रविवार, 15 जून 2014

‘मैं ज़िस्म नहीं... मगर, अब तक सोच वही...!’
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ये कैसी सरकार ?
जहाँ पर खुलेआम 
बर्बरता से हो रहे बलात्कार, 
स्त्रियों से जबरन छीना जा रहा 
जीने का भी अधिकार ।

ये कैसा समाज ?
जहाँ पर कोख़ में ही
कन्या हत्या का चल पड़ा रिवाज़,
थाना हो या कचहरी मगर कही पर भी
नही सुनी जाती उसकी आवाज़ ।

ये कैसी दुनिया ?
जहाँ पर मनमानी के बाद
पेड़ पर लटका दी जाती लडकियां,
और फिज़ाओं में गूंजती ही रह जाती
उनकी दर्द भरी सिसकियाँ ।

ये कैसा परिवार ?
जहाँ पर हर नवरात्र में
बलिकाओं का किया जाता सत्कार,
लेकिन रात और दिन उन पर ही बेदर्दी से
किया जाता अनंत अत्याचार ।

ये कैसा ज़माना ?
जहाँ पर पहने जाने वाले कपड़ों को
माना जाता लडकी के चरित्र का पैमाना,
कसी जाती फब्तियां, कहे जाते गंदे-गंदे बोल
फिर भी पड़ता सब कुछ सहना ।

विधाता ने बनाया था
‘औरत’ और ‘आदमी’ को आधा-अधूरा
मगर एक दूसरे का पूरक
कि उनके मिलन से हो जायें संसार पूरा,
फिर ना जाने किसने
असमानता का कड़वा ज़हर घोला
देकर के मर्द को प्रथम दर्जा
औरत को बना अबला दे दिया एक कोना ।


सुश्री इंदु सिंह 


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