शनिवार, 29 अप्रैल 2017

भाषांतर में कुछ मराठी कविताओं का अनुवाद सुनीता डागा जी द्वारा बहुत ही जीवन्त रुप में मूल कविता के अन्तरभावों को समेटे मिला।गाथांतर मराठी की युवा स्त्री स्वरों का स्वागत करता है।

1----

      
                         आस

सूरज के तेजस्वी किरणों को मुट्ठी में भींचे ,
मैंने जन्म लिया, तो कहते हैं ..
रात्रि के मध्य प्रहर में भी फक्क उजियारा था
आँचल से निकलती दूध की धाराओं को सँभाले हुए
माँ ने मुझे सीने से जकड़ कर रखा था
सभी ने पर नाक -भौं सिकोड़े थे, क्युँकि
आठ भाइयों को निगल कर मैने जन्म लिया था ।
सच हैं, कहते हैं कि मेरे पूर्व
आठ बच्चों का गर्भपात हुआ था
माँ के तरल गर्भाशय से फिर मेरा जन्म हुआ था ।

माँ ने कहा, अच्छा हुआ, जो वे मर गए
अरी ! जो माँ के पेट से निकलने में न हो सक्षम
कैसे दिखा पाएँगे वे दुनिया में दमखम ?
सच हैं , कृष्ण से पहले आधा डझन बच्चे भी तो
कुत्ते की मौत मरे थे
कंस ने बिना झिझक उन्हें दीवारों पर दे मारा था
और खुन से लथपथ वे सभी गिर कर पड़े थे
रातों रात भाग निकलने में कृष्ण के तो ,
फिर हाथ - पाँव ही फुल गए  थे ..

पर वह बित्ता भर की लड़की
बिजली की तरह कड़कती
भविष्य का घंटानाद करती हुई
कंस के हाथ से निकल कर , ऊपर-की-ऊपर उड़ गई थी ।
जाते - जाते मुझ से कह गई,
तुम दुर्गा , चंडिका , महामाया,
रणरागिणी , महिषासुरमर्दिनी
लो हाथ में शस्त्र, करो दुष्टों का निर्दालन
हाथ में आसूड़ धरे, नराधमों का शरसंधान

तब से मैंने हाथ में पकड़ी हैं कलम
वार - पर - वार करने ,
अन्याय पर प्रहार करने के लिए
फूलों को देने श्वास, परिंदो को निश्वास
मित्रों , मेरी कलम को अब हैं पसायदान की आस !

मूल कविता - नीलम माणगावे
अनुवाद - सुनिता डागा ।

2----

होते जाते हैं चेहरे अभ्यस्त

तस्वीरों से झाँकती झुठमुठ की हँसी से
और आदी होता जाता है जीवन भी
सायास बटोरे हुए धीरज का
मेगा फिक्सेल चाहे जितना भी बढ़े
भीतर की चोट को आसानी से छुपाए
बड़ी सफाई से मिलाएँ जाते हैं रंग
फीके-सफेद जीवन में
झूठा चेहरा झूठी संवेदनाएँ
झूठी ही होती है प्रतिमा चिपकाई हुई
जिसके आरपार प्रवेश की
होती है सख्त मनाई
स्वयं को भी !
भीतर के मैले-कुचले मलिन जीवन से
मोड़ा जाता है मुँह
बिन बुलाए मेहमान की तरह
और पहनाएं जाते हैं वस्त्र
झिलमिलाते उजियारे के
हाथ मिलाने की औपचारिकता से
हस्तांतरित होती है असुरक्षा
एक से दूजे के पास
दूजे से तीसरे के पास
कुछ पल उफनते रहते हैं मस्ती में
चार लोगों के बीच तब
भीतर-ही-भीतर छटपटाती रहती है
एक घुटन जिसे सहलाया न जा सके
चढ़ती रहती हैं परतों पर परतें
जमता जाता है कादे पर कादा
दिन-ब-दिन
और फिर किसी आकस्मिक पल में
होता है हमला निशब्द मन पर
हरहराकर टूट जाता है अस्तित्व
धराशायी होने के लिए कहाँ
बचता है चेहरा
सिर्फ जार-जार बहते हैं आँसू निरंतर
रणभूमि की भी आदत हो ही जाती है
धीरे-धीरे...

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता - योगिता पाटील

3----

"खड़ा रिक्त पुरूष..!"

घिर ही आता है मेरा आसमान
कहते हो तुम,
यह तो नित्य का ही है...
वैसे,
नहीं समझ पाओंगे तुम...
वैसे भी तुम शुष्क निरभ्र
किसी कसमसाते फूल से पूछो
कैसी होती है भीतर की अकुलाहट...
कैसे जान पाओंगे तुम।
तुम तृण-पात की तरह खड़े
एक रिक्त खाली पुरूष..
पर विश्वास है मुझे
जब तुम भी दुलराओगे
किसी ओस की बूँद को
अपनी अंजुली में
अनायास ही छू जाएँगी
मेरे भीतर की कोमलता तुम्हें
और फिर
तुम्हारे अंदर भी फूट पड़ेगा
सोता कोई ममता भरा...!

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता - पुष्पांजली कर्वे

4----

तुम्हारे साथ बिताई हर रात्रि में
जलाती रहती हूँ मैं
नारीत्व की एक-एक निशानी
तब कहाँ याद आते हैं तुम्हें
चाँद - रौशनी- छिटकी चाँदनी
कुछ भी तो नहीं...

सुंदरता के सभी अहसासों को
ताक पर रख कर
भोग करते रहते हो तुम
मेरे भीतर की अविनाशी आदिमता से

तब भी नहीं दिखाई देती है तुम्हें
मेरे अंदर गाती हुई मीरा या राधा

दिन में परिचित से लगते तुम
हो जाते हो मत्त
पीकर रात्रि का अंधकार
तब विमुढ़-सा मेरा स्त्रीत्व
जम जाता है भैरवी की गहन कालिमा में...

टटोलते रहते हो आदतन
मेरा अंग-अंग
तब भूले से भी नहीं बढ़ते हैं हाथ तुम्हारे
मेरे अस्तित्व की तलाश में

गर्व से भरे सवार होते हो
आसपास के सभी संबंधों पर
जैसे अधिराज्य हो तुम्हारा
रात्रि के कृत्रिम उजियारे में

इस सबके बावजूद
देखती हूँ मैं तुम्हारी आँखों में
भय की एक उग्र रेखा
मिटा कर उसे आ पाओ

तब शायद
शुभ्र उजाले में
नारीत्व की निशानियों को
मैं भी सहेज सकूँ तुम्हारे साथ...

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता - वृषाली विनायक

4---

मत ढूँढो तुम मुझे
उन पुराने गुलाबी प्रेम पत्रों में
जिनमें माँगी है मैंने माफी उन गलतियों की
जो कभी की ही नहीं मैंने
मत ढूँढो
साड़ियों की अलमारी में
या
मोतियों के उन गहनों में
जिन्हें ले आए थे तुम...

तुम्हारी ही गलतियों का खामियाजा भुगतने
भूनती रही तुम्हारे पसंद की मछलियाँ
उस रसोईघर में भी जाती हूँ मैं अब
कभी कभार ही

आजकल घूमती रहती हूँ मैं
किसी कला-दीर्घा में
अमूर्त चित्रों के अर्थ खोजती
कभी
किसी महफिल में सम पर दाद देती
भारी-भरकम किताबों में
सिर को खपाएँ
चाय की प्याली-पर-प्याली खत्म करती
इत्मीनान से
घर के ही किसी कोने में !
गपशप भी लड़ा लेती हूँ कभी बेटे से स्काईप पर
वहाँ के इतिहास और उसके भविष्य
दोनों के बारे में !

समय के साथ
नहीं बदल पाएँ तुम
इसमें मेरा तो कोई कसुर नहीं !

अभी भी कहाँ गया है वक्त...
शहर के बाहर खलिहान में
पुकारती है तोता-मैना की जोड़ी एक-दूजे को
कल ही पढ़ा है मैंने..
क्या चलकर देखें उन्हें आज शाम में ?

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता - योगिनी राऊळ

5----

तुम्हारे जाने के पश्चात
पूरी तरह से बंद
बेड़रूम के दरवाजे को
धकेला मैंने हल्के से
कल पहली बार
तो...
भक्क से घुस आई चाँदनी भीतर
फैल गई मनमुराद
उदास बिस्तर पर,
साथ में गुनगुना जाड़ा
और
आर्त पुकार आकुल कोयल की...

सोचती हूँ तुम्हारी तस्वीर
लगा दूँ बच्चों के कमरे में
मेरे नए बसंत में
तुम्हें व्यर्थ ही
कोई झिझक न हो !

अनुवाद - सुनिता डागा
मूल मराठी कविता - योगिनी राऊळ

परिचय

सुनीता डागा
हिंदी साहित्य में M.A.
हिंदी - मराठी परस्पर अनुवाद करती हूँ
मराठी दलित आत्मकथा का हिंदी अनुवाद " दाह" - इस माह के समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका में इसकी समीक्षा छपकर आई है । लमही" में भी हेमराज कौशिक ने इस उपन्यास का परिक्षण लिखा है ।
डाॅ . केशुभाई देसाई की किताब " फूलजोगनी" का मराठी अनुवाद ।
पत्रिकाओं के हेतु अनुवाद का काम ।
कई किताबों के अनुवाद पर काम चल रहा है ।
अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय की बहुचर्चित पत्रिका " कलाविहार" के लिए अनुवाद का काम करती हूँ ।
अभी हाल ही में स्वतंत्र लेखन के चलते कुछ मराठी और हिंदी कविताएँ लिखी है ।

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