रविवार, 30 जनवरी 2022

आलोक मिश्र की कहानी

   चर्चित युवा कथाकार आलोक मिश्र की कहानी




                                            हम भारत के लोग

'हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को :

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म 
और उपासना की स्वतंत्रता,
 
प्रतिष्ठा और अवसर की समता 
प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और 
राष्ट्र की एकता और अखंडता 
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित और करते हैं।'

    आज कक्षा में घुसते ही मनोहर बाबू ने अपनी ही मनोहर लिखावट में लिखी संविधान की उद्देश्यिका का चार्ट क्लासरूम में सामने की दीवार पर टाँग दिया। चार्ट पर उन्होंने प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, गणराज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समता, गरिमा, बंधुत्व जैसे कुछ शब्दों को अलग-अलग रंगों से लिखा था। जैसे चाहते हों कि विद्यार्थी इन शब्दों को बड़े ध्यान से पढ़ें। कक्षा की शुरुआत उन्होंने यह बोलते हुए की कि, 'सभी बच्चे पाँच मिनट तक मौन होकर चार्ट पर लिखे को कम से कम दो बार पढ़ें।' इस दौरान वह करीने से लगे डेस्क की पंक्तियों के बीच चहलकदमी करते रहे और सुनिश्चित करते रहे कि हर कोई कम से कम चार्ट की ओर देख रहा हो।

     इस वार्षिक सत्र का यह तीसरा ही सप्ताह था। पहले दो सप्ताह तो मनोहर बाबू ने आठवीं कक्षा के इन विद्यार्थियों के साथ अनौपचारिक बातचीत करने, दाख़िला लेकर आए कुछ नये बच्चों के साथ परिचय लेने-देने और विषय संबंधी सामान्य बातें बताने में ही बिता दिया था। यह भी उनकी शैक्षिक रणनीति का ही हिस्सा था; जिससे कि बच्चे उनसे सहज महसूस कर सकें, वे भी उनके साथ घुल-मिल सकें, सब एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ सकें और कक्षा में सीखने का एक बेहतरीन माहौल बन सके। वैसे तो मनोहर बाबू पिछले दो वर्ष से इस क्लास के कक्षा अध्यापक थे। पर पैंतालीस मिनट के पीरियड का ज़्यादातर समय हाज़िरी लेने, विद्यार्थियों की समस्याओं को सुलझाने, ज़रूरत पड़ने पर अभिभावकों को बुलवाने और बातचीत करने, वजीफा बाँटने, बच्चों को समय-समय पर दी जाने वाली स्वास्थ्यवर्धक-रोगनाशक गोलियाँ खिलाने आदि में ही बीत जाता था। इससे वह असंतुष्ट से रहते थे। जब तक वह किसी पाठ को बेहतर ढंग से बच्चों को पढ़ा-समझा न लेते उन्हें चैन नहीं आता था। दूसरी कक्षाओं में केवल विषय पढ़ाने की ज़िम्मेदारी मिली होने से ये काम बख़ूबी हो पाता था, लेकिन इस क्लास में कक्षा-अध्यापक होने की जिम्मेदारी उन्हें उलझाए रहती थी। विद्यालय में ही नहीं बल्कि आसपास के समाज में भी मनोहर बाबू की छवि एक मेहनती, शालीन और अच्छे शिक्षक की थी। सबसे बढ़कर था बच्चों से उनका जुड़ाव। और ये जुड़ाव ही था कि सारे विद्यार्थी उनका भरपूर आदर और सम्मान करते थे। विद्यार्थियों की यह भावना द्विगुणित हो कर उनके अभिभावकों के व्यवहार में भी झलकती थी।
     
       मनोहर बाबू शास्त्री पिछले बाइस वर्षों से शिक्षकीय पेशे में कार्यरत थे। उनका अनुभव और पढ़ाने के प्रति जुनून बेजोड़ था। अभी तक तीन-चार सरकारी स्कूलों में वह अपनी सेवाएँ दे चुके थे। सामाजिक विज्ञान पढ़ाते हुए वह कक्षा में समाज और जीवन की ऐसी जीवंत प्रस्तुति देते थे कि सुनने वाले वाह-वाह कर उठते थे। ऐसे-ऐसे उदाहरण, ऐसी-ऐसी तरकीबें होतीं उनके पास कि पढ़ाई में कमज़ोर से कमज़ोर विद्यार्थी की रुचि भी उनकी कक्षा में जाग जाती। अपनी समझ से वह कभी किसी विद्यार्थी से भेदभाव नहीं करते। उनकी विविधता और गरिमा को बराबर सम्मान देते। ज़रूरत अनुरूप जिसे जैसी मदद चाहिए होती उसके लिए भी प्रस्तुत रहते। मात्र लड़कों का स्कूल होते हुए भी क्लास में वह जेंडर बराबरी की चर्चा बारंबार करते रहते। जातीय-धार्मिक भेदभावों का विरोध करते हुए इन पर समझ ही विकसित नहीं करते बल्कि ऐसा कुछ होते देखकर पुरज़ोर तरीके से वह इसकी मुख़ालफत भी करते। समय पर स्कूल आना-जाना, सामान्यतः कभी किसी भी कक्षा में अनुपस्थित न रहना, ज़िम्मेदारियां उठाना उनकी आदत में शामिल था। यही सब बातें उन्हें सबसे अलग करती थीं और उनके विषय को भी व्यवहारिक व पसंदीदा बनाती थीं।  
     
     तीन-चार मिनट बाद ही बच्चे कसमसाने लगे। मनोहर बाबू को आभास हुआ कि बच्चे चार्ट पर लिखे को पढ़ चुके हैं। सबसे आगे अपनी मेज के पास आकर उन्होंने पूछने के अंदाज़ में कहा, 'आप लोग समझ ही गये होंगे कि आज हम क्या पढ़ने वाले हैं! स्कूल से मिलने वाली किताबें मैंने पिछले हफ़्ते ही आप सबको बाँट दी थीं। देख ली होंगी सबने, या नहीं? नई किताबें तो वैसे भी देखने-पढ़ने का बड़ा मन करता है सबका। या फिर मुफ़्त में मिली होने की वज़ह से आप सबने उन्हें यूँ ही बेकार की चीज़ मानकर बैग में रख भर लिया! हम सब फ्री में मिली चीज़ों की परवाह कम करते हैं न?'
   
      हो सकता है वो कुछ और भी बोलते, पर इससे पहले ही कुछ बच्चों ने बताना शुरू कर दिया। हैदर बोला, 'शायद यह सामाजिक और राजनीतिक जीवन वाली किताब का पहला अध्याय है- संविधान की समझ।' रमेश ने हाँ में हाँ मिलाया, 'हाँ-हाँ, ये उसी पाठ का है।' प्रीतम बोला, 'अरे ये- संविधान की उपदेशिका है। किताबों के पहले पन्ने पर ही लिखी होती है।' हरमन ये सुनकर हंस पड़ा, 'अरे मैंने भी देखा था कल पलटकर। और ये संविधान की उपदेशिका नहीं उद्देशिका है, बच्चू।' कुछ और बच्चे भी हंसने लगे। हालाँकि ज़्यादातर के सिर के ऊपर से ये बातें निकल रहीं थीं। उन्होंने सच में अभी तक किताब के पन्ने पलटकर देखे भी नहीं थे। ऐसे भी उलटने-पलटने से समझ भी क्या आता है! जैसे-जैसे पढ़ाया जाएगा पलट भी लेंगे। ये अलग बात है कि संविधान की ये उद्देशिका उनकी पिछली कक्षाओं की किताबों का भी हिस्सा थीं, जिस पर उन्होंने शायद ही कभी ध्यान दिया हो। हालाँकि छात्रों की इतनी प्रतिक्रियाएं भी मनोहर बाबू के लिए पर्याप्त थीं बात को आगे बढ़ाने के लिए।
      
     अपनी ओजपूर्ण आवाज़ में मनोहर बाबू ने पहले उद्देशिका का अर्थ बताया और फिर चार्ट पर लिखे को पढ़ना शुरू किया। उन्होंने उसमें आए एक-एक शब्द की व्याख्या करनी शुरु की। ऐसा लगने लगा की आज़ादी की लड़ाई के साझे स्वपन और संविधान निर्माताओं की मंशा उनके मुखारविंद से शब्द बनकर झर रहे हों। मानवता के उदात्त मूल्यों से लैस राष्ट्रवाद का तेज उनके मुखमंडल पर चमक रहा था। संप्रभुता को उन्होंने देश द्वारा आंतरिक और बाह्य हर स्तर पर पूर्ण स्वतंत्र व बंधनरहित होकर निर्णय लेने की स्थिति के रूप में उकेरा तो समाजवाद को गरीब-अमीर के बीच भेदभाव मिटाने, अंतर पाटने और बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने की संवैधानिक प्रतिबद्धता के रूप में स्पष्ट किया। उनमें से कई के परिवारों को मिलने वाले राशन और कुछ को मिलने वाले वजीफे को भी इसी के उदाहरण के तौर पर उन्होंने समझाया। पंथनिरपेक्षता को वो विविध आस्थाओं, धर्मों के लोगों के बीच सार्वजनिक मूल्य, जीवनमंत्र और सरकार की निष्पक्ष नीति कहकर उकेर रहे थे तो लोकतंत्रात्मक गणराज्य को जनता की असीम सत्ता कहकर समझा रहे थे। वे बता रहे थे कि, 'हम सभी मिलकर सरकारें बदल सकते हैं, हम लोग ही विधायक, सासंद और देश का सर्वोच्च नेता चुनते हैं, राजा-रानी की कहानी खत्म हो चुकी है।'
  
      वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के संवैधानिक आदर्श को व्यवहारिक उदाहरणों से समझा रहे थे। कभी आरक्षण के प्रावधान का उल्लेख कर उसकी व्यवहारिकता पर आ जाते तो कभी किसी-किसी विद्यार्थी से ऐसे समूहों के बारे में पूछते जिन्हें बराबरी पर लाने के लिए विशेष प्रयास किए जाने और सरकारी मदद की ज़रूरत हो। ऐसे कुछ उदाहरण वे खुद भी देते जाते। स्वतंत्रता को प्रकट करते हुए वह बताने लगे कि कितनी मुश्किल से हमें आज़ादी मिली और आज हम सब आज़ाद हैं; अपने काम करने के लिए, बात रखने के लिए, सरकार चुनने के लिए, कहीं भी आने-जाने के लिए, कुछ भी करने के लिए। समानता को बताने के लिए तो उन्होंने अपनी कक्षा का ही उदाहरण सामने रख दिया जहाँ हर विद्यार्थी समान था, किसी के साथ भेदभाव नहीं था, सभी को बराबर के अवसर थे, अभिव्यक्ति की समान आज़ादी थी। व्यक्तियों की गरिमा के बारे में बात करते हुए वे इंसानी गर्व के दर्प से चमक उठे। वे हर एक को महज़ इंसान होने मात्र से अधिकार, सम्मान और आदर का हक़दार बता रहे थे। इन शब्दों पर बात करते हुए वह यह भी दुहराते जाते कि यदि हम उद्देशिका को जान लें तो अपने विस्तृत संविधान और लोकतंत्र को भी समझ पाएँगे।
     
       मनोहर बाबू ने पिछले सत्रों से ही विद्यार्थियों के बीच यह नियम लागू कर रखा था कि जब भी वह कुछ महत्वपूर्ण बता या समझा रहे हों वे सब उसे अपनी काॅपी में नोट करते रहें, भले ही अपने शब्दों में। पीरियड समाप्त होने से पहले अंतिम कुछ मिनट में वह सरसरी तौर पर इसे जांचते भी। सो, हर बच्चा यह काम करता ही क्योंकि किसी को भी काॅपी दिखाने को कहा जा सकता था। आज मनोहर बाबू पढ़ाने की लय में इतने बह गये कि इस परिपाटी का ध्यान न रहा। घंटी बज गई। जाँचकर कुछ देर में लौटाने की बात कहकर उन्होंने कुछ विद्यार्थियों की काॅपी उनके सामने से जल्दी-जल्दी उठा लिया। उन्हें दोनों हाथों में समेटे हुए वह कक्षा से बाहर निकल आए। 
   
      काॅपियां मनोहर बाबू ले तो आए, पर पूरे दिन कामों में ऐसे उलझे कि उन पर नज़र भी न डाल पाए। अगले ही दिन विद्यालय में स्थानीय विधायक जी के आगमन की सूचना मिलने से पूरा विद्यालय घबराहट और भय के मिले-जुले भाव से हिल सा गया था। विधायक जी पिछले महीने ही बनी नई सरकार में बतौर युवा शिक्षामंत्री राज्य कैबिनेट का हिस्सा बने थे, इसलिए दबाव और भी बड़ा था। बेहतरीन अगवानी और मेज़बानी की मंशा से उपजी हड़बड़ाहट विद्यालय प्रमुख सलीम सिद्दीकी जी के चेहरे पर पसीने की बूंदें तैरा दे रही थी। उन्होंने झटपट कुछ शिक्षकों की टीम बना सारी व्यवस्था संभालने और ज़रूरी तैयारी करने का फ़रमान सुना दिया। कक्षाओं में विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से उपस्थित रहने, साफ़-सुथरा ड्रेस पहनकर आने, सारी काॅपी-किताबें लाने को कह दिया गया। आख़िर मंत्री जी कहीं भी किसी भी चीज़ का निरीक्षण कर सकते थे।

       मनोहर बाबू को स्टेज पर अभिनंदन गान के लिए बच्चों की टीम तैयार करने, मंत्री जी की शान में एक प्रशस्ति पत्र लिखने और कहे जाने पर पर उसे अच्छे व भावपूर्ण तरीके से पढ़ दिए जाने का काम दिया गया। वह पूरे दिन इन्हीं सब में उलझे भी रहे। बच्चों के गायन समूह को इकट्ठा कर अभ्यास कराने में ही काफी समय लग गया। वो क्या पूरा विद्यालय ही रोज़मर्रा के काम जैसे-तैसे पूरे करते हुए शिद्दत से तैयारी में लगा रहा। बहुत से छूटे हुए काम सुबह जल्दी आकर पूरा करने की सहमति से छुट्टी की घंटी बजी। लौटते हुए ही स्टाॅफ रूम की अपनी मेज पर रखी उन काॅपियों पर मनोहर बाबू की नज़र पड़ी। देखकर अपनी भूल याद आई, फिर सोचा, 'चलो घर पर देख लूँगा और कल सुबह लौटा दूँगा। आख़िर शुरुआती दो पीरियड के बाद ही मंत्री जी पहुँचेंगे।' उन्हें समेटकर एक झोले में डाला और अपनी कार में रखकर घर चले आए।
     
      रात में खाने-पीने के बाद मनोहर बाबू काॅपियां जाँचने बैठे। सब में बच्चों ने अपनी-अपनी समझ से बातें लिखीं थीं। उनके दिए हुए उदाहरण ही कई ने लिख लिए थे। कुछ ने तो चार्ट पर लिखे हुए शब्दों की ही नकल उतार ली थी। पर इसे भी मनोहर बाबू लिखने का अभ्यास मानकर सही का निशान लगा स्वीकार कर रहे थे। कुछ ने महज़ स्वतंत्रता, समानता, गरिमा, बंधुत्व जैसे शब्द ही लिख रखे थे। इस पर उन्हें कुछ निराशा ज़रूर हो रही थी, लेकिन यह सोचकर कि जब पाठ को आगे और खोलेंगे और उदाहरण प्रस्तुत करेंगे तो ये बच्चे भी समझ बना पाएँगे, वह दूसरी काॅपी पर आ जाते। पर अभी असली हैरानी और उत्सुकता तो अंतिम काॅपी में छिपी बैठी थीं जो हाथ में खुलते ही मनोहर बाबू से चिपक गईं। 
     
      इस काॅपी में एक भी शब्द न लिखा था। बस बच्चे ने आज की तारीख डालकर चित्रकारी की हुई थी। काॅपी पर लिखे नाम से उन्हें बच्चे का चेहरा ध्यान नहीं आया। सोचा, 'शायद किसी नये बच्चे की काॅपी है।' मनोहर बाबू ऐसे शिक्षक थे जो हर विधा में अभिव्यक्ति का अवसर देते और स्वीकारते थे। इसे भी वह समझने का प्रयास करने लगे। हालाँकि वह ज़्यादा कुछ समझ नहीं पा रहे थे। चित्र में क्या है? आड़ी-तिरछी लाइनें, एक-दूसरे को काटती हुईं। पर लाइनों के सिरों पर तीर या भाले की तरह नोक, सब की सब एक बंद गोले की ओर निशाना किये। गोले के अंदर एक इंसानी चेहरा, शायद एक बच्चे का। उसके पास रखी दो पंख जैसी चीज़, बल्कि कटे हुए पंख जैसी चीज़। गोले के बाहर एक किताब, किताब से निकलती किरणें, सारी किरणें एक दिशा में, एक ऊँचे घर की ओर। शायद घर ही सारी रोशनी को अपनी ओर तरफ़ खींच रहा था। 
   
      देखते हुए मनोहर बाबू का सिर चकरा रहा है, कुछ समझ नहीं आ रहा है। क्या है इस चित्र में? वह जानते हैं कि बच्चों के मनोविज्ञान को समझने में उनके बनाए रेखाचित्र कारगर होते हैं। पर इस रेखाचित्र से क्या मतलब निकल रहा है? उन्होंने दुबारा, तिबारा और फिर कई बार देखा। गोले को देखा, तिरछी लाइनों को देखा, किताब और उसकी किरणों को देखा, ऊँचे घर को देखा, सबको एक साथ देखा। जितना देखते, उलझते जाते। कभी लगता '...ये तीर-भाले कहीं मेरी कही बड़ी-बड़ी किताबी बातें ही तो नहीं जो बच्चे को समझ न आने से चुभती हों।' फिर सोचते, '...नहीं ऐसा नहीं है, मेरे पढ़ाने पर कभी किसी विद्यार्थी ने सवाल नहीं उठाया...उल्टे सभी प्रशंसा ही करते हैं। लेकिन ये किताब...ये कैसी किताब है?...ये कैसा घर है?...ये किरणें, ये रोशनी इधर ही क्यों भागी जा रही हैं?...कहीं बच्चे ने किसी भूतिया घर की कल्पना तो नहीं की?'
    
       यह सब सोचते हुए मनोहर बाबू का काफी समय बीत गया। बेटा दूध का गिलास देने आया तो उन्हें पता चला कि रात के ग्यारह बज गये हैं। याद आया कि मंत्री जी की प्रशस्ति लिखने का काम भी अधूरा पड़ा है। काॅपियां समेट उसे निपटाने लगे। फिर सुबह जल्दी विद्यालय पहुँचने की सोचकर सो गये।
      
      आज विद्यालय की चहल-पहल, भाग-दौड़ देखते ही बनती थी। मुख्य द्वार से असेंबली ग्राउंड और स्टेज तक चूने से घुमावदार रेखाएँ खींची जा रही थीं, जो वहाँ पहुँचने का सही मार्ग बताने के साथ-साथ विद्यालय की सुंदरता बढ़ा रही थीं। उनके दोनों किनारों पर स्काउट के विद्यार्थी खेल-शिक्षक गौरव बाल्मीकि जी के निर्देश पर अलग-अलग रंगों के फहराते हुए झंडे गाड़ रहे थे। माली और चौकीदार गमलों को करीने से सजाते हुए पानी का छिड़काव कर उनमें ताज़गी भर रहे थे। कला शिक्षक विनोद रस्तोगी जी मुख्य द्वार, असेंबली ग्राउंड और प्रिंसिपल रूम के आगे रंगोली बनवा चुके थे। प्रिंसिपल साहब सब कामों का निरीक्षण कर रहे थे कि कहीं कोई कमी न रह जाए। कुछ शिक्षकों को प्रत्येक कक्षा में जाकर विद्यार्थियों को उचित निर्देश देने के काम में लगाया गया था। अनुमान था कि शुरुआती दो पीरियड के बाद मंत्री जी पहुंचेंगे। ड्रम की थाप पर कदमताल करते हुए मंत्री जी के स्वागत में हिस्सेदारी के लिए असेंबली ग्राउंड तक विद्यार्थियों को अनुशासित व पंक्तिबद्ध होकर लाने के लिए क्लास माॅनीटरों की प्रैक्टिस कराई जा रही थी। माॅनीटरों को विशेष रूप से सतर्क रहने की हिदायत भी दी जा रही थी। कुछ ही पलों में विद्यालय यूँ सज-संवर गया था जैसे कि बस तैयार होकर कोई दूल्हा घोड़ी पर चढ़ने ही वाला है। बच्चों में आश्चर्य मिश्रित खुसर-पुसर मची हुई थी। इसमें स्कूल की सजावट के प्रति प्रशंसा के साथ-साथ रोज़ ही ऐसा हो पाने की चाह भी शामिल थी।
 
      आज असेंबली ग्राउंड पर होने वाली नित्य प्रार्थना निरस्त करके सभी कक्षा अध्यापकों को क्लास में जाने और बच्चों को उचित निर्देश देकर तैयार करने को कह दिया गया था। काॅपियों से भरा झोला लिए मनोहर बाबू कक्षा में पहुँचे। आते हुए उन्हें फिर वही रेखाचित्र ध्यान हो आया। सोचा क्यों न बच्चे से ही पूछ लिया जाए! हाज़िरी लेने के बाद उन्होंने एक-एक काॅपी उन पर लिखे हुए नाम पुकारते हुए लौटाना शुरू किया। अंत में वही काॅपी उनके हाथ में थी। ऊपर नाम लिखा था 'सोनू'। उन्होंने नाम पुकारते हुए पूरे कमरे को एक साथ देखा और फिर एक जगह नज़रें खुद ही टिक गईं। जहाँ कोने की सबसे अंतिम सीट से एक बालक उठकर मनोहर बाबू की ओर आने लगा था। देखकर उन्हें ध्यान आया कि ये बच्चा तो उसी मज़दूर का है जो इस साल दाख़िले के लिए उनके पास आकर मिन्नतें कर रहा था। कह रहा था, 'साहिब पिछला एक साल बरबाद हो ही गया है। इस साल दाख़िला हो जाएगा तो बच्चा पढ़ पाएगा। नहीं तो ज़िदगी बर्बाद हो जाएगी। पढ़ने में तेज है हमारा सोनू। चाहें तो परीक्षा ले लीजिए।' उसका नाम...हाँ शायद बिरजलाल था। उसकी बातों और मिन्नतों से पिघलकर मनोहर बाबू ने खुद दाख़िले के कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड आदि बनवाने में उसकी मदद की थी। बिरजलाल ने बताया था कि उसका बेटा सोनू सातवीं तक गाँव के स्कूल में पढ़ा था। पर पिछली बारिश में एक रात एकाएक आई बाढ़ में घर बह जाने और उसकी पत्नी मालती के डूबकर मर जाने से सब कुछ तबाह हो गया था। बिरजलाल उस समय दिल्ली में मज़दूरी कर कुछ रूपये-पैसे कमाने आया था। ख़बर सुनकर वह टूट सा गया था। वह तो बेटा सोनू था जिसकी वजह से वह जी रहा था। उसकी जिंदगी का उद्देश्य अब यह बालक सोनू ही था, जिसे डूबने से पहले उसकी माँ ने अपनी साड़ी खोलकर पेड़ की झुकी डाल से बाँध दिया था। बस वह खुद को न बचा सकी थी। अगले दिन गाँव वालों ने बिरजलाल को ख़बर दी थी। बदहवास हो वह गाँव को भागा था। पर वहाँ उसके लिए बेटे सोनू के अलावा कुछ न था। वह सोनू को लेकर कुछ दिन बाद दिल्ली लौट आया। वहाँ रहकर भी क्या करता?

    मनोहर बाबू एक पल में ही सोनू के बीते जीवन का जाना हुआ हिस्सा सोच गये। सोनू अब तक उनके नज़दीक आकर खड़ा हो चुका था। धंसी आँखें, सूखी काया, मलिन चेहरा उसकी दशा का दारुण गान करते हुए लग रहे थे। मनोहर बाबू पिछले पंद्रह दिनों के संग-साथ में आज उसे इतने नज़दीक से निहार रहे थे। उनके अंदर इस बिन माँ के बच्चे के लिए दया के सोते फूट रहे थे। पर तभी उन्होनें महसूस किया कि सोनू के शरीर से दुर्गंध आ रही है, जैसे नहाया न हो कई दिनों से। कपड़े भी गंदे थे उसके। मनोहर बाबू के अंतस में फूट रहे दया के सोतों पर वर्गीय झुंझलाहट, शिक्षकीय नैतिकता और स्वभावगत गुस्से का मिला-जुला पत्थर रख उठा। उन्हें कुछ उबकाई सी महसूस हुई। वह चित्र पर बात करना भूल सोनू को थोड़ी दूर होकर खड़े होने का इशारा करने लगे। मुँह से पहला ही वाक्य निकला, 'नहाकर स्कूल क्यों नहीं आते? कपड़े भी इतने गंदे हैं, क्या कल ही साफ़-सुथरा होकर आने को नहीं कहा गया था? ऐसे ही गंदे-संदे स्कूल क्यों चले आए? इतना भी नहीं जानते कि बिना नहाए-धोये, साफ़-सुथरा हुए स्कूल नहीं आते? वैसे भी आज मंत्री जी आ रहे हैं।' एक साथ कई सवाल सुन, और सवाल कम अपमान ज़्यादा महसूस कर सोनू दो-तीन कदम पीछे होकर सिर झुकाए खड़ा हो गया। 
 
     पर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। बात तो आगे बढ़कर कक्षा में बाकी बच्चों तक पहुँच चुकी थी। वे सब सोनू को देखकर हँसने लगे थे। शिक्षक से निकली ये दुत्कार और अपमान रूपी नैतिक निर्देशिका बाकी बच्चों के लिए शह देने वाली मंत्र बन गई। तरह-तरह की बातें होने लगीं-

'ये ऐसे ही है सर।' 
'तभी तो सबसे अलग पीछे बैठता है।' 
'बदबू आती है तो कौन साथ बैठे?'
'कभी किसी से बात भी नहीं करता।'

और भी न जाने क्या-क्या! सारी आवाज़ें सोनू को भी साफ़-साफ़ सुनाई दे रहीं थीं। वह और भी खुद में सिमटता जा रहा था। उसे लगा कि शर्मिंदगी कोई नीचे की ओर जाने वाली सुरंग है जिसमें वह फिसलता जा रहा है। मनोहर बाबू ने तभी एक सवाल और चस्पा कर दिया-

'ये काॅपी में लिखने की बजाय क्या चित्रकारी कर रखी है तुमने? आड़ी-तिरछी लाइनें, बंद गोला, गोले में बच्चा, पंख, किताब, बड़ा-ऊँचा घर, एक तरफ़ जातीं किरणें... क्या है ये सब?'

सहमा-दुबका सोनू न जाने कैसे, ये सवाल सुनते ही पूरी तरह तनकर खड़ा हो गया। वह आधा शरीर क्लास की ओर और आधा मनोहर बाबू की ओर करके बोल उठा, 'ये चित्र ही तो असलियत है सर। बाकी तो सब झूठ है, सफ़ेद झूठ।' कहकर वह चुप मार गया।

मनोहर बाबू कुछ समझ न पाए। 

'सफ़ेद झूठ...मतलब! क्या कहना चाहते हो?'

'यही कि सर, आप जो पढ़ाते हैं, किताबें जो बताती हैं सब झूठ ही तो है। कहाँ है बराबरी? किसकी है गरिमा? महज़ अमीर और साफ़-सुथरे लोगों की न! कौन सी स्वतंत्रता और कौन सी बंधुता की बात कर रहे थे आप? क्या मेरे पिता जी इतने स्वतंत्र हैं कि एक दिन भी ठेकेदार को काम पर आने के लिए मना कर सकें और रविवार की छुट्टी मेरे साथ रह सकें? क्या आपसी भाईचारे और बंधुता की हम जैसों को कोई ज़रूरत नहीं, जो रोज़ चाहकर भी नहा ना सकें?' 

कहते हुए सोनू की धंसी आँखें उभर आईं थीं। उसकी आवाज़ कुछ भर्राई हुई तो थी पर वह पूरे विश्वास के साथ बोल रहा था।

'आपने जो कुछ बताया-पढ़ाया था कल, वो सब झूठ था। कहाँ है ऐसा कुछ?'

इतना कहकर सोनू ने फिर आँखें झुका लीं। बच्चे हैरान थे कि अब तक खुद में खोया और गुमसुम रहने वाला सोनू कैसे इतनी तेवर में शिक्षक के सामने उनकी कही बातों को झूठ और ग़लत बता रहा है। मनोहर बाबू शास्त्री ये सोचकर परेशान हो रहे थे कि 'आख़िर उनके पढ़ाए में सोनू को ऐसा क्या बुरा लग गया? वह किस बात पर इतना नाराज़ है?' उन्होंने फिर कहा-

'सोनू तुम क्या कहना चाहते हो? खुलकर कहो, तुम्हें क्या बात बुरी लगी है? तुमने इस चित्र में क्या बताने की कोशिश की है?' मनोहर बाबू ने सोनू की तरफ़ देखते हुए कहा। इस बार उनकी आवाज़ में वो तुर्शी नहीं थी।

'सर आप बहुत अच्छे टीचर हैं। सब आपको पसंद करते हैं। आप पढ़ाते भी अच्छा हैं। बच्चों की बात भी सुनते हैं, इसलिए कह पा रहा हूँ। शायद...आपको आज तक किसी ने बताया नहीं, पर आप पढ़ाते हुए कई बार कुछ ऐसा भी बोल जाते हैं जो अच्छा नहीं लगता। जाने-अंजाने दिल दुखाने वाली बातें भी करते हैं या ऐसा होता देख कुछ कहते नहीं हैं।'

   मनोहर बाबू हतप्रभ हो सोनू को देख रहे थे। उन्हें विश्वास नहीं हो पा रहा था अपने बारे में कही जा रही ऐसी बात पर। आज तक लोगों ने तो उन्हें बेहतरीन इंसान और शानदार शिक्षक के रूप में ही देखा-समझा है। उन्हें अपमान न भी सही पर अपने मान के प्रति ये बात जंच नहीं रही थी। 'फिर ये कुछ ही दिन पहले आये बालक ने मेरे बारे में ऐसा क्या देख-सुन और समझ लिया जो ऐसी बातें कह रहा है।' इस उधेड़बुन में वह इतना ही कह पाए कि- 'जैसे...'

   सोनू ने उनकी आँखों में आँखें डालकर कहा, 'क्या कल आपने ये शक नहीं जताया कि किताबें हमें मुफ़्त में मिली हैं इसलिए हम उनकी कद्र नहीं कर रहे होंगे?'

मनोहर बाबू ने दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कहा, 'हाँ, कहा था।'

'सर, आपको लगता है कि दुनिया में कोई चीज़ मुफ़्त में मिलती है? सरकार किसी भी गरीब को बस बैठे-बिठाये कुछ दे देती है? ऐसा नहीं है। मैंने अपने पिता जी को हमेशा मेहनत करते हुए और काम में डूबे देखा है। इसके बदले उन्हें ठेकेदार बहुत कम रूपये देता है, जबकि वह कागज़ पर अधिक तनख्वाह देने की बात कहकर उनका अंगूठा लगवाता है। मेरी माँ भी बहुत मेहनती थी। दूसरों के खेत में काम करती थी। पर बदले में बहुत कम मिलता था। दोनों मिलकर एक ढंग का घर न बना सके इतनी मेहनत के बावज़ूद। बड़ी मुश्किल से नदी के किनारे की बंजर पर फूस डाल पाये थे वो दोनों। ज़िंदगी फिर भी चल रही थी। पर...वो घर भी उस रात की बारिश और बाढ़ में जाने कहाँ गया...माँ भी छोड़ गई।...उस रात माँ बहुत लड़ी थी सर। घर को बहते देख भी उसने मदद की गुहार नहीं लगाई। क्यों...क्योंकि उसे मदद मिलने उम्मीद ही नहीं थी। हमें छूने से भी कतराने वाले लोग हमारी चिंता क्यों करते, हमें क्यों बचाते? उसने बहुत जूझकर अकेले ही मुझे बचाया। पर खुद न बच सकी...मेरी आँखों के सामने ही वह पानी में बहती चली गई बहुत दूर...सबसे दूर।' उसकी आवाज़ में एक नमी सी पैदा होने लगी थी। यूँ लगा कि जैसे सोनू पानी के बीच खड़ी कच्ची भीत की तरह भरभरा कर गिर रहा हो। एक गहरी आद्रता से पूरा कमरा भर सा गया।

'क्या इतने मेहनती लोगों के बच्चों को मुफ़्त में किताबें मिलने को मुफ़्त कहा जा सकता है? क्या उनकी मेहनत का इतना भी फल उन्हें नहीं मिलना चाहिए? क्या इतनी मेहनत से मिले हुए की बेइज्ज़ती कोई कर सकता है? क्या ये दुनिया गरीबों-मज़दूरों के मेहनत से नहीं चल रही? कुछ लोग तो कुछ भी नहीं करते, फिर भी सबकुछ उनके पास होता है, क्यों?' लग रहा था कि अब सवाल पूछने की बारी सोनू की है। लेकिन ये सब कहते हुए सोनू सिसक पड़ा। लगा जैसे रोककर रखने की कोशिश में टिका बाँध अंततः टूट गया हो। माँ बहुत याद आने लगी थी उसे। मनोहर बाबू भी के चेहरे पर हैरानी धूप के टुकड़े की तरह साफ़-साफ़ उभर आई थी। पर कुछ सेकेंड में ही सोनू को यह लगने लगा कि 'प्रवाह में वह कुछ ज़्यादा बोल गया है। सर नाराज़ हो गये होंगे।' वह मनोहर बाबू की ओर देखने लगा।

     कक्षा में सन्नाटा पसर गया था। बच्चे बुत बने बैठे थे। कुछ को तो अभी भी बात समझ नहीं आ रही थी। मनोहर बाबू को लग रहा था कि वर्षों बाद आज वह किसी काॅलेज की कक्षा में बुज़ुर्ग प्राध्यापक के मुँह से सामाजिक विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का व्यवहारिक आख्यान सुन रहे हों। वह सोनू की बातों में पूरी तरह डूब चुके थे। उसे सिसकता देख उसके नज़दीक अपनी कुर्सी खिसका लाये और अपनी पानी की बोतल सोनू की ओर बढ़ा दिया। मानो कह रहे हों कि, 'सोनू, तुम बोलते रहो, मैं सुन रहा हूँ।'
     सोनू ने पानी तो नहीं पिया पर मनोहर बाबू को यूँ देख खुद को संभाल लिया। उचित माहौल जान उसने फिर बोलना शुरू कर दिया-

'सर, मैं रोज़ नहीं नहाता। कपड़े भी साफ़-सुथरे पहनकर नहीं आ पाता। मुझे पता है गंदे होने की वज़ह से मुझसे गंध आती है इसलिए कोई मेरे पास नहीं बैठता। आप ने भी तो मुझे खुद से दूर कर दिया है, मुझे पसंद नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं ऐसा क्यों है?'

    सोनू की बातों से कक्षा में जैसे कोई जादू छाता जा रहा था। सब उसकी ओर कान लगाए हुए थे। मनोहर बाबू तो कुछ ज़्यादा ही, क्योंकि आज वो कुछ अलग सुन रहे थे- खुद के बारे में, अपनी समझ के बारे में, अपने पढ़ाने के बारे में, अपनी कक्षा के बारे में, एक अनदेखे संसार के बारे में। एक बच्चा उन्हें आइना दिखा रहा था। उन्हें यह बालक साक्षात किसी नचिकेता की तरह मालूम हो रहा था जो मृत्यु के बाद के जीवन की नहीं, इसी ज़िंदगी की पड़ताल कर रहा था।

'जहाँ मैं अपने बापू के साथ किराए पर रहता हूँ वहाँ के चौदह कमरों में रहने वाले चौदह परिवारों के लिए बस एक शौचालय और एक गूसलखाना है। सुबह स्कूल आने से पहले शौच के लिए नंबर आना ही मुश्किल होता है। ऊपर से पानी की सप्लाई भी सुबह दो-तीन घंटे ही होती है...आपके एरिए में तो चौबोस घंटे पानी आता है ना सर! इसलिए आप नहीं समझ सकते कि हमारे लिए रोज़ नहाने की बात सोच पाना भी कितना मुश्किल होता है। ये काम इतवार को ही कर पाता हूँ, वो भी मुश्किल से। इस बार कोशिश के बावज़ूद नहीं नहा पाया। जब तक नंबर आया तब तक पानी आना बंद। हमारे पास पानी इकट्ठा करने के लिए ज़्यादा बर्तन भी नहीं। वहाँ हम रहते इसलिए हैं क्योंकि इससे बेहतर जगह का किराया हम नहीं दे सकते। बापू को भी सुबह काम पर जाने की जल्दी होती है। देरी होने पर ठेकेदार लोगों को नौकरी से हटा जो देता है। फिर मुझे सुबह खाना बनाने में उनकी मदद भी करनी पड़ती है। कपड़े कैसे साफ़ हो पाएँ रोज़?'
    
     मनोहर बाबू अंजाने ही सोनू के साथ किए गये अपने भेदभाव पूर्ण व्यवहार पर शर्मिंदा अनुभव कर रहे थे। उनका एक हाथ अनायास ही सोनू के कंधे पर पहुँच चुका था, आँखें पनीली हो चुकी थीं। उन्होंने कहा, 'सोनू, तुम्हारी बातें बहुत सच्ची हैं। मुझसे और हम सभी से चीज़ों और परिस्थितियों को समझने में ग़लती हुई है। मेरे साथ-साथ तुम्हारे साथियों ने भी तुम्हारे साथ ग़लत व्यवहार किया है। क्या तुम हमें माफ़ कर पाओगे?' ऐसा कहते हुए मनोहर बाबू कंधा झुकाये क्षमा प्रार्थी होने की मुद्रा में आ गये। कुछ बच्चे जो कमोबेश सोनू जैसी स्थितियों से ही जुड़े थे, उन्हें सोनू में अपना चेहरा दिखने लगा था। सभी को उससे पूरी समानुभूति हो रही थी।

    सोनू ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, 'सर, कल आप समानता, स्वतंत्रता, बंधुता और गरिमा जैसी बातें बता रहे थे और कह रहे थे कि हमारे संविधान ने हम सबके लिए ऐसे देश और समाज की ही कल्पना की है। इसके लिए ही हम सबको कोशिश करनी चाहिए। पर क्या ये बड़े-बड़े शब्द हम गरीब-गुरबों के लिए भी कुछ अर्थ रखते हैं? क्या इन पर हमारा भी हक है? बहुत से लोगों को सुख-सुविधाएं हासिल न हों तो क्या ये सबकी, सरकार की और देश की असफलता नहीं है? आख़िर संविधान के ये मूल्य कुछ लोगों के लिए ही क्यों हैं? आपने लोकतंत्र में जनता को सर्वशक्तिमान बताया था, फिर एक मंत्री के आने की ख़बर से ही सब सहज क्यों नहीं हैं? क्यों आज पूरा स्कूल उनको खुश करने की कोशिश में परेशान सा है? आप मेरे शिक्षक हैं। मैं आपका आदर करता हूँ। पर मुझे जो अनुभव हुआ और जैसा लगा वो मैंने आपको बताया। मैं ये सब इसलिए ही कह पाया क्योंकि आप सच में अच्छे शिक्षक हैं। इस अच्छाई को मैं भी पाना चाहता हूँ। उम्मीद है कि बिना भेदभाव ये मुझ तक पहुंचेगी भी। सिर्फ़ अलग होने या गरीब होने की वजह से मैं आपके प्यार और इन सबकी दोस्तियों से मरहूम नहीं होना चाहता।' सोनू की आँखों से फिर से आँसू आ गये थे।
    
     मनोहर बाबू को आज अपनी ही सीमाएँ एक बालक के मुँह से सुनते हुए जैसा लग रहा था, उसे वह व्यक्त नहीं कर सकते थे। यह शर्मिंदगी नहीं थी, ज्ञान को प्रस्फुटन था। ऐसा ज्ञान जो उन्हें बड़ी-बड़ी किताबें, बड़ी-बड़ी डिग्रियां न दे सकीं थीं। उनके हृदय में अंजाने ही वर्षों से जम चुकी परफेक्ट शिक्षक और इंसान होने की अपनी ही छवि दरक रही थी। दबे-ढके रूप में जम चुके अभिमान का गलेश्यिर पिघल रहा था। उनकी सारी मलिनता धुली जा रही थी। वह खुद में ही डूब-उतरा रहे थे। यह बालक ही उन्हें आज बचा सकता था। मनोहर बाबू का मन अभी भरा नहीं था उसे सुनकर। रुंधे गले से वह चित्र पर पूछने को हुए ही थे कि उन्हें महसूस हुआ कि ये सब उस चित्र की व्याख्या ही तो थी। वह बंद गोला गरीबी-मज़बूरी, जातीय भेदभाव से बनी परिस्थितियों की कैद ही तो है जिसमें घिरे सोनू जैसे बच्चों के पंख कटे हुए हैं। 'इन्हें हमारी ज़रूरत है...नहीं, नहीं हमें इनकी ज़रूरत है...अरे नहीं, हम सबको ही एक-दूसरे की ज़रूरत है!'...गोले के बाहर की वो किताब...वो संविधान है...उसकी रोशनी से ऊँचे घर, अमीर ही नहीं सब रोशन हों, हम सबको ये कोशिश करनी होगी। मनोहर बाबू के हृदय स्थल पर वह चित्र पूरी तरह खुल चुका था। वह उस कला के सम्मोहन में बिंध चुके थे। उसके संदेश में डूब चुके थे। आज समय का किसी को भी पता ही नहीं चला और घंटी बज गई। उसी सम्मोहन में बिंधे मनोहर बाबू स्टाॅफ रूम की ओर आ गये। उनकी आँखें नम थीं, हृदय प्रफुल्लित था, शरीर रोमांचित और आत्मा प्रसन्न थी। आज वह बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। मान-अभिमान का कलेवर उतर चुका था, बस इंसान होने की अनुभूति हिलोरें मार रही थीं।
         मंत्री जी का काफ़िला विद्यालय में प्रवेश कर चुका था। असेंबली ग्राउंड के सजे हुए स्टेज पर वह बैठाये जा चुके थे। पंक्तिबद्ध हो ड्रम की थाप पर कदमताल करते बच्चे आकर अनुशासन के साथ बैठ गये थे। सभी शिक्षक अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ तैनात थे। प्रिंसिपल साहब ने स्वागत वक्तव्य दिया। विद्यार्थियों के समूह ने अभिनंदन गान गाया। प्रिंसिपल साहब ने मनोहर बाबू को प्रशस्ति पत्र पढ़ने को कहा। मनोहर बाबू स्टेज की ओर बढ़े। स्टेज पर चढ़कर माइक थामने को हुए ही थे कि मंत्री जी ने खुद माइक पकड़ लिया। बोले, 'इससे पहले कि मेरे बारे में कुछ कहा जाए, मैं कुछ कहना चाहता हूँ। दरअसल मैं आज किसी उद्देश्य से यहाँ आया हूँ। आज से उन्नीस-बीस वर्ष पहले मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहाँ के एक शिक्षक महोदय के पढ़ाये पाठ मेरे बहुत काम आये। आज भी वे मुझे याद आते हैं। उन्होंने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। उन जैसा शिक्षक मैंने जीवन में दूसरा नहीं देखा। वह केवल हमें पढ़ाते नहीं थे बल्कि हमें भी बराबर सुनते थे। वह हमारे ऐसे शिक्षक थे जिन्होंने दोस्त बनकर जीवन का अनमोल पाठ पढ़ाया। मैंने शिक्षामंत्री बनते ही पता कराया तो पता चला कि आजकल वो यहाँ पढ़ाते हैं। एक शिक्षक से तो हर साल बहुत से विद्यार्थी मिलते हैं, बिछड़ते हैं। शायद उन्हें मेरी याद भी न हो। पर उनकी तस्वीर मेरे दिलो-दिमाग में आज भी अंकित है। एक विद्यार्थी अपने शिक्षक को नहीं भूलता। वह उन्हें ताउम्र पहचानता है। मैं चाहता हूँ कि सब शिक्षक वैसे ही हों। आज इस विद्यालय में घुसने के बाद से अब तक भी वह मुझे वैसे ही काम में जुटे हुए दिख रहे हैं जैसे मैं उन्हें उस समय देखता था- पूरी तरह डूबे हुए और मग्न। वैसे तो आप भी उन्हें ऐसे ही जानते होंगे। पर क्या आप मेरे मुँह से उनका नाम सुनना चाहते हैं?'

एक स्वर में आवाज़ आई- 'हाँ'।

'वो और कोई नहीं; मेरे, आपके और हम सबके मनोहर बाबू सर हैं। मुझे विश्वास है कि आज वे मेरे बारे में जो कुछ कहते वो एक मंत्री के बारे में कहते। मुझे वह सब सुनने में कोई रुचि नहीं है। मैं तो स्वयं उन्हें आभार व्यक्त करने, सम्मान देने आया हूँ।' मंत्री साहब ने इशारा किया तो उनके साथ आए व्यक्तियों में से एक चमकदार ट्राॅफी और अंगवस्त्र ले आया। आगे बढ़कर मंत्री साहब ने मनोहर बाबू के हाथों में ट्राॅफी पकड़ाया, उनके कंधे पर सम्मान सूचक अंगवस्त्र डाल दिया, झुक कर पैरों की ओर हाथ बढ़ा दिए। मनोहर बाबू तो जैसे समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या प्रतिक्रिया दें। बस उनकी आँखें डबडबा आईं थीं। वह आह्लादित थे। उन्होंने मंत्री जी को गले लगा लिया। मंत्री जी बोले, 'सर, मैं रामनगर स्कूल में सन् 2000 में आपका छात्र था।' मनोहर बाबू युवा मंत्री के चेहरे को ध्यान से देखने लगे। उन्हें एक ही दिन में दो-दो पुरस्कार मिल गये थे। एक होनहार शिष्य जो सफल होकर लौटा था और दूसरा उनकी कक्षा में बैठा शिष्य रूपी गुरु, जिसने एक झटके में ही उन्हें जीवन का अनमोल पाठ पढ़ा दिया था।
   
    इस बीच मंत्री जी ने स्वयं ही माइक मनोहर बाबू को पकड़ा कर कुछ बोलने का अनुरोध किया। मनोहर बाबू ने माइक पकड़ तो लिया पर आज पहली बार भावुकतावश उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे शुरुआत करें। उनका गला रुंधा हुआ था। फिर भी उन्होंने बोलना शुरू किया।

'विद्यार्थी की सफलता का श्रेय उसके शिक्षक को दिए जाने की परंपरा रही है। विद्यार्थी अपने शिक्षकों का मान रखने के लिए भी ये श्रेय उन्हें देते हैं। पर इसमें उनकी अपनी मेहनत और प्रयासों का फल ज़्यादा होता है। मंत्री जी जैसे होनहार विद्यार्थी तो किसी भी शिक्षक का गर्व होते हैं जो अपने शिक्षक से भी बहुत आगे निकल जाते हैं। लेकिन आगे निकल कर भी वे पीछे छूट गये लोगों को भूलते नहीं। उन्हें याद करते हैं, अपनी यात्रा में शामिल करते हैं, उन्हें गौरवान्वित करते हैं। काश! हम सब ही ये काम कर पाते हैं कि अपने आस-पास, अपने समाज में पीछे छूट गये, वंचित रहे गये, पददलित किए जा चुके लोगों को साथ लेकर चल सकते। ऐसी व्यवस्था बना पाते कि सबको उनका श्रेय मिल सकता, मेहनत का उचित फल मिल पाता। हमारी लोकतांत्रिक सरकारें भी क्यों अक्सर राजशाही वाले रौब के साथ दिखाई देती हैं? क्यों हमने एक संविधान, एक देश और अपनी सरकार होते हुए भी इंसान-इंसान के बीच भेदभाव फैला रखा है? क्यों अलग स्थितियों में रह रहे और अलग पहचान वाले लोगों से हम सहज नहीं होते, अन्याय करते हैं? हम भारत के लोग ही अपने संविधान की उद्देशिका में लिखे अपने ही संकल्पों से विमुख क्यों हो जाते हैं?'

ऐसा लग रहा था बोलते-बोलते मनोहर बाबू सोनू हुए जा रहे थे। कम से कम उनकी आठवीं कक्षा के सभी विद्यार्थियों को तो ज़रूर ऐसा ही लग रहा था। वे उन्हीं बातों को दुहरा रहे थे जिसे आज सोनू ने उन्हें कक्षा में बड़ी आसानी से पढ़ाया था।

'इतने वर्षों से बच्चों को पढ़ाते हुए मैंने समानता, न्याय, बंधुत्व, गरिमा जैसी बड़ी-बड़ी बातें जीवन में अपनाने की सीख दी। पर क्या मैं खुद सीख पाया ये सब! शायद नहीं! बहुत से लोगों को लगता है कि मैं इन मूल्यों को जीता हूँ। मुझे भी ऐसा ही लगता था। आज तक मुझे लोगों ने ऐसा ही एहसास भी कराया था। लेकिन आज एक विद्यार्थी ने मेरी आँखें खोल दी हैं। उसने हमें बताया कि हरदम खुद पर सवाल उठाते रहना चाहिए। अपनी भाषा, अपनी संवेदना को तराशते रहना चाहिए। लोगों से सिर्फ़ शब्दों से नहीं मन से जुड़ना चाहिए। सरकारों को भी लोगों को भरपूर सहायता और अवसर देकर समानता और न्याय को सुनिश्चित करते रहना चाहिए। तभी तो देश और समाज सुंदर बन पाएँगे। मंत्री साहब से मैं अनुरोध करूँगा कि सबके लिए मुफ़्त और अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए जी जान से काम करें। इस एक काम से संविधान के सपनों को पूरा होने की उम्मीद कई गुना बढ़ जाएगी। एक शिक्षक की अपने शिष्य से, एक नागरिक की अपने सरकार से यह अपेक्षा है। आज मैं अपने एक और विद्यार्थी से आप सबको मिलवाना चाहता हूँ जो कुछ अलग है, खास है और बहुत अच्छा है।'

मनोहर बाबू बोलते-बोलते स्टेज से नीचे उतर आए। आठवीं कक्षा की पंक्ति में खड़े सोनू के पास जाकर बोले, 'सोनू, आज तुम्हारी बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मुझे मंत्री जी के साथ-साथ तुम पर भी गर्व है। जो सम्मान मंत्री जी ने मुझे दिया है, उसे मैं तुम्हें समर्पित करना चाहता हूँ। सब कहते हैं कि विद्यार्थी शिक्षक का आइना होते हैं। मैं कहता हूँ कि तुम जैसे विद्यार्थी तो किसी शिक्षक के भी शिक्षक होते हैं। तुमने मुझे और मेरी कक्षा को जो अनमोल ज्ञान दिया है, उसके प्रति हम तुम्हारे आभारी रहेंगे। मैं तुम्हारा पढ़ाया पाठ कभी नहीं भूलूंगा।' यह कहकर उन्होंने ट्राॅफी सोनू के हाथों की ओर बढ़ा दिया। सोनू और मनोहर एक-दूसरे के गले लग गये। पूरा वातावरण स्नेह और प्यार के सुगंध से भर गया। आश्चर्य मिश्रित तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूँज उठा।

आलोक कुमार मिश्रा 

    



परिचय:- 

आलोक कुमार मिश्रा 

उत्तर प्रदेश के जिला- सिद्धार्थनगर, ग्राम- लोहटा में सन् 1984 में एक साधारण किसान परिवार में जन्म।

लेखक पेशे से शिक्षक हैं। दिल्ली के एससीईआरटी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर प्रतिनियुक्ति प्राप्त है। समसामयिक और शैक्षिक मुद्दों पर लिखते हैं। कविता, कहानी लेखन में भी रुचि है। अभी तक एक कविता संग्रह 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' बोधि प्रकाशन (2019) से और एक बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' प्रलेक प्रकाशन (2021) से प्रकाशित हो चुके हैं। सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में भी समय-समय पर रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। 
 
मोबाइल नंबर- 9818455879
ईमेल- alokkumardu@gmail.com

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