रूचि भल्ला समकालीन स्त्री कविता में अपने अनूठे बिम्बों, चित्रात्मक भाषा और गहन संवेदनात्मक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं।रूचि की कविताओं में स्थानियता के जो रंग उभरते हैं वह वस्तुतः मनुष्य जीवन के वह गहरे रंग हैं जो उतारे नहीं उतरते हैं।इलाहाबाद में जनमी रूचि की आत्मा बार -बार इलाहाबाद को याद करती है और सतारा से लेकर फल्टन तक के लोक जीवन के सजीव चित्र अपनी कविताओं में उकेरती हैं।दृष्टि सम्पन्न कवयित्री रूचि बिना किसी शोरोगुल के स्त्री कविता में दाखिल होती हैं और अपनी कविताओं से स्त्री कविता को ऊंचाई देती हैं-
1)
सोलहवें पान की दास्तान
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जिसने कभी कलकत्ता नहीं देखा
वह क्या देखेगा कोलकाता जाकर
बीसू दा कहते हैं चबा कर सोलहवां पान
मैं बीसू दा की बात सुनती नहीं
गिनती हूँ उनके दिन भर के पान
आठ घंटे में सोलह पान
बीसू दा पान के चेन ईटर हैं
पान की दुकान वाले प्रदीप को
कत्था-चूना से ज़्यादा बीसू दा की ज़रूरत है
ज़रुरत तो शारदा अम्मा की भी है
उधार लाती थीं दुकान से
खिलाती थीं मोहल्ले के बच्चों को बुला कर दाल-चावल
वह सुलगती अंगीठी बुझ गई सन् 90 में
जिसके कोयले होते थे उधार के
वैसा दाल-चावल फिर किसी हाथ
लाल काॅलोनी में पका नहीं
वे बच्चे भी बच्चे नहीं रहे
जैसे बौम्बे हो गया मुम्बई
बच्चों ने बड़ा होना चाहा था
शहरों ने बूढ़े होना कभी नहीं
चाहने से क्या होता है
चाहा तो नग़मा की अम्मी ने भी नहीं था
नज़मा और तरन्नुम के अब्बा को खो देना
खो देना कागज़ी लफ़्ज़ नहीं होता
दर्द के दरिया में डूबना होता है
डूबना शब्द का अर्थ वह जानता है
जो तैराक नहीं होता
ग़ालिब इश्क के दरिया में क्या तैरे होंगे
डूबे रहे शेर -ओ -शायरी की दुनिया में
वह जब कहते थे शेर
उड़ाते थे लिख कर वक्त की धज्जियाँ
नग़मा की अम्मी शेर से बेखबर
भेजती थीं बेटियों को पढ़ने के लिए पाठशाला
वक्त की धज्जियाँ समेटतीं थीं कतरा-कतरा
जोड़ती थीं कतरों को सिलाई मशीन चला कर
वह टाँकती रहीं उम्र भर धज्जी-धज्जी वक्त पर
ज़िन्दगी का पैबन्द
नग़मा की उस अम्मी का नाम
ग़ालिब के शेर की ज़ुबान पर कभी आया नहीं
2)
एक काफ़िर ने कहा ....
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आप आगरा को अग्रवन कह सकते हैं
कह सकते हैं मुझे काफ़िर
शाहजहाँ का नाम नहीं बदल पाएँगे
मुमताज़ भी रहेगी मुमताज़
ताज भले खो सकता है ताज
कब्र खोदने के इस दौर में
देश न खो बैठे अपना नाम
देश की पेशानी पर पड़ जाते हैं बल
बल देखते हुए दत्तात्रेय फूँकता है पताका बीड़ी
जानता है बीड़ी पीना ग़म का इलाज नहीं
हाथ थाम कर देश का नहीं ले जाता राजवैद्य के पास
पठार पर बैठा देखता है दिन में तारे
दत्तात्रेय ज्योतिषी नहीं
होता तो देखता देश का पंचांग
मैं फिर भी नहीं पूछती उससे देश का भविष्य
देश की कुंडली अभी सरकार के हाथ में है
सरकार के हाथ देखने से बेहतर
मैं दत्तात्रेय का हाथ देखती
जो लिखता है सुफला के प्रेम में खुले खत
मैं देखती लौतिफ़ा का हाथ
छुरी से एक टमाटर के काट देती है स्लाइस साठ
मैं उस बच्चे का हाथ देखती हूँ
जिसकी उड़ रही है खुले आसमान में पतंग
हरिभाऊ किसान के हाथ जिसने रंग दिये हैं
तिरंगे के रंग में बैलों के सींग
बैल जो चलते जा रहे हैं
फलटन की सड़क पर निर्भीक
उन्हें अपने नाम बदल जाने का किसी से कोई
खतरा नहीं
3)
भूरा साँप
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जबकि कलकत्ता कभी नहीं गई
फिर भी चली जाती हूँ बेलूर मठ
बेलूर मठ को मैंने देखा नहीं है
छुटपन में पढ़ा था किसी किताब में
जब भी लेती हूँ उसका नाम
थाम लेती हूँ बचपन की उंगली
पाती हूँ खुद को स्मोकिंग वाली गुलाबी फ़्राॅक में
जो सिली थी अम्मा ने प्रीतम सिलाई मशीन से
सात बरस की वह लड़की दौड़ते हुए
इलाहाबाद से चली आती है मेरे पास
जैसे पिता के दफ्तर से लौटने पर
खट्ट से उतर जाती थी घर की सीढ़ियाँ
जा लगती थी पिता के गले से
जैसे महीनों बाद लौटे हों पिता
सात समन्दर पार से
उम्र के चवालीसवें साल में
कस्तूरी की तरह तलाशती है अब
अपने बालों में उस कड़वे तेल की गंध को
जब सात बरस में कहती थी अम्मा से
बंटे सरीखी दो आँखें बाहर निकाल कर
"और कित्ता तेल लगाओगी अम्मा
भिगो देती हो चोटी में बंधे
फीते के मेरे लाल फूल "
लाल फूलों से याद आता है
दादी कहती थीं तेरी चोटी में दो गुलाब
तेरे गालों में दो टमाटर हैं
बात-बात पर तुनकती लड़ती चिढ़ाती
चालाकी से दादी को लूडो में हराती वह लड़की
अब रोज़ खुद हार जाती है
जीवन के साँप -सीढ़ी वाले खेल में
सौ तक जाते-जाते उसे काट लेता है हर रोज़
निन्यानबे नंबर का भूरा साँप
वह साँप से डर जाती है
डर कर छुप जाना चाहती है
इलाहाबाद वाले घर के आँगन में
जहाँ माँ पिता और दादी बैठा करते थे मंजी पर
देते थे घड़ी-घड़ी मेरे नाम की आवाज़
बहुत सालों से मुझे अब किसी ने
उस तरह से पुकारा नहीं
मैं उस प्रेम की तलाश में
इलाहाबाद के नाम को जपती हूँ
जैसे कोई अल्लाह के प्यार में फेरता है माला
इलाहाबाद को मैं उतना प्यार करती हूँ
जितना शीरीं ने किया था फ़रहाद से
कार्ल मार्क्स ने किया था अपनी जेनी को
कहते हुए -
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ मदाम !
उससे भी ज्यादा जितना वेनिस के मूर ने किया था
मैं इलाहाबाद को ऐसे प्यार करती हूँ
जैसे नाज़िम हिकमत कहते हैं प्रेम का स्वाद लेते हुए
प्रेम जैसे रोटी को नमक में भिगो कर खाना हो
मैं नाज़िम हिकमत से मिलना चाहती हूँ
बतलाना चाहती हूँ
कि इस्तानबुल में जैसे गहराती है शाम
उससे भी ज्यादा साँवला रंग होता है
इलाहाबाद का प्रेम में
जब संगम पर फैलती है साँझ की चादर
तुम नहीं जानोगे नाज़िम
तुमने कभी चखा जो नहीं है
इलाहाबाद को मीठे अमरूद की तरह
मेरे दाँत के नीचे आज भी दबा हुया है
अमरूद का मीठा एक बीज
कभी लौटना नाज़िम दुनिया में
मैं दिखलाऊँगी तुम्हें
सात बरस की बच्ची का टूटा हुया वह दूध का दाँत
जिसे आज भी रखा है
मुट्ठी में संभाल कर इलाहाबाद ने
4)
रंग का एकांत
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राग वसंत क्या उसे कहते हैं
जो कोकिला के कंठ में है
मैं पूछना चाहती हूँ कोयल से सवाल
सवाल तो फलटन की चिमनी चिड़िया
से भी करना चाहती हूँ
कहाँ से ले आती हो तुम नन्हे सीने में
हौसलों का फौलाद
बुलबुल से भी जानना चाहती हूँ
अब तक कितनी नाप ली है तुमने आसमान की हद
बताओ न मिट्ठू मियाँ कितने तारे
तुम्हारे हाथ आए
कबूतर कैसे तुम पहुँचे हो सूर्य किरण
को मुट्ठी में भरने
कौवे ने कैसे दे दी है चाँद की अटारी से
धरती को आवाज़
आसमान की ओर देखते-देखते
मैंने देखा धरती की ओर
किया नन्हीं चींटी से सवाल
कहाँ से भर कर लायी हो तुम सीने में इस्पात ....
मैं पूछना चाहती हूँ अमरूद के पेड़ से
साल में दो बार कहाँ से लाते हो पीठ पर ढोकर फल
मैं सहलाना चाहती हूँ पेड़ की पीठ
दाबना चाहती हूँ चींटी के पाँव
संजोना चाहती हूँ
धरती के आँगन में गिरे चिड़िया के पंख
पूछना चाहती हूँ अनु प्रिया से भी कुछ सवाल -
जो गढ़ती हो तुम नायिका अपने रेखाचित्रों में
खोंसती हो उसके जूड़े में धरती का सबसे सुंदर फूल
कहाँ देखा है तुमने वह फूल
कैसे खिला लेती हो कलजुग में इतना भीना फूल
कैसे भर देती हो रेखाचित्रों में जीवन
मैं जीवन से भरा वह फूल मधु को देना चाहती हूँ
जो बैठी है एक सदी से उदास
फूलों की भरी टोकरी उसके हाथ में
थमा देना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ उसे खिलखिलाते हुए
एक और बार
जैसे देखा था एक दोपहर इलाहाबाद में
उसकी फूलों की हँसी को पलाश सा खिलते हुए....
5)
सिंड्रेला का सपना
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मैं क्यों करूं फ़िक्र तुम्हारे रूखे बालों की
मुझे नारियल की चटनी भी बनानी होती है
मैं नहीं कर सकती हूँ तुम्हारे खाने की फ़िक्र
तवे पर डाली मेरी रोटी जल जाती है
तुम्हारी दवा तुम्हारे मर्ज़ की जो फ़िक्र करूं
हाथ जला बैठूंगी आँच पर अपने
मैं रो भी नहीं सकती हूँ तुम्हारे लिए
रोने से मेरी नाक लाल हो जाती है
दुनिया को खबर हो जाती है
लोग मोहल्लेदारी में फिर कहते फिरेंगे
40/11 की लड़की प्रेम में है आजकल
मैं तुम्हें खत भी नहीं लिख सकती
मेरी छत पर कबूतर नहीं आता
वहाँ बुलबुल का सख्त पहरा रहता है
वे कोई और लोग हैं जो बन गए हैं
सोहनी लैला हीर शीरीं
मेरे पास तो काम की लंबी फ़ेहरिस्त पड़ी रहती है
कपड़े धोना बर्तन माँजना सब मेरे जिम्मे है
मेरे पास प्यार के लिए वक्त नहीं है
तुम्हें याद करने से मेरे काम बिगड़ जाते हैं
बुनाई करते हुए फंदे गिर जाते हैं
कढ़ाई करते हुए सुई चुभ जाती है मेरी उंगलियों में
उभर आते हैं वहाँ खून के कतरे
और तुम्हारा नाम मेरे होठों से बेसाख्ता निकल जाता है
किसी दिन जो सुन लेंगे अम्मा बाबू भईया तुम्हारा नाम
मेरी जान निकाल कर रख देंगे
और हाँ सुनो !
मैं एक-दूजे के लिए पिक्चर वाली सपना भी नहीं हूँ
कि छलांग लगा दूँ अपने वासु के साथ
मैं मर जाऊँगी पर मरते हुए भी तुम्हें ज़िन्दा देखना चाहूंगी
एक बात और मुझे अनारकली न कहा करो
मुझे दीवारों में चिन जाने से डर लगता है
दम घुटने के ख्याल से ही घबराहट होने लगती है
मुझे इतिहास की कहानी नहीं बनना
मुझे तो जीना है
कविताएँ लिखते रहना है तुम्हें देखते हुए
बरगद की छाँव में बैठ कर
- रुचि भल्ला
परिचय
नाम : रुचि भल्ला
जन्म: 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद
प्रकाशन : दैनिक जागरण, जनसत्ता, दैनिक भास्कर ,प्रभात खबर, दैनिक ट्रिब्यून, अपना भारत, अमृत प्रभात , हमारा मैट्रो , लोकजंग,दिल्ली सेल्फ़ी,
सदीनामा आदि समाचार-पत्रों में कविताएँ प्रकाशित
पहल, तद्भव, नया ज्ञानोदय , हंस, परिकथा , वागर्थ, साक्षात्कार, लमही, कथादेश , सदानीरा , कथाक्रम, सामयिक सरस्वती , समकालीन भारतीय साहित्य,
उत्तर प्रदेश, उजाला,बया, शब्दिता, युद्धरत आम आदमी, पाठ पुनःपाठ (राजकमल) ,नवनीत, स्वर सरिता, पाठ, पूर्वग्रह ,देयांग, इंडियन लिटरेचर,
इंद्रप्रस्थ भारती, आजकल ,अहा ज़िन्दगी , दोआबा, गगनांचल, समावर्तन, दक्षिण कोसल,कादम्बिनी, अक्षर पर्व, युद्धरत आम आदमी, इंडिया इनसाइड, सृजन सरोकार, अक्सर, पुनर्नवा,सेतु , कृति ओर, हमारा भारत संचयन , माटी, परिंदे, ककसाड़, समहुत, दुनिया इन दिनों, सुरभि, यथावत, गंभीर समाचार ,पुरवाई , लोकस्वामी, शतदल,अक्खर, अक्स, शब्द-संयोजन, सुसंभाव्य, अखंड भारत, अटूट बंधन आदि पत्रिकाओं में कविताएँ
और संस्मरण
कुछ कविताएँ साझा काव्य संग्रह में भी
कुछ कविताओं का मराठी , गुजराती,बांग्ला,अंग्रेजी और पंजाबी भाषा में अनुवाद
कहानी परिकथा , गाथांतर और यथावत पत्रिका में प्रकाशित
आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
प्रसारण: 'शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक ...' कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर
आकाशवाणी के इलाहाबाद , सातारा ,हल्दवानी तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण ...
संपर्क : Ruchi Bhalla ,
Shreemant, Plot no. 51,
Swami Vivekanand Nagar ,
Phaltan Distt Satara
Maharashtra 415523
फोन नंबर 9560180202
email Ruchibhalla72@gmail.com
बहुत सुन्दर कविताएँ।
जवाब देंहटाएंरूचि जी की रचनात्मक यात्रा सतत चलती रहे।
शुभकामनायें।
-अनुपमा