गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

समकाल : कविता का स्त्रीकाल -20

स्त्री कविता में जिस राजनैतिक चेतना का अभाव आलोचक बयां करते रहे हैं ,यदि उसे तलाशना हो तो वर्तमान पीढ़ी में अनुराधा सिंह,सुजाता तेवटिया,ज्योति चावला,नताशा,मोनिका कुमार,जसिन्ता केरकेट्टा, आरती,अनुपम सिंह,रूपम मिश्र,सीमा आजाद, आदि कवयित्रियों की कविताओं को पढ़ा जा सकता है।
दृष्टि सम्पन्न यह स्त्रियाँ शासन सत्ता से हर मोर्चे पर मुटभेड़ को तत्पर हैं और अपनी कविताओं में सत्ता की चालाकियों, बर्बरताओं को दर्ज कर रही हैं।वन्दना चौबे इसी क्रम में जुड़ती हैं और अपनी कविता में लिखती हैं -

"सत्ताशाह वे ही नहीं थे
जिन्होंने जला दिए पुस्तकालय
किताबों के वरक़ जिन्हें 
अपनी मौत के फ़रमान लगा करते थे।
किताबों की जिल्द के कोने जिनकी छातियों में धँसते थे
किताबों को जलाने वाले
इतिहास के मूर्ख हत्यारे थे जिन्होंने
ग़ैर-किताबी दुनिया के नक़्शे खींचे।

फिर धरती घूम गई
जंगलों की खेती की गई
जवान पेड़ों को निर्बाध काट दिया गया सरेआम
नदियों के गले मरोड़ दिए गए
और उनकी लुगदी बनाकर किताबों की खेप तैयार की गई"

 तनी हुई मुट्ठियोंवाली यह कवयित्रियाँ स्त्री कविता का वह मुखर स्वर हैं जो न केवल पितृसत्तात्मक समाज से मुटभेड़ करती हैं बल्कि अपनी कविताओं से उस नई भारतीय स्त्री को गढ़तीं हैं जो अपने स्व को पहचानती है और औरत को देह के परिकल्पना से मुक्त कर व्यक्ति की स्थापना में सहयोगी हैं।

(टिप्पणी- सोनी पाण्डेय)



वन्दना चौबे की कविताएँ


1.
राष्ट्र औज़ारों से भरा एक अनादि कारख़ाना है

वर्दी और बूट पहनाकर 
हत्या को शहादत में बदला जाता है।
और इबादतगाहों में सिद्ध किया जाता है उस मृत्यु को अध्यात्मिक!
चूंकि धर्म है कि संस्कृति से लासा लगाए चलता है
इसलिए अबके उत्तर-मनुज  इस लोकोत्तर-सुकून के
आईलैंड पर छुट्टी मना रहा है।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यते' वहाँ देवता काफ़ी रमते हैं।

वीरता के गीतों में ज़मीन का एक टुकड़ा पूजनीय है
इसीलिए भव्य होता जाता है एक मंदिर
शौर्य के नाम छाती ठोंककर 
कितनी ठसकदार होती जाती है हथियारबंदी!
भीतरख़ानों में खरर-खरर पैने किए जा रहे  हैं पुराने प्रक्षेप-अस्त्र
राष्ट्र औज़ारों से भरा एक अनादि कारख़ाना है
जिसका आदि विद्रोही बोल-बम की यात्रा पर है
और रास्ते भर मोबाइल में व्यस्त है

उधर शांति के सहदूत 
पर्यावरण और मानवीयता पर चिंता कर रहे हैं
इधर उनकी चिंता से धरती की कोख में रहने वाले जीवों के
रंध्र गनगना जाते हैं।
बूटों की एक धमकी से 
निर्वासित हो जाती है ज़मीन में रहने वाले जीवों की पूरी नस्ल 
गिलहरियों की बस्ती मिट जाती है।

हिरणों की कुलांचे फॉरेस्ट सेंचुरी में दौड़ लगा रही हैं
कोई कहता है कि हिरण का मांस सबसे स्वादिष्ट होता है
कोई ये कि हिरण की आंखें सजल और कातर-सुंदर
कातर सुंदरता के कारण ही हिरणी की महिमा है 
वेटनरी डॉक्टर सिद्ध करता है कि 
हिरण और ख़रगोश का कलेजा जन्मजात नरम होता है
प्रभुओं का भोज्य

इधर बींसवीं सदी का एक लेखक कह गया कि
अब तक हिरणों का इतिहास शिकारियों की शौर्यगाथाएं हैं।
शाख़ पर लटके हुए चमगादड़ बिसूरती हँसी हंस रहे हैं
काले बियाबान में चमकती उनकी काली खंडहरी आंखों में 
इतिहास धारावाहिक की तरह बह रहा है।

जंगी बाड़े में बदलती हुई धरती से कभी सूरज की ओर देखो!
सूरज एक सुलगती अंगीठी है
जंगल जिसके अनुभव से पककर जवान हुआ है
और राष्ट्र कंटीले तारों से घिरा एक बाड़ा 
जंगल जिसकी जड़ खोद देगा एक दिन
और यही नदियाँ सरहदों की सेंधमारी करेंगी।
●●

2.

वैचारिक उर्फ़ वैवाहिक संगोष्ठी
----------------------------------------
जैसे होता है मुहूर्त शुभ-लग्न का
वैसे ही गोष्ठियों का भी एक मुहूर्त हुआ करता है 
बचपन के गाँव-जवार के बड़े परिवारों की तरह आयोजन
विश्वविद्यालय-परिवार/महाविद्यालय परिवार का

कहने वाले कहते हैं कि इतना पढ़-लिखकर भी
इन लोगों को हर जगह घर-परिवार ही दिखाई पड़ता है
ख़ुद इनके भीतर का सामंती मन टूटा नहीं अब तक
बहुत तर्क कीजिए तो निहलिस्ट कहकर नॉस्टालजिक हुए 
इस मन पर पानी फेर दिया जाता है।

इस तरह एक ज़माना एक ज़माने के सिर पर लात रखकर आगे बढ़ जाता है
तब होती है अहमियतों की तकरार 
छपते हैं कार्ड....
संयोजक, सचिव, संरक्षक
प्रेषक, स्वागताकांक्षी, दर्शनाभिलाषी
तय होते हैं मेहमानखाने सभागार
किराये के वाहन
तनते हैं कनात तम्बू-तोरण 
जैसे तय होते हैं मांगलिक-लॉन
हलवाई-राशन.....
होती हैं तैयारियाँ...ख़रीददारियाँ
लड़कियां लिखती हैं पेपर..
और जाती हैं पार्लर 
आमंत्रित होते हैं विचाराधीश-सुधिजन
होता है उबटन-बासन और उनका तेल-तासन 

अंखुवाएं मसों वाले लड़के सीखते हैं गुरु-ज्ञान
सपाट छातियों वाली गुनी लडकियाँ बनाती हैं रंगोली

सयाने छात्र लाते हैं रेलवे-स्टेशनों से वक्ताओं की खेप
जैसे लड़के लाते हैं बारातियों की गाड़ी, परिजनों का सामान
छात्राएँ रखतीं हैं प्रतिभागियों की सूचनाएँ तमाम
ज्यों लडकियाँ लगाती रहती हैं लग्न के दिन के लिए 
सेट कपड़ों-गहनों का..घर भर की औरतों के लिए 

खिचड़ी बाल..बढ़ी तोंदो वाले परिवारी मरद है आयोजक
जो रखता है अपने पास अटैंची की चाभी 
महँगे तगादों की चिकचिक और दुनिया भर के बिल और रसीद, गोप-भरे कमरों की कुंजी

मंच पर आसीन होते हैं नाम-गाम-साम के साथ 
बुद्धिजीवी-बद्धजीवी 
साथ के संगत के लिए 
लहराते आँचल और अदा के साथ 
मंचासीन 
नवेली-अधेड़ भाभियाँ सलहजें और सालियाँ 

कुलगीत-स्वागत गीत गाती
रोली-टीका लगाती हैं सजी-धजी लडकियाँ 
जैसे मंगलगीत गाती हैं प्यार भरी छोरियाँ 

उधर दूर का चश्मा चढ़ाये 
क़ैद अपनी साड़ियों में वरिष्ठ शिक्षिकाएं 
जैसे चाचियाँ मामियाँ मौसियाँ 
कुलगीत-मंगलगीत गाती लड़कियों के करती हैं दुपट्टे ठीक
लगाती हैं पिन
सिखाती हैं बात-बात पर संस्कार
बताती हैं गुर कम ख़र्च में कैसे किया जाता है आयोजन
अतिथि वक्ताओं से ज़्यादा तर्क नहीं किया जाता

कुछ सेवानिवृत्त विचारक भी मौजूद किए जाते हैं हैं
घर के बाबा-दादा की तरह
मोतियाबिंद-चश्मा पहने हुए 
पुराने अनुभवी 

गोतिनें छानती हैं पूरियाँ
छात्राएँ गाती हैं मधुर कुलगीत
छात्र रात-रात जागकर लाते हैं अतिथियों की खेप 
आयोजक सीने से लगाये रखता है छोटा-सा चमड़े का काला बैग 
इसी बहाने सालों बाद सब एक दूसरे से मिलते हैं
नई-पुरानी यादों की गप्प और ठहाके चलते हैं देर रात
हँसी मज़ाक फ़ब्ती-मस्ती

होता है एक मांगलिक अनुष्ठान पूरा 
हफ़्ते भर बिखरा रहता है सामान 
भहरा गए तम्बुओं में इधर-उधर कटी-फटी प्लास्टिक-प्लेटें
निचुड़े हुए गिलास 
बचे-खुचे खाने की बासी नॉस्टेलिजिक गंध
माएँ बांटती हैं साड़ी-उपहार 
जैसे संयोजक बाँटता है पत्र-प्रमाण
●●

                            चित्र- सोनी पाण्डेय
3.

ख़ानदान
----------------
उस औरत की नसें तार की तरह थीं
और उसके सपनों में सुकरात आया करता था
वह उससे कहती कि
दर्शन किताब में बघारना बहुत शौक़ीनी है
गली-चौराहे पर दर्शन आज़माओ तो जाने

एक और पुरानी औरत की नस भी तार की तरह थी
जिसे पागल भगजोगनी कहकर सब भगा देते थे
 गाँव के बहरियार
इसी तरह एक और और पुरानी औरत 
जो नौ में ही ब्याह दी गई थी पैंतीस बरस के आदमी के साथ
जाड़े की सहवासी रातों में निठुर जाती थी सख़त 
तख़त के नीचे छिप जाती थी बच्ची

एक औरत अलापती बीत रही थी
एक औरत सरापती बीत रही थी

उन सब की नसें तार की तरह उलझी हुई थीं गुत्थमगुत्थ।
लाल-नीली चटख चिंगारी दौड़ती थी उनमें
नमालूम किसमें कौन सी रग आवाजाही करती रही

ये सारे तार 
टाइम मशीन की गलियाँ हो गए एक दिन
उन गलियों के ख़ून से जो लड़का हुआ
उससे उस स्त्री को प्रेम हुआ
जिस बहुत पुरनिया औरत की नसें तार की तरह थीं
और जिनमें इलेक्ट्रॉनिक टकराहटों की आवाजाही थी
बेचैन 
लाल-नीली चिंगारियों सी चिटखती
भौतिक
●●

4.

तुम्हारी देह की मैंने खेती की है!


सख़्त बंजर मिट्टी को नम किया 
नन्हें केंचुओं ने ज़र्रा ज़र्रा भुरभुराया है
सुंदर 
तो चींटियों ने मिट्टी में मीठा मिलाया है।
कुम्हारी हाथों ने मेढ़ गढ़े और
मेढ़ से रिसते पानी को सींचने का रस्ता भी बनाया

बढियाई नदी के खर-पतवार छानकर अलग किए हैं
लहरों पर उतराए झाग-फेन किए हैं साफ़
और गहरी सांझ डाल ली है वहीं पर मचान एक।

नाख़ूनों के हल और हथेली के हेंगे से
तुम्हारी देह की मैंने खेती की है
अपने चुम्बनों के रोपे हैं बीज
सीना खोदकर पेड़ लगाया है एक
रानों पर बनाई हैं क्यारियाँ।

तुम्हारी आँखें तितलियों जैसी 
अपने होंठों के फूलों से उन्हें मिलने दिया है।
●●

5.

तुमने बनाए ढाँचे और खाँचे
और उन्हें क़ायदन अलगाये रखने के लिए
निर्मित कीं खपच्चियां और दरांतियाँ
एक खाँचे में किताबें रखीं
एक मे दुनिया
एक खाँचे में परिवार रखा  दूसरे में प्रेम
एक खांचे में दिन रखा और दूसरे में रात
एक में गीत रखे और एक मे दाग़
एक में भूख रखी एक में राग
एक में चतुर-स्पष्टता और दूसरे में लपेट-लाग
एक में बुद्धि जमाई तो दूसरे में हृदय चपोत कर ही रख दिया
जितने ही खण्ड किए तुमने जीवन के
उतना ही विखण्डित होता गया तुम्हारा चेहरा
पिकासो की पेंटिंग की तरह
आँख कहीं छितराई पड़ी है
और होंठ क्षत-विक्षत फटकर फेंका गए हैं 
टांगे कहीं बिखरी हैं तो बाँह उखड़कर उधर निर्जीव पड़ा है
बटोर सको तो बटोर लो अब भी आत्मा की नसें
और उनका ऊन का गोला बनाकर 
दे दो उन्हें 
जो जीवन की सलाई पर बुनाई का गीत गाते हैं।
●●


                           चित्र- सोनी पाण्डेय
6.

जे.एन.यू की लडकियाँ


उनके कमरों में ज़रुरत के ज़रूरी सामान के साथ 
कभी नियत नहीं होता किसी मंदिर का स्थान
वे उत्सव की तरह कभी नहीं मनाती उपवास
उन्हें याद तक नहीं रहते तीज-त्यौहार तक

आदत में शामिल है उनका मुँह पोछ लेना
आस्तीन से..
कुर्ते के कोर से.
उनके झोले में नहीं मिलता
कढ़ाईदार तहाया हुआ रुमाल

अक्सर तो वे बाल भी ठीक से नहीं बनातीं 
जाने क्या तो सुख मिलता है उन्हें उड़ते रहने देने में
और कौन सा सुकून इस बेतरतीबी में!
उनके बटुए में नहीं मिलती कोई कंघी
किताबों में मिलता नहीं कोई सूखा गुलाब

सलवार-दुपट्टे के रंगों की समरूपता का सौन्दर्य
पल्ले नहीं पड़ता उनके
वे विरूप-समरूप के करती रहती हैं कई प्रयोग 
उनके दुपट्टे शायद ही कभी मेल खाते हों 
उनके कुर्तों से

अजीब है कि
झुकती हुई वे कभी नहीं छापती हथेलियाँ
अपनी छातियों पर
अलार्म-घड़ियों के खौफ़ से दूर
वे समय-कुसमय खूब सोती है निश्चिन्त
इस शर्त पर भी कि-
मेस से छूट जाये तो जाये उनका खाना

घुटने और कुहनियाँ समेट, दम साधे, एक बराबर
वे नहीं संभाल पातीं हैंडल
चलाते हुए बाईक
वे मुख़ातिब होती हैं सीधे हवा से

दीवारों पर इनके टाइम-टेबलों की 
नहीं होती क़तार
अपने स्वयं के समय पर वे बिखराए रहती है
अनगिनत क़िताबें, चित्र और पन्ने
पाँव फैलाये पूरी जगह लेकर
धूल पर बैठी पढ़ती हैं वे इतिहास
इसलिए गुमटी में बैठ 
ख़ूब निठल्ली रहती हैं वे भरे बाज़ार

तयशुदा वक़्त और जगह पर
नहीं मिलेंगी वे 
ना ही सुई की नोंक के हिसाब से
चलती ही मिलेंगी आपको
उनमे और आपमें यही जैविक फ़र्क है।
●●

7.

1】
मेरी कोख में पला वह मेरा पहला प्रेमी है
धूप में लेटा तेल में चुपड़ा 
बिल्कुल वस्त्रहीन नन्हा-सा मर्द
जिसकी देह से पुराने सरसों की गंध आती है
चिहुंक चिहुंक कर देखता है हर चीज़
गति और लय पर एकाग्र
नारीवाद की किताबों के बीच नन्हें क़दम रखता
उनके बीच धीरे धीरे
लोग-बाग, जंगल-जीव, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पत्ते, 
छोटे-छोटे इतिहास और अर्थशास्त्र की
आहिस्ता-आहिस्ता अपनी किताबें खोंसता है।

【2】
स्कूल जाने के पहले
बिस्तरे पर खड़ा जब वह बनियान पहनता
दोनों की किताबों की तरह
दोनों के क़द बराबर हुए जाते हैं
हमउम्र और साथी सा!
रस्तों की आवारा भटकन में
वह कितने ही सवाल पूछता जाता
ढाबों और सड़क-पट्टी दुकानों पर जो लोग इतना 
खाना बनाते हैं
वही खाना वे ख़ुद क्यों नहीं खा लेते!
इतने सारे तो बैंक हैं रास्ते भर
तो सभी लोग बैंक से पैसा क्यों नहीं ले लेते!
घर के बिल्कुल अदृश्य रह गए कोनों में बैठकर खेलता
मना करने पर कहता
कि इन जगहों पर कोई नहीं बैठता
इसलिए यहाँ बैठता हूँ
और आपको पता है !
इस छूट गए कोने से देखने पर हमारा घर
एकदम दूसरे एंगल से दिखता है।

【3】
अक्सर वह छोटे-छोटे पौधों के बीच
चटाई डालकर पढ़ने बैठ जाता
पढ़ते पढ़ते जाने कब ज़मीन से पेट के बल चिपककर 
पौधों के पेड़ होने की कल्पना करता
उसने बताया कि कुछ चीज़ों को देखने के लिए
ज़मीन से लिपट जाना होता है
इतना छोटा हो जाना होता है कि पौधों के इर्द गिर्द
चींटी बनकर आज़ाद घूमना होता है
मिट्टी में बिल बनाकर रास्ता खोज लेना होता है
जंगली ख़रगोशों की तरह तहख़ानों के भीतर से
हवा की गंध को सूंघ लेना होता है
उसने बताया कि दुनिया का एक जीव समुद्री घोड़ा
नर अपने बच्चों को अपने पेट से पैदा करता है
और यह कि
माँ-पेंग्विन अण्डा देने के बाद समुद्र में चली जाती है
सारे पिता-पेंग्विन ही बच्चों को बड़ा करते हैं
शेर कुछ नहीं करता
थोड़ा बहुत बच्चों की देखभाल भर करता है
और बच्चे शैतानी करें तो मार तक देता है उन्हें
सारा काम शेरनियां करती हैं
वे बहुत मेहनत से शिकार करती हैं
लेकिन शिकार में पहला हिस्सा शेर का
दूसरा बच्चों का और भोजन का तीसरा हिस्सा उन्हें मिलता है
उसने बताया कि 'लॉयन किंग' नाम ग़लत है
और इस फ़िल्म का यह डायलॉग सबसे ख़तरनाक है
कि 'लकड़बग्घों का पेट अंधा कुंआ है'
लकड़बग्घे काले हैं और इतने भूखे हैं कि
शिकार की मजबूत हड्डियां तक चबा जाते हैं
फिर भी भूखे रह जाते हैं
और जाने कितनी ही बातें
इस दुनिया के समानांतर उसने बना ली एक दूसरी दुनिया बिल्कुल जीवित जंगल 
जहां जानवरों के बीच 
उसके खिलौनों में शामिल थे घर के टूटे फूटे समान
फटे हुए दफ़्ते और फ़ोम
टूटी हुई कलमें, कटी फटी पेंसिलें
फेंकी हुईं रस्सियां, टूटे हुए तार
फेंक दिए गए छोटे छोटे धागों के सिरे
घर का कबाड़ जीवित रहता था उसके पास
एक तो छोटी-सी सन्दूकची भी थी
जिसमे गैंडे की टूटी हुई नाक
हाथी की कटी हुई सूंड या एक कान
बाघ की कोई पूंछ
किसी चिड़िया की नन्ही चोंच
डायनासोर की उखड़ी हुई टांग
सहेजी हुई उस संदूकची को कभी-कभार वह खोलता
इस इंतज़ार में कि एक दिन
इन सब को गोंद से जोड़ दूंगा।
●●

                         चित्र- सोनी पाण्डेय
8.

जद्दनबाई ज़िद्दी-धुनी कलाकार
एक साथ न जाने कितने काम कर रही थीं
वे गीत लिख रही थीं, गा रही थीं-बजा रही थीं
नाच रही थीं घूम-घूमकर
अभिनय, निर्देशन सब एक साथ करना पड़ रहा था उन्हें
और न जाने कब कितने ही वाद्य-धुन-मुद्रा-संवाद इन्हीं प्रयोगों में ईजाद होते गए
रजवाड़े संगीत से उपजे इस लोकप्रिय शून्य को कुछ सांस लेने भर की तैयारी में
नाच-गाने की इस दुनिया को कला के जोखिम तक ले आने रुपहले पर्दे पर कौन नाचता-गाता उन दिनों

तब शमशाद हिन्दी फ़िल्म की सचेत पार्श्व गायिका हुईं
नूरजहाँ और सुरैया को गायिका कहें कि नायिका!
वे दोनों ओर आवाजाही करती रहीं

एक लोकप्रिय कला को जिन्होंने मुसलसल किया
हिन्दी-हिन्दू के भयावह साए में चलने वाले लोग
उनके इतिहासों से मुसलमान छान रहे हैं

हिन्दी ही नहीं 
हिन्दू फिल्मों की नायिका भी वे ही रहीं हैं
पहले पहल धरम-पुराण को चाँदी के पर्दे पर उतारते हुए
वे एक बनते-बिगड़ते देश के निर्णायक मुहाने तक पहुँची अपने किरदारों में
माहजबीं बानो और मुमताज़ ज़ेहन बेग़म
हाँ!वही!
मीना कुमारी और मधुबाला!
उनकी घुंघराली लट ही मत देखिए फ़िलहाल
छोड़ दीजिए आँचल निचोड़ती उनकी मुस्कान को दम भर

नसीम बानो हिन्दी सिनेमा की पहली सुपरस्टार हैं
'ब्यूटी क्वीन' ही नहीं हैं वे
तीस के दशक में जब
फिल्मों में रामलीला की तरह 
औरत के क़िरदार के लिए मर्द को चिकना-चिकनाकर
फिट किया जा रहा था
तब नसीम बानो तलाक़ पर सिनेमा कर रही थीं!

याद हैं मुग़ल ए आज़म की निग़ार सुल्ताना का दमकता ग़ुरूर?
'किसी दिन मुस्कुराकर ये तमाशा हम भी देखेंगे'!
बस!उसी ग़ुरूर के कारण
वे खलनायिका दिखाई पड़ती थीं
कुछ ऐसी ही रहीं मीनू मुमताज़ भी
'साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी'
घरतोड़ू औरत!

और शक़ीला के तो कहने ही क्या
'सी.आई.डी' में मोटर चला रहीं हैं
एक ज़ुबैदा बेग़म भी रहीं उन दिनों
जिल्लो बानो, अमीर बाई, रशीद अशरफ़, मुनव्वर सुल्ताना।
जिस 'आलमआरा' को हम इतिहास बनाये बैठे हैं
पहली बोलती फ़िल्म!
उसकी बुनियाद में रही हैं ये सब स्त्रियां
रुपहले पर्दे पर जिनकी अदाएं सभ्य-सुख देती थीं
लेकिन सभ्य-सुख के सभ्य-बाज़ार को बेधकर
भारतीय सिनेमा की पहली स्त्री-निर्देशक फ़ातिमा बेग़म हैं

निम्मी यानी नवाब बानो के चरित्र तो अक्सर ही सिनेमा के नायक को  सहेजने-संभालने के लिए बनते थे
दूसरी औरत
सेवादार औरत
कामगार औरत
मुख्य नायिका की पूरक क़िरदार बनकर
जो मुख्य और हाशिए का भेद बहुत धीमे से बता देती थीं

'प्यासा' में दो ही तो थामे रहीं कवि गुरुदत्त को
वहीदा रहमान और कुमकुम उर्फ़ ज़ैबुन्निसा
दो नाचने गाने वालियों ने
कवि की मौत पर महाभोज करने वालों के बीच
कविता को वहीदा रहमान ने ग़रीब नाचने वाली के क़िरदार में क्या ख़ूब बचाया

और श्यामा!!
वे ख़ुर्शीद अख़्तर रही हैं
उनके बिना पर्दा कभी पूरा नहीं पड़ता था
अगर ताजमहल याद पड़ती हो तो
ज़हीन-सी वीना यानी तजौर सुल्ताना
और ज़बीन जालिल का
प्रशांत चेहरा भी याद हुआ जाता है

सुसंस्कृति में यह सब नाच गाना से 
ज़्यादा नहीं था
तो भला अच्छे घर की स्त्री पर्दे पर इस तरह कैसे नाचती!

देविका रानी, कानन देवी और दुर्गा खोटे
जैसी कला-सुघड़ता बनने के पीछे 
हिन्दी सिनेमा के उस आड़े-गाढ़े वक़्त में 
वे ही थीं जो न जाने क्या तो कर रहीं थीं
कि जिनके कारण आपको अंततः 
नाच-गाने को कला का नाम देना पड़ा

चूंकि इधर नाम बदलने का चलन ख़ूब ज़ोरों पर है तो
कह दूँ कि
नर्गिस भी भारतमाता का एक चेहरा हैं
दृश्य से अलोप हो गए मर्द की परवाह छोड़
कंधे पर हल थामे
ग़रीब, ख़ुद्दार और मेहनतकश
जिनका नाम फ़ातिमा रशीद है।
●●

9.

तख़्तापलट

सत्ताशाह वे ही नहीं थे
जिन्होंने जला दिए पुस्तकालय
किताबों के वरक़ जिन्हें 
अपनी मौत के फ़रमान लगा करते थे।
किताबों की जिल्द के कोने जिनकी छातियों में धँसते थे
किताबों को जलाने वाले
इतिहास के मूर्ख हत्यारे थे जिन्होंने
ग़ैर-किताबी दुनिया के नक़्शे खींचे।

फिर धरती घूम गई
जंगलों की खेती की गई
जवान पेड़ों को निर्बाध काट दिया गया सरेआम
नदियों के गले मरोड़ दिए गए
और उनकी लुगदी बनाकर किताबों की खेप तैयार की गई

किताबों की ताजपोशी हुई
किताबों के महोत्सव हुए
किताबों के युवराज चुने गए
युवराजों ने तलवार उठाई पुराने सत्ताधारी के ख़िलाफ़
और ख़ुद सत्तानशीन हो गए।
●●

10.

घरिनी का घर भूत का डेरा


उसकी रसोई में एक ही कढ़ाई है
बड़ी बार वाली
दो हत्थों वाली 
राख से ख़ूब रगड़ रगड़ कर माँजी गई
गोल खुरदरी चित्तीदार चमकती हुई

उसमे वह सब्ज़ी पकाती है
दाने, फलियाँ बीज पत्तीदार सब
भून भूनकर
तरीदार
फिर धो पोछकर उसी में 
देर तक पकाती है धीमी आँच पर कभी कढ़ी
उड़ेलकर उसी कढ़ाई से फिर
वह उसमे कभी छान लेती है पूरियाँ पकौड़े 
बच्चो के लिए पापड़ बड़ी और जाने क्या क्या

फिर खौलते तेल को पलट देती है किसी दूसरे बासन मे
झट ठण्डा पानी डालकर तुरत 
इतनी गुनी कि
माँजकर दुबारा इस्तेमाल लायक बना लेती है
रात के खाने के लिए तैयार कर लेती वही बर्तन बार-बार
गहमा गहमी के घर में
कई बार तो दूध भी उबाल लेती है उसी में

अब उसे क्या पता कि
एक महान कवि प्रतीक-उपमा रच गया है
महान उक्ति
'कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है'

घर जब सो जाता है 
राख-अंधेरे में
उसकी रसोई में खरोंचदार कढ़ाई के दो हत्थे
दो आँखों की तरह निर्निमेष चमकते हैं 
रातभर
●●

                                वन्दना चौबे

परिचय

 वन्दना चौबे
कवि और आलोचक
नया ज्ञानोदय, वागर्थ, आलोचना, प्रगतिशील वसुधा, बनास जन, हिन्दी समय, संबोधन और अपूर्वा पत्रिकाओं में समय समय पर लेख/साक्षात्कार आदि प्रकाशित।
 कविता-संग्रह की योजना।
बनारस के दो सौ वर्षों के रचनात्मक इतिहास पर बेहद पठनीय उपन्यास 'बहती गंगा' पर आधारित शिल्पायन प्रकाशन से संदर्भ-पुस्तक 'बहती गंगा में काशी' 2009 में प्रकाशित।

 संप्रति बनारस के आर्य महिला पी.जी. कॉलेज (BHU) सहायक प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत।
 [9532773542]
jnuvandana@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. अर्थ की लय से गतिमान कविताएँ ,कवयित्री की निगाह की जद में सब समाये हुए हैं चींटी के बिल गर्माहट-बच्चे की सम्मोहक दुनियासे लेकर तमाम सामाजिक -राजनैतिक -सांस्कृतिक त्रासदियों तक ।
    अक्षय ऊर्जा से भरी ये कविताएँ हमें भी ऊर्जा से भर देतीं हैं , उद्वेलित और उत्प्रेरित करती हैं

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