शनिवार, 26 जुलाई 2014

/////संवेदनाओं के स्वर////



बाइस फुटी गुलाब नें पास में पनप रह बोनसाई बरगद से कहा दद्दू कैसा लग रहा है। आश्रय प्रदाता आज खुद छाँव मे पल रहा है। शुक्रिया गुलाब भाई आपनें पहचाना तो मै अपनी पहचान खोता जा रहा हूँ। कालान्तर मे क्या हुआ करता था और क्या होता जा रहा हूँ।। बसते थे हमारी फुनगिंयों पर पंछियों के गाँव के गाँव। कब की हमनें धूप की परवाह जब पथिको को सुहाती मेरी छाँव।। पवन में तेरी मादक गंध सुरभित करती मेरा ठाँव। पखेरु कलरव मय संगीत बरबस घुंघरू मेरे पाँव।। नियति की मात्र कठपुतली बन। कर रहा मै जीवन यापन।। सच कहा बडे भाई समझा निजता का महत्व। प्राण विहीन कैसा असतित्व।। बडे दिखनें की चाहत में गंधहीन हो गया हूँ। तुम्हे छोटा करते करते खुदही छोटा हो गया हूँ।। आदिम जनित बीमारी हमें होती जा रही है। हमारी जात जन्म खोती जा रही है।।



गोप कुमार मिश्र"


(चित्र गूगल से साभार )

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