदाइयों में 


हम खड़ी दोपहर की आँधियों सी-चलतीं 

मातम मनाते हुए

जो एक साथ कूद गईं थीं चिताओं में 

जौहर करने

खौलते तेल में जो छान दी गयीं थी 

ताजी मछलियां कहकर 

जो अहरे की तरह सुलगायी गयीं थीं  

दाल का आदिम स्वाद चखने के लिए 


ज़जीरों की मज़बूत कड़ी-दर-कड़ी  

जिनपर पांव रख वे 

चहलकदमी करते 

टहल आते युगों-युगों में

 

लेकिन हम तो सबसे कमज़ोर निर्मितियाँ थीं 

इसलिए सबसे अधिक रूठा करतीं 

कूद जातीं कुंओं में 

औ फूल बन उगतीं थीं 

कुंओं से लौटती प्रतिध्वनि 

हमारा ही अधूरा गान है 


शिल्पकारों नें देह की विभिन्न आकृतियाँ बना 

कील दिया स्थापत्यों में 

पहले उन्होंने नंगी औरतें बनायी 

जब उनकी ही कुदृष्टि चक्कर काटने लगी 

और दिखने लगे हरे कटे घाव 

तब उधड़ी हुई पीठ पर सुइयां चला 

एक मोटा तम्बू तान दिया देह के गिर्द 


जब हमारी ढकी हुयी देह 

अंधेरों का रहस्य लगी उन्हें 

लगभग पगलाए हुओं की तरह 

छेनियों से मनमाना वार किया 

वे हर बार देह की नाप लेते 

और रंदा चलाते आत्मा पर 

वे हर बार नुमाइश में लगाकर 

जीत लेते नुमाइश  

तब से लेकर आजतक 

उस राह का हर राहगीर  

हमारी टेढ़ी कमर पर हाथ फेर लेता है 


धर्मग्रंथों और इतिहास की

स्याह पाण्डुलिपियों को 

अपनी पीठ पर लादे 

औरतें फिर रही हैं प्राचीनकाल से 

हमारी पीठ पर जो कूबड़ दिखाई दे रहा है 

वह उसी का बचा हुआ अवशेष है


हम यक्षणियों को क़ैद हुये 

लंबा अरसा गुजरा है    

धनकुबेर के तहख़ानों 

इतिहास के पन्नों 

और तुम्हारी कलाओं में 

अब छटपटा रही हैं हमारी आत्माएं  ।



                                                                  चित्र-आरती वर्मा

4-पिता से 

दरवाज़े पर एक सूखी नल है पिता 

जैसे धरती के सोते से 

टूट गया हो संबंध ही उसका 

या सिर्फ  बहने लगी हो रेत

घाम से थके राहगीर लौट रहे हैं

गला तर किये बिना अपना 

मेरे हलक तक में वह रेत फैल गयी है 

पानी के बदले इतनी रेत कहाँ से आयी पिता 


जब मैं छोटी थी 

झूल जाती नल के हत्थे से

तब चोटों और जिद्दी इच्छाओं के बीच

अंतर नहीं कर पाती थी

फिर, नल भी इतना गाढ़ कहाँ चलता  

उछलकर कूदती 

लोटा भर जाता पानी से

अब तो बरसात में भी नल पानी छोड़ देता है

बरसात भी पहले जैसे 

कहाँ होती है पिता

 

अब अम्मा सूरजमुखी मिर्च नहीं लगातीं 

खेत की धूल आँगन तक आ जाती है

होली के  सूखे रंग बिखरे हैं बालों में 

भैसें अब भी आदत बस तालाब में जातीं हैं 

वे वहां घास की नहीं

पानी की जड़ें खोजती हैं 

लड़के पिताओं की चोरी से

तालाब पार करने की बाज़ी नहीं हारते

न तालाब ही ताजी मछलियाँ देने 

दरवाजे तक आता है 

अब आसमान से

मछलियाँ गिरतीं ही नहीं 

आसमान भी पहले जैसा पारदर्शी कहाँ रहा पिता


याद है !

जब पहले किसी साल बरसात नहीं होती

बच्चे इन्द्र से पानी मांगने जाते  

द्वार-द्वार पानी गिरा उसमे लोटते

इस तरह अपना प्रतिरोध दर्ज़  करते थे बच्चे

औरतें  नंगी होकर

आधी रात में हल चलातीं

यह उनके प्रतिरोध की अपनी भाषा थी

कहते हैं, इन्द्र गौरैया भेजते थे  

अपना दूत बनाकर

वे आतीं, धूल में नहाकर

पानी का आगम दे जातीं

अब तो बच्चों का भी भ्रम टूट गया

इन्द्र पानी का देवता था ही नहीं

सच बताओ पिता!

तुमनें इन्द्र की झूठी कहानियाँ क्यों सुनाई


धूल मे नहाती चिड़िया

पानी के लिए लोटते बच्चे

किनकी इच्छाओं का परिणाम हैं

  

ओह पिता !

मुझे जितना शोक तुम्हारे लिए है

उतना ही उन पेड़ों के लिए

जिनसे कुर्सियाँ और मेंजे बनी


मैं शोक करती हूँ पिता!

आसमान में टंगी मछलियों

इन्द्र से गिड़गिड़ाते बच्चों और

नंगी औरतों के लिए 



5-सफेद दूब-सी तुम   

सपनों की दुनिया में

सीखों की गठरी 

साथ लायी थीं लड़कियां 

उम्र के दहलीज़ पर 

मचल रही थीं 

देह की अनचीन्हीं इच्छाएं 

प्रशाखाओं से फूट रहीं थीं 

सप्तपर्णी की कोपलें 

लड़कियां औरतें बन रहीं थीं 

उन्हें आकर्षित करतें 

उनके उम्र के लड़के

वे एक दूसरे की चिंता करतीं

ईर्ष्या करतीं एक दूसरे से


खेतों मेंड़ों से होकर 

उड़ा जा रहा था मेरा भी मन 

बवंडर-सा, तुम तक 

बज रहा था 

झिल्लियों का अनवरत संगीत 

हम बंजारों-सा बदल रहीं थीं 

बार-बार मिलन की जगहें

छोड़ती रहीं अपने घायल पैरों की छाप 

कितनी बार छीली गयी वह घास 

उसकी जंग थी 

अपनी हार के खिलाफ़

उस सफ़ेद दूब-सी तुम  

मन-कोटरों में उग आयी थीं  


उमस भरी रात 

हलचलों से पटी जगहें 

फिर भी बंद था एक दरवाज़ा

कम डर नहीं था उस समय 

दरवाज़ा खटखटाए जाने का 

कूकरों की सीटियों के बीच 

गैस का दाब ख़त्म होना आम बात थी 

वहां चीजें घटने का कोई कलेंडर नहीं था  

इच्छाओं ने डर से डरते हुए भी 

उसे परे ढकेल दिया था 

राम की घोड़ियों की तरह 

एक दूसरे को पीठ पर 

लाद लिया था हमने 


एक जोड़ी सांप की तरह 

एक दूसरे में गुंथी रात 

बूंद-बूंद पिघल रही थी हमारे बीच 

हमने पहली बार महसूस की

होंठों की मुलायमियत

तुम्हारे हाथ मेरे स्तनों को 

ओह !कितना तो अपनापा था 

न पीठ पर खरोंच 

न दांत के निशान 

आहत स्वाभिमान के घमंड से  

उपजी बदले की भावना भी नहीं 

एक दूसरे की देह को 

अपनी -अपनी आत्मा-सी 

बरत रहीं थीं हम 


हमारे बीच महक रही थी 

सप्तपर्णी की कच्च कोपलें 

देह के एक-एक अंग को हमने 

साझे में पहचाना था उस रात 


रात बीतती रही  

छंटती रही रात की उमस

हलचलों से पटी जगहों में 

पसर गया अंतिम पहर का सन्नाटा


रात बीत गयी 

अँधेरा चिपका रहा चहरे पर 

चेहरे की शिनाख्त में छोड़े गए हैं

कई जोड़ी खोजी कुत्ते  

परित्यक्त जगहों की तलाश में 

भटक रही हूँ 

मैं बदहवास 

अपना ही बधस्थल खोज रही हूँ 


सूखे हुए कुएं 

उखड़ी हुई पटरियां 

खचाखच भरी जगहें 

छुपने का ठौर नहीं इस शहर में 

सर्च लाइटें 

बेध रही हैं 

आँखों की पुतरियां 

ब्रम्हांड का शोर 

सुन्न कर रहा है कानों को 

बेआवाज़  चीखती मैं 

देवताओं की कसमे खाती

लौट रही हूँ  

मेरे साथ-साथ घिसटती रात 

फिर-फिर भर रही है भीतर 

रात और दिन का यह घमासान 

हुआ और-और गहरा अपराधबोध 

ताकतवर रात पछीट रही है दिन को 

पछाड़े खाता दिन 

हर रात थोड़ा कमजोर दिखा 


दिन की सारी कसमें तोड़ 

हमने हर बार रात चुनी 

इस तरह हमने जाना 

दिन से अधिक 

ताक़तवर होती है रात 

उसके उथलेपन से

ज़्यादा  गहरी भी

 

हमने थोड़ा सपने जिये 

थोड़ा सीखें छोड़ीं  

थोड़ा गुमान किया एक दूसरे पर 

जब शब्द नहीं थे हमारे पास 

तब भी थे कुछ मुलायम भाव 

जब बन रही हो भाषा की नई दुनिया 

भाषा में स्थायी महत्त्व हो रात का 

तो हिचक कैसी 

कैसा अपराधबोध 

हाँ ! प्रेम में थीं  हम दो लड़कियां


6- ज़हरबाद


वे एक जून भूखी रह लेतीं  

बीजों को हाथ न लगाती थीं  


झरबेरी मकोय और भटकइया तक को 

भविष्य के लिए संचित रखा उन्होंने 

उनके बच्चे भी 

इस बात के अभ्यासी थे  

फिर भी उनके आँखों में तिरती रहती

निश्छल सावलीं हँसी  

अब किस देश से आती हैं ये हवायें 

सूख गयी बीजों के भीतर की नदी 

उनके पसीने से भरी नहीं दरारें खेतों की   



कोने में पड़ा-पड़ा उनका हल  

खोता गया अपनी चमक 

घुनी हुई हरसि पिछले ही साल 

लगा दी गयी चूल्हे में 

इस तरह अन्तिम बार उन्होंने 

अन्न और आग को मिलकर 

अपना भोजन पकाया 

अन्तिम बार उनके चूल्हे से उठा धुआं  

हमेशा के लिए जम गया उनकी आँखों में 

और डूब गयी आँखों की रोशनी उनके

आँखों में किरचों की तरह गड़ती है 

आसमान की सफेदी 


अब उन्हें कचोटता है कोई मूर्त दुःख 

जो उनके हाथ के घट्ठों की तरह ही 

उग आया है उनकी जीभ पर 

और वे अपने ही रक्त और नमक में 

अंतर करना भूल गए  



खो गए उनके जुआठा के दोनों शइल

या ले गया कबाड़ी वाला भंगार-भाव  

बच्चों को थोड़ी-सी सोनपापड़ी दे 

या किसी ने गाड़ दिया उनकी ही पीठ में 

छूरे की तरह 


उनके ख़ून में जो बह रहा है 

वह लोहा नहीं 

उसकी कमी का सबूत है ज़हर है मोरचे का 

जहाँ तोपते थे वे ख़ून  सने बलगम अपने  

वहीँ खेतों में दफ्न है

उनका शव भी


उनके बैलों को लकवा नहीं था 

बस नहीं रहा नाधने वाला गोसइयाँ उनका 

वे भूलते गए खेतों में चलने की कला 

दांया और बायां अपना  

कसाई को देख बैलों ने खन डाला ख़लिहान पूरा 

उनके खुरों को 

गोबर और आँसू से मिटाती हैं औरतें

  


छातियों में उतरा नहीं दूध 

तो औरतें पागल हो गयीं 

कें कें करते बच्चे छातियाँ नीछ्ते   

सो गये लम्बी नींद   

औरतें भूंख को पल्लू से बाधें

नींद आँखों में छुपायें हुए

डोलती हैं परछाइयों की तरह 

वे भागी जा रहीं अपना लूगा समेटे 

धरती के साथ ही 

वे भी दफ्न होना चाहती हैं 

 

अपने ही भाग्य से बचे बच्चे 

हत्तियारों की क़ैद में सुबकते हैं  

कई दिनों से कलेवा नहीं खाये हैं वे 

अब उमगता ही नहीं 

उनकी आँखों में कोई सपना 

उनकी जंग खाई आँखें ....!  

उन्होंने इस मिट्टी से  

ज़हरबाद बनते देखा है

लेखक परिचय-

नाम-अनुपम सिंह ,

पता -गाँव लबेदा ,जिला प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेश ।

शिक्षा-इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक ,

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में पी-एच॰डी॰ ।

 विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित ।

‘आल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन एसोसिएशन’ एवं ‘जसम’ से संबन्धित। 

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