शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

शेखर सावंत की कविताएँ

शेखर सावंत की कविताएँ


शेखर सावंत उन कवियों में से हैं जो नपी –तुली शैली और शब्द –गुम्फन से ही अपनी बात कह देते हैं ,आज गाथांतर में प्रस्तुत है उनकी तीन कविताएँ ,आइये पढ़ते हैं-



1  ब्लड-टेस्ट "
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उससे थोड़ी सी पहचान थी
पहले से
इसलिए जब उसने
पैथोलॉजी की क्लिनिक खोली
तो मैं उसका पहला रोगी था
जो उसके यहाँ गया था
अपना ब्लड-टेस्ट कराने
देखा था
एक छोटे से पनबारी की दुकान जैसी कोठरी में
बैठा था चुपचाप वह
कोने में एक छोटा सा टेबुल
और उसपर कुछ फ्लास्क , कुछ परखनलियाँ
और कुछ स्लाइड्स रखे थे
नमस्कार-पाती के बाद मैं वहाँ बैठ गया
बैठते ही एक सुई से उसने मेरा खून निकाला
और डाल दिया एक बेहद छोटे से शीशी में
ठेपी बंद की और हिलाना शुरू किया
शीशी को आहिस्ते
मुझे ऐसा लगा जैसे उसके हाथ में
शीशी नहीं मेरा पूरा बदन हो
जिसके खून को फेट रहा हो वो
मैंने उसकी तरफ देखा , वो मुस्कुराया
फिर धीमे से गंभीर लहजे में बोला--
 बरसो से कोई जोशीली कविता
नहीं लिखी क्या
खून काफी ठंढा पर गया सा लगता है
मैं चुप रहा
उसने हाथ स्थिर किया
और निहारना शुरू किया शीशी के खून को
अरे यह क्या !
उसके चेहरे पे इतना पसीना इतनी बेचैनी !
उसने बडबडाना शुरू किया---
 हाँ यही खून  नहीं नहीं ऐसा ही खून
ऐसा ही लाल लाल
भाई मेरे  ऐसा ही खून था वह , ऐसा ही
जिसने मेरे घर को मटियामेट कर दिया
जो मेरे स्वर्ग-सिधारे बाप के
छलनी शरीर से निकला था
सिर्फ इसलिए कि एक जमीन के टुकड़े को
उसने अपना कहा था
और उस भेड़िए जमींदार की औलाद ने---
खैर ! छोड़ो
बात पूरी किए बगैर ही वह रुका
मैं अचंभित बुत बना बैठा रहा
उसकी आँखों में आँसू थे
वह फिर बुदबुदाया--
 अगर कुछ देर बैठ सको तो बैठो
रिपोर्ट लेके ही जाना
कुछ बातें भी हो जाएंगी '
मैं एक टक उसे निहारता रहा
उसने थोडा सा खून
एक पतली परखनली में डाला
एक दो बार हिलाया
और परखनली की तरफ देखते ही चीख सा पड़ा
' हाँ ऐसा ही खून , हाँ-हाँ ऐसा ही खून
हाँ बंधू ऐसा ही खून था
जो मेरी किशोरी बहन के मासूम जिस्म
से निकला था
जब कुछ दरिंदों ने रौंद डाला था
उसके जिस्म को बर्बर्तापुर्बक
और--और--वह चल बसी थी  उफ़ !
मैंने उसकी भावना को समझते हुए
उसके कन्धों पर सांत्वना के थपकी दिए
उसने मेरी तरफ देखा और फिर बोल पड़ा--
 मैंने तुम्हे परेशान किया न
अब तुम रिपोर्ट लेके ही जाना
अकेला हूँ  मैं भी साथ चलूँगा '
मैं चुपचाप बैठ गया
उसने शीशी से दो बूंद खून ले
फैला दिया स्लाईड पर
और यह क्या , फैलाते ही
लगभग बेहोश हो गया
और उसकी मिमियाती सी आवाज निकली--
 हाँ ऐसा ही था
ऐसा ही था वह खून जो मेरी स्वर्गीया माँ के
सर फटने से निकला था
जब रास्ते में ही कुछ गुंडों ने
उसपर हमला बोल दिया था
क्योंकि वह थाने जा रही थी
पिताजी और बहन के कातिलों के खिलाफ
रपट लिखवाने ।
                    ----शेखर सावंत ----


 2 बिजली का खंभा "
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इस गली की
ना जाने कितनी कहानियों का
पक्का गवाह है
यह बिजली का खंभा
वह सामने के मकान को
बगलवाले पनवारी की दूकान को
उस खूंसट पहरेदार को
और उन बेहाये कुत्तों को
सबको पहचानता है
क्यों आते हैं इतने लोग
इस पान की दूकान पर
और उनकी नज़रें
क्यों रहती हैं उस मकान पर
वह सब जानता है
अपनी लम्बाई का फायदा उठाते हुए
झांकता रहता है वह
उस मकान के आँगन में
वहाँ उसे दिखता है एक तुलसी का पौधा
और एक शर्मीलापन
जिसपर दीवाना है इतिहास गली का
और वो खूंसट पहरेदार
जो बेवजह रात में
डंडे पटकता है
गली की सड़क पर
खंभे की पीठ को घड़ी समझता है
जब तब आकर दो चार डंडे
जर देता कसके
बिजली का खंभा दर्द से कराहता है
लोग उस पहरेदार पर खुश हैं
लेकिन यह खंभा ही जानता है
कि वह कितना इमानदार है
कि सिर्फ पहरेदारी ही नहीं उसका रोजगार है
इलाके के सारे चोर-उचक्कों के साथ
उसका अपना
शेयर का फलता-फूलता कारोबार है
और वो बेहाए कुत्ते
जो रात के सन्नाटे में
लाज़-शरम बेचकर
रंगरेलियां मनाते हैं
खुलेआम गली में
कितनी बार समझाया है इस बिजली के खंभे ने
उन कुत्तों और कुतियों को
लेकिन उनकी भी भौं-भौं खंभे से कहती है--
आखिर ये सफेदपोश आदमी भी तो
हमारी ही नक़ल करते हैं
रात की गहराई में
मासूमो से छल करते हैं
हमदोनों की सभ्यता कलयुग में एक है
यह सुनकर शर्म से
खंभे के माथे पर लगा बल्ब
फ्यूज कर जाता है
अब तो यह खंभा भी
कुछ कहने से घबराता है ।
                     ----शेखर सावंत----

 ताले का सुख-दुःख "
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मेरे ताले की नाभि में कैद हैं
ढेरों  संवाद
जिसको वह कभी नहीं
चाहता है भूलना
रखता है याद
कितने जन आते हैं
रह-रह कर जब-तब
खोजने को मुझको
भाई या मित्रगण या कोई कुटुम्बजन
यदा-कदा पिताजी
और कभी  वो
जो भी है आता
ताले को बंद देख
कागज़ का एक टुकड़ा
उसकी नाभि में घुसाता
उसमे है सुख-दुःख का कोई संवाद
मिलने की आरजू
देखने की चाहत
परखने की ललक
या कोई न्योता
या कोई नोटिस
भाई का पैगाम या पिता का आशीर्वाद
या मित्र की ठिठोली
या फिर  उसकी  शिकायत
ताले को दुःख भी है
होता वह आहत
कि मेरे आगुन्तुक का
स्वागत न कर पाता
बस यूं ही निहारता लटका ही रह जाता
पर अन्दर ही अन्दर वह होता कुछ खुश भी है
पढ़ लेता चुपके से
कागज़ का टुकड़ा वह
और मुझे अकेले में मुंह चिढाता है ।
-------------शेखर सावंत--------

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