शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल - 14

स्त्री कविता का आदि रूप यदि तलाशना है तो  किसी भी भाषा के  लोकगीत को पढ़ना होगा।प्रतिरोध का मूल स्वर प्रश्न करना है ,यह ध्वनि भाषा के विकास के साथ -साथ स्त्री गीतों में  बहुत मार्मिक रूप में मिलते हैं।स्त्रियों ने कूटते-पीसते ,कृषि कार्य करते,मांगलिक अवसरों पर गाये जानेवाले लोकगीतों में पितासत्ता से सवाल किए,स्त्री जीवन के मर्म को  गीतों में पिरोया और अपने जीवन संघर्ष और सामाजिक विभेद को व्यक्त  किया।
शैलजा इन्हीं लोकगीतों की परम्परा की कवि हैं।इनकी कविताओं में पिछली पीढ़ी की औरतों का जीवन ,चित्र शैली में उभर कर हमारे सामने आता है।यहाँ शिक्षा,समानता,अनमेल विवाह आदि की समस्याओं को  शैलजा उसी मार्मिकता से उठाती हैं जिन्हें लोकगीतों में हम सुनते चले आए हैं।

शैलजा की कविताओं में विस्थापन का दर्द  अपने चरम बिन्दु पर पहुँचता है और उन्हें "स्त्री पीर की कवयित्री"  घोषित करता है।वह आज भी जीवन के उन्ही ठीहों पर अटकी हैं जहाँ माँ,चाची,बुआ,सहेलियाँ अनचाहे सम्बन्धों को सिर पर लादे अपनी प्रतिभा होम कर रही हैं।यह कविताएँ शैलजा से हमें गाथांतर कविता विशेषांक के दौरान मिली थीं,यह शैलजा की आरम्भिक कविताएँ हैं  -



1.....



अभी अभी बड़ी हो गई कविता
गोद में खिंचा माथा चूमा 
फिराती रही बालो पर हाथ 
सूखे होठ पर ली प्यार वाली पप्पी
बना दी चोटी काढ दी मांग 
पर अकड़ी रही देह 

छातियों पर पसारती रही ओढनी 
छुपाती रही रेखाओं से बहता खून 
मुझसे दुरी बनाती रही
अरे किधर गई वो कविता ?
जो गाल छूते ही मुस्कराती रही

अरे देखो जल में कैसे तैरती है मछली
बाग़ में इतरा रहे फूल 
तितली के रेशमी रंगों से मिलो 
आओ नदी भरो अंजुरी में 
चलो पौधे को डालो पानी 
कुछ बोलो मेरी जान मेरी रानी.....
कल रात सहेली के उतारे किसी ने कपड़े 
करता रहा मनमानी 

माँ ने धो पोंछ कर सुखा दी उसकी देह 
मुह पर ताला जड़ दिया 
आग दिखा कर बोली कलमुही इसी में झुलसा दूंगी जो खोली जुबान 
उस औरत के तन पर भी थे अंधेर तांडव के लिजलिजे निशान
ये कैसे देह का समीकरण है जो सब सुलझा रहे 
न जनेगी न जियेगी पर भी मातम नही मना रहे 
सहमते कदमो से जा रही स्कूल 
बस्ते में तितलियों की लाशें 
आँख में सवाली राख है
पतंग की ऊंचाई देख ताली पीटने वाली लडकी उदास है 
ये देश समाज कितना खराब है 
समय से पहले कविता जवान नही लहुलुहान है 

देश का क्या कल भी महान आज भी महान है
बस जरा सी कविता की गुम हुई मुस्कान है 
कपड़ो के नीचे एक ऊंचाई नही न ढलान है.. कुछ जिन्दा सांस के चलने से कविता धड़क जाती है
मैं सच कह रही हूँ एकदम छाती से लगी नन्ही सी कविता अभी हाँ अभी बिलकुल जवान है .....
रेत पर पथराई नदी की आँख ....देह भर नाख़ून के निशान हैं


2


मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
अखुआते बीज की आसमानी उमंग लिखूंगी 
धूप छाँव रेत पानी से निचोड़ लाऊंगी 
अपने हिस्से की जादुई शाम 
रात के धारदार किनारे 
मेरी पीठ पर चुभाते होंगे अपने नाख़ून 
तुम मेरी मुस्कराती आँख से 
भरोसा चुन लेना

एक दिन के उदास सिरे को पकड़ कर 
जैसे उतर गए थे अँधेरी सीढियाँ 
अबकी आवाज के दूसरे सिरे को थाम 
उबर आना 
मिट्टी में सांस लेते बीज को सूरज की आँख में काजल लगाना है 
बादल को बैलून सा उड़ाना है 
खेत के मेड पर पैर भर धसना है 
तुम्हारा हाथ थामे अँधेरे के उस पार जाना हैं

मैं जब भी लिखूंगी प्रेम 
उजाला भर ओस सांस भर दिन जीना चाहता था 
तुम आहट भर यकीन बन के आना ....


3


जेठ की दोपहर थी न 
दिन बेहद उबाऊ लम्बे और उमस भरे 
शाम का इंतजार त्यौहार की तरह 
और तुम तो जानते ही हो 
त्यौहार साल में एक ही बार आते हैं
कैरम का खेल बिछा है 
मुझे सफ़ेद गोटियां चाहिए 
हमेशा काला मेरे हिस्से क्यों 

पर एक लाल रानी को लेने के सभी जुगाड़ सारे खिलाडी करते
एक जरा से और छोर पर मासूम इशारे पसरे होते 
मैं ले लूंगा तुम्हे के अंदाज में 
साथ रह भर लेने को ये खेल थे लाल रानी को अपना बना लेने की कहानी थी
कैरम का बोर्ड एक उपेक्षित शहर की मानिंद किसी दिवार से लग कर खड़ा है 
जैसे मानचित्र के किनारे वाला शहर 
सफ़ेद काली गोटियों से लोग बिखर गए हैं 

लाल रानी एक गोल गढ़हे की जाली में पड़ी ले रही है सांस
मैं जीत लूंगा तुम्हे की आवाज पर कान लगाई सी
एक खेल में एक राजा होता मान लो बस मान लो 
हम उसे जीतने के लिए क्या करते अम्मा ?
हमे हार जाना होता
खट खट ये कैरम का शोर बगल के घर में फिर बिछा है एक शहर
लड़के की नजर रानी पर है ।


4

बुझी लकड़ियों को फिर से सुलगाती हूँ 
रखी रोटी को करती हूँ फिर से गरम 
फिर से जोड़ती हूँ भूली यादों की कड़ी 
एक और बार सीधी करती हूँ चादर
हवा के दस्तक को झिड़कियां देती हूँ 
पुरानी गाँठ में बंधा नैहर खोलती हूँ 
सूख गया है दूब 
हल्दी की गाँठ हो गई है ललछउ 
मुठ्ठी भर चावल को कसा खोला छूती रही

तुम्हारी छाती सा गरम एहसास है तुम्हे सोचना 
तुम्हारे पेट की गुलगुली नींद से 
लुढ़क गए हैं हम 
अभी किधर सम्भले थे 
की फिर छोटे ने याद दिलाई तुम्हारी कहावत
बड़के ने मुहावरा 
बेटी ने तुम्हारी गाली 
और तुम्हारे बेसुरे से एक गाने को याद कर 
हम मुस्कराये फिर रो दिए

गाँठ गाँठ दुखती देह में 
रखते रहते हैं 
लालटेन पर कपड़ा तवे पर गमछा 
सेकती रही नसीहतें 
तुम फिर फिर याद आई
समय के कौन से काले पर्दे के पीछे लुकाई हो 
हम एक से दस तक गीन के थक गए अम्मा 
फेर फेर वही खेल 
फेर फेर खमोश फ्रेम की तस्वीर का मुस्काता रहस्य 
तुम्हारे पेट की गुलगुली नींद से लुढ़के हम ....


5


तुम याद आते हो 
जबकि चाहती हूँ भूल जाना
कितनी दरवाजे खिड़कियां बन्द कर लूँ 
ये मन के रास्ते तो पूरा गाँव ही भागता सा चला आये

याद भी न जिद्दी घास होती है 
जहाँ उम्मीद न हो वहां उग जाये 
तुम्हें भूलूँ तो याद भी क्या करूँ
तुमसे ही जुड़े है झरने गीत गाते से 
नदिया मचलती सी 
ठहरी सी शाम का काँपता पत्ता 
उलझे बालों की मुस्काती फ़िक्रें 
और तुम्हारी कविता में रूप बदल कर मिलने वाला पहाड़ 

पता है आदतन जारी है साँसों का आना जाना 
भींगे कपड़े को सुखाना 
आग को कम ज्यादा करना 
हथेली पर चखना नमक का स्वाद 
बिस्तर पर लेटते ही पहली मुंदी आँख में उभरा चेहरा
ये झल्लाकर दीवारों पर नए रंग क्यों चढाते हो 
पिछले रंग की मायूस पपड़ियाँ उभर आएँगी न 
पहले उन्हें सहेजते

बेखुदी में खेलती हूँ बचपने सा खेल 
भूल गए याद हो भूल गए याद हो 
भूल गए वाले पंखुरी पर याद आ जाते हो 
मुस्कराती आँख की झील में डूब कर भी नही डूबती कश्तियां 
ये पारे सी फैलती याद. ये दूरियों की किरचें
जादुई रास्तों पर याद साथ मिलने की बातें 

कलेंडर में मिलने की तारीख किस रंग से लिखी होती है बताना जरा ...


                                                                   शैलजा पाठक
परिचय-

 रानीखेत में जन्मी, पढ़ाई लिखाई बनारस में। आजकल मुम्बई में  रहती हैं। कविता की दो किताब “मैं एक देह हूँ फिर देहरी” और “चुप्पी टूटती है” । 

नोट- पोस्ट में संलग्न सभी चित्र चित्रकार अनुप्रिया के हैं।

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