सपना भट्ट की कविताओं में प्रेमके विविध भाव और बिम्ब उभरते हैं और हमें उसके मनोवैज्ञानिक तहों में ले जाते हैं।वह स्त्री जीवन में प्रेम के तन्तुओं से जीवन की सघन बुनावट कितनी जटिल है को ठीक-ठीक पहचानती हैं और लिखती हैं-
जब सुधियों से प्यार पुकारे।
और वह अकेली तस्वीर देखने को जी चाहे
जिसमें मेरा मुख नहीं दिखता;
बस एक हथेली से छिपी
तुम्हारे सम्मुख होने की लाज झिलमिलाती है।
तब मुझे नहीं अपने ही भीतर की स्त्री को पुकारना।
जानते हो प्यार !
मेरे व्यथा भी हल्की हो सकती थी।
अगर तुम उसे दबा कर न रखते
तो तुम्हारे भीतर की स्त्री
मेरी सबसे अच्छी सखी हो सकती थी !
सपना की कविताओं में आधुनिक स्त्री के संघर्ष, द्वन्द और भीड़ में अकेलेपन की अकुलाहट रह -रह कर ध्वनित होती हैं।वह सोशल मीडिया के दौर में आधुनिकता के बिम्बों को बखूबी अपनी कविताओं में उकेरती हैं और उसे आज के जनमानस के जीवन से जोड़ती हैं।
इमोजी
तुम कहते हो , खुश रहा करो।
जबकि जानते हो कि ख़ुशी
एक झूठ और छलावा भर है बस ।
तुम्हे मुस्कुराने की इमोजी भेजकर
निश्चिन्त हो जाती हूँ कि मेरे झूठ मुठ हँस देने से भी
तुम्हारे भरे पूरे आंगन का हर फूल खिला रहेगा ।
पीछे पलट कर देखती हूँ तो पाती हूँ
एक लंबा समय ख़ुद से
झूठ बोलने में गंवा दिया ।
जाने किस से नाराज़ थी, ख़ुद से या दुनिया से।
ब्याह के बाद पिता ने पूछा
कि तू सुखी तो है न रे मेरी पोथली ?
माँ ने आंखे पोंछ कर मुझसे पहले उत्तर दे दिया
और क्या ! जमीन जायदाद, उस पर एकलौता लड़का
क्या दुख होगा ससुराल में !
मैंने पिता का हाथ, हाथों में लेकर कहा
तुम अब मेरे बोझ से मुक्त हो गए हो बाबा
मेरी चिंता मत किया करो।
मैं बहुत ख़ुश हूँ, देखो ये मेरे गहने।
पता नहीं पिता आश्वस्त हुए या नहीं,
उन्होंने आंख में तिनका गिरने की बात
कहकर मुंह फेर लिया था ।
मैंने फिर कभी अपना दुःख उनसे नहीं कहा।
अब जब बेटी पूछती है माँ !
आप अकेले इतनी दूर ।
कोई दुख तो नहीं है न आपको
मैं उसकी चिन्तातुर आंखें देखकर कहती हूँ
हां कोई दुःख नहीं। तू जो है मेरे पास ।
मैं अब पत्थरों पेड़ो और नदियों से
अपने दुःख कहती हूँ।
तुमसे कहना चाहा था, कभी कह नहीं पाई ।
क्योंकि तुम्हे सोचते हुए
मेरी इन आँखों मे तुम्हारा नहीं;
अपने अशक्त और बेबस पिता का
प्रतिबिंब चमक उठता है।
मैं घबराकर मुस्कुराने की इमोजी तलाशने लगती हूँ।
सुनो प्यार !
तुम तक मेरा सुख, पहुंचता तो होगा न।
2.पलायन
बाहर देह की मिट्टी भीजती रहती है
भीतर मन को शोक गलाता रहता है
पीड़ा के अक्षुण्ण धूसर दाग़ों से
आत्मा बदरंग होती जाती है।
यह कैसा असंभव आकर्षण है
तुम्हारे अभाव का कि
सारी वांछाएँ तुम पर आकर खत्म हो जाती हैं
मैं रूप, माधुर्य और लावण्य से भरी हुई होकर भी
प्रार्थनाओ में तुम्हे माँगती हुई
कितनी असहाय और दरिद्र दिखाई देती हूँ।
निमिष भर को सूझता नहीं
कि प्रेम करती हूं या याचना !
या याचनाओं में ही स्वयं के स्मृतिलोप की कामना ।
जीवन कठिन परीक्षाओं का सतत क्रम है
देह को देह ही त्यागती है
प्रेम को प्रेम ही मुक्त करता है।
तुम पुरुष हो सो ब्रह्म हो ।
मैं स्त्री हूँ सो भी वर्जनाओं में।
कहीं भाग जाना चाहती हूं
लेकिन कहाँ ?
स्त्री की सहचरी तो उसकी छाया भी नहीं
मृत्यु भी प्रेम के मारे की बांह नहीं धरती।
तिस पर स्त्री देह लेकर पलायन की इच्छा रखना
उतना ही दुष्कर है,
जितना चोरी के बाद
घुंघरू पहन कर चलने पर
पकड़े न जाने की इच्छा करना।
3
.तुम्हारे भीतर की स्त्री
उदास होना कमज़ोर होना नहीं होता।
उदास बस स्त्रियां ही नहीं होतीं
उदास स्त्री, बस स्त्रियों के ही भीतर नहीं होती ।
तुम जब-जब भी हुए हो उदास
मैंने तुम्हें अपने सबसे निकट अनुभव किया है।
जब किसी स्वप्न में औचक
अपनी ही बिसरी याद चली आए ।
किसी को दिया हुआ दुःख जब अपना ही जी दुखाए
तब उस स्त्री के पास लौटना।
व्याकुलताएँ अथाह हों
और स्वर भारी होकर रुँधने लगे ।
अपनी ही कही कोई रूखी बात
अपने ही जी को जा लगे
तब उस स्त्री से क्षमा मांगना।
हँसते हँसते अचानक
आंखें गीली हो जाएं
मन को आंगन का कोई फूल,कोई दृश्य न भाए
तब मन के दर्पण में उसी स्त्री को निरखना।
जब सुधियों से प्यार पुकारे।
और वह अकेली तस्वीर देखने को जी चाहे
जिसमें मेरा मुख नहीं दिखता;
बस एक हथेली से छिपी
तुम्हारे सम्मुख होने की लाज झिलमिलाती है।
तब मुझे नहीं अपने ही भीतर की स्त्री को पुकारना।
जानते हो प्यार !
मेरे व्यथा भी हल्की हो सकती थी।
अगर तुम उसे दबा कर न रखते
तो तुम्हारे भीतर की स्त्री
मेरी सबसे अच्छी सखी हो सकती थी !
4.जोग बिजोग
प्रेम में इतना भर ही रुके रस्ता
कि ज़रा लंबी राह लेकर
सर झटक कर, निकला जा सके काम पर।
मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाए जा सकें
भीतर बाहर के सारे काम।
इतनी भर जगे आँच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे
उतरती रहें सौंधी रोटियाँ
छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे।
इतने भर ही बहें आँसू
कि लोग एकबार में ही यक़ीन कर लें
आँख में तिनके के गिरने जैसे अटपटे झूठ का।
इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर!
कि बच्चे भूखे रहें, न पति अतृप्त!
सिरहाने कोई किताब रहे
कोई पुकारे तो
चेहरा ढकने की सहूलत रहे।
बस इतनी भर छूट दे प्रेम
कि जोग बिजोग की बातें
जीवन मे न उतर आएँ।
गंगा बहती रहे
घर-संसार चलता रहे
5.देखना
आँख सदा वह ही तो नहीं देखती
जो सम्मुख और साकार हो ।
वे उन चीज़ों को भी देखने को अभिशप्त हैं
जो दीखता नहीं।
प्रेम में गिरने से पूर्व मैंने भी कहाँ देखा
उसका उल्लासित घर आंगन
और न ही वह भली, सुघड़ स्त्री
जो उसकी पत्नी है ।
पद प्रतिष्ठा भी कोई देखने की चीज़ है
सो वह भी न देखी।
रंग रूप और आयु के अंतरालों पर भी
मेरी बहुत आस्था नहीं,
लिहाज़ा वह सब भी अदेखा ही रहा ।
सारी धृष्टता इन निगोड़ी आँखों की है
इन्होंने देखा तो बस यही कि
वह उनींदा आधी रात
झुका है अपनी पढ़ने की मेज पर ।
देखा कि उसके सिरहाने
येहूदा अमिखाई की एक किताब खुली पड़ी है।
उसे जब तब याद आते हैं
नागार्जुन और देवताले
और यह भी कि वह अक्सर
हँसते हँसते रो देता है।
उसकी दराज में बीती स्मृतियों के कुछ पुलिंदे हैं
जिनकी टीस उसके सीने में भरी रहती है ।
कैसा विनोद रचते हैं ईश्वर भी
अदेखे को देखना भी
ईश्वर का सुझाया परिहास ही ठहरा।
मैंने उसके संसार मे हस्तक्षेप नहीं किया।
न कोई याचना ही की ।
स्वाभिमान और प्रेम दोनो एक हिय में रखना
हालांकि टेढ़ी खीर थी।
उसकी ख़ुशी मेरी सबसे बड़ी मुराद थी
सो एक कभी न भेजे जाने वाले ख़त में लिखा
कि प्रेम की असम्भव यात्रा पर हूँ।
एक दुःख सराय में ठहर गयी हूँ।
कैसे कहती कि टूट रही हूँ
बस इतना लिखा कि मर गयी हूँ।
6. त्रास
चित्त के अरण्य में
अंतर का कोलाहल किसका आखेट करता है!
कौन दुःख के सदाबहार फूलों को खाद देता है !
मेरे भीतर एक क्षीण ध्वनि कराहती है
"उसकी याद ही तो" ...
किससे पूछूँ कि
जंगल मे रह-रह कर गिरते
देवदारों के पत्तों का शोक
मेरे मन मे क्यों झरता है !
लकदक बुरांस का रक्त
मेरी आत्मा की कोरी चादर क्यों रँगता है!
जबकि कोई नहीं है उस तरफ,
तब धार के सबसे ऊंचे बांज की
कोटरों से
घुघूती के करुण कंठ में कौन बाँसता है !
कौन बताए?
कि मेरी खोई हुई हँसी,
दबी हुई सिसकी,
और कांपती हुई पुकार
तुम तक नहीं पहुंचती
तो कहां जा कर टकराती है !
( दिल धड़कने और साँस चलने से बड़ा त्रास कोई नहीं। )
परिचय:
सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं।
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि ।
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
पहला कविता संग्रह ' चुप्पियों में आलाप' 2022 में बोधि प्रकाशन से प्रकाशित।
सम्पर्क cbhatt7@gmail.com
सपना भट्ट जी की कविताओं के सार में बहुत गहराई होती है, जितना नीचे उतरते जाओ परतें और गहरी होती जाती हैं.....आपकी लेखनी अनवरत यूं ही चलती रहे l
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