नरेश सक्सेना की कविताओं में जनवाद
मेरा अनुभव रहा है कि
विशेष परिस्थितियों में, वस्तुएँ मनुष्यों की तरह और मनुष्य वस्तुओं की तरह व्यवहार करने लगते
हैं। ------ नरेश सक्सेना
नरेश
सक्सेना एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने बहुत कम लिखा लेकिन, उनका लिखा हुआ ख़ूब पढ़ा गया। कविता जिस समय
उपेक्षा और वैश्वीकरण से उपजे साहित्यिक निरादर से जूझ रही रही थी उस समय उनकी
कविता ने, कविता को मजबूत स्तम्भ की तरह नई दुनिया की
चुनौतियों के सामने रखा। उनकी तरल और सरल कवितायें संवेदनात्मक ज्ञान अथवा
ज्ञानात्मक संवेदना से परिपूर्ण हैं। नरेश सक्सेना की कवितायें उस जनसंस्कृति का
आईना हैं जिसमें मनुष्यता की जीत की पूरी-पूरी संभावनाओं के साथ इस दुनिया की
सलामती की प्रार्थना है। इसका कारण यह है कि उन्होंने सहज मानवीय अनुभूतियों को
अपनी कविता का बीज-भाव बनाया है और कविताओं को ऐसे बुनते रहे हैं जैसे कोई
परिश्रमी महिला स्वेटर बुन रही हो और साथ ही उसकी गोद में उसका शिशु खेल रहा हो।
इसमें
संदेह नहीं कि अपने सौंदर्यबोध और अनुभूतियों के स्तर पर नरेश सक्सेना जन के निकट
हैं। उनकी कविता में मानवीयता को बचाने की जो चिंता है वह कविता की प्रत्येक
पंक्ति, प्रत्येक शब्द में है। प्राकृतिक प्रतीकों
के माध्यम से उन्होंने मनुष्य की जीवनधारा के बिम्ब सिरजे हैं। उनके यहाँ वस्तुएँ
भी मनुष्य जैसा व्यवहार करती हैं। ईंट, गारा, सरिया, सीमेंट, पुल, गिट्टी, मज़दूर उनकी कविता के सहचर हैं। उनकी
कविताओं में निर्जीव वस्तुओं में भी प्राण हैं, जिस पर
मंगलेश डबराल कहते हैं- “यह सही है कि निर्जीव वस्तुओं का भी एक जीवन होता है और
उसे देख पाना कोई कम रोमांचक नहीं है और इसीलिए देश-विदेश के अनेक कवियों ने तेल
की पकौड़ी (निराला) और समोसे (वीरेन डंगवाल) से लेकर छोटी डिबिया (वास्को पोपा)
जैसी चीजों पर अद्भुत कविताएँ लिखीं हैं और ‘नेचर’ या ‘स्टिल लाइफ’ तो पश्चिमी
कवियों और चित्रकारों का जैसे अनिवार्य विषय ही रहा है,
लेकिन नरेश सक्सेना के यहाँ यह सारी निर्जीव उपस्थिति एक जीवन के उपलक्ष्य में, उसी के एक रूप की तरह उसे निर्मित करती हुई प्रकट होती है, अर्थात् वह उन वस्तुओं का न होकर उन वस्तुओं के द्वारा बना हुआ लगता है।
यह काव्य-संवेदना जीवित और निर्जीव चीजों को एक ही तरह से देखती है, बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि जो कुछ निर्जीव है, वह जीवन से अधिक जीवन-सक्रिय है। हालाँकि वह कोई समांतर या प्रतिजीवन
नहीं है बल्कि एक तरह का आद्य-जीवन और उत्तर-जीवन है।”1 यह जो वस्तुओं के प्रति
कवि की सूक्ष्म दृष्टि है, यह उसका सौंदर्यबोध भी है और
जनोन्मुख चेतना भी है क्योंकि वस्तुएँ मनुष्य से उसी प्रकार जुड़ी हुई हैं जिस
प्रकार उसका जीवन। ‘हिस्सा’
कविता के कुछ अंशों को देखते हैं-
“बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है
जो बच रहेगा
टपक रहे ख़ून में जो पानी है वह सूख जायेगा
लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
जो बच रहेगा.........
..दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा है
तो फिर दुनिया भर में बहते हुए ख़ून और पसीने में
हमारा भी हिस्सा होना चाहिए।” 2
नरेश
सक्सेना की कविताओं में जनवाद दिखावे के रूप में नहीं है, बल्कि वह शांत और सृजनात्मक रूप में है। यह
बात उनकी कविता की प्रौढ़ता को प्रदर्शित करने के साथ-साथ उसकी रसमयता और
आध्यात्मिकता को भी प्रत्यक्ष करती है।
उनके
दोनों कविता संग्रहों, ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ (2001) और ‘सुनो चारुशीला’ (2012) की कविताएँ एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ओत-प्रोत हैं। शायद इसके पीछे उनका
अभियांत्रिकी का पेशा रहा हो। उनकी कविताओं में बोली की लय है। जिसके विषय में वे
स्वयं कहते हैं- “सामान्यतः मैं बोलकर लिखता हूँ, इसलिए बोली
की लय अनायास ही उसमें आ जाती है। मुझे लगता है, कविता को
लोकगीत की तरह सरल और आत्मीय होना चाहिए। हालाँकि ऐसा हो कहाँ पाता है। साहित्यिक
भाषा मुझसे सधती भी नहीं है। दसवीं के बाद हिन्दी भाषा मेरा विषय नहीं रही। एम.ई.
तक इंजीनियरिंग पढ़ी और पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग ही की। ईंट, गिट्टी, सीमेंट, लोहा, नदी, पुल- मेरी रोज़ी-रोटी का साधन रहे हैं। ‘सोच’ के केंद्र में रहे हैं। वे मेरी कविता से बाहर
कैसे रह सकते हैं ! बचपन जंगलों में नदियों के किनारे बीता। मुरैना में चंबल और
गोहद, भिंड में बेसली नदी। मैं पानी का इंजीनियर बना। यह कोई
संयोग नहीं था। मेरा चुनाव था।”3 पानी, पेड़, पुल, फूल, पत्ते, बालू, मिट्टी, गिट्टी वाली इन
कविताओं में नरेश सक्सेना की वैज्ञानिक दृष्टि का विलक्षण रूप है। विज्ञान और गणित
की पृष्ठभूमि के बारे में वे कहते हैं- “सामान्य पाठक की समझ और संवेदना पर मैं
भरोसा करता हूँ। विज्ञान और गणित की पृष्ठभूमि के कारण जटिलता को मैं कोई मूल्य
नहीं मानता। विज्ञान और गणित दो-टूक होते हैं। वैसे भी ज्ञान चीजों को सरल बनाता
है। जटिलता की जड़ें अक्सर अज्ञान में होती हैं।”4
उनके
उपरोक्त विचार उनकी प्रत्येक कविता में फलीभूत हैं। सरलता और सहजता जनवाद की ओर ले
जाने वाली प्राथमिक बातें हैं। जटिलता जन से दूर ले जाती है। लेकिन वे जन के
अत्यंत निकट हैं। उसकी नींद और बेहोशी की चिंता करते हुए, उसकी हड्डियों के भीतर झाँकते हुए-
“ओ
गिट्टी-लदे ट्रक पर सोये हुए आदमी
तुम नींद में हो या बेहोशी में
गिट्टी-लदा ट्रक और तलवों पर पिघलता हुआ कोलतार
ऐसे में क्या नींद आती है ?
दिन भर तुमने गिट्टियाँ नहीं अपनी हड्डियाँ तोड़ी हैं
और हिसाब गिट्टियों का भी नहीं पाया”5
शब्दों
और उनमें छुपे अर्थों को सावधानी से खोलना कवि की प्रतिभा का उदाहरण है।
उपरोक्त पंक्तियों में सावधानी से यह
कार्य किया गया है। मज़दूर सारी मेहनत अपनी हड्डियों या अपने शारीरिक श्रम से ही
करता है। उसके श्रम के बदले में उसे गिट्टियों के बराबर पारिश्रमिक भी नहीं मिलता
है। यहाँ मुहावरे का भी एक विशिष्ट प्रयोग है। लेकिन शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूर
की नींद की चिंता कवि की जनवादी चेतना का ही परिष्कृत संवेदनात्मक, काव्यमय रूप है। यह मानववादी दृष्टिकोण
मार्क्सवादी भौतिकवाद से प्रभावित होकर उपजा है। “मानवतावाद या मानव-स्वभाव का
आवेगमय अध्ययन, समस्त साहित्य और कला के लिए सारभूत होता है, अच्छी कला और अच्छा साहित्य मनुष्य और मानव स्वभाव के वास्तविक सारतत्व
की जांच-पड़ताल करने के कारण ही नहीं, बल्कि इसके साथ ही
मानवीय गरिमा की; सारे आक्रमणों, पतनों
और विकृतियों से आवेगपूर्वक हिफाजत करने के कारण भी,
मानवतावादी होते हैं। चूँकि ये प्रवृत्तियाँ (खासकर, मनुष्य
का मनुष्य द्वारा शोषण और दमन) किसी भी समाज की अपेक्षा, ऊपर
विश्लेषित वस्तुरूपांतरण के कारण पूँजीवाद में अमानवीय स्तर अख़्तियार कर लेती हैं, इसलिए रचनात्मक व्यक्ति के रूप में हर सही कलाकार,
हर सच्चा लेखक चेतन या अचेतन ढंग से मानवतावाद के सिद्धान्त की इस विकृति का
दुश्मन होता है।”6
नरेश
सक्सेना की कविताओं में काँक्रीट, पुल, ईंट, सीमेंट, गारा, सरिया, बालू आदि के बार-बार आने के पार्श्व में एक
तथ्य यह भी छुपा है कि यह सभी वस्तुएँ मनुष्य की बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं से
जुड़ी हुई हैं। रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की पहली ज़रूरत है
इसलिए इस ज़रूरत के आधार पर वह इन सभी वस्तुओं से गहरे तक जुड़ा हुआ है। इन्हीं
वस्तुओं के क्रम में ‘ईंट’
कविता का उल्लेख करना विषयानुकूल होगा-
“घर एक ईंटों भरी अवधारणा है
जी बिलकुल ठीक सुना आपने
मकान नहीं घर......
ईंटों के चट्टे की छाया में
तीन ईंटें थीं एक मज़दूरनी का चूल्हा
दो उसके बच्चे की खुड्डी बनी थीं
एक उसके थके हुए सिर के नीचे लगी थी....” 7
तीन
ईंटों से बना हुआ चूल्हा जीवन में ईंट की उपयोगिता को इस प्रकार वर्णित करता है कि
वे तीन ईंटें अमूल्य हो जाती हैं क्योंकि उनसे बने हुए चूल्हे पर मज़दूरनी का खाना
बनता है। यह एक बड़ी कविता है जो जन-जीवन के पहलुओं, उसके संघर्ष, उसके संतोष की अनूठी छवि प्रस्तुत
करती है। ईंटें भी उसी मिट्टी से बनी हैं जिस मिट्टी से मनुष्य बने हैं। यह जो
कविता की साधरणता है, यह जन से कवि ने पायी है वही जन जिसके
लिए मुक्तिबोध कहते हैं- “जनता के मानसिक परिष्कार, उसके
आदर्श और मनोरंजन से लेकर क्रान्ति-पथ की तरफ मोड़ने वाला,
प्राकृतिक शोभा और प्रेम, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर
करने वाला, स्वतन्त्रता और मुक्ति-गीतों को अभिव्यक्ति देने
वाला, ये सभी कोटियाँ जनवादी काव्य हो सकते हैं, बशर्ते वह मन को मानवीय, जन को ‘व्यापक जन’ बना सके और जनता को मुक्ति-पथ पर अग्रसर
कर सके।”8 मुक्तिबोध के इन उद्गारों की कसौटी पर नरेश सक्सेना की कविताएँ यदि खरी
न उतरतीं तो संभवतः विष्णु खरे के विचार यह न होते- “एक अद्वितीय तत्व हमें नरेश
सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है और
वह है मानव और प्रकृति के बीच लगभग संपूर्ण तादात्म्य- और यहाँ प्रकृति से
अभिप्राय किसी रूमानी, ऐंद्रिक शरण्य नहीं बल्कि पृथ्वी सहित
सारे ब्रह्मांड का है, वे सारी वस्तुएँ हैं जिनसे मानव निर्मित
होता है और वे भी जिन्हें वह निर्मित करता है। मुक्तिबोध के बाद की हिन्दी कविता
यदि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को नए अर्थों
में अभिव्यक्त कर रही है तो उसके पीछे नरेश सरीखी प्रतिभा का योगदान अनन्य है।”9
आधुनिक
हिन्दी कविता के प्रारम्भ से ही ‘विश्व-दृष्टि’ उसकी एक प्रवृत्ति रही है। नरेश सक्सेना की कविताओं में भी वह
विश्व-दृष्टि और मानवतावाद अपने विकसित रूप में उपस्थित है। जिन मसलों को उठाने की
सबसे अधिक आवश्यकता इन दिनों की कविता को रही उनमें प्रमुख है, पर्यावरण को बचाने की कोशिश। अंध-विकासवाद ने पृथ्वी की जो दशा की है
उससे सम्पूर्ण मानवता को जो खतरा उत्पन्न हुआ है वह भयावह है। और यह सत्य है कि
इसका कारण भी वही दानवी पूँजीवादी, विकासवादी, भू-मंडलीकृत प्रतिस्पर्धा रही है। जनवाद का अर्थ यह नहीं है कि उसमें
केवल क्रान्ति के चीखते गीत गायें जायें। जनवाद मानवता को बचाने की एक मुहिम भी
है। जन के साथ उसका पर्यावरण भी है। यहाँ तक कि पूरी पृथ्वी ही जन की है। उस पर किसी
का अतिक्रमण हो सकता है, किन्तु अधिकार नहीं। पर्यावरण को
बचाने के लिए फ़िक्रमंद नरेश सक्सेना की कवितायें अपनी रचना में नितांत मौलिक और
लयबद्ध हैं। विष्णु खरे लिखते हैं- “दूसरी ओर उनकी कविता में पर्यावरण की कोई सीमा
नहीं है। वह भौतिक से होता हुआ सामाजिक और निजी विश्व को भी समेट लेता है। हिन्दी
कविता में पर्यावरण को लेकर इतनी सजगता और स्नेह बहुत कम कवियों के पास है।
विज्ञान, तकनीकी, प्रकृति और पर्यावरण
से गहरे सरोकारों के बावजूद नरेश सक्सेना की कविता कुछ अपूर्ण ही रहती यदि उसके
केंद्र में असंदिग्ध मानव-प्रतिबद्धता, जिजीविषा और
संघर्षशीलता न होती।”10 यह मानव-प्रतिबद्धता ही उन्हें जनवादी काव्य की
रचना-प्रक्रिया की दिशा में ले जाती है। जहाँ मुक्ति के प्रयास हैं, कविता के माध्यम से ही पृथ्वी और पर्यावरण को बचा ले जाने की उद्दाम चाह
और विश्वास है। यह साहित्यिक ईमानदारी का ही एक प्रमाण है। पर्यावरण नरेश
सक्सेना की प्रत्येक कविता में किसी न
किसी रूप में मौजूद है। शायद किसी प्राकृतिक बिम्ब के बिना उनकी कविता मुश्किल से
ही पूरी हो पाती है। ‘नक्शे’
कविता की कुछ पंक्तियाँ देखते हैं-
“नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं
नक्शे में नदियाँ हैं पानी नहीं
नक्शे में पहाड़ हैं पत्थर नहीं
नक्शे में देश हैं लोग नहीं
समझ ही गए होंगे आप कि हम सब
एक नक्शे में रहते हैं....
...तफ़रीह की जगह नहीं है यह
नक्शों से फ़ौरन बाहर निकल आइए
मुझे लगता है एक दिन
सारे नक्शों को मोड़कर जेब में रख लेगा कोई मसख़रा
और चलता बनेगा।”11
‘नक्शे’ एक लंबी कविता है और उसमें इक्कीसवीं सदी का
सबसे भयानक सच छुपा हुआ है। मानव-मुक्ति के प्रयास करते दिखाई देते हुए राष्ट्र और
विश्व की प्रतिस्पर्धी शक्तियों पर कटाक्ष करती इस कविता की शुरुआती पंक्तियों का
बिम्ब ही पर्यावरण की फ़िक्र के साथ आया है। सिर्फ दो पंक्तियाँ- ‘नक्शे में जंगल हैं पेड़ नहीं, नक्शे में नदियाँ हैं
पानी नहीं’ इस भू-मंडलीकृत नव-साम्राज्यवाद का कुरूप और
सड़ांध भरा चेहरा दिखाती हैं। ‘घास’ कविता के माध्यम से कवि ने अपना जनवादी रुझान और भी स्पष्ट किया है। अब
तक कि साम्राज्यवादी शक्तियों की दुनिया पर राज करने की वासना पर यह कविता बहुत
शालीनता और स्थिरता के साथ व्यंग्य करती है-
“सारी दुनिया को था जिनके कब्जे का एहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास
धरती पर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास।”12
यह
घास वाली पंक्तियाँ कबीर के यहाँ भी ‘ऊपरि जामी घास’ के रूप में
हैं जिनसे हिन्दी का हर जनवादी कवि उत्तराधिकार में कुछ न कुछ ग्रहण करता है।
कामायनी में प्रसाद ने प्रकृति को ‘दुर्जेय’ कहा है। उत्तर-आधुनिकता का एक पहलू यह भी
रहा है कि उसमें प्रकृति के प्रभुत्व में रहने की बात कही गयी थी लेकिन विकासवाद
की होड़ ने प्रकृति को सबसे अधिक नुकसान इसी दौर में पहुंचाया है। यह पंक्तियाँ उन
ऐतिहासिक साम्राज्यवादियों की प्रभुता को धूल-धूसरित करती हैं जिन्हें पूरी पृथ्वी
पर शासन करने का गर्व था। जनतंत्र ने उनके पते-ठिकानों पर उगती हुई घास देखी है।
नरेश सक्सेना अपनी बात उसी कबीर की सी मस्ती में कह जाते हैं। इसका एक और उदाहरण
है उनकी कविता ‘ईश्वर की औकात’
जिसमें वे कहते हैं-
“वे पत्थरों को पहनाते हैं लँगोट
पौधों को चुनरी और घाघरा पहनाते हैं
वनों, पर्वतों और आकाश की नग्नता से होकर आक्रांत
तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाते हैं
देवी-देवताओं को पहनाते हैं आभूषण
और फिर उनके मंदिरों का
उद्धार करके इसे वातानुकूलित करवाते हैं
इस तरह वे ईश्वर को उसकी औकात बताते हैं !”13
यह
जो तरह-तरह से अपनी अश्लीलता का उत्सव मनाने की बात इस कविता में है, वह समाज के विद्रूप चेहरे पर हँसने वाला एक
व्यंग्य भी है।
भौतिकवादी
दर्शन चेतन द्वारा जड़ पदार्थों के संचालन होने के विचार में विश्वास रखता है। तभी
यह बात सामने आती है कि रचनाकार अपने आस-पास की बाह्य जड़ वस्तुओं और पदार्थों से
प्रभावित होता है। जबकि उसका प्रभाव उसकी चेतना पर पड़ता है। इस तथ्य को
रचना-प्रक्रिया के संबंध में मुक्तिबोध ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में यों व्यक्त
किया है- “हमारे जन्मकाल से ही शुरू होने वाला हमारा जो जीवन है, वह बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण द्वारा
ही सम्पन्न और विकसित होता है। यदि वह आभ्यंतरीकरण न हो तो हम कृमि-पानी का जीव
हाइड्रा-बन जाएँगे। हमारी भाव-सम्पदा, ज्ञान-सम्पदा, अनुभव-समृद्धि उस अंतर्तत्व-व्यवस्था ही का अभिन्न अंग है, कि जो अंतर्तत्व-व्यवस्था हमने बाह्य जीवन-जगत् के आभ्यंतरीकरण से
प्राप्त की है। हम मरते दम तक जीवन-जगत् का आभ्यंतरीकरण करते जाते हैं। किन्तु साथ
ही, बातचीत, बहस,
लेखन, भाषण, साहित्य और काव्य द्वारा
हम निरंतर स्वयं का बाह्यीकरण करते जाते हैं। बाह्य का आभ्यंतरीकरण और आभ्यंतर का
बाह्यीकरण एक निरंतर चक्र है। यह आभ्यंतरीकरण तथा बाह्यीकरण मात्र मननजन्य नहीं
वरन् कर्मजन्य भी है। जो हो, कला आभ्यंतर के बाह्यीकरण का एक
रूप है।”14 बाह्य जीवन को आभ्यंतर में परिष्कृत करना और उसे रचना-प्रक्रिया में
ढालने का जो क्रम है वह नरेश सक्सेना की रचनाओं में भी है।
नरेश
सक्सेना की कविताओं में ‘घड़ियाँ’ एक ऐसी कविता है जिसमें जनवादी स्वर अधिक मुखर हुआ है। यहाँ पर कुछ
ब्यौरों की सहायता अवश्य ली गयी है जिससे कुछ इतिवृत्तात्मकता आ गयी है और यह बात
उनकी अन्य कविताओं से इस कविता को भिन्न करती है। इस कविता में कुछ व्यंग्य भी है
और कुछ तनाव भी-
“अपनी घड़ी देखिये जनाब,
जितनी देर मुझे यह बात कहने में लगी
उतने में तीन सौ हत्याएँ हो गईं, छह सौ बलात्कार
और बारह सौ अपहरण
इसी बीच भुखमरी से मर गए चौबीस सौ लोग
और घड़ियों के चेहरों पर शिकन तक नहीं”15
इस
कविता का सम्बोधन उन व्यक्तिवादी लोगों से है जिन्हें अपने समय का अनुमान केवल
अपनी घड़ी तक है। ‘और घड़ियों के
चेहरे पर शिकन तक नहीं’ में चेहरा
घड़ी का नहीं है। चेहरा मध्यवर्गीय स्वार्थपरता का है। आगे देखते हैं-
“ग़रीब कलाइयों वाली घड़ियाँ
लखनऊ से दिल्ली जाने का वक़्त दस घंटे बताती हैं
जबकि अमीर कलाइयों वाली बताती हैं
महज़ पैंतालीस मिनट की उड़ान”16
वर्गीय
असमानता में प्रत्येक वस्तु असमान होती है। कलाइयाँ तक अमीर-ग़रीब होती हैं। उन पर बँधी
घड़ियाँ अलग-अलग समय बताती हैं। यानी जो ग़रीब है वह देर से चल रहा है, वह पीछे रहेगा। पैंतालीस मिनट की उड़ान का
समय बताने वाली घड़ी अमीर कलाई की है। और आगे-
“देखिये अपने देश के पचपन करोड़ कुपोषित बच्चों को
उनके चेहरे बता रहे हैं उनका वक़्त
उनके चेहरों की झुर्रियाँ घड़ी हैं
उनकी बुझी हुई आँखें घड़ी हैं
उनके धँसे हुए पेट घड़ी हैं
उनकी उभरी हुई हड्डियाँ घड़ी हैं...,”17
घड़ी
यांत्रिक उपकरण है और वह समय बताती है। ऐसा समय जो मापा जा सके। ऐसा समय जिसकी
उपयोगिता समझी जा सके लेकिन चेहरे की झुर्रियाँ, बुझी हुई आँखें, धँसे हुए पेट और उभरी हुई हड्डियाँ
जो समय बताती हैं वह बहुत भयानक है। ज़ाहिर है यह हमारा समय है। हमारा यानी जन का
समय है, जो शोषण और असमानता की आग में जल रहा है। जिसका
चेहरा एक ऐसी घड़ी है जो कभी सही वक़्त नहीं बताती। जो कह रही है तुम्हारा समय खराब
है। कुछ कविताओं में सिद्धांत को व्यवहार में न अपना सकने के प्रति क्षोभ और रोष
भी अभिव्यंजित होता है। वह सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं स्वयं कवि के लिए भी है
तभी तो कवि कहता है-
“भूख से बेहोश होते आदमी की चेतना में
शब्द नहीं
अन्न के दाने होते होंगे
अन्न का स्वाद होता होगा
अन्न की ख़ुशबू होती होगी
बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कहके नहीं, करके दिखानी होती थी।”16
‘कहके नहीं’, ‘करके दिखाने’ का जो भाव है वह कुछ-कुछ मुक्तिबोध जैसा है। आत्मभर्त्सना
या जन के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति को कवि ने बखूबी समझा है। तभी वह कहता है कि
केवल शब्दों से काम नहीं चल सकता। “द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सौंदर्यशास्त्र को जो
चीज़ भाववादी और अतिभूतवादी भौतिकवादी सौन्दर्यशास्त्र से बुनियादी तौर पर अलग करती
है वह है सामान्य रूप से सौंदर्यपरक संबंध के और विशेष रूप से कला-रचना के आधार के
रूप में व्यवहार की अवधारणा। इस अवधारणा के अनुसार श्रम के उच्चतर रूप में कला
मनुष्य की व्यावहारिक क्रिया की अभिव्यक्ति है जिसके जरिये वह अपने को वस्तु जगत
में एक सामाजिक, स्वतंत्र और रचनात्मक
सत्ता के रूप में व्यक्त और स्थापित करता है।”19 कला-रचना के आधार के रूप में
व्यवहार की अवधारणा से उपजा आत्मसंघर्ष कवि के मन को उद्वेलित करता है। यह सवाल
बार-बार रचनाकार के मन में उठता है कि वह अपनी रचनात्मक सक्रियता से समाज में क्या
परिवर्तन कर सकता है। इसीलिए नरेश सक्सेना की कविताओं में अति-गंभीरता आ जाती है।
इससे कविता की पठनीयता पर प्रभाव पड़ता है। मुक्तिबोध की कविताओं में यह बात बहुत
है। नरेश सक्सेना की कविताओं में यह इसलिए कम है क्योंकि वे फैन्टेसी का प्रयोग
लगभग न के बराबर या कम से कम करते हैं। मंगलेश डबराल की टिप्पणी इस संदर्भ में
प्रासंगिक होगी कि- “खास बात यह है कि पठनीयता के लिए नरेश सक्सेना अनुभव को हल्का
या ‘डायल्यूट’ नहीं करते या गंभीरता को
खोने की क़ीमत पर लोकप्रियता नहीं पैदा करते। इस तरह शायद वे कहीं हमारी
प्रगतिशील-जनवादी कविता की समस्यात्मकता को भी सुलझाने का काम करते हैं। उसमें जो
चमक, प्रकाश और उम्मीद है, वह अनुभव को
देखने के उनके ढंग से स्वतः स्फूर्त हुई है। हमारी प्रगतिशील कविता भी आशावादी
कविता थी, लेकिन नरेश उसकी स्थूलता को लाँघ जाते हैं।
प्रगतिशील कविता की कुछ विडम्बना यह रही कि वह उम्मीद तो बतलाती थी। उम्मीद का
कारण नहीं बताती थी। नरेश सक्सेना की कविता कलवादी रूपवादी हुए बिना, आनंदवादी हुए बिना, जीवन का उत्सव मनाती रहती
है।”20
कलावादी
हुए बिना भी जीवन के उत्स को कविता में जीना मुश्किल कार्य है। जनवादी-प्रगतिवादी
कवियों पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि उनकी कविताओं में कलापक्ष पर कोई विशेष
ध्यान नहीं दिया जाता या कविता का वह हिस्सा रूखा रहता है। नरेश सक्सेना की
कवितायें इस बात का अपवाद हो सकती हैं। उनकी कविताओं में जीवन का उत्स अपने पूरे
आवेग और उल्लास के साथ है। पत्नी के दिवंगत होने के बाद भी उसके प्रेम का उल्लास
उनके भीतर हिलोरें मारता है। ‘सुनो
चारुशीला’ कविता जिसके शीर्षक पर उनके एक कविता संग्रह
का नाम भी है, इस संदर्भ में एक अच्छी कविता है-
“सुनो चारुशीला !
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे हम तो फिर क्या होंगे
अच्छा जरा सोचकर बताओ
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुए ”21
यह
जो प्रेम में एकमेक होने का गणित है। जिसमें प्रत्येक योग का फल एक ही आता है, इसका उल्लास प्रेमगीतों में कभी नहीं
अंटता। नरेश सक्सेना अपनी कविताओं में विज्ञान और गणित के प्रयोग को लेकर स्वयं
टिप्पणी करते हैं- “फ़िल्में बनाते हुए, नाटक लिखते हुए, संगीत संरचनाएँ बनाते हुए या इंजीनियरिंग की समस्याएँ हल करते हुए मैंने
लगातार महसूस किया है कि गणित, विज्ञान, संगीत, कविता और अन्य कलाओं का कोई विरोध आपस में
नहीं होता, बल्कि एक आंतरिक संगति होती है। कविता निश्चित ही
विज्ञान से कुछ ऊपर की चीज़ है, नीचे की नहीं। सदियों बाद तक
गणितज्ञ और वैज्ञानिक कविताओं को सिद्ध करते रहते हैं।”22
‘रोशनी’, ‘सेतु’, ‘लोहे की रेलिंग’, पानी आदि
कविताओं में जो विज्ञान आया है यह बहुत जटिल या कविता की पठनीयता को प्रभावित करने
वाला नहीं है। यह जनसुलभ विज्ञान है। उदाहरण के लिए एक ऐसी ही कविता ‘पानी क्या कर रहा है’ की कुछ पंक्तियाँ लेते
हैं-
“यह चार डिग्री वह तापक्रम है दोस्तों
जिसके नीचे मछलियों का मरना शुरू हो जाता है
पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है
कि अगर वह और ठंडा हुआ
तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी......
तीन डिग्री हल्का
दो डिग्री और हल्का और
शून्य डिग्री होते ही, बर्फ़ बन कर
सतह पर जम जाता है
इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का
अब पड़ती रहे ठंड
नीचे गर्म पानी में मछलियाँ
जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं ”23
यह
एक ऐसी कविता है जिसमें जीवन में दूसरों के लिए कुछ करते रहने की प्रेरणा का पवित्र
भाव है। नरेश सक्सेना की कविताओं की एक विशेष बात यह भी है कि उसमें हर वस्तु
(निर्जीव वस्तुएँ भी) किसी के लिए कुछ न कुछ कर रही है। मनुष्य की स्वार्थपरता को
आईना दिखाने के लिए उनकी कवितायें शब्द-शब्द तत्पर हैं। अपनी इस कविता के विज्ञान
पर भी कवि ने स्वयं टिप्पणी की है- “पानी कितना रहस्यमय होता है ! वस्तुएँ ठंडी
होकर सिकुड़ती हैं और सघन होती हैं, लेकिन नदियों, झीलों और समुद्रों का पानी ठंड में
सिकुड़ता और भारी होता हुआ जैसे ही चार डिग्री सेल्सियस पर पहुँचता है कि अचानक
अपना व्यवहार उलट देता है। इससे ज़्यादा ठंडा होते ही वह भारी होकर नीचे बैठने की
जगह, हल्का होकर ऊपर ही बना रहता है,
अगर ऐसा न करे तो सारी मछलियाँ मर जाएँ। क्या पानी जानता है यह बात ? क्या वह मछलियों को बचाने के लिए ही ऐसा करता है।”24
अपनी
इस कविता के अंत में, कवि समाज में
उस स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण करता है जहाँ कोई किसी को बचा नहीं पा रहा है या
बचाना नहीं चाहता, या हर कोई इतना स्वार्थी है कि उसे अपने
आप से फुरसत नहीं है। जिन हालातों में कोई किसी को नहीं बचा पा रहा है, या बचाना नहीं चाहता उस समय भी प्रकृति अपनी परमार्थ की अद्भुत शक्ति और
मनुष्य के साथ-साथ पृथ्वी के प्रत्येक जीव-जन्तु के साथ समान व्यवहार कर रही होती
है। यह असमानता की भावना केवल मनुष्य में है कि, कोई जीवन के
विलास में निमग्न है और कोई हाँड़ तोड़ रहा है। पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“पानी
के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं दोस्तों
इस वक़्त
कोई कुछ बचा नहीं पा रहा
किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को
अपने हाथों से फसल को आग लगाए दे रहा है.....”25
कविता
में इस सामान्य विज्ञान के उपयोग पर मंगलेश डबराल कहते हैं- “नरेश सक्सेना कविता
में जिस विज्ञान का उपयोग करते हैं, वह प्रायः प्राथमिक, स्कूली पाठ्यक्रम के स्तर का
है। विज्ञान के छात्र रह चुके नरेश ‘उच्च विज्ञान’ की ओर संभवतः इसलिए नहीं जाते कि वे जिस सहज सामान्य जीवन को दिखलाना
चाहते हैं, वह विज्ञान के सामान्य नियमों से ही चलता है।”26
सहजता जन की ओर उन्मुख होने का प्रमाण है। उनकी कविताओं का विज्ञान इसलिए सामान्य
है क्योंकि वह सामान्य लोगों के लिए है।
‘आधा चाँद माँगता है पूरी रात’ शीर्षक कविता पूँजीवाद की मार्क्सवादी आलोचना की कविता है
जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति के आधार पर कुछ लोगों ने अधिकतर उत्पादन के स्रोतों और
उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं पर आधिपत्य जमा रखा है। इतने में भी समाज के उस
उच्चवर्गीय भाग को संतुष्टि नहीं है। यह वही चाँद है जिसके मुँह को मुक्तिबोध ने
टेढ़ा कहा है-
“कारखाना-अहाते के उस पार
कलमुँही चिमनियों के मीनार
उद्गार-चिह्नाकार।
मीनारों के बीचोबीच चाँद का है टेढ़ा मुँह
लटका,
मेरे दिल में खटका –”27
नरेश
सक्सेना की कविता इस प्रकार है-
“पूरे चाँद के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चाँद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य
आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ों लोग
आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते पूरे पाँव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में।”28
पूँजी
की ज्यामितीय वासना की पूर्ति धरती की आधी से अधिक आबादी के शोषण, उसकी भूख और मृत्यु से होती है। मार्क्स ने
‘कैपिटल’ में पूँजी की संचयन-प्रक्रिया
की व्याख्या इस प्रकार की है- “पूँजी की वृद्धि में इसका चल अर्थात् वह भाग भी
शामिल है जो कि श्रम-शक्ति में बदला है। अगर पूँजी की बनावट अपरिवर्तित रहे, यदि उत्पादन के साधनों की कुछ मात्रा को सदा उसे गतिशील रखने के लिए उतनी
ही मात्रा में श्रम-शक्ति की आवश्यकता हो, तो यह स्पष्ट है, कि श्रम-शक्ति की आवश्यकता पूँजी की वृद्धि के अनुपात से बढ़ेगी, जितनी ही जल्दी पूँजी बढ़ेगी, कामकरों के जीवन-यापन
के लिए धन की आवश्यकता भी उतनी ही जल्दी बढ़ेगी। जिस प्रकार सीधा-साधा पुनुरुत्पादन
स्वयं लगातार पूँजी संबंध को पुनुरुत्पादित करता है, इसी
प्रकार पूँजी का संचयन बड़ी मात्रा में पूँजी-संबंध को पुनुरुत्पादित करता है। एक
ओर पूँजीपति अथवा बड़े पूँजीपति बढ़ते हैं और दूसरी ओर अधिक संख्या में मजूरी-कामकर
बढ़ते हैं। इस प्रकार पूँजी के संचयन का अर्थ है, सर्वहारा की
भी वृद्धि।”29 भू-मंडलीकरण और बाजारवाद ने पूँजी की इस प्रक्रिया को और भी कुरूप
और भयानक बनाया है। आधे इलाज की पूरी फीस देने की जो बात उपरोक्त कविता में कही
गयी है उसका प्रमुख कारण इक्कीसवीं सदी की अतिशय मुनाफाखोरी है। पेशे की ईमानदारी
को भी मुनाफाखोरी ने लील लिया है।
अभिजात्यवाद
का नकार नरेश सक्सेना की कविताओं में कड़े शब्दों में है। हालाँकि उनकी कविता का व्यंग्य
बहुत शालीन और प्रगतिवादियों से भिन्न है। व्यंग्य भी वे बड़े शांत ढंग से करती हैं
लेकिन टीस उतनी ही चुभने वाली होती है। ‘ज़िंदा लोग’ शीर्षक
कविता इस संदर्भ में द्रष्टव्य है-
“लाशों को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ़ चाहिए
उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह...”30
यह
परिवर्तन करने की पुकार की कविता है। जिसमें दो अर्थ व्यंजित होते हैं। एक तो
अभिजात लोगों के मुर्दा होने का और दूसरा यह प्रकट करने के लिए कि जीवित लोग जो
श्रमशील और जीवन की प्यास से भरे हुए हैं उन्हें परिवर्तन करने के लिए अधिक
प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जितनी प्रतीक्षा हम जीवित लोग कर रहे हैं उतनी
प्रतीक्षा लाशें भी नहीं करती हैं। परमानन्द श्रीवास्तव और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
इस कविता के आधार पर नरेश सक्सेना को ब्रेख्तियन लहजे का कवि कहते हैं। उपरोक्त कविता
पर टिप्पणी करते हुए डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- “इस कविता में ब्रेख्त ही
नहीं हिन्दी का एक और भी बहुत बड़ा कवि है....... ‘उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह’, अब आप ये देखते हैं कि निराला की एक पंक्ति
मुझे याद आ रही है जो उन्होंने ‘तुलसीदास’ में लिखी थी कि ‘चाहिए उन्हें भी और और फिर
साधारण को कहाँ ठौर’। जो समर्थ लोग हैं, सम्पन्न लोग हैं उनकी इच्छाओं और उनकी आवश्यकताओं का अंत नहीं, वे असीम हैं। इसलिए हैं क्योंकि वे अनंत और असीम इच्छाएँ एफोर्ड कर सकते
हैं, गवारा कर सकते हैं। एक अजीब बात है कि जिनको सचमुच बहुत
कुछ चाहिए, जिनकी बहुत जरूरतें हैं,
उनकी इच्छाएँ बहुत कम होती हैं। लेकिन जिनको जो चीज़ें गैर ज़रूरी हैं उन चीजों की
जरूरतें बहुत बढ़ती जाती हैं।”31
‘काँक्रीट’ कविता
मानवीय रिश्तों में व्यक्तित्व के लिए स्थान छोड़ने की बात पदार्थों के प्रतीकों के
माध्यम से करती है। हालाँकि कविता में व्यक्तित्व स्वातंत्र्य की धारणा इस प्रकार
है कि सामूहिकता का निषेध न हो। सामूहिकता का निषेध किए बगैर भी हम व्यक्ति
स्वातंत्र्य का अनुसरण कर सकते हैं, और इस विचार को कविता इस प्रकार व्यक्त करती है-
“....जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
ख़ाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत.....
सीमेंट कितनी महीन
और आपस में कितनी सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं ख़ाली जगहें
जिनमें समाता है पानी
और पानी में भी, ख़ैर छोड़िए ”32
काँक्रीट
की कथा यह बताती है कि रिश्तों की ताक़त बनी रहे इसलिए ज़रूरी है कि आप अपने बीच में
थोड़ा सा रिक्त स्थान अवश्य रखें। इस पर डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का कथन है- “ये जो
व्यक्तित्व है, स्वतन्त्रता है, निजता है ये सब आपको सामाजिक और राजनैतिक शब्दावली मालूम पड़ती है। लेकिन
नरेश सक्सेना की कविता में ये चीज़ें कविता होकर के व्यंजित होती हैं, उनकी कविता में जो काँक्रीट है, उनकी कविता जिस
काँक्रीट से बनी है जिस सीमेंट से बनी है वहाँ इसके लिए पर्याप्त अवकाश है। इसलिए
देखने पर यह अवकाश दिखाई पड़ता है। और इसके साथ-साथ ये कि जो प्रकृति है, मनुष्य समाज या हमारी व्यवस्था जिस पर टिकी हुई है,
सबसे बड़ा स्ट्रक्चर तो यह कॉसमॉस है, ये प्रकृति है महाभूतों
की। उसमें जो भी टिका हुआ है उस टिकने का बहुत बड़ा कारण ये है कि वह भी अवकाश देता
है दूसरे तत्वों को, उसमें भी वह निजता स्वीकार करता है और
आत्मीयता और निजता, निकटता और एक ख़ास तरह की मानवीय दूरी- ये
सम्बन्धों की सुदृढ़ता की शर्त है।”33 यह सच है कि मार्क्सवाद व्यक्ति-स्वातंत्र्य का
निषेध करता है लेकिन उसके कुछ विशेष उपबंध भी हैं। सृष्टि में कोई भी वस्तु
स्वतंत्र नहीं है। सब एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। पृथ्वी भी सूर्य के चक्कर काटती
है लेकिन एक दूरी, एक विशेष खाली स्थान सब में है, और यही इस कविता का मूल-कथ्य है कि मजबूती के लिए कुछ खाली जगह होना
अत्यंत ज़रूरी है।
निष्कर्षतः
हम कह सकते हैं कि जनवाद का इक्कीसवीं सदी का रूप इतना बहुआयामी हो गया है कि
कविता को नरेश सक्सेना जैसे प्रतिभावान कवियों की आवश्यकता है। अब मनुष्यता पर
उत्पन्न ख़तरों की संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि कविता को भी अपना रूप बदलना पड़ा
है। कविता पर अब सबकुछ बचाने का दायित्व भी आ पड़ा है। अब मनुष्य का पूँजीवादी शोषण
या उसकी अस्मिता का संकट ही नहीं,
बोली-भाषा, पेड़-पौधे, पर्यावरण, संस्कृति, वेश-भूषा,
परम्पराएँ, रिश्ते-नाते, नदियाँ-समुद्र, धूप-बादल, बर्फ़-पहाड़ तक संकट में है। ऐसे में कविता
को एक सांस्कृतिक स्तम्भ बनना होगा। जनवाद का अर्थ केवल जन के गीत गाना नहीं है
बल्कि उसकी प्रत्येक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान के लिए लड़ना है। मुंशी
प्रेमचंद ने कभी कहा था कि प्रगतिशील होने का मतलब है इंसानियत पर भरोसा करना और
मुक्तिबोध ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा था कि जनवादी होने का अर्थ है इंसानियत
के लिए लड़ना। इसलिए जनवादी कवि के लिए आवश्यक है कि वह अपनी कविता के साथ
जनसंघर्षों में उतरे जन के बीच तक एक एक्टिविस्ट की तरह जाये। नरेश सक्सेना ऐसे ही
कवि हैं। उनकी कविता मानवीयता के सभी धागों से जुड़ी हुई है। उनका आशावाद साधारण या
सस्ता आशावाद नहीं है। उनकी आशा तर्क के साथ बलवती होती है। तर्क अनुभव और अनुभूति
की कसौटी पर माँजा हुआ होता है। आखिर में हम उन्हीं के शब्दों में कह सकते हैं-
“पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना....”34
जन
की नदी में उतरे बिना जनवादी नहीं हुआ जा सकता। पुल से गुजरकर नदी को नहीं जाना जा
सकता। संघर्ष किए बिना जीवन के उल्लास को नहीं जाना जा सकता। नरेश सक्सेना की
कवितायें जनसंघर्ष के उल्लास की कवितायें हैं।
संदर्भ: 1- डबराल मंगलेश, जैविक सत्य नए अर्थ और विस्तार पाते हैं
नरेश की कविताओं में, शीतलवाणी त्रैमासिक पत्रिका, अगस्त-अक्तूबर 2014 अंक, पृष्ठ- 21, 22
2-
सक्सेना नरेश, हिस्सा, समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 13
3-
सक्सेना नरेश, पूर्वकथन, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 8
4-
वही, पृष्ठ- 9
5-
सक्सेना नरेश, नींद में या बेहोशी में, समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 38
6-
मार्क्स कार्ल, सौंदर्यशास्त्र के बारे
में मार्क्स और एंगेल्स के विचार, कला और साहित्य चिंतन, (सं.) सिंह नामवर, (अनु.) पाण्डेय गोरख, राजकमल प्रकाशन, 2010 संस्करण, पृष्ठ- 37
7-
सक्सेना नरेश, ईंटें, समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 19
8-
मुक्तिबोध, नए साहित्य का
सौंदर्यशास्त्र, मुक्तिबोध रचनावली,
खंड- 5, पृष्ठ- 76
9-
खरे विष्णु, समुद्र पर हो रही है
बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, फ्लैप पर
10-
वही
11-
नक्शे, वही, पृष्ठ- 92
12-
सक्सेना नरेश, घास, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 55
13-
ईश्वर की औकात, वही, पृष्ठ- 20
14-
मुक्तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष, निबंधों की दुनिया, (सं.) जैन निर्मला, शर्मा कृष्णदत्त, वाणी प्रकाशन 2009 संस्करण, पृष्ठ- 116,117
15-
सक्सेना नरेश, घड़ियाँ, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 76
16-
वही
17-
वही, पृष्ठ- 77
18-
भाषा से बाहर, वही, पृष्ठ- 64
19-
मार्क्स कार्ल, सौंदर्यबोध के स्रोत और
स्वरूप के बारे में मार्क्स के विचार, कला और साहित्य चिंतन, (सं.) सिंह नामवर, (अनु.) पाण्डेय गोरख, राजकमल प्रकाशन, 2010 संस्करण, पृष्ठ-151
20- डबराल
मंगलेश, जैविक सत्य नए अर्थ और विस्तार पाते हैं
नरेश की कविताओं में, शीतलवाणी त्रैमासिक पत्रिका, अगस्त-अक्तूबर 2014 अंक, पृष्ठ- 23
21-
सक्सेना नरेश, सुनो चारुशीला, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 17
22-
पूर्वकथन, वही, पृष्ठ- 9
23-
पानी क्या कर रहा है, वही, पृष्ठ- 70, 71
24-
पूर्वकथन, वही, पृष्ठ- 8
25-
पानी क्या कर रहा है, वही, पृष्ठ- 71
26-
डबराल मंगलेश, जैविक सत्य नए अर्थ और
विस्तार पाते हैं नरेश की कविताओं में, शीतलवाणी त्रैमासिक
पत्रिका, अगस्त-अक्तूबर 2014 अंक,
पृष्ठ- 22
27-
मुक्तिबोध, चाँद का मुंह टेढ़ा है, प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल प्रकाशन, 2010 संस्करण, पृष्ठ- 94
28-
सक्सेना नरेश, आधा चाँद मांगता है पूरी
रात, सुनो चारुशीला, भारतीय ज्ञानपीठ, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 60
29-
सांकृत्यायन राहुल, कार्ल
मार्क्स, किताब महल प्रकाशन, 2013
संस्करण, पृष्ठ- 235
30-
सक्सेना नरेश, ज़िंदा लोग, समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 25
31-
त्रिपाठी विश्वनाथ डॉ., विचार और
संवेदना से पुष्ट हैं नरेश की कवितायें, शीतलवाणी त्रैमासिक
पत्रिका, अगस्त-अक्तूबर 2014 अंक,
पृष्ठ- 11
32-
सक्सेना नरेश, काँक्रीट , समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 34
33-
त्रिपाठी विश्वनाथ डॉ., विचार और
संवेदना से पुष्ट हैं नरेश की कवितायें, शीतलवाणी त्रैमासिक
पत्रिका, अगस्त-अक्तूबर 2014 अंक,
पृष्ठ- 9
34-
सक्सेना नरेश, पार, समुद्र पर हो रही है बारिश, राजकमल प्रकाशन, 2001 संस्करण, पृष्ठ- 28
संतोष अर्श (गज़लकार, आलोचक)
संतोष अर्श (गज़लकार, आलोचक)
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जवाब देंहटाएंसुशीला पुरी जी, आचार्य उमाशंकर परमार जी और सोनी पांडेय जी का आभार कि उन्होंने इस आलेख को यहाँ तक पहुंचाया ।
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