गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

                         Nirdesh Nidhi

                               

नाम - निर्देश निधि       
  जन्म - 3 जून,1961
स्थान - जसपुर नैनीताल,   
   शिक्षा – एम॰ फिल.  {इतिहास}
लेखन विधा – कविता कहानी, संस्मरण ,समसामयिक लेख। विभिन्न स्तरीय पत्र - पत्रिकाओं जैसे दैनिक जागरण ,अमर उजाला,  पंजाब केसरी,  कादंबिनी, अविराम, विज्ञान गरिमा सिंधु  आदि में कवितायें, लेख प्रकाशित । हंस’, पाखी विपाशा’, बिंदिया , कथा (मार्कण्डेय) ,पूर्वकथन, बुलंदप्रभा आदि में कहानियाँ प्रकाशित। वर्तमान मेँ – बुलंदप्रभा त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका मेँ उपसंपादक | साहित्यिक गतिविधियों एवं सामाजिक कार्यों में निरंतर सक्रियता।

निर्देश निधि,                                          
पता-द्वारा - डॉ. प्रमोद निधिविद्या भवनकचहरी रोडबुलंदशहर,(उप्र) पिन- २०३००१              मोबाइल .... ९३५८४८८०८४ (9358488084)   ईमेल- nirdesh.nidhi@gmail.com                                                                   

-आज फिर चली हैं गोलियां

माँ बाबू जी को जागा रही है सुबह सुबह
बड़ी हड़बड़ाई रुआंसी घबराई
आज फिर घाटी में चली हैं गोलियां
बिददों के वालिद हो गए शिकार
उसकी यतीम चीखें
उभर आईं मेरे माँ के चेहरे पर
उसकी माँ का फटा कलेजा फंस गया है
मेरी माँ के कलेजे में
आज बिददों के वालिद की बारी थी
कल कौन जाने किसकी होगी
मैं बचपन से ही जी रही हूँ
घाटी में आए दिन मरना
कभी सैनिकों का कभी अपना
मन सहमा सहमा रहता है हरदम
आज तक ले नहीं सकी हूँ एक भी उन्मुक्त किशोरी सांस
माँ तो बूढ़ी हो रही है
यही सब देखते सहते
फिर भी उसे अभी तक आदत नहीं पड़ी है मौत की
क्योंकि आदतें पड़ती हैं वही जो
किसी न किसी तरह का आराम देती हैं
पर मौत
? वो भी घर के सिरोधार की
किसी तरह का कोई आराम दे सकती है क्या
  

 

    

    बड़े भैया


ढलक गए थे अकस्मात ही अंतिम ढलान
तब बड़े भैया को देखा था मैंने
रातों रात बाबा बनते
खोलकर आँखें सी लिए थे होंठ
पी लिए थे सब दुख नीलकंठ बनकर महान
ढोए थे जिम्मेदारियों के अनगिन गट्ठर
चौबीस बसंतों के अदने अनुभवों के कच्चे कंधों पर 
तब सकड़ों बार देखा था उन्हें
गृहस्थी के हवन कुंड की समिधा बनते
अपने सुख चैन हमारी खाली हथेलियों पर रखते
हमारे उदास चेहरों पर सिलते अपनी मुस्कान 
भैया के भीतर उपजे हरे हरे घाव
कहाँ देख पाई थी तब मैं अंजान
तभी तो टीसते रहते हैं मेरे अंतस में
वो अब तक अविराम
सोचती हूँ ,
क्या भैया की अभिलाषाओं में
कभी लहराया ना होगा उनके सिर पर
माँ का स्नेहिल आँचल
क्या बाबा की शीतल छाँव को
ढूंढा न होगा कभी अबोध आयु ने उनकी
दुनियाँ की तपती धूप से होकर हैरान
सींचकर अपने ही थमें आंसुओं से खुद को
नरम पौधे से भैया ने    
उगाया था खुद में दरख्त का विधान
ओढ़ा दिया था सबको साया घना
अपने डैनों को देकर वितान।
    

8 -  हमारा किसान

धरतियों के चंद टुकड़े
नन्हें शिशु सहोदर की तरह
पालता है हमारा किसान
बैल के संग बैल बनता
मिट्टियों के सौंधे इत्र में सना
नन्हें बीजों से भरता धरतियां
आसमानों पर लगता टकटकी
अतिथि मेघ के आतिथ्य को व्याकुल
बाट जोहता हर घड़ी
कड़ी मेहनत उपजती खेत में
लहलहाती फसल बन
तब मिट्टियों की संगिनी संग
खेतों के बरसाने में
खेलता क्षणिक खुशियों की होलियाँ
पंचतारा संस्कृति का पेट भरता
खुद मेहनतों के खाये हुए शरीरों पर
अंगोछा अटकाए
खाता अधपेट ही
धान की निर्धन रोटियाँ
छिनी हुई लाड़ली धरतियों के
मुआवज़ों की जंग लड़ता
फटी एड़ियों से
न्यायालयों के गलियारे घिसता
रह जाता बिन उगे बीज सा
नए समाजों की बंजर धरतियों में
हमारा किसान ।

   गरीबी

ये गरीबी भी
बड़ी कालजयी अवस्था है
वसुधैव कुटुंभ्कम की पक्षधर
घुमक्कड़ी में प्रवीण
हठीली आधुनिका है
तभी तो,
जा बसती है कहीं भी
किसी भी
द्वीप-महाद्वीप
देश-परदेश
शहर-कस्बे या गाँव में
प्रबल आर्थिक समृद्धियों के
पैमानों के, शीर्ष की छाँव में
उसके लिए हर जगह
घर आवंटित है
कभी भी,
किसी को रख छोड़ती है
अपनी अछूत, बदरंग छाँव में
जबरदस्ती गले पड़ी
भयानक विभीषिका है
घुमक्कड़ी में प्रवीण
हठीली आधुनिका है ।

 




   मैं निष्काम


मैं निष्काम          
सभी कर्मों से दूर
फलों से भी बहुत दूर निकाल आया हूँ
ढूँढता हूँ द्वार मोक्ष का
तुमने मुझे माना ब्रह्मलीन
पर क्या मैं हो पाया हूँ ?
अशरीरी हुआ बार बार
पूछता हूँ मुझसे ही मैं
यहाँ मिट गई हैं
प्राण और निष्प्राण की रेखा
सारे बंधनों से उन्मुक्त हुआ हूँ अब भी क्या
भ्रमित हुआ सोचता हूँ मैं
सिर्फ काया तो नहीं था मैं
क्यों बिलखती हैं अब
पार्थिव मेरी काया पर अनगिनत काया
कुछ सच्ची कुछ माया
बिलखन में  जीवित कायाओं की
अब भी क्यों उलझता हूँ मैं
निर्लिप्त हुआ भी
आसक्त क्यों हूँ ?
स्वयं से ही स्वयं पूछता हूँ मैं ।
            

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