बुधवार, 3 दिसंबर 2014

सीमा अग्रवाल के कुछ नव गीत ......

रचनाकार        : सीमा अग्रवाल
माता           : श्रीमती प्रभा गुप्ता
पिता           : आयुर्वेदाचार्य स्वर्गीय बनारसीदास गुप्ता
जन्म स्थान         जामनगर
जन्म तिथि           : 8 अक्टूबर, 1962
मोबाइल नम्बर      : 7587233793
E mail                      : thinkpositive811@gmail.com

सीमा अग्रवाल का मूल पैतृक स्थान कानपुर, उत्तर प्रदेश है l संगीत से स्नातक एवं मनोविज्ञान से परास्नातक करने के पश्चात पुस्तकालय विज्ञान से डिप्लोमा प्राप्त किया l आकाशवाणी कानपुर में कई वर्ष तक आकस्मिक उद्घोषिका के रूप में कार्य किया l विवाह पश्चात पूर्णरूप से घर गृहस्थी में संलग्न रहीं l पिछले कुछ वर्षों से लेखन कार्य में सक्रिय हैं l इन्ही कुछ वर्षों में काव्य की विभिन्न विधाओं में लिखने के साथ ही कुछ कहानियां और आलेख भी लिखे l 
लेखन क्षेत्र       : गीत एवं छंद, लघु कथा
प्रकाशित कृतियाँ  :
1.   राजस्थान से प्रकाशित बाबूजी का भारत मित्र में दोहे एवं कुण्डलियाँ
2.   शुक्ति प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संकलन “शुभम अस्तु” में गीत संकलित
3.   श्री दिनेश प्रभात द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका गीत गागर में गीत प्रकाशित
4.   मॉरिशस गाँधी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित वसंत एवं रिमझिम पत्रिकाओं में रचनाओ का प्रकाशन
5.   ई-पत्रिका “साहित्य रागिनी” में गीत संकलन

१.....
तुम्हारे स्वप्न में गुम हूँ
अभी सच में न आ जाना 
मेरी कश्ती है नीली झील के 
ठहरे हुए जल पर 
कई मोती से पल है झूलते 
नयनो के शतदल पर
ज़रा मग जोह लेना 
और थम जाना घड़ी भरपर 
किसी बेचैन सागर की 
अभी हिलकोर मत लाना
ज़रा सुन लूँ वो अनहद 
बज रहा जो मौन के स्वर में 
अदृश्यों के विरल कुछ दृश्य
भर लूँ शून्य अंतर में
विमोहित सी ही रहने दो
सुनो चैतन्यता मेरी
किसी संज्ञान की खट से 
अभी सांकल न खटकाना 
२ आह्वान ...
दीप इक ऐसा जलाओ 
वक्त की दहलीज पर 
कर सके जो 
बेधड़क संवाद
हर अँधियार से 



२...
सिर्फ झिलमिल ही नहीं बस
कर्म होता दीप का 
तोड़ना अंधत्व भी तो 
धर्म है संदीप का 

रोप दो बीये किरण के
हर गली हर द्वार पर 
खिल उठे मन प्राण
ज्योतित 
भाव के शृंगार से 

एक भी कोने में जीवित
तम का यदि अवशेष है 
तो अधूरा दीप का हर यज्ञ
हर उन्मेष है 

व्यर्थ सारे मंत्र 
सारी साधनाएं व्यर्थ हैं 
जो न अनुप्राणित हो
मानव प्रीत के
संस्कार से 


३...
 तुम अधूरे स्वप्न से
होते गए 
और मैं होती रही 
केवल प्रतीक्षा 

कब हुयी ऊँची मुंडेरें
भित्तियों से 
क्या पता ?
कब भरी मन निर्झरी 
चिर रिक्तियों से 
क्या पता ?

दिन निहोरा गीत 
रचते रह गए 
और रातें अनमनी 
करती रहीं 
केवल समीक्षा 

काल गढ़ता ही रहा 
बस प्रश्न सूची 
अनवरत 
यत्न सम्मुख हल सभी 
धारे रहे पर 
मौन व्रत
हर सही उत्तर गलत 
घोषित हुआ 
साँस बारम्बार देती 
ही रही 
केवल परीक्षा



4...
हाँकहो
मैं सुन रही हूँ ,
परज़रा सा वक़्त देना
दूर कल उस दीवले में
एक लौ बाली थी
कच्चे से दिए में
आँधियाँ शायद निकल कर
चल पड़ी हैं
इसलिए बस,
ओट उनके वास्ते मैं बुन रही हूँ
हाँकहो
मैं सुन रही हूँ
पंछियों के दल गए थे
कल इधर से
कितने कोमल पल गए  थे
गुनगुनाहट से भरा
आकाश है अब
आँख मूंदे,
कुछ उन्ही गीतों के तिनके  चुन रही हूँ
हाँकहो
मैं सुन रही हूँ..


५...

उँगली धरे हुए अधरों से 
कैसे गीत सुनाऊँ
शब्दों के
हक़ पर पाबंदी
अर्थों पर
रोपी हैं बाड़ें
नीली कर दी
देह सोच की 
नव प्रयोग की
लेकर आडें
गुमसुम गुमसुम सुर में कैसे 
राग खुशी के गाऊँ 
व्यासों को
मुट्ठी में जकड़े
बैठे हैं
सँकरी पटियों पर 
बांधो से है
साझेदारी 
चर्चाएँ
बहती नदियों पर 
ठकुराई फागुन पर काबिज 
कैसे रंग उड़ाऊँ 



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