मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

मणि मोहन की कविताऐं

चर्चित कवि और अनुवादक मणि मोहन एक सजग संवेदशील कवि हैं। कहते हैं कविता समय से मुठभेड़ करती है...इस तथ्य का अवलोकन मणि मोहन जी की भाषा और कविता दोनों में किया जा सकता है।
गाथांतर पर आज मणि मोहन जी की कुछ कविताऐं प्रस्तुत हैं।


कविताएं : मणि मोहन

इंतज़ार
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किसी दिन
ड़ाल दूंगा
एक कटोरी आटे के साथ
अपनी थोड़ी सी भाषा भी
किसी मंगते की झोली में

किसी दिन
अख़बार की रद्दी बेंचते हुए
चढ़ा दूंगा
अपनी थोड़ी सी भाषा भी
किसी कबाड़ी की बेतरतीब सी तराजू पर

किसी दिन
ड़ाल दूंगा चुपके से
एक सिक्के के साथ
अपनी थोड़ी सी भाषा भी
आरती की थाली में

किसी दिन
प्रसाद में मिलाकर बाँट दूंगा
अपनी थोड़ी सी भाषा भी
चाटूकारों के बीच

किसी दिन
इस तरह क़िस्तों में
पूरी तरह खाली हो जाऊंगा
अपनी संचित भाषा से
फिर इंतज़ार करूँगा

इंतज़ार करूँगा
नई कोपलों का
हरियल तोतों का
बगीचे से अमरुद चुराते बच्चों का
जाने नहीं दूंगा उन्हें
जब तक वसूल नहीं लूँगा
अमरुद के बदले थोड़ी सी भाषा

इस तरह
इंतज़ार करूँगा
एक नई भाषा का -
तब तक
स्थगित रहेगी कविता ।




कविता
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माथे से बहता हुआ पसीना
कभी - कभी
होंठों तक आ जाता है

कभी - कभी
गालों तक लुढ़कते हुए आँसू भी
आ जाते हैं होंठों तक

कभी - कभी
ऐसे ही बहते - बहते
आ जाता है ख़ून भी
होंठों तक

ऐसे भी कभी - कभी
आता है होंठों तक
नमक का स्वाद

कभी - कभी
ऐसे ही आ जाती है
कविता की भाषा भी
होंठों तक ।


एक दिन
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देखना ! एक दिन
बस हम दोनों ही रह जायेंगे
इस घोंसले में

देखना ! एक दिन
मैं कहूँगा तुमसे -
अच्छा हुआ न
जो घोंसला बड़ा नहीं बनाया हमने

देखना ! एक दिन
इसी घोंसले की देहरी से
हम देखेंगे
दूर आसमान में
सितारों के तिनकों से बना
हमारे बच्चों का घोंसला

देखना ! एक दिन
अपनी नम आँखों से
मेरी तरफ देखते हुए
तुम ज़िद करोगी
वहां चलने की
और मैं कहूँगा -
उड़ सकोगी
इतने प्रकाश वर्ष दूर ...

रूपान्तरण
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हरे पत्तों के बीच से
टूटकर बहुत ख़ामोशी के साथ
धरती पर गिरा है
एक पीला पत्ता
अभी - अभी एक दरख़्त से

रहेगा कुछ दिन और
यह रंग धरती की गोद में
सुकून के साथ
और फिर मिल जायेगा
धरती के ही रंग में

कितनी ख़ामोशी के साथ
हो रहा है प्रकृति में
रंगों का यह रूपान्तरण ।

ईश्वर
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क्या भिंची हुई मुट्ठियों के साथ
नहीं हो तुम  ?

क्या तुम्हारा जी भी मितलाता है
पसीने की गंध से  ?

अपने हक़ के लिए लगते नारों की गर्जना सुनकर
क्या तुम भी कानों में ठूंस लेते हो ऊँगली ?

क्या प्रार्थना के अलावा
हर आवाज महज एक शोर है ?

क्या प्रार्थना के बाहर
कोई वजूद नहीं तुम्हारा ?

और अंत में
एक सूचना -
भिंची हुई मुट्ठियों में रहता है
हमारा ईश्वर ..

बांधे रहना
अपनी मुट्ठियाँ
खुल गईं
तो फिसल जायेगा
हमारा ईश्वर ।


ईश्वर की दिनचर्या

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अगर रहता होगा ईश्वर
तो कितने सुकून से रहता होगा
इस छोटी सी मड़िया में
जो आबादी से दूर
जंगल में बनी हुई है

शायद किसी एकांतप्रिय व्यक्ति ने
बनवाई होगी यह मड़िया...
पता नहीं कौन सी मनौती पूरी हुई हो उसकी
और किसी नौसीखिए कारीगर ने
बनाया होगा इसे बरसों पहले

कितने आराम से
कट रहे होंगे दिन
न आरती का झंझट
न सन्ध्या-वन्दन का इंतज़ार
और न भोग की लालसा

जब मन करता होगा
निकल जाता होगा जंगलों में
खा लेता होगा
गिलहरी के कुतरे हुए बेर
या सुआ -कटेल अमरुद

घूमता रहता होगा
यूँ ही बेसबब जंगलों में
जब थक जाता होगा
तो लौट आता होगा
अपनी मड़िया में

और फिर
नींद में आती होगी पूरी सृष्टि
नदी , वृक्ष , पहाड़ , झरने
धरती , समुद्र , आकाश , तारे
फूल , तितली , स्त्री और बच्चे
सपनों में आती होगी पूरी सृष्टि

सूर्य की पहली किरण के साथ
खुल जाती होगी उसकी नींद
( हो सकता है
देर तक सोते हों महाराज
इतवार को
मेरी तरह  )
फिर दतौन करता  होगा
नीम या बबूल की
और फिर नहाता होगा
किसी पहाड़ी झरने के नीचे खड़े होकर

कितना आनंद है
इस धरती पर
कितना आनंद है
मनुष्य की तरह जीने में
कम से कम एक बार तो
जरूर सोचता  होगा ईश्वर

कितना सुखद लगता है
इस तरह
ईश्वर के बारे में सोचना ।

अगर अपनी पत्नी की बात पर भरोसा करूँ
तो ईश्वर का एक रूप
कुलपति का भी है -
किसी विराट विश्वविद्धालय का कुलपति
जिसका एकमात्र काम
इम्तिहान लेना है

जरा - सा  दुःख
एक इम्तिहान
जरा - सी तकलीफ
फिर एक इम्तिहान

वह रोज़ जिक्र करती है
इन इम्तिहानों का
मैं भी रोज़ समझाता हूँ उसे
कि पढ़ना होगा
तैयारी करनी होगी
जैसे इम्तिहानों की तैयारी करते हैं
हमारे बच्चे

रोज़ समझाता हूँ उसे
सिर्फ प्रार्थना के दम पर
पार नहीं होगी नैया ।


इतवार की एक सुबह
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यह एक अलग तरह की सुबह है
और सुबहों से एकदम अलग
देसी गुलाब की तरह खिली हुई
इतवार की सुबह

कांव - कांव करता हुआ एक कौआ
अभी - अभी उड़ा है किसी दरख़्त से
एक पल के लिए
मैं अपने अधिकारी के बारे में सोचता हूँ
और खिलखिलाकर हंस पड़ता हूँ
यह कल्पनाओं की सुबह है

बगीचे की बाउंड्रीवाल पर
दौड़ती हुई निकल जाती हैं
दो नन्हीं गिलहरियां . . .
उफ़्फ़ ! मैं तो भूल ही गया उनसे पूछना
सेतु - समुद्रम की कथा -
भूलने से याद आया
यह तो भूलने की सुबह है

एक - एक कर बुहारना है अभी
सप्ताह के बाकी तमाम दिन
और फिर बगीचे में गिरे हुए
सूखे पत्तों के साथ
उनमे आग लगानी है -
हांलाकि मुझे पता है
वे फिर पैदा होंगे
अपनी ही राख से
फिनिक्स की तरह . . .

बहरहाल
फिलवक्त मुझे
सिर्फ इस सुबह के बारे में सोचना है
जो खिली हुई है
अपराजिता की लता में
नीले रंग की तितली बनकर ।

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