सोमवार, 19 जून 2017

सन्तोष तिवारी की कविताऐं

संन्तोष तिवारी:

*नंदिग्राम में भरत*
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निरा ऐकान्तिक स्थल
नंदिग्राम में
अहर्निश ध्यानमग्न
व्रतधारी वह योगी
तपाए कंचन सा दीप्तमान कुटिया में
मुद्रा पद्मासन
रट रहा...राम राम

यह तो विक्षिप्त अयोध्या की थाती है
रामानुज भरत की जय हो|
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*दो*

हे राम! तुम्हारे अयोध्या त्यागते ही
कल- कल बहती सरयू को
काठ मार गया
महाअपशकुन!! टूट टूटकर गिरने लगे तारे
अयोध्या की किस्मत में
अमावस ही अमावस

भरत का गला रुँध गया  है
वे दसों दिशाओं में टेर लगा रहे

अब राम कहाँ लौट कर आने वाले थे
राम की राह देखते देखते
अयोध्या की आँखें पथरा गयीं|
़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़

युवा कवि सन्तोषकुमार तिवारी की कविताओं की दो किताबें...फिलहाल सो रहा था ईश्वर एवं अपने अपने दण्डकारण्य (ऑनलाइन) आ चुकी है | ये राजकीय इंटर कालेज..नैनीताल में प्रवक्ता हिन्दी पद पर सेवारत हैं |
अयोध्या में पैदा हुए कवि की सात लक्ष्य कविताएं आप सबकी नजर है|

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*पर्वतारोही*

पर्वतों पर रहने वाले लोग
सभी पर्वतारोही नहीं होते
पार करते ही रहते परिन्दे पहाड़ों- पर्वतो को
परिन्दे पर्वतारोही नहीं कहलाते
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अपनी अपनी भूख
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एक भूखा
दूसरे भूखे से कहता है
मुझे रोटी चाहिये
दूसरा उसे हिकारत से देखते हुए बोला
भूखा तो मैं भी बहुत हूँ
मुझे पूरी धरती
समूचा आसमान चाहिये|
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*बची रही पृथ्वी तो....*

हवा
पानी
और हरापन यदि बचा रहा
तभी बची रह सकेगी पृथ्वी
बचा रहेगा
जीने के वास्ते आक्सीजन|
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*बूढ़ी गाय*

शहर जैसी रौनक गायब है
अयोध्या के चेहरे से
बूढ़ी गाय के सूखे थन जैसी अयौध्या
अब पाँच साला वैतरणी पार का
खोलती है रास्ता|
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*जूता*

कुछ लोग जूतें में
पाँव नहीं
गर्दन डाल देते हैं
वे ऐसा हड़बड़ी मे नहीं करते |
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मेरी नजर में तो
दुख सुख दोनों
पैर के दोनों जूते हैं|
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*तुमने ऐसा क्यों कहा होगा?*

जाने क्यों
तुमने ऐसा क्यों कहा होगा
प्यार आया है
मैं सारे काम-धाम छोड़
आँगन से चौपाल तक
देख आयी, एक जैसा सन्नाटा था
मैं जान गयी तुम शरारती ही नहीं
झूठे भी हो|
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*चीख सुनायी नहीं पड़ती जब*

ऐसा अक्सर तो नहीं
कभी - कभी सभी के साथ होता है
जब हमें चीख सुनती तो साफ है
परंतु हम अनसुना कर देते हैं
हमे लहूलुहान आदमी का
छटपटाना विचलित नहीं करता
क्या करेंगे साब! खामोशी का तो आलम ये है
कुछ लोग समर में लड़ते हुए नहीं
नींद में मर जाते हैं|
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*आम्रपाली की यादों में बुद्ध*
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*एक*

कोई यत्न नहीं किया बुद्ध ने
बस, छूटता गया सब
मुट्ठी में रेत कहीं ठहरता है?

बुद्ध की ताकत रिक्तता है|
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*दो*

तुम्हें याद है क्या
कितने अपमान
कितनी ठोकरें
कितने हमले और
कितना ताप, शीत और बरसात तुमने झेले....
निस्संग रहे फिर भी|

बुद्ध का पूँजी तो मौन है
वे चोट का हिसाब कहां तक रखें
और क्योंकर रखें

उनके पास तो
यात्राओं के किस्से और नगरवधू
आम्रपाली की प्रेमपूर्ण यादें हैं|
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*तीन*

ध्वनियों के पार जा चुके बुद्ध
कभी श्लोकों के अन्वय में उलझे नहीं दिखे|

मौन रहकर मृत्यु का
जश्न मनाना सिर्फ़
उन्हीं को आता है|
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*सन्तोषकुमार तिवारी*
*प्रवक्ता, राजकीय इण्टर कॉलेज, ढिकुली( नैनीताल)*
*09456137315*
*09411759081*

रेखाचित्र...अनुप्रिया

2 टिप्‍पणियां:

  1. पाठक से बतियाती कविताएँ---
    लिखते रहिए हमारे लिए ---💐

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  2. संतोष तिवारी जी की कविताएं एक ओर पारंपरिक सृजन के धरातल पर खड़ी हैं तो दूसरी ओर समकालीन जीवन का दिग्दर्शन करवाने में माहिर इनका रचना कौशल ,अभिव्यक्ति पक्ष बेजोड़ है।..हार्दिक बधाई...

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