१
फिर भी
कितने जन्मों से रुके हुए
मेरे सवाल
और
सवालों से पीठ फेरकर
तुम्हारा चले जाना
जन्मों से ही चला आ रहा...
तुम्हारी पीठ पर आँखें गड़ाए
जवाब की प्रतीक्षा
यह तो जैसे तय ही है
और तुम्हारी उपेक्षा भी
कितनी जरुरी
बिना उसके
कैसे सम्भव हो
अलग-अलग दिशाओं का प्रवास ?
पास आने के सभी जोड़-घट
सिफ़र पर ही आकर रुके हुए
और मेरे सवालों का पर्चा
अंततः कोरा-का-कोरा
कितनी धूप-छाँव को सहा
तूफानों को झेला
फिर भी भीगने नहीं दिया पर्चा कि
सवालों के जरुरी सन्दर्भ
कहीं मिट न जाएँ
लेकिन आँखों से टपकती कुछ बूँदे
लाख मना करने के बावजूद
ढूल गई कागज पर
और फिर पोंछने की हड़बड़ी में
धुँधले पड़ ही गए कुछ सन्दर्भ
अब बिना संदर्भो के
इन सवालों को
कितना भी गड़ा लूँ मैं
तुम्हारी पीठ पर
तुम मुड़कर देख लोगे
यह भरोसा नहीं है
वैसे भी इन सवालों में शायद
तुम्हारी कोई सहभागिता न हो
मेरे ही भ्रम हो पाले हुए
ऊपर से
बिना सन्दर्भों के ये ऐसे सवाल
और भी बेजा हो सकते हैं
तुम्हारी दृष्टि में
और फिर जब
नए ढेर सारे सवाल
मुंह बाएं खड़े दिख रहे है मुझे यहाँ से
तब क्या जूझना न होगा उनसे ?
भले ही वे भी हो सकते हैं
अनुत्तरित होने के दर्प से भरे हुए
फिर भी
फिर भी...?
2
ये बातूनी स्त्रियाँ
कितना बतियाती रहती हैं स्त्रियाँ
जब आपस में मिलती हैं तब
हाथ में पकड़े थैले को
इधर-से-उधर करती हुई
उकताई-सी खड़ी रहती हैं देर तक
खत्म ही नहीं होती है कभी
स्त्रियों की बातें
चौका-चूल्हा, घर-परिवार
घरवालों के उलाहने, बच्चों की चिंताएं,
शिकायतें, तीज-त्यौहार,
बढ़ती हुई महंगाई,
मायके की यादें
बातों का अथक प्रवाह
जैसे लबालब भरी बहती है नदियाँ
खाली-खाली-सी महसूस करती है
तब भान पर आती है अकस्मात
और मुड़ जाती है अपने-अपने घरों की तरफ
किसी अदृश्य समान धागे से बँधी
चुपचाप-सी
बातूनी स्त्रियाँ
घर में कदम रखते ही
फिर से घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं
स्त्रियों के इर्दगिर्द
कई-कई सर्ग
एक-एक सर्ग से
काल की परिधि से परे
किसी इतिहास में दर्ज न होता
रचता जाता है एक अद्भुत महाकाव्य
और
सृजन के आनंद से वंचित
केवल खाली होने के लिए
बस बतियाती ही रहती है
ये बातूनी स्त्रियाँ !
3
जैसे-तैसे उग आने के लिए
मोह की फिसलन भरी राहों को
ठुकराया था निग्रह से भरकर
तब
निर्लिप्त भाव से सब कुछ देखने की
समझदारी थी वह या
एक जिद थी अटूट
कुछ भी न पनप पाए इसकी ?
नकारते हुए हर कदम पर
जीवन की हरियाली को
नहीं उग आएगी अब कोई
खरपतवार भी
मन की जमीन पर
इसे भी बड़ी आसानी से
भूला दिया गया था
तुम्हारी विरक्त आँखों की
भीगी आसक्ति
नहीं तोड़ पाई यह भ्रम कि
ऐसी एकाध झड़ी ही होती है
सराबोर कर देनेवाली
शेष तो सूख जाना
यही
यही होता है अंतिम...
अब जब कि
खुला कर दिया है मैंने
तुम्हारा मार्ग
तब
उस निमिष भर की
हरियाली को रौंदकर
धुँधले होते जाते
तुम्हारे पदचिन्हों तले
उग आये हैं
कई हारे हुए रिश्ते
घास-पात की तरह
जिन्होंने माँगा था कभी
मेरी बंजर जमीन का
छोटा-सा टुकड़ा
जैसे-तैसे
उग आने के लिए
4
अंतर
यथार्थ की अपरिहार्यता कहें या
उब-उचट
स्वीकारना होगा अब
हमारे बीच बढ़ते जाते अंतर को
सच कहो तो खादपानी डालकर
सहेजना होगा इस अंतर को
मनबहलाव समझकर
पास आने के सभी रास्तें
एक-एक करते हुए मिट चले हो तब
किसलिए यह जद्दोजहद
और जो हुआ हमारे बीच
वह इतना भी नहीं था कि
यूँही मसोसकर
नाराजगी से फिरा ले हम पीठ अपनी
या आंसुओं से भिगो दिया जाए
व्यर्थ ही सही चुपचाप गुजरते जाते
इन दिन-रात्रियों को
बहुत कुछ हुआ तो
एकाध कविता लिख लूंगी मैं
या दिन भर में
मेरी स्मृति का कोई टुकड़ा
चमक उठे तुम्हारे
विशाल आसमान में
बस इतना ही...
बहुत कुछ बिगड़ने से रहा
यह जानते हो तुम भी
हालाँकि तुम अच्छे से कर ही लोगे
तुम्हारी व्यस्तता से भरी दिनचर्या में
मेरी कमी का विचार करने का
क्षणिक अवकाश भी
नहीं फटकेगा तुम्हारे आसपास
केवल इतना हो
तुम्हारे अडिग निग्रह का
कुछ अंश पहुँचे मेरे तक
सारा बल संजोकर
तुम्हारी विरक्ति की छाँव का
एकाध टुकड़ा लपेटकर
चल पडूँ मैं भी
इस चिलचिलाती धूप में
फिर भी डरती हूँ कि
मेरे कदम होगे तुम्हारे मार्ग पर
तब पीछे मुड़कर मत देखना तुम
हिकारत से
या सचेत होकर
बदल मत देना अपना मार्ग
मैं धीमे-धीमे रखूंगी अपने कदम
तुम्हारे पदचिन्हों पर
तुम्हारे-मेरे बीच के अंतर को
पूरी तरह से सहेजकर...
5
अपनी ही राह देखते हुए
अपनी ही राह देखते हुए
खूब लगाए गोते
खंगाला खुद को गहरे-गहरे
फिर भी नहीं हाथ लगा
लुप्त हो चुका अपना होना
मजबूत होती जाती दीवारों से
रिसने लगते हैं
दुखों के सोते
तब विस्मय-चकित होकर केवल
देखना रह जाता है शेष
माथे पर व्याप्त अथाह आसमान का
अंदाजा लेते हुए
दहलीज पर ही ठिठकते हैं कदम
और अस्तित्व की परतों को
छिलने बैठो तो
समझ में ही नहीं आता है
किस सिरे से करे शुरुआत
असमंजस से भरकर
छटपटाते हुए
अगर करना चाहो
जड़ों पर प्रहार
तब किस तरह से बेईमान जड़ें
करने लगती हैं आपस में कानाफूसी
और खोपती हैं पीठ में छूरा
लहूलुहान होकर गिरने से पहले
अपनी चपेट में लेना चाहती है
ढीठ बेखौफ दीवारें
और
आवाज देकर पुकारता आसमान
होता जाता है
अपनी पहुँच से दूर-दूर
और भी
धुँधला-काला...
परिचय
सुनीता डागा
कवयित्री और अनुवादक
शिक्षा – एम.ए. ( हिंदी साहित्य )
प्रकाशित साहित्य :
दाह – मराठी दलित आत्मचरित्र ‘होरपळ’ ( ल.सि.जाधव )का हिंदी अनुवाद : अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद |
सुलझे सपनें राही के – मराठी उपन्यास ( भारत सासणे ) का हिंदी अनुवाद : साखी प्रकाशन, भोपाल |
समकालीन मराठी स्त्री कविता (सदानीरा- ग्रीष्मकालीन अंक – २०१९ )
कई महत्वपूर्ण मराठी-हिंदी पत्रिकाओं के लिए निरंतर अनुवाद में संलग्न |
मराठी तथा हिंदी कविताएँ प्रकाशित |
‘दाह’ के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित |
संपर्क-
मो.- ८७६६५८९४३५
श्रीमती सुनीतीजी,बधाई हो।ये अपने आप में एक बडी उपलब्धी है। आपको हम मराठी मे लगातार पढते आए है । हिंदी भाषा में आपकी कवितांए बडे परिप्रेक्ष्य में पढी जाएंगी ।
जवाब देंहटाएंसमकालीन हिंदी कविता की सोच,समज और कथ्य कुछ अलगही है । परंपरा का जादा बोझ वें ढोती नहीं। आपकी वजह हे गाथांतर का मुझे परिचय हुआ। अच्छा लगा।
बहुत आभार आपका आदरणीय।
हटाएंसृजन के आनंद से वंचित
जवाब देंहटाएंकेवल खाली होने के लिए
बस बतियाती ही रहती है
ये बातूनी स्त्रियाँ !
....स्त्री संवेदना के शाश्वत चित्र खींचते शब्द।
बहुत आभार आपका आदरणीय।
हटाएंगाथान्तर पर साझा की गई इन कविताओं का सौंदर्य आकर्षित करता है। स्त्री विमर्श से जुड़ी हुई अनेक रचनाएं समकालीन साहित्यिक जगत की शोभा बढ़ा रही हैं लेकिन सुनीता जी इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सरल भाषा में आम स्त्री की समस्याओं को सहज तरीके से उठाती हैं।
जवाब देंहटाएंसदियों से उठने वाले सवालों पर आज भी समाज पीठ ही दिखाता है और बहुत बातूनी औरतें भी घर में लौटकर पुनः उस घेरे में चुप हो जाती हैं जिसको तोड़ने की कामना हर कवि , हर व्यक्ति को करना चाहिए।
बधाई सुनीता जी। धन्यवाद गाथान्तर इसे साझा करने के लिए।
उपेन्द्र सिंह, राजस्थान
बहुत आभार आदरणीय।
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